Friday, August 11, 2017

डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन

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21 जून
डलहौजी हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में स्थित है। इसे 1854 में एक हिल स्टेशन के रूप में स्थापित किया गया। तत्कालीन वायसराय लार्ड डलहौजी के नाम पर इसका नाम रखा गया था। उस समय अंग्रेज अधिकारी व सैनिक अपनी छुटि्टयां बिताने यहाँ आया करते थे। डलहौजी की समुद्रतल से औसत ऊँचाई 1970 मीटर या 6460 फीट है। डलहौजी एक बहुत ही छोटा सा कस्बा है जिसकी कुल जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 7000 है और इस वजह से यहाँ लोगों का शाेर कम ही सुनाई देता है। पर्यटन के लिहाज से यह हिमाचल प्रदेश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है और इसलिए आज हमने डलहौजी और आस–पास घूमने का प्लान बनाया था।
कल बीस जून को हम खज्जियार गये थे। खज्जियार के अपने रूप–रंग के अलावा बारिश ने भी कई रंग दिखाये। खज्जियार के कई सारे रूप एक ही दिन में देखने को मिल गये। शाम को आने के बाद हम डलहौजी और उसके आस पास घूमने के लिए एक गाड़ी बुक करने के फेर में थे। होटल वाले के माध्यम से बात भी हो गयी। हम निश्चिन्त होकर सो गये। अगले दिन डलहौजी घूमने के सपने लेकर। लेकिन किस्मत ने कुछ और ही निर्धारित कर रखा था।

भोर में तीन बजे के आस–पास नींद खुली तो तेज बारिश की आवाज आ रही थी। बालकनी की तरफ वाला दरवाजा खोला तो बारिश की इतनी तेज आवाज आ रही थी कि शरीर में सिहरन दौड़ गई। दरअसल सामने घने जंगलों से आच्छादित गहरी घाटी थी। पेड़ों के पत्तों पर पड़ती बारिश की बूँदों की आवाज काफी तेज सुनाई दे रही थी। उससे भी तेज आवाज थी पानी के इकट्ठा होकर प्रवाहित होने से बनी धाराओं की,जो तेज आवाज के साथ नीचे की ओर जा रहीं थीं। लेकिन शुरू में इस आवाज की वास्तविकता को मैं समझ नहीं पाया और इसे भी बारिश की ही आवाज समझ बैठा। खैर,अभी इसे समझने की जरूरत भी नहीं थी और मैं फिर से कम्बल में दुबक कर सो गया। बारिश की आवाज की वजह से ठीक से नींद नहीं आ रही थी। कई बार कम्बल में से मुँह निकालकर बारिश की स्थिति जानने की कोशिश की। लेकिन इसकी तेजी में कोई अन्तर नहीं आया था।
अबतक सुबह के सात बज चुके थे। मैं अभी भी बारिश के बन्द होने और अपने टूर के सफल होने की उम्मीद में था। अगर बारिश एक घण्टे और भी जारी रहती है तो भी हम घूमने जा सकते हैं। आज अगर डलहौजी और आस–पास घूम लेते हैं तो अगले दिन बस से चम्बा जाने के बारे में सोच रखा था। इसलिए फाइनली हम सोकर उठ गये। नित्यकर्म से निवृत्त होने में लगभग एक घण्टे लग गये। लेकिन बारिश की तीव्रता में कोई कमी नहीं आई। कुछ खाने की इच्छा कर रही थी तो बैग में रखे कुछ बिस्कुट–नमकीन पर हाथ साफ किया। फिर सो गये लेकिन नींद भी आखिर कितना असर दिखाएगी। इन्द्रदेव ने आज कुछ अलग ही तय कर रखा था।

