Friday, July 28, 2017

वाराणसी से डलहौजी

मई के महीने में मध्य प्रदेश की यात्रा पर शायद ही कोई जाता होगा। लेकिन मैंने लगभग 10 दिन की ऐसी यात्रा की थी कि उसकी याद मन से निकलने को तैयार न थी। अब इसे भुलाने के लिए किसी ठण्डी जगह जाना जरूरी महसूस होने लगा। तो जून के महीने में शरीर को ठण्डक का एहसास दिलाने के लिए हिमाचल प्रदेश की वादियों में डलहौजी की ओर निकल पड़े। हमेशा की तरह मैं और मेरी चिरसंगिनी संगीता। सबसे पहली लड़ाई– घर से बनारस की। आधा दिन तो इसी में निकल जाता है और इसके बाद कहीं वास्तविक युद्ध शुरू हो पाता है।
वाराणसी से जम्मू–कश्मीर या हिमाचल प्रदेश के उत्तरी भागों की तरफ जाने के लिए सबसे अच्छी ट्रेन है– बेगमपुरा एक्सप्रेस। हमने भी इसी को चुना था।
बनारस से 12.50 पर पठानकोट के लिए ट्रेन थी इसलिए सुबह की इण्टरसिटी एक्सप्रेस से घर से बनारस के लिए हम निकल पड़े थे। हिन्दुस्तान की ट्रेन है। कब लेट हो जाय और कब समय से पहुंच जाय,कहा नहीं जा सकता। बनारस अन्य कामों से आना–जाना पड़ता है तो इसी ट्रेन की सेवा लेता हूँ और यह कभी अपने निर्धारित समय पर नहीं पहुँचती। आज हमको 12.50 पर पठानकोट के लिए ट्रेन पकड़नी थी तो हमारी बनारस वाली गाड़ी 9 बजे तक बनारस में हाजिर हो चुकी थी। अब लगभग 3 घण्टे प्लेटफार्म की सेवा लेनी ही थी। इन्तजार किया गया। बेगमपुरा एक्सप्रेस 12 बजे तक प्लेटफार्म पर आ लगी। छोटा प्लेटफार्म,लम्बी गाड़ी। धूप तो लगेगी ही। अब ठण्डी जगह जा रहे हैं तो इतनी तो धूप सहन कर ही सकते हैं।

