Friday, December 15, 2017

चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (दूसरा भाग)

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कौशक महल– चन्देरी स्टैण्ड से सबसे पहले हम लगभग 4 किलोमीटर दूर कौशक महल पहुँचे। यह मुंगावली और ईसागढ़ जाने वाले मार्ग पर स्थित है। कौशक महल का स्थापत्य विशिष्ट है। इसका निर्माण पन्द्रहवीं सदी में मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम ने जौनपुर विजय के उपलक्ष्‍य में कराया था। यह महल धन (+) के आकार में चार बराबर खण्डों में बँटा दिखाई देता है। कहते हैं कि यह एक सात मंजिला इमारत थी लेकिन इसके स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। अफगान शैली में निर्मित इस महल की वर्तमान में तीन पूर्ण मंजिलें हैं तथा चौथी अपूर्ण है। प्रत्येक मंजिल में बाहर की ओर बालकनी व खिड़कियां बनी हुईं हैं। इनके मध्य में मेहराबदार द्वार हैं।
इतिहासकार मोहम्मद कासिम 'फरिश्ता' ने अपने तारीख–ए–फरिश्ता में उल्लेख किया है कि यह महल मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी के द्वारा कालपी की लड़ाई में सुल्तान महमूद शर्की पर अपनी विजय की स्मृति में बनवाया था।
कौशक महल का प्रांगण पुरातत्व विभाग द्वारा खूबसूरती से सजाया गया है। हरा–भरा पार्क,उसके बीच पेड़–पौधे और इनके साथ खूबसूरत ऐतिहासिक इमारत सुन्दर दृश्य की सृष्टि करते हैं। वैसे ऐसी जगहों का जैसा इस्तेमाल हमारे हिन्दुस्तान में होता है,यह स्थान भी उसका अपवाद नहीं है। कौशक महल के पीछे के हिस्से में या फिर किसी कोने में कुछ लोग लेटकर आराम फरमा रहे थे। कुछ लड़के पार्क में पिकनिक मना रहे थे। महल को देखने वाला मुझे कोई नहीं दिखा।

कटी घाटी– कौशक महल से कुछ पहले ही पुरातत्व संग्रहालय है लेकिन उस दिन सम्भवतः शुक्रवार होने की वजह से यह बन्द था। अब हमारा अगला लक्ष्‍य था कटी घाटी। कटी घाटी रामनगर रोड पर  चन्देरी आटो स्टैण्ड से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कटी घाटी चन्देरी शहर के दक्षिण में पहाड़ को काटकर बनाया गया प्रवेशद्वार है। 80 फीट ऊँचे तथा 39 फीट चौड़े इस प्रवेशद्वार को 192 फीट की लम्बाई में पहाड़ी को काटकर बनाया गया है। घाटी के बीच में ही पहाड़ को काटकर मेहराबदार प्रवेशद्वार बनाया गया है जिसके दोनों ओर बुर्ज बनाये गये हैं। कटी घाटी के उत्तरी भाग में चट्टान को काटकर सीढ़ियां बनाईं गयी हैं जिनकी सहायता से इसके ऊपर पहुँचा जा सकता है। इस कटी घाटी एवं द्वार का निर्माण सन 1490 में मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन शाह के शासन काल में जिमनखां द्वारा कराया गया था। लेकिन मेरे लिए इतनी ही जानकारी काफी नहीं थी। मेरे ड्राइवर कबील खान ने बताया कि इसे एक ही रात में काट कर बनाया गया था। मेरे लिए इस बात पर विश्वास करना काफी मुश्किल था लेकिन फिर भी मैंने आश्चर्यमिश्रित सहमति में सिर हिला दिया। कटी घाटी चन्देरी किले से भी बहुत सुन्दर दिखाई देती है।

शहजादी का रोजा– कटी घाटी से निकल कर मैं कबील खान की आटो में चलता हुआ शहजादी का रोजा नामक इमारत में पहुँचा। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा दी गयी जानकारी के मुताबिक यह स्मारक किसी सुल्तान की शहजादी का मकबरा है जिसका नाम ज्ञात नहीं है। इस इमारत को ऊपर से ढकने वाला गुम्बद वर्तमान में नष्ट हो चुका है। स्मारक की बाहरी दीवारों पर ऊपर की ओर रंगीन टाइलों का उपयोग किया गया है जो कहीं स्पष्ट तो कहीं मद्धिम दिखाई पड़ता है। इस स्मारक का निर्माण 1420 से 1435 के बीच किया गया था। किंवदन्ती है कि यह स्मारक चन्देरी के तत्कालीन हाकिम या राज्यपाल के द्वारा अपनी बेटी मेहरून्निशा की स्मृति में निर्मित कब्र है। कहते हैं कि मेहरून्निशा और चन्देरी के सेनापति के प्रेम सम्बन्धों को तोड़ने के लिए चन्देरी के हाकिम ने सेनापति को मारने का षड्यंत्र रचा लेकिन सफल नहीं हो सका। एक युद्ध में घायल होने के बाद सेनापति चन्देरी लौटकर मर गया। मेहरून्निशा इस दुख को सहन न कर सकी और उसके साथ ही उसने भी अपनी जान दे दी। इस घटना की याद में चन्देरी के हाकिम ने उस स्थान पर दोनाें की कब्र बनवायी। कबील खान ने मुझे बताया कि उसे यह जगह बहुत अच्छी लगती है और वह कई बार इस जगह पर आ चुका है। मैं उसकी इस कद्रदानी पर मुग्ध हो ही रहा था कि तभी कबील खान के मन में बँधी एक गाँठ खुल गयी और मैं वास्तविक जगत में आ गया।

