Friday, May 5, 2017

मिरिक–प्रकृति की गोद में

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13 अप्रैल–
कल शाम तक हम दार्जिलिंग पहुँच चुके थे और दार्जिलिंग से साक्षात्कार हो चुका था। थके थे इसलिए जल्दी सो गये। दार्जिलिंग की सड़कों पर घूमने के बारे में नहीं सोच सके। इसलिए आज सीधे दार्जिलिंग से बाहर मिरिक की ओर निकल पड़े। यहाँ रूककर प्लान बनायेंगे तो बहुत समय नष्ट होगा। मिरिक घूमने के लिए किसी विशेष प्लानिंग की जरूरत नहीं है। मिरिक जाने के लिए चौक बाजार बस स्टैण्ड जाना पड़ता है। या यूँ कहें कि चौक बाजार बस स्टैण्ड ही दार्जिलिंग से बाहर निकलने के लिए मुख्य द्वार है।
यहां से लगभग सभी स्थानों के लिए छोटी बसें या शेयर्ड टाटा सूमो या इसी तरह की अन्य गाड़ियाँ उपलब्ध हैं। दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन से चौक बाजार बस स्टैण्ड की दूरी लगभग 1 किमी है। रास्ता अगर मालूम नहीं है तो पूछते–पूछते यहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है। लगभग सीधा रास्ता है।
सुबह के 7 बजे से ही यहां से गाड़ियाँ मिलनी शुरू हो जाती हैं। सीटों की बुकिंग के लिए छोटे–छोटे काउण्टर बने हुए हैं। काउण्टर से एडवान्स में टिकट बुक करा सकते हैं या फिर सड़क पर जा रही कोई गाड़ी जिस पर मिरिक की नेम प्लेट लगी हो,को हाथ के इशारे से रोककर सीधे भी उसमें सवार हो सकते हैं। जैसी आपकी मर्जी। दार्जिलिंग से मिरिक तक का शेयर्ड गाड़ी का किराया 100 रूपये है। इसमें कोई मोल–भाव नहीं। जो पहले से पूरी तरह से निर्धारित है तो है। अपनी निजी गाड़ी बुक करने का किराया लगभग 1500 रूपये के आस–पास है।
हमको इस स्टैण्ड पर पहुँचने में थोड़ी सी देर हो गयी। वजह थी नहाने का गरम पानी और रोज नहाने की आदत। वैसे जब इसी तरह अक्सर घूमना फिरना हो तो रोज नहाने की आदत छोड़नी ही होगी। होटल वालों ने बताया था कि 7 बजे पानी मिल जायेगा लेकिन पानी मिलने में थोड़ी देर हो गयी। फिर भी जैसे ही एक बाल्टी गरम पानी मिला,उसे हमने बाथरूम की बड़ी बाल्टी में ठण्डे पानी में मिलाया और जल्दी–जल्दी नहा–धोकर तैयार हुए। बस– स्टैण्ड का रास्ता मालूम नहीं था इसलिए पूछते–पूछते पहुँचे। पता लगा कि मिरिक की बुकिंग करने वाला काउण्टर अभी खुला नहीं है। तब तक एक गाड़ी निकलती दिखी जिस पर मिरिक लिखा हुआ था। ड्राइवर से इशारों–इशारों में बात हुई तो उसने गाड़ी रोक हमें भी बैठा लिया और हम चल पड़े मिरिक की राहों में। इस समय सुबह के 8.35 बज रहे थे।