धीरे–धीरे चलने का समय भी हो गया लेकिन हिन्दुस्तान की ट्रेनǃ बिल्कुल समय से चल दे तो रिकार्ड खराब हो जाय। इसलिए केवल 10 मिनट विलम्ब से 1 बजे चली। लेकिन चली तो फिर चल गयी। बहुत कम रूकती है यह। बनारस और जम्मू तवी को सम्मिलित करते हुए 1260 किमी की दूरी में इसके कुल 12 स्टाप हैं। अर्थात बीच में केवल 10 जगह रूकना है। गर्मी अपने उफान पर है। मैं सतर्क था इसलिए पानी का पर्याप्त स्टाक रख लिया। भले गर्म हो जायेगा,पास में रहेगा तो। भोजन का भण्डार तो घर से ही पर्याप्त भर लिया गया था। अब कोई चिन्ता नहीं। खाना–पानी है तो जमे रहेंगे। चलना तो ट्रेन को है। अपनी सीटें थीं एक ऊपर वाली–हमेशा के लिए मेरी पसन्द और एक बीच वाली। मैं ऊपर चढ़कर पसर गया। संगीता को लोगों से बातचीत करना पसंद है इसलिए नीचे वाली सीट ज्यादा उपयुक्त रहती है।
ट्रेन लगभग समय से चलती रही और अगले दिन अपने तय समय से आधे घण्टे लेट अर्थात 9.45 बजे पठानकोट पहुँची। पठानकोट में 3 प्लेटफार्म हैं। हमारी ट्रेन रूकी 2 नम्बर पर। उतरने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। कुछ लोग प्लेटफार्म 1 पर जाने के लिए पुल पर चढ़ने लगे। कुछ उल्टी साइड में उतरकर कुछ दूर दिख रही सड़क की ओर जाने लगे। अब हम कन्फ्यूज हुए– किधर जायेंǃ एक वर्दीधारी से बस स्टेशन जाने के बारे में जानकारी ली तो उसने सामने की ओर या 1 नम्बर की ओर इशारा कर दिया। अब तो बैग लेकर पुल पर चढ़ना पड़ेगा। लेकिन हम भी लट्ठमार आदमी। ट्रेन की लम्बी यात्रा की थकान और साथ में दो बैग। डाइरेक्ट पटरी ही पार कर लिए। कौन इतनी मेहनत करता है। बाहर निकले तो कुछ दूरी पर आटो वाले खड़े दिख रहे थे। टैक्सी वाले मुर्गा बनाने के लिए पास ही खड़े थे। उनके रेट के बारे में अनुमान लगाकर मैं पहले से ही कन्नी काट रहा था। इसी बीच एक रिक्शा वाला सामने आ खड़ा हुआ– "कहाँ चलेंगे?"
मैं– "बस अड्डे।"
रिक्शावाला–"पचास रूपये लगेंगे।"
मैं– "कितनी दूर है।"
रिक्शावाला– "दो किलोमीटर।"
मैंने सोचा अच्छा सौदा है। थोड़ी दूर रिक्शे से भी चल लेते हैं। बैग लाद कर चल दिये। हम अनुमान नहीं लगा सके कि इतिहास अपने को दुहरा रहा है। सिलीगुड़ी में भी अपनी दार्जिलिंग यात्रा के दौरान हम एक रिक्शेवाले के हत्थे चढ़ गये थे। रिक्शेवाला रिक्शा खींच रहा था और साथ ही हमें हड़काने में भी लगा था–
"कहाँ जायेंगे साहब?"
"डलहौजी।"
"होटल पहले से बुक किये हैं?"
"हम पहले बुक करने वाले नहीं है। हम आमने–सामने बात करते हैं।"
"वहाँ तो बहुत भीड़ है। गाड़ियां नहीं मिल रहीं हैं डलहौजी के लिए। डलहौजी से बाहर जाने के लिए गाड़ियां इतनी महँगी हैं कि पूछ्यिे मत। अभी पिछले हफ्ते कुछ लोग वहां से लौट कर आये हैं। उन्हें सड़कों के किनारे सोना पड़ा। रहने के लिए होटल नहीं मिला। गाड़ियां नहीं मिलीं। आप कहें तो मैं यहीं से गाड़ी और होटल बुक करा दूंगा। आराम से जायेंगे और चले आयेंगे।"

हम भी कम घाघ नहीं थे। बोले कि तुम हमें स्टेशन छोड़ दो। हम होटल खोज लेंगे। रिक्शेवाला मुश्किल से 10 मिनट चला होगा और एक लम्बी–चौड़ी सड़क के किनारे जहाँ बस–स्टाप का एक छोटा सा बोर्ड लगा था,आकर खड़ा हो गया। अब थोड़ी–बहुत किच–किच तो होनी ही थी। सो हुई। हमने बस स्टेशन चलने के लिए कहा था और इसने पता नहीं कहाँ लाकर खड़ा कर दिया था। अब आगे देखना था। पता चला कि यहाँ से भी डलहौजी की बस मिल जायेगी। दरअसल यह बाई–पास सड़क थी जो पठानकोट कैण्ट रेलवे स्टेशन के ठीक पीछे से गुजर रही थी और जिस समय हम ट्रेन से उतरे थे उस समय लोग स्टेशन के पीछे उतरकर इसी स्थान पर जा रहे थे। अब हम बस के इन्तजार में लगे। तमाम बसें गुजर रही थीं। धर्मशाला,कांगड़ा,पालमपुर वगैरह–वगैरह। लेकिन डलहौजी की बस नहीं दिखी।
आधे घण्टे गुजर गये।  फिर कई लोगों से पूछा तो पता चला कि यह बाई–पास है और डलहौजी की बस का निश्चित नहीं है कि यहां से होकर ही गुजरे। अब तो दिमाग टेंशन में आ गया। मन कह रहा था कि रिक्शेवाला मिलता तो हिसाब करते। अब पठानकोट बस स्टेशन जाने के लिए एक आटो वाले से बात की तो वह रिजर्व चलने की बात करने लगा। तभी एक दूसरा आटो वाला मिला जो 20 रूपये सवारी के रेट पर हमें पठानकोट स्टेशन ले गया। इसके बाद कान पकड़कर पाँच बार उठा–बैठी लगाई कि अब किसी रिक्शेवाले के फेर में नहीं पड़ेंगे। वहाँ पहुँचे तो पता लगा कि जालन्धर से आकर डलहौजी जाने वाली एक बस लगी है। तुरन्त सवार हो गये। गेट के पास बैठे एक सज्जन ने सलाह दी कि काउण्टर से टिकट लेकर सीट नम्बर एलॉट करा लीजिए। मैं फिर से दौड़कर बाहर गया और टिकट लिया। बाद में पता चला कि इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। बस में बैठकर भी टिकट ले सकते हैं। पठानकोट से हिमाचल प्रदेश के अन्य स्थानों की तुलना में डलहौजी के लिए बसें कुछ कम संख्या में हैं। पंजाब में परिवहन निगम की सेवाएं निजी क्षेत्र को सौंप दी गयीं हैं। 