शहजादी का रौजा के पास ही एक तालाब है– परमेश्वर तालाब। इस तालाब के किनारे एक मंदिर है जिसका नाम लक्ष्‍मण मंदिर है। मैं तालाब के किनारे कुछ देर रूककर मंदिर में भी जाना चाहता था। साथ ही तालाब के दूसरे किनारे पर स्थित एक दूसरी खण्डहरनुमा इमारत को देखना चाहता था। लेकिन मेरे आटो चालक ने सलाह दी कि वहाँ कुछ नहीं है और यहाँ समय देना मूर्खता है। अब मैंने तय कर लिया कि यहाँ अभी और समय दूँगा। परमेश्वर तालाब के एक किनारे पर लक्ष्‍मण मंदिर है जिसे 18वीं सदी में बुंदेला राजा अनिरूद्ध सिंह ने बनवाया था। कुछ स्रोतों के अनुसार यह मंदिर और भी पुराना है। मंदिर में शेषनाग की मूर्ति स्थापित है। तालाब के दूसरे छोर पर बुन्देला राजा भरत शाह की छत्री है। राजा भरत शाह के स्मारक के रूप में इस छतरी का निर्माण राजा देवीसिंह बुन्देला द्वारा 1642–54 के बीच किया गया। इस इमारत के पास एक बोर्ड लगा है जिस पर इसके बारे में संक्षिप्त सूचना दी गयी है। बोर्ड पर विधायक निधि का नाम भी अंकित है लेकिन यह सुन्दर इमारत अभी अपने जीर्णाेद्धार की प्रतीक्षा में है। बलुआ पत्थर से निर्मित यह इमारत अष्टकोणीय है। मुझे तालाब,मंदिर और इस छतरी के फोटो खींचते देखकर कबील खान कुढ़ रहा था और मैं मन ही मन उसकी इस दशा पर चिन्तन कर रहा था। प्राचीन स्मारकों के बारे उसके भेदभाव भरे पूर्वाग्रह,उसकी धारणाओं या भावनाओं को नहीं बल्कि उसकी अशिक्षा को ही प्रदर्शित कर रहे थे। मैं तो वास्तव में ऐतिहासिक स्थलों को देखने के लिए चन्देरी आया हुआ था और ये स्थल किस धर्म से सम्बन्धित हैं,इससे मेरा कुछ लेना देना नहीं था लेकिन हर धर्म की इमारतों की फोटो लेना और उनमें रूचि प्रदर्शित करना सम्भवतः कबील खान की धार्मिक आस्था को चोट पहुँचा रहे थे। जब तक मैं उसके धर्म से सम्बन्धित स्थानों को देख रहा था तब तक तो सब कुछ ठीक था लेकिन ज्योंही मैंने यह लक्ष्‍मण रेखा लाँघने की कोशिश की उसका धर्म रूपी बन्धन खुल गया।

बड़ा मदरसा– शहजादी  का रोजा से निकलकर हम पुनः वापस मुख्य मार्ग की ओर आये और फिर शहर से और बाहर की ओर निकल पड़े। कुछ ही दूरी पर सड़क की बायीं तरफ एक पुरानी इमारत दिखी– बड़ा मदरसा। यह इमारत एक मकबरा है जिसे बाद में मदरसे में परिवर्तित कर दिया गया। मदरसे के चार बरामदों मेें बनी बड़ी–बड़ी मेहराबें इसे भव्यता प्रदान करती हैं। मदरसे में एक प्रवेश द्वार है जबकि तीन ओर दीवारें हैं जिनके ऊपरी भाग में सुन्दर जालियों का प्रयोग किया गया है। मदरसे का गुम्बद ध्वस्त हो चुका है जबकि चारों कोनों की चार मीनारों के अवशेष अभी मौजूद हैं। इसका निर्माण मालवा सल्तनत के महमूद खिलजी के संरक्षण में 1450 में किया गया था। इसके अन्दर दो कब्रें हैं जिनमें से एक मदारीस अर्थात शिक्षक और दूसरी दारूल उलूम यानी विश्वविद्यालय के आलिम या कुलपति की है। यह इमारत बिल्कुल ही निर्जन स्थान पर स्थित है।