कल शाम को जब हम दार्जिलिंग पहुँचे तो कुछ खास वैसा लगा नहीं जैसा मन में सोच रखा था। बल्कि इसकी तुलना में तो सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग तक का सड़क का सफर ही बहुत सुन्दर प्रतीत हो रहा था और उसमें भी कर्सियांग से दार्जिलिंग तक की यात्रा तो बहुत ही रोमांचक रही। दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन के बोर्ड पर लिखी सूचना के अनुसार इसकी समुद्र तल से ऊँचाई 6812 फीट है। इसमें भी दार्जिलिंग शहर और इसका मुख्य बाजार चौरस्ता माॅल पहाड़ी की चोटी पर ही अवस्थित है। लेकिन देवदार के जंगलों को काट कर बसाये गये मकानों और गाड़ियों के जंगल ने इसका वास्तविक सौन्दर्य काफी कुछ छीन लिया है। मिरिक में अभी इतना बदलाव नहीं हुआ है।
मैंने अनुभव किया कि दिल्ली शहर के पास बसे हिमालय के हिल स्टेशन अगर दिल्ली के वीकेण्ड हैं तो दार्जिलिंग कलकत्ता का वीकेण्ड है। सप्ताहांत की छुटि्टयों में प्रकृति के सौन्दर्य दर्शन की चाहत या फिर अपने तनाव और कुण्ठा को कुछ समय के लिए इन पहाड़ों में दफना देने की लालसा में बड़े शहरों के बड़े लोगों ने प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य को धूमिल कर दिया है। वास्तव में वीकेण्ड संस्कृति ऐसे स्थानाें के लिए बड़ी ही घातक है। वीकेण्ड का नाम मेरे मन में आते ही एक अजीब सा चित्र आँखों के सामने घूम जाता है– दिन शनिवार और रविवार,सड़कों पर फर्राटे से दौड़ती बड़ी–बड़ी लक्जरी गाड़ियाँ,स्टैण्ड और चौराहों पर लगा लम्बा जाम,रेस्टोरेण्ट और होटलों का बढ़ा हुआ भाव,किराये की गाड़ियों के अभाव में हैरान–परेशान नियमित यात्री और सबसे आगे बढ़कर पर्यटन स्थलों पर किसी मेले जैसा दृश्य। ऐसी परिस्थितियों में प्राकृतिक दृश्यों के साथ एकात्म होने की लालसा लिए हजारों किलोमीटर चलकर किसी दूरस्थ स्थान से आया मेरे जैसा कोई प्रकृति प्रेमी ठगा हुआ सा महसूस करता है। लेकिन मिरिक संभवतः अभी इससे बचा हुआ है। मिरिक के रास्ते में और मिरिक पहुँचकर ऐसा लगा कि हम अपनी वास्तविक मंजिल तक पहुँच गये हैं।