धीरे–धीरे साढ़े आठ बज चुके हैं। अब बारिश हमारी बेचैनी बढ़ा रही है। क्योंकि अगर नौ या दस बजे तक भी नहीं निकले तो फिर आज की यात्रा कैंसिल करनी पड़ सकती है और अगर उसके बाद बारिश बन्द भी होती है तो डलहौजी से कहीं बाहर नहीं जा पायेंगे और आस–पास पैदल टहलकर ही संतोष करना पड़ेगा। फिर भी उम्मीद पर दुनिया कायम है। इसलिए अब मैं बिस्तर पर लेट कर समय बिताने की कोशिश करता हूँ। धीरे–धीरे नौ और फिर दस बज जाते हैं। होटल वाला खबर भेजता है कि आज का टूर कैंसिल कर दीजिए क्योंकि बाहर जाकर भी कहीं घूम नहीं पाएंगे और पैसा बेकार जायेगा। हम मन मसोसकर रह जाते हैं। केवल सोने के लिए थोड़े ही डलहौजी आये हैंǃ लेकिन बी पाजिटिव,थिंक पाजिटिव वाले फार्मूले पर मैं समय का सदुपयोग करने की सोचता हूँ।
बाहर बारिश है। कभी धीमी,कभी तेज,कभी बहुत तेज। आसमान धुआं–धुआं है। पहाड़ों के ऊपर बादल छ्तिराये हुए हैं। बौछारें हवा के साथ उड़ती जा रही हैं। मैं कैमरा लेकर बालकनी की ओर खुलने वाले दरवाजे पर खड़ा हो जाता हूँ। कुछ देर खड़े रहने के बाद बारिश के तेज और धीमे होने का रहस्य समझ में आने लगता है। ऊपर से उतरते बादल पानी की तेज बौछारें लेकर आते हैं और जब आगे बढ़ जाते हैं तो बारिश कुछ धीमी हो जाती है। कुछ दूरी तक साफ दिखाई देने लगता है। डलहौजी बस–स्टैण्ड से पठानकोट की तरफ जाने वाली सड़क दिख रही है। अभी कुछ देर पहले तक सड़क लगभग खाली–खाली दिख रही थी लेकिन अब इस पर पठानकोट की ओर गाड़ियां दौड़ लगा रही हैं। डलहौजी की ओर आने वाली गाड़ियां नहीं दिख रही हैं। लग रहा है डलहौजी घूमने आये लोग बारिश की वजह से निराश होकर वापस लौट रहे हैं। शायद इस बारिश ने उन्हें निराश कर दिया है। शायद वो कुछ और ही देखने के लिए आये हों। शायद डलहौजी का शरीर जो कि आज बारिश में भीगा हुआ है,क्योंकि उसकी आत्मा को वे नहीं देखना चाहते। डलहौजी में है ही क्या देखने लायक। पहाड़,हरे–भरे जंगल,इनके ऊपर लहराते बादलों के गुच्छ,जून के महीने में सिहरन पैदा करती ठण्डी हवा और एक और चीज जो उसकी आत्मा में है,जिसे शायद सिर्फ मैंने देखा– "नीरवता", "असीम शान्ति।" क्या यह नीरवता आनन्द का सृजन नहीं करतीǃ आज इस नीरवता को,बारिश के इस तेज शोर में मैं और भी गहनता से महसूस कर रहा हूँ। लार्ड डलहौजी का शरीर भले ही यहाँ न हो लेकिन उसकी आत्मा जरूर यहीं कहीं होगी।

