Friday, October 28, 2016

यमुनोत्री

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25 मई को सुबह 7.10 बजे हमारी इण्डिगो कार हरिद्वार से यमुनोत्री के लिये रवाना हो गयी। लगभग पूरा रास्ता पहाड़ी है और साथ ही चढ़ाई वाला भी। हम देहरादून–मसूरी–बड़कोट के रास्ते होकर गये। मई का महीना था लेकिन सफर बहुत ही आनन्ददायक रहा। ऊंचे पहाड़, नदी, झरने इत्यादि ने मन मोह लिया।
हरिद्वार या ऋषिकेश से यमुनाेत्री जाने के दो रास्ते हैं– पहला ऋषिकेश से देहरादून,मसूरी,बड़कोट होते हुए जानकी चट्टी तथा दूसरा ऋषिकेश से नरेन्द्रनगर,चम्बा,टिहरी,धरासू,बड़कोट होते हुए जानकी चट्टी। हम पहले रास्ते से गये तथा दूसरे रास्ते से वापस आये। इस रूटीन का यह फायदा है कि देहरादून–मसूरी भी घूम लेते हैं तथा वापसी में टिहरी झील भी देख लेते हैं।
हमें पहाड़ों की रानी मसूरी भी घूमने की भी इच्छा थी। लेकिन उत्तराखण्ड के चार धाम की यात्रा का एक बँधा–बँधाया रूट होता है और इसमें अधिक परिवर्तन की गुंजाइश न के बराबर होती है। रास्ते में मसूरी के निकट कैम्पटी फाल पर भी हम रूके व रोपवे की सवारी भी की। अच्छा रहता यदि हम पैदल ही नीचे जाते और थोड़ा टहलते–घूमते। लेकिन समय की कमी थी क्योंकि हमें यमुनोत्री पहुंचना था इसलिए हमने रोपवे का सहारा लिया और बचा हुआ समय नीचे घूमने और फोटो खींचने में लगाया। नीचे झरने का दृश्य तो बहुत ही सुन्दर है लेकिन भीड़ इतनी थी कि झरना कम और आदमी अधिक दिखायी दे रहे थे। हवा भरी ट्यूब पर बैठ कर लोग झरने के नीचे बनी झील में उछल–कूद मचाये हुए थे। लोगों की आवाजाही की वजह से चारों तरफ पानी और फिसलन हो गयी थी। बहुत संभलकर चलना पड़ रहा था। थोड़ी भी असावधानी हुई नहीं कि गये पानी में और बिना मंत्रों के ही हो गया झरना–स्नान। वास्तव में कैम्पटी फाल पर जाने वाले लोग केवल पिकनिक मनाने के लिए ही आये थे और हमारी तरह कहीं और जाने का उनका प्लान नहीं था और यही ठीक भी था। क्योंकि यहां सुबह पहुंच कर शाम तक रहा जाय और टहला–घूमा जाय तो ही इसका आनन्द आयेगा। वैसे यहाँ यह बता देना ठीक रहेगा कि इस कैम्पटी फाल से भी बहुत सुन्दर झरने हर्सिल में हैं जिसकी लोकेशन बहुत अच्छी है और वहां भीड़ भी नहीं है लेकिन हर्सिल बहुत दूर है और केवल झरना देखने के लिए वहां जाना थोड़ा मुश्किल है।