दार्जिलिंग से घूम तक एक ही रास्ता है। घूम से कई जगहों के लिए रास्ते अलग होते हैं। तो घूम से हमारी गाड़ी मिरिक के लिए दूसरे रास्ते पर घूम गयी। दार्जिलिंग से मिरिक का यह रास्ता भारत–नेपाल सीमा से बिल्कुल सटे हुए गुजरता है। कुछ ही देर बाद हमें वह सब कुछ दिखने लगा जिसके लिए हम दार्जिलिंग आये थे और दार्जिलिंग की भीड़–भाड़ में उसे हम नहीं देख पा रहे थे। ऊँचे–ऊँचे देवदारों की छाया से ढकी पतली सी सड़क। तीखे पहाड़ी मोड़। पहाड़ियों की चोटियों पर इतराते छोटे–छोटे उजले बादल। शरीर में गुदगुदी पैदा करती सनसनाती ठण्डी हवा। एक खूबसूरत हिल स्टेशन पर जल्दी से पहुँच जाने की व्यग्रता। मिरिक की ऊँचाई 4905 फीट है अर्थात यह दार्जिलिंग से नीचे है। लेकिन भीड़–भाड़ का अभाव,चमकते हरे पानी की छोटी सी झील,इसके एक किनारे पर सुन्दर हरा–भरा पार्क तथा दूसरे किनारे पर पहाड़ी ढलानों पर दार्शनिकता की सृष्टि करते देवदार के जंगल इसे मनमोहक स्वरूप प्रदान करते हैं।
सुबह के 10.15 पर हम मिरिक पहुँच गये। दार्जिलिंग से मिरिक की दूरी लगभग 44 किमी है। जबकि सिलीगुड़ी से मिरिक की दूरी 52 किमी है। सुमेन्दु झील के दक्षिणी किनारे पर स्थित स्टैण्ड पर जब हम गाड़ी से उतरे तो लगा कि हम वहाँ आ गये हैं जिसकी खोज में चले थे। स्टैण्ड से टहलते हुए जब हम झील की तरफ बढ़े तो रास्ते के दोनों तरफ छोटे–छोटे टेन्टों में लगी दुकानों का संचालन करती महिलाओं को देखकर लगा कि हम किसी दूसरी दुनिया में आ गये वरना हमारे यहाँ दुकान चलाना तो पुरूषों का एकाधिकार है। झील के किनारे पहुँचे तो इक्के दुक्के लोग ही दिखे और वह भी स्थानीय लोग ही लग रहे थे। हमें बड़ा अजीब सा लग रहा था कि इतनी सुन्दर जगह पर दूर से आने वालों में क्या सिर्फ हम ही हैंǃ इस छोटे से हिल स्टेशन की खूबसूरती का राज भी शायद यही है। वास्तव में इस खूबसूरत जगह पर पर्यटकों ने अभी पूरी तरह से धावा नहीं बोला है। या फिर अभी अप्रैल का महीना होने की वजह से भीड़भाड़ कम थी। जिस दिन पर्यटकों का आक्रमण पूरी तरह से यहाँ भी सफल हो जायेगा इसकी भी दशा अन्य हिल स्टेशनों की तरह ही हो जायेगी। हम जब यहाँ पहुँचे तो भूख लगी थी इसलिए हमने इसी रास्ते किनारे की दुकानों पर धावा बोला और फिर आगे बढ़े। मिरिक भले ही छोटा हो और दुकानें छोटी हो,यहाँ कीमतें छोटी नहीं हैं। एक छोटी प्लेट चाऊमीन 40 की थी जबकि संतरा 80 रूपये किलो।
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आइए अब मिरिक से मिलते हैं। मिरिक का नाम लेपचा शब्द मिर–योक से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है जला हुआ स्थान। मिरिक के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है–सुमेन्दु लेक। यह एक मानव निर्मित झील है। इस झील की लम्बाई लगभग डेढ़ किमी है और इसके चारों ओर सड़क बनी हुई है। झील के किनारे की इस सड़क पर टहलना मिरिक का सबसे बड़ा आनन्द है। पूर्वी किनारे पर तो हरा–भरा पार्क बना हुआ है लेकिन पश्चिमी किनारे पर देवदार आपका स्वागत करते हैं। साथ ही पत्थरों से निर्मित ऊबड़–खाबड़ सड़क पहाड़ी रास्ते का वास्तविक आनन्द देती है।
मिरिक में अप्रैल की धूप,हमारे मैदानी इलाकों की दिसम्बर की धूप की तरह सौम्य है। इस धूप में झील के किनारे हरे–भरे पार्क में बैठिये या झील के ऊपर बने ब्रिज जिसका नाम इन्द्राणी ब्रिज है,से होते हुए उस पार निकल जाइए जहाँ घोड़ेवाले आपका इन्तजार कर रहे हैं। मर्जी आपकी– घोड़े की सवारी कीजिए या फिर पैदल ही चीड़ और देवदारों के बीच में टहलिए। मुझे देवदार के हरे नुकीले पेड़ों से बात करना अच्छा लगता है सो मैं काफी देर तक ढलान के ऊँचे–नीचे रास्तों पर घूमता रहा। इन रास्तों के किनारे यहाँ के निवासियों ने इक्का दुक्का चाय–पानी की दुकानें भी खोल ली हैं जहाँ थोड़ी देर बैठकर सुस्ताया भी जा सकता है। झील के इसी किनारे पर पहाड़ी के ऊपर हेलीपैड भी बना हुआ है। हेलीपैड है तो हेलीकाप्टर के लिए लेकिन यहाँ पहुँचकर झील का वह दृश्य दिखाई देता है जिसे देखना नीचे से सम्भव नहीं। मिरिक में झील के अतिरिक्त कुछ मन्दिर व बौद्ध मोनेस्ट्री भी दर्शनीय हैं। मिरिक के बारे में एक विशेष बात यह कि देवदारों व चाय बागानों से ढका यहाँ आने का रास्ता भी कम सुन्दर नहीं है। अतः यहाँ से लौटते हुए भी यह महसूस नहीं होता कि हम मिरिक को छोड़कर जा रहे हैं।
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अब हम भी मिरिक को छोड़कर लौटने जा रहे थे। काफी टहल चुके थे। झील के दक्षिणी सिरे पर स्थित टैक्सी स्टैण्ड के काउण्टर से कभी भी टिकट बुक कराया जा सकता है। अन्तिम गाड़ी 3.15 पर थी। वैसे यहाँ से लौटते समय अन्तिम गाड़ी पर निर्भर रहना ठीक नहीं और गाड़ियों की वास्तविक स्थिति को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। हमने 2.40 की शेयर्ड सूमो में टिकट बुक किया था और इसकी केवल आगे और बीच की सीटें ही भरी थीं। पीछे की चारों सीटें खाली रह गई थीं।
शाम के 4.30 बजे हम दार्जिलिंग पहुँच गये। अभी हमारे पास कुछ समय था इसलिए हम अपने होटल न जाकर उसी गाड़ी से चौक बाजार स्टैण्ड तक चले गये और वहाँ से पैदल दार्जिलिंग के मुख्य बाजार चौरस्ता माॅल। चौरस्ता मॉल दार्जिलिंग का हृदयस्थल है। यहाँ से चार मुख्य सड़कें विभिन्न दिशाओं में निकलती हैं। इनके अलावा कुछ सँकरी गलियां भी यहां से निकलती हैं। यह चौराहा आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूपों में दार्जिलिंग का मुख्य केन्द्र है। लोग यहां केवल खरीदारी करने ही नहीं वरन घूमने–फिरने के लिए भी निकलते हैं। चौराहे पर बैठने या टहलने हेतु पर्याप्त जगह उपलब्ध है। यहाँ एक बड़ी टी.वी. स्क्रीन भी लगी हुई है। चौराहे एवं सड़कों के किनारे बड़ी बड़ी और कुछ बहुत पुरानी दुकानें यूँ ही किसी को आकर्षित कर लेती हैं। और अगर बड़ी दुकानों में जाने की इच्छा न हो तो गलियों के किनारे ऊनी कपड़ों की छोटी दुकानें भी उपलब्ध हैं। लेकिन मोलभाव इतना अधिक है कि साधारण आदमी थक जायेगा। हम भी काफी देर तक दुकानों में चक्कर लगाते व मोलभाव करते रहे। एक–दो शॉल व स्वेटर खरीदने में ही थक गये।
शाम के 7 बज गये थे और अब हमें रेस्टोरेण्ट के जल्दी बन्द होने का डर था इसलिए जल्दी से भागे। अग्रवाल किचेन में 80 रूपये प्लेट वाले छोले–भटूरे का आर्डर दिया और आर्डर तैयार होने तक रेस्टोरेण्ट की खिड़की से शाम के धुँधलके में हरे से काले होते पहाड़ों को देखते रहे। शायद पहाड़ पर उदासी छा रही थी।
होटल वापस लौट कर हमने होटल में ही ट्रैवेल एजेण्ट से दार्जिलिंग के लोकल साइटसीन के लिए 650 रूपये प्रति व्यक्ति की दर से बुकिंग की क्योंकि इतना पैदल घूमना सम्भव नहीं था और शान्ति से सो गये।