दोपहर के बारह बज चुके हैं। मैं बहुत देर से दरवाजे पर खड़ा हूँ। संगीता बेड पर पड़ी–पड़ी सो रही है। उसे जून की चिलचिलाती और उमस भरी गर्मी से राहत भरी जगह मिली है। मुझे मनुष्यों के जंगल से दूर नीरवता भरे सौन्दर्य का दर्शन करने का अवसर मिला है और इसे मैं सोकर गँवाना नहीं चाहता। मुझे दिनभर कहीं बाहर न घूम पाने का अफसोस नहीं है। क्योंकि मैं बालकनी में खड़ा–खड़ा बारिश की फुहारों से भीग रहा हूँ। इसके झोंको पर सवार होकर पूरे डलहौजी की सैर कर रहा हूँ। हमारे मैदानों में आसमान और धरती जल्दी ही मिल जाते हैं। क्षितिज दोनों के मिलन को तुरंत ढक लेता है। आँखों की सीमा सीमित हो जाती है। पहाड़ों पर क्षितिज आसानी से ऐसा नहीं कर पाता। यहाँ उसका परदा काफी दूर तक सरक जाता है। पहाड़ अपनी सुन्दरता छ्पिाने में असमर्थ हो जाते हैं। हमारी आँखें उनके कोने–कोने तक के सौन्दर्य को ढूँढ़ लाती हैं। सौन्दर्य भी कोई छ्पिाने की चीज थोड़े ही है। उस पर भी बारिश के पानी से भीगा रूप कितना मादक हो सकता है,इसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। आज मैं प्रकृति के उसी रूप के साथ एकाकार होने की कोशिश कर रहा हूँ।
लेकिन यथार्थ बहुत कठोर होता है। धरती की छाती बहुत कड़ी है। वास्तविकता से परे हटने पर ठेस लगनी स्वाभाविक है। मैं धरती के यथार्थ से दूर होकर अभी किसी और लोक में विचरण कर रहा हूँ। तभी मस्तिष्क के किसी कोने से संकेत मिलते हैं कि मन को आनन्द देने के लिए भी शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता है। आखिर बिना ईंधन के गाड़ी कितनी देर चलेगीǃ सुबह से पेट कुछ बिस्कुटों के सहारे मन को प्रकृति का आनन्द लेने के लिए हवा में उड़ा रहा है। लेकिन दोपहर के डेढ़ बज चुके हैं। कुछ तो चाहिए। बाहर निकलने पर बारिश से बचने का कोई साधन– रेनकोट या फिर छाता,कुछ भी पास नहीं है। होटल में सर्वाहारी व्यवस्था है इसलिए वहाँ जा नहीं सकते। बारिश थमने का नाम नहीं ले रही है। मन को धैर्य बँधाना कठिन हो रहा है। अब तक तो उम्मीद थी कि बारिश थम जायेगी लेकिन लग रहा है कि इसने भी कसम खा ली है। एक बार फिर बिस्कुटों के सहारे समय काटने की असफल कोशिश होती है।

धीरे–धीरे तीन बज जाते हैं। अब सम्भवतः बारिश का जोर कम होता दिखाई पड़ रहा है। मन में आशा की किरण जगती है। आधे घण्टे में बारिश वास्तव में बन्द हो जाती है। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं है। हम बाहर निकलते हैं। सबसे पहले एक छाता खरीदते हैं। इसके बाद पेट पूजा। अब शरीर आसमान से धरती पर लौटा है। आसमान धीरे–धीरे साफ हो रहा है। पहाड़ों पर छायी धुंध छॅंट रही है। हम बस स्टैण्ड से सुबास चौक की ओर निकल पड़ते हैं। सुबास चौक पर एक बहुत ही पुराना चर्च है। पूरे डलहौजी में कई पुराने चर्च हैं। एक किनारे नेताजी सुबास चन्द्र बोस की मूर्ति लगी है। मूर्ति के पास से नीचे घाटी का बहुत ही सुन्दर नजारा दिखाई पड़ रहा है। मैं फोटो खींचने लगता हूँ। 5 मिनट बाद ही मूर्ति के आस–पास लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगती है। बारिश की वजह से दिन भर घरों में दुबके लोग बाहर निकल आये हैं। मूर्ति के पास खड़े होकर फोटो खींचने के लिए धक्का–मुक्की होने की नौबत आ गयी है। मूर्ति के सामने गाड़ियों का स्टैण्ड बन गया है। बस स्टैण्ड से सुबास चौक होकर गाँधी चौक जाने वाली वन वे सड़क पर गाड़ियों की भीड़ होने लगी है। आस–पास के नजारों पर नजरें दौड़ाकर भीड़ से बचते हुए हम यहाँ से गाँधी चौक की ओर निकल पड़ते हैं।
ठण्डी सड़क बिल्कुल ही ठण्डी है। सुबास चौक से आकर गाँधी चौक जाने वाली सड़क पहले तो लगभग–लगभग दक्षिण से उत्तर आती है और फिर पूरब की ओर मुड़ जाती है। इस मोड़ के पास बस स्टैण्ड से आकर एक पतली सी लिंक रोड मिलती है। हम इस लिंक रोड का कई बार प्रयोग कर चुके हैं। इस मोड़ से गाँधी चौक की ओर थोड़ा सा आगे बढ़ने पर एक स्थान से धौलाधर पर्वत श्रेणियां बहुत ही खूबसूरत अन्दाज में दिखती हैं। यह जगह भी किसी होटल के कब्जे में आने वाली है लेकिन अभी खाली है। पूरी तरह से होटल का निर्माण हो जाने के बाद यहाँ से यह नजारा दिखना बन्द हो जायेगा। हम बारिश बन्द होते ही निकल पड़े थे। इसलिए कहीं भी सबसे पहले पहुँच रहे हैं। ये व्यू प्वाइंट भी अभी खाली है। मैं जल्दी–जल्दी फोटो खींचने लगता हूँ। यहाँ भी भीड़ बढ़ने लगती है। दृश्य ऐसा है कि नजरें हटाने की इच्छा नहीं करती। मन करता है कि बिना पलकें झपकाएं देखते रहें। बारिश के बाद का माहौल साफ है। शाम हो जाने की वजह से सूरज बहुत तेज नहीं है। घाटियों में हल्की धुंध छाई हुई है।