कैम्पटी फाल के बाद यमुनोत्री के रास्ते में कई जगह सीढ़ीदार खेत और सुन्दर दृश्य भी दिखे और मैं रूककर कुछ फोटो लेना चाहता था लेकिन हर बार ड्राइवर की यही सलाह होती कि आगे इससे भी सुंदर दृश्य मिलेंगे। लेकिन यह सलाह सरासर गलत थी। सुन्दर दृश्य तो वास्तव में बहुत मिले परन्तु हर जगह की अपनी सुन्दरता होती है और फोटो खींचने के लिहाज से तो किसी सुंदर स्थान की प्रतीक्षा करना बिल्कुल ही मूर्खतापूर्ण बात होती। दरअसल हम ड्राइवर के साथ "दो धाम वाले अनुबन्ध" में बँध चुके थे। यह बात अन्त में समझ में आई और मैंने सोच लिया कि आगे की यात्राओं में ड्राइवर से पहले ही तय कर लेंगे,कि हे चालक महोदय,हमें गाड़ी में केवल दौड़ाते ही रहेंगे कि फोटो खींचने के लिए भी गाड़ी रोकेंगे। इस पूरी यात्रा में हमने ढेर सारी फोटो खींची,फिर भी मन नहीं भरा।
जानकी चट्टी केवल चट्टी भर ही है। यहां स्थायी रूप से कोई नहीं रहता। बहुत कम संख्या में पक्के मकान हैं। टिन शेड से ढके हुए ज्यादा। जिस शुभम पैलेस में हम रूके वह यहां की शायद सबसे अच्छी बिल्डिंग रही होगी। यहां दो बेड का कमरा 1000 में तथा तीन बेड का 1200 में था। कोई मोलभाव नहीं। कमरे में रजाई–कम्बल भी थे। बिजली आयेगी तो मिलेगी अन्यथा शाम 6–12 तथा सुबह में दो घंटे जेनरेटर चलेगा। चूंकि हम लोगों के हरिद्वार पहुंचने के 1–2 दिन पहले उत्तराखण्ड में कई जगह भयंकर आंधी–तूफान ने अपना काम किया था इसलिए बिजली व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी थी। बड़े शहरों जैसे हरिद्वार, देहरादून वगैरह में तो बिजली सप्लाई बहाल हो चुकी थी, लेकिन छोटी छोटी जगहों का कोई मालिक नहीं था। सो, हमें भी जेनरेटर का ही सहारा था। कमरे के मोलभाव में किसी मुरौव्वत की गुंजाइश नहीं दिख रही थी। एक टिन शेड वाले होटल में हमने 1000 में पांच बेड वाले कमरे का भी पता किया था। यह थोड़ा सस्ता था लेकिन उसकी पूरी तरह से टिन शेड की बनी संरचना हमें पसंद नहीं आयी। 
जानकी चट्टी में दुकानें और रेस्टोरेन्ट तो केवल झोपड़ियों व प्लास्टिक के नीचे ही बन गये हैं।

वस्तुतः जानकी चट्टी केवल तीर्थयात्रियों के आने की वजह से ही बस गयी है। यात्रियों की जरूरत के हिसाब से टिन शेड में छोटी–छोटी दुकानें खुल गयीं हैं। मैं शाम को जानकी चट्टी को घूम कर देखना चाहता था लेकिन पत्नी एवं बच्चियों के थके होने की वजह से ऐसा नहीं हो सका। यह शाम हमने यमुना किनारे एक छोटे से सीढ़ियों वाले सुन्दर घाट पर फोटो खींचते हुए बितायी। वहां से लौटकर हम भोजन की व्यवस्था में पड़े। जिस होटल में हम रूके थे, वहां खाना 100 रूपये में था। आगे एक प्लास्टिक टेन्ट वाले  होटल में 80 में हमने खाने का आर्डर दिया। पेमेण्ट की कोई जरूरत नहीं। इतना तो विश्वास है ही। उसने आधे घण्टे बाद सम्भवतः 7.15 बजे हमें खाने के लिए बुलाया।
हम वापस लौट गये। बच्चों को ठंड लग रही थी और हल्के जैकेट पहनने के बाद भी वे कांप रहीं थीं। वहां के दुकानदारों व घोड़ेवालों इत्यादि ने स्वेटर पहन लिए थे। 7.30 बजे जब हम खाना खाने पहुंचे तो खाने में अभी भी कुछ देर थी और हमें ठण्ड लग रही थी। थोड़ी देर बाद मोमबत्ती की रोशनी में हमने खाना आरम्भ किया। खाना ठीक था। लेकिन बुरा वक्त अभी हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। जिसका डर था वही हुआ। खाना खाते समय ही छोटी बेटी स्नेहा की तबीयत खराब होने लगी। उसे ठण्ड लगने लगी। मैंने पत्नी के साथ उसे तुरंत होटल भेजा। 5 मिनट के अन्दर मैं भी भोजन का पैसा चुका कर होटल भागा। बच्ची ने दवा खाते वक्त ही होटल के कमरे में कम्बल पर उल्टी कर दी और कम्बल खराब हो गया। एक दिन पहले हरिद्वार में खाये गये तैलीय छोले–भटूरे, समोसे, थकान और ठण्ड ने अपना सम्मिलित असर दिखाया और अब मेरी दोनों ही बच्चियां कांपने लगीं। मैं सारी बातें बताते हुए होटल मैनेजर के पास अतिरिक्त कम्बल माँगने गया लेकिन अधिक भीड़ की वजह से उसके पास कम्बल नहीं बचे थे। कुछ क्षणों के लिए तो मैं चेतनाशून्य हो गया। दोनों को गोद में लेकर रजाई में सोना पड़ा तब जाकर राहत मिली। इस बीच एक और समस्या आ गयी। रात में बड़ी बेटी अकेले बाथरूम गयी और चक्कर आने की वजह से गिर पड़ी। उसे काफी चोट लगी। अब हम टेंशन में थे और यात्रा का सारा मजा किरकिरा हो गया। किसी तरह भगवान का नाम लेते हुए रात बीती। इस सारी परिस्थिति के लिए मैं खुद को जिम्मेदार मान रहा था। चाहकर भी मैं पूरी रात ठीक से सो नहीं सका।