इस बीच एक बात तो छूट ही गयी– भोजन पानी। इसके लिए टाइम ही नहीं मिला। घर का स्टोर कब तक काम आता। काेई अक्षय–पात्र तो है नहींǃ बस में बैठकर चाय का सहारा लिया गया। 11.30 पर बस चली। एक घण्टे बाद लगने लगा कि बस पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश कर रही है। लगभग दो घण्टे बाद बस दुनेरा पहुॅंची। बीस मिनट का स्टाप था। दुनेरा से पंजाब की सीमा समाप्त हो जाती है और हिमाचल प्रदेश शुरू हो जाता है। दुनेरा बहुत अधिक ऊँचाई पर नहीं है लेकिन बस में कभी–कभार पहाड़ी क्षेत्रों की यात्रा करने वालों की हालत खराब थी। कोई खिड़की से बाहर सिर निकाल कर उल्टी कर रहा था तो कोई बस में। जिसकी जैसी मर्जी। संगीता की भी इच्छा करती है तो कभी–कभार सिर बाहर निकाल कर इच्छा पूरी कर लेती है। मैं इन सब बुराइयों से बरी रहता हूँ।
दुनेरा के डेढ़ घण्टे बाद बस बनीखेत पहुँच गयी। यहाँ से आगे की सड़क,बथरी होते हुए चमेरा बाँध चली जाती है और फिर वहाँ से आगे चलती हुई चम्बा चली जाती है। लेकिन हमारी बस बनीखेत से डलहौजी के लिए घूम गई। यह सड़क भी डलहौजी और खज्जियार होते हुए चम्बा चली जाती है। यह पूरा क्षेत्र चम्बा जिले के अन्तर्गत ही आता है और चम्बा ही जिला मुख्यालय है। बनीखेत से चमेरा बाँध होते हुए चम्बा जाने वाली सड़क चौड़ी और आसान है जबकि डलहौजी और खज्जियार होकर जाने वाली सड़क काफी सँकरी और अधिक चढ़ाई वाली है। यह तथ्य हमें डलहौजी से चमेरा बाँध की यात्रा के दौरान समझ में आया। ऐसा डलहौजी की ऊॅंचाई के कारण है। शाम के 3.30 बजे तक चार घण्टे की यात्रा के बाद हम डलहौजी पहुँच गये।
पहाड़ी की चोटी पर स्थित छोटा सा खूबसूरत और शान्त कस्बा और वैसा ही छोटा सा बस स्टैण्ड। कुछ ही गाड़ियाँ पहुँच जायें तो जाम की स्थिति उत्पन्न हो जाये। वैसे इसका छोटा होना ही इसकी खूबसूरती है वरना आदमी और गाड़ियों के बोझ से कराहते बड़े शहरों को तो बहुत देखा है। पहाड़ियों की ढलानों पर हरे–भरे देवदारों से ढका बिल्कुल शान्त–शान्त डलहौजी।