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झील के किनारे पार्क व झील पर बना पुल
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ऊँचाई से मिरिक झील का दृश्य
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दार्जिलिंंग के चौरस्ता माॅल पर लगी एक नेपाली कवि की मूर्ति
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अगला भाग ः दार्जिलिंग हिमालयन रेल का सफर

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

13 comments:

  1. pandey ji bahut acha vivran diya apne maine to ek sans me hi poora padh liya, mere bahut kam aayegi ye post

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    1. धन्यवाद भाई,मैं भी अापकी पोस्ट पढ़ रहा हूँ क्योंकि मुझे भी जून में हिमाचल प्रदेश जाना है। अगर आपके पास भोपाल और ग्वालियर की कोई लिंक हो तो दीजिएगा।

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  2. बहुत बढ़िया हम मिरिक जा चुके है 2011 में उसकी स्मृति याद करा दी आपने

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  3. बहुत बढ़िया हम मिरिक जा चुके है 2011 में उसकी स्मृति याद करा दी आपने

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  4. aaj phir dubara padhy liye liye apake is post ko

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद
      पढ़ते रहिए

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  5. मिरिक के बारे में पढ़ वहां जाने की इच्छा में इजाफा हो गया ...

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  6. हम दार्जिलिंग तो गए लेकिन मिरिक नहीं गए। यहीं कसक रह गई मन में। बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने यात्रा का। बेहतरीन

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    1. दार्जिलिंग के आस–पास कई छोटे–छोटे लेकिन बहुत ही सुंदर कस्बे हैं। जैसे मिरिक,लावा,लोलेगाँव वगैरह। ब्लॉग पर आने के लिए आभार आपका।

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  7. रोचक प्रस्तुति। जानकारियों से परिपूर्ण भी। आपको धन्यवाद।

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