जानकी चट्टी में नहाने के गरम पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। आर्डर करने पर 30 रूपये में एक बाल्टी पानी मिलता वह भी 15–20 मिनट बाद। और हमें नहाने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हो रही थी।
26 मई की सुबह अब चढ़ाई की चिन्ता थी कि मन्दिर तक की 6 किमी की दूरी कैसे तय होगी। बीती रात की बातें मेरे मन–मस्तिष्क में चक्कर लगा रही थीं। सो मैंने घोड़ेवालों से बात की। घोड़ों की बुकिंग लोग 25 मई की शाम से ही कर रहे थे, इसलिए मुझे लगा था कि घोड़े आसानी से नहीं मिलते होंगे। लेकिन सुबह घोड़ेवाले खुद सिर पड़ रहे थे। मैंने 1200 प्रति घोड़े के हिसाब से 3 घोड़े बुक कर दिए और तभी एक घोड़ेवाला 1000 में ही बुक करने को मेरे पीछे पड़ गया। तब मुझे बिना मोलभाव किये घोड़े बुक करने की गलती का एहसास हुआ। लेकिन मैंने बात कर ली थी।
इसके बाद हमने एक झोपड़ी वाले डाक्टर साहब से स्नेहा के लिए कुछ दवायें लीं। डाक्टर साहब की फीस कुछ ज्यादा ही थी और उनकी दवा ने भी कुछ फायदा नहीं किया। डाक्टर साहब के यहां साधु–सन्यासियों के लिए इलाज फ्री था।

7.30 बजे हम घोड़े पर सवार हो गये। मैं और पत्नी एक–एक घोड़े पर और दोनो बच्चियों को एक घोड़े पर बैठाकर शाॅल की सहायता से दोनों को आपस में बाँध दिया गया। क्योंकि छोटी बच्ची के गिरने का डर था। घोड़े पर सवार होना और पहाड़ी रास्ते पर यात्रा करना मेरे लिए तो नया अनुभव था ही पत्नी और बच्चों के लिए बहुत बड़ा अनुभव था। रास्ते का सफर बहुत ही राेमांचक था। बायें हाथ सीधा खड़ा पहाड़ और दायें भयानक खाई। नीचे न ही देखना बेहतर था। हां दाहिने दूर की तरफ देखने पर यमुना की संकरी घाटी बहुत ही सुन्दर दिखायी दे रही थी। मेरे विचार से पूरे दिन का समय लेकर इस ट्रेक पर पैदल यात्रा करना बहुत ही आनन्ददायक रहा होता। लेकिन बच्चियों की वजह से मैं पैदल जाने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। रास्ते में दो बार घोड़ों को पानी पिलाने व आराम देने के लिए रूकने के बाद हम 9.30 बजे ऊपर पहुंच गये।
ऊपर हमने केवल एक घण्टा बिताया। दर्शन किया, प्रसाद लिया, फोटो खींचे और वापस हो लिए। हमको जल्दी थी अतः हमने न तो गरम कुण्ड में स्नान किया, न ही चावल पकाया। मन्दिर के चारों तरफ का दृश्य स्वर्गिक है। आने का मन ही नहीं कर रहा था। मैं रूककर और फोटो खींचना चाहता था पर बच्चों की वजह से जल्दी लौटना पड़ा। दिक्कत मौसम की भी थी। धूप में ही खड़े होने की इच्छा कर रही थी। छाये में जाते ही ठण्ड लगनी शुरू हो जा रही थी। घोड़े की सवारी हम सब ने पहले–पहल ही की थी अतः दिक्कत भी हुई और मजा भी आया। चढ़ते समय तो लगा कि घोड़े की चढ़ाई बहुत कठिन है परन्तु उतरते समय लग रहा था कि उतराई तो और भी कठिन है। प्लेन की बजाय सीढ़ियों पर उतराई तो और भी कठिन और खतरनाक लग रही थी। कभी–कभी तो कलेजा मुंह को आ जा रहा था।