बस से उतरने के बाद कमरा ढूँढ़ने की चिन्ता सवार हुई। रिक्शेवाले की कही हुई बात दिमाग में घूम रही थी। अभी मैं कुछ सोच पाता उसके पहले ही बस का इन्तजार कर रहे होटलों के एजेन्ट पीछे पड़ गये। बस से उतर कर कमरा खोजने वालों में हमारे अलावा केवल एक दम्पत्ति और थे। मेरे और होटल वालों में थोड़ा सा विरोधाभास हमेशा रहता है। होटल वाले और एजेण्ट कमरा दिखाने की बात करते हैं और मैं रेट जानने के फेर में पड़ा रहता हूँ। बस से उतरने के बाद संगीता को चक्कर आ रहे थे इसलिए उसे एक जगह बैठाकर मैं एजेण्टों की मदद से कमरे की तलाश में चला। डलहौजी वास्तव में कुछ महँगा है। साथ ही मई–जून इसका पीक टाइम है। मुझे महसूस होने लगा कि कुछ तो जेब ढीली होनी ही है।
कमरे का किराया मैं आमतौर पर पाँच–छः सौ से अधिक नहीं देना चाहता लेकिन लग रहा था कि यह सीमा तोड़नी पड़ेगी। काफी खोजबीन के बाद आठ सौ में रूम लेना पड़ा। कमरा बहुत अच्छा था। सारी सुविधाएं टी.वी.,गीजर,इण्टरकॉम वगैरह–वगैरह थीं। होटल में कमरे की लोकेशन भी बहुत अच्छी थी। कमरे में दो दरवाजे थे जिसमें एक बालकनी की ओर खुलता था और बालकनी के सामने थी जंगलाें से सजी गहरी घाटी। नीचे बहते किसी झरने की आवाज लगातार सुनाई दे रही थी। कमरा लेने के बाद मैंने भोजन के विकल्पों के बारे में पता किया। होटल का मेन्यू देखा तो दिमाग की बत्ती जल गई। चाय ही 30 रूपये की थी। भोजन के बारे में तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। तो फिर बाहर निकले। डलहौजी पहुँच जाने के बाद नहाने की आवश्यकता लगभग समाप्त हो चुकी थी।
बस स्टैण्ड के पास नाश्ते की कई दुकानें हैं लेकिन सिर्फ नाश्ता। इनमें से एक दुकान बिल्कुल हमारे बजट में थी। फिर किसी शाकाहारी रेस्टोरेण्ट के बारे में पता किया तो पता चला कि बस स्टैण्ड से एक मिनट की पैदल दूरी पर शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेण्ट है लेकिन केवल गुजराती और दक्षिण भारतीय। उत्तर भारतीय थाली नहीं मिलेगी। गुजराती थाली 200 रूपये में। नहीं पसन्द है तो थाेक वाली थाली छोड़िये और फुटकर आर्डर कर खाइए। यानी कुल मिलाकर रहने के साथ–साथ खाने के भी विकल्प डलहौजी में सीमित ही दिख रहे थे। भीड़–भाड़ वाली जगहों पर रहने–खाने की जगहें भी अधिक होती हैं लेकिन कम भीड़ वाली जगह में विकल्प भी सीमित हो जाते हैं। डलहौजी में लगभग पूरे कस्बे में जगह–जगह होटल मिल जायेंगे जैसे गाँधी चौक या सुबास चौक या फिर और कहीं। लेकिन महंगे पड़ेंगे। लेकिन रेस्टोरेण्ट वाली समस्या तो हर जगह विकराल है। इसलिए बस स्टैण्ड ही अधिक अच्छा विकल्प लगा।