हमें टहलते हुए काफी देर हो चुकी है। शाम के सात बज रहे हैं। मैं आज के पूरे दिन के बारे में सोचता हूँ। ये शानदार रहा। अब और कहीं घूमने की जरूरत नहीं है। कल डलहौजी से बाहर निकलेंगे। अब वापस कमरे लौटते हैं।


डलहौजी की रूमानी बारिश 

सुबास चौक के पास से

सुबास चौक पर स्थित एक चर्च

सुबास चौक पर नेताजी की मूर्ति
शाम की हल्की धूप में मॉल रोड से धौलाधर पर्वत श्रेणियों का नजारा








अगला भाग ः डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

1. वाराणसी से डलहौजी
2. खज्जियार–मिनी स्विट्जरलैण्ड
3. डलहौजी–बारिश में भीगा एक दिन
4. डलहौजी–नीरवता भरा सौन्दर्य

6 comments:

  1. पहले तो डलहौजी के बारे में पूरे जानकरी है इस पोस्ट में, फिर आपका पूरा दिन बरसात ने ख़राब कर दिया, श्रीमती जी ने सोकर और आपने दरवाजे पर खड़े होकर पहरा देते हुए पूरा दिन व्यतीत किया, बारिश ने आपका बेकार कर दिया, पर यदि आपकी जगह मैं होता तो मैं बारिश में ही बाहर निकल पड़ता, और जहाँ तक जा सकता था चल जाता, बरसात में घुमक्कड़ी तो और ज्यादा मज़ा देता है, मैं भरी बरसात में तुंगनाथ और चंद्रशिला चल गया।

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    1. धन्यवाद भाई। वैसे मैंने बारिश का भी आनन्द लिया और दिन को खराब नहीं होने दिया। डलहौजी की बारिश का अलग ही आनन्द है।

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  2. जी आप एक बार मन बना लेते की दिन भर भीग कर घूमना है उसके बाद आप महसूस करते की बारिश ज़िन्दगी में क्या कमाल कर सकती है...बारिश वो भी डलहौज़ी में सिर्फ किस्मत वाले घुमक्कड़ को ही मिलती है....बारिश को महसूस करोगे तो उसके साथ घूमने से जतद मजा कही नहीं मिलेगा

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    1. बिल्कुल। इसीलिए शाम की रिमझिम बारिश में डलहौजी की सड़कों पर काफी देर तक टहलते रहे। बहुत मजा आया।

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  3. बारिश का भी अपना अलग मज़ा है। ऐसे वक्त के लिए मैं अपने पास हमेशा एक उपन्यास रखता हूँ। फिर कहीं बारिश हो जाए तो खिड़की के सामने बैठकर उपन्यास पढ़ते हुए और चाय चुसकते हुए बारिश का आनंद लेता हूँ। आपने भी बारिश का मज़ा खिड़की से लिया ये जानकर अच्छा लगा। बाद में डलहौजी भी घूम आये तो ये भी बढ़िया रहा।

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    1. हाँ जी उपन्यास पढ़ना भी ठीक है। मुझे भी यह ठीक लगता है लेकिन ट्रेन यात्रा में। बारिश की मस्ती तो बचपन की याद दिला देेती है।

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