मन्दिर में भीड़ हमारे अनुमान की तुलना में बहुत कम थी। वजह यह थी कि हम घोड़े से बहुत जल्दी पहुंच गये थे और पैदल वालों की भीड़ अभी पीछे थी। नीचे से ऊपर तक लोगों की कुल संख्या देखकर तो नहीं लग रहा था कि भीड़ बहुत भयंकर है, परन्तु ऊपर मन्दिर के पास कम स्पेस और चढ़ाई वाला 6 फुट का संकरा रास्ता,जिसके एक ओर खड़ा पहाड़ तथा दूसरी और गहरी खाई तथा इसी रास्ते पर पैदल यात्रियों, घोड़े वालों व पालकी वालों की भीड़ कम भीड़ को भी ज्यादा महसूस करा देते हैं।
जानकी चट्टी से यमुनोत्री की चढ़ाई का 6 किमी का रास्ता बहुत तीव्र चढ़ाई वाला, रोमांचक, आनन्ददायक तथा खतरनाक है। यमुना की घाटी बहुत ही संकरी है। भूगोल का विद्यार्थी होने के नाते मुझे लगा कि यहां की चट्टानें बहुत कठोर हैं जिस कारण नदी अपनी घाटी को बहुत चौड़ा नहीं कर पायी है,साथ ही पानी भी बहुत साफ है (गंगा की तुलना में)। संकरी घाटी के सीधे ढाल के कारण यहां रास्ता बनाना भी कठिन ही होगा। जानकी चट्टी से लगभग 40 किमी पहले स्थित बड़कोट (यहां से गंगोत्री के लिए घूमते हैं),से यमुनोत्री की ओर का रास्ता बहुत ही संकरा व घुमावदार है जिस कारण यात्रा बहुत ही राेमांचक हो जाती है। गाड़ियों की स्पीड पर भी ब्रेक लग जाता है और यह 20–30 की ही रह जाती है। बड़ी गाड़ियों के लिए तो और भी मुश्किल है।
यमुनोत्री की चढ़ाई व उतराई दोनों ही हमने घोड़े से तय की अतः जल्दी नीचे आ गये और उसी दिन गंगोत्री यात्रा के पड़ाव उत्तरकाशी रवाना हो गये। परन्तु यह दूरी अगर पैदल तय की जाती तो हो सकता है जानकी चट्टी में ही उस दिन भी रूकना पड़ता। वैसे ड्राइवर का कहना था कि एक जगह दो दिन नहीं रूकेेंगे। खैर, बच्चों की तबियत की वजह से हमें स्वयं ही जल्दी हो गयी थी और हम 26 मई को ही दिन में 1 बजे उत्तरकाशी के लिए रवाना हो गये।

कैम्पटी फाल पर रोपवे में
फाल के नीचे जुुटी भीड़


दूसरी तरफ पहाड़ पर टंगे मकान

रास्ते में सीढ़ीदार खेत
ट्रेकिंग की तैयारी में स्नेहा


यमुनोत्री के रास्ते में यमुना किनारे

जानकी चट्टी में यमुना किनारे
जानकी चट्टी से दिखते बर्फीले पहाड़
शाम होने के साथ रंग बदलता यमुना का पानी



घोड़े की सवारी
नीचे से इस चढ़ाई को देखकर रोमांच हो उठता है
यमुनोत्री मंदिर के पास थके–मांदे यात्री

ऊंचाई से पहाड़ भी छोटे दिखने लगते हैं

यमुनोत्री मंदिर



ऊपर से यमुना की यही संकरी धारा आती है
रास्ते का रोमांच देखिए


बादलों से लुकाछ्पिी खेलते बर्फ और पहाड़



अगला भागः गंगोत्री

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

1. हरिद्वार–यात्रा का आरम्भ
2. यमुनोत्री
3. गंगोत्री
4. हरिद्वार और आस–पास

यमुनोत्री मंदिर का गूगल फोटो–

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