सब कुछ खोज लेने के बाद अब कुछ टहलने की बारी थी। हम जहाँ ठहरे थे वहाँ से सुबास चौक लगभग आधा किमी की दूरी पर है लेकिन हमें पता नहीं था। गाँधी चौक या फिर डलहौजी के मुख्य बाजार जिसे जी.पी.ओ. के नाम से भी जाना जाता है,का नाम मैंने सुन रखा था। तो पूछते–पूछते उधर ही चल पड़े। लगभग दो किमी की दूरी थी। इस छोटी सी पैदल यात्रा में डलहौजी का वास्तविक स्वरूप दिख गया जिसने सारी थकान उतार दी। मॉल रोड से धौलाधर पर्वत श्रेणियों और उच्च हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वत श्रेणियों का दिलकश नजारा शाम की हल्की धूप में बहुत खूबसूरत दिख रहा था। लेकिन इसे भी देखने के लिए गाँधी चौक से बस स्टैण्ड तक की पैदल यात्रा करनी पड़ेगी क्योंकि यह दृश्य कुछ ही जगहों से देखा जा सकता है। काफी कुछ हिस्सा पेड़ पौधों ने ढक रखा है और जो भी जगह खाली है उसे होटल और रेस्टोरेण्ट वाले या तो कब्जा कर चुके हैं या कर रहे हैं।
गाँधी चौक या जी.पी.ओ. के पास अच्छा खासा मार्केट है लेकिन दार्जिलिंग के चौरस्ता मॉल जितना बड़ा नहीं है। अपने लिए खरीदने लायक तो कुछ नहीं मिला क्योंकि रेंज काफी ज्यादा लग रही थी,हां खाने के लिए संघर्ष जरूर करना पड़ गया। क्योंकि हमारे जैसे घास–पात खाने वाले प्राणियों को चरने के लिए खेत खोजना पड़ता है और यहाँ अधिकांश व्यवस्था सर्वाहारी दिख रही थी। वैसे सब कुछ घूमने और खाना खाने के बाद 8 बजे तक हम कमरे पर आ चुके थे। नींद के लिए थकान जरूरी है। थकान के बाद नींद जरूरी है। मौसम भी ठण्डा था। कम्बल उपलब्ध था। परिस्थितियां अनुकूल थीं तो फिर सो गये।

पठानकोट बस स्टेशन
पठानकोट बस स्टेशन के बाहर खड़े ये आटो पता नहीं चलते भी हैं कि नहीं
पठानकोट में अपर बारी दोआब नहर

डहलौजी के मॉल रोड से बर्फीली पर्वत चोटियों का दिलकश नजारा

गाँधी चौक पर खड़े गाँधीजी
गाँधी चौक पर सेंट जान्स चर्च

हरे व श्वेत रंग का संयाेजन



अगला भाग ः खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

1. वाराणसी से डलहौजी

2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य

10 comments:

  1. रिक्शा वाले की दी हुई सीख
    चाय के नाम पर जली दिमाग की बत्ती और होटल का माल भाव और खाने की टेंशन वह सब कुछ इस लेख में जो होना चाहिए,
    वैसे सच कहूं तो डलहौजी में रुककर घूमने देखने लायक ज्यादा कुछ नहीं है आप अगर एक दो घंटा यहां रुक कर देखते हैं आगे खजियार की तरफ बढ़ जाए तो ज्यादा बेहतर है

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    1. घर से निकलने के बाद हर कदम पर कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। धन्यवाद भाई साहब।

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  2. बहुत ही विस्तृत जानकारी...एक डलहौज़ी जाने वाले को और क्या चाहिए इससे ज्यादा...वैसे रिक्शा वाले मामले में में भी यही करता हु

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    1. घुमक्कड़ी में अक्सर कटु अनुभव हो ही जाते हैं।
      धन्यवाद प्रतीक जी।

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  3. Badhiya dalhousy ki yaade taza kar di aapne

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    1. प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।

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  4. रिक्शे ऑटो वाले अक्सर ऐसा कर ही देते हैं।

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    1. मुझे तो लगता है कि पूरे भारत में ऐसा ही होता है।

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  5. बहुत बढ़िया विवरण, दूसरे लोगो के लिए ये पोस्ट बहुत मददगार है, और एक बात है जो आपके लिए है, लगता है रिक्शे वाले आपसे कुछ ज्यादा ही प्यार करने लगे हैं, दार्जीलिंग यात्रा में भी आपके रिक्शे वाले ने ठगा और इस यात्रा में भी। ये ऑटो और रिक्शे वाले अनजान लोगों को देखते ही बस ठगने की फ़िराक में लगे रहते हैं।

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    1. अपने ही देश में ठगे जाने पर बहुत ही कष्ट होता है। धन्यवाद पोस्ट पढ़ने के लिए।

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