बत्तीसी बावड़ी– अब हमारा अगला लक्ष्‍य था बत्तीसी बावड़ी। बड़ा मदरसा से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क छोड़कर मेरी ऑटो बायें हाथ मुड़ गयी। मेरे ऑटो चालक को भी बत्तीसी बावड़ी का रास्ता कुछ कन्फर्म नहीं था और शायद इसी वजह से वह वहाँ जाने से हिचक रहा था। दरअसल बत्तीसी बावड़ी सड़क से आधे किलोमीटर की दूरी पर जंगल–झाड़ के बीच अवस्थित है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह रास्ता पैदल का है या फिर अधिक से अधिक दुपहिया वाहन यहाँ पहुँच सकता है। तिपहिया या चारपहिया वाहन का यहाँ पहुँचना काफी मुश्किल है। इन सबके बावजूद मैं बावड़ी तक जाने को संकल्पित था। चन्देरी में आये और यहाँ की बावड़ियां ही न देखी तो क्या देखा। मैं तो इतना पैदल भी चलने को तैयार था। ड्राइवर ने भी दिलेरी दिखाई और गड्ढों के बीच हिचकोले खाती ऑटो को बत्तीसी बावड़ी तक पहुँचा ही दिया। लेकिन इतनी ही दूरी की यात्रा में शरीर की चूलें हिल गयीं। वहाँ पहुुँचा तो अजीब ही मंजर था। कुछ स्थानीय लड़के बावड़ी की चारदीवारी के बाहर अपनी मोटरसाइकिलें खड़ी करके बावड़ी में स्नान का लुत्फ उठा रहे थे। मुझे आटो से उतरते देख सभी मेरी तरफ ही देखने लगे। वो तो कम से कम नहाने के लिए आये थे और मेरे जैसा बेवकूफ था जो इस बावड़ी को सिर्फ देखने के लिए पहुँच गया था। पहले तो मैंने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बोर्ड पर बावड़ी के बारे में लिखी जानकारियां लीं और फिर फोटो खींचने में लग गया। मेरे इस अंदाज पर वहाँ नहाने वाले लड़के आपस में चुटकियां भी ले रहे थे। लेकिन मेरे ऊपर इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। मैंने अपना काम जारी रखा।
चन्देरी की बावड़ियों में बत्तीसी बावड़ी सबसे बड़ी व विशिष्ट है। यह बावड़ी 60 फीट के चार वर्गाकार खण्डों में विभक्त हैं जिसके प्रत्येक खण्ड में आठ घाट हैं। इस तरह कुल 32 घाट होने के कारण इसे बत्तीसी बावड़ी कहते हैं। अभिलेखीय साक्ष्‍यों के अनुसार इस बावड़ी का निर्माण 1485 में मालवा के सुल्तान गयासशाह द्वारा कराया गया था। बत्तीसी बावड़ी चन्देरी शहर के बाई पास रोड अथवा पिछोर रोड पर अवस्थित है।

सिंहपुर महल– बत्तीसी बावड़ी से निकलकर अब हम सिंहपुर महल की ओर चले। यह महल भी पिछोर रोड पर स्थित है। यह महल चन्देरी कस्बे से 4 किलोमीटर की दूरी पर एक ऊँचे पठार पर स्थित है। इस तीन मंजिले भवन का निर्माण देवी सिंह बुंदेला के आदेश पर सन 1656 में किया गया। यह उस समय एक शिकार रेस्ट हाउस के रूप में काम आता था। महल के पास ही एक तालाब है जो मलिक हैवात निजाम के द्वारा सन 1433 में होशंग शाह के शासनकाल में बनवाया गया था। यह महल शहर से दूर बिल्कुल शान्त वातावरण में अवस्थित है।

शेखों का मकबरा– सिंहपुर महल से लौटे तो रास्ते में सड़क की दाहिनी तरफ अर्थात पिछोर रोड पर ही एक और पुरानी इमारतों का समूह दिखा। मैंने कबील खान से पूछा तो उसने फौरन आटो रोक दिया। मैं आगे बढ़ा तो पुरातत्व विभाग के एक बोर्ड पर लिखा दिखाई पड़ा– शेखों का कब्रिस्तान। दरअसल मेरा ड्राइवर अपनी कौम से सम्बन्धित सारी इमारतें मुझे दिखा देना चाहता था। यह मध्ययुग में निर्मित चन्देरी का सबसे बड़ा कब्रिस्तान है। इस परिसर में मस्जिदें भी हैं। गेट से अन्दर घुसने के बाद काफी झाड़ियां वगैरह थीं लेकिन मैंने उसी में कूदते–फाँदते कुछ फोटो खींची।

इतना कुछ घूम लेने के बाद भी अभी चन्देरी की काफी पुरानी इमारतें अनदेखी रह गयीं थीं। चूँकि चन्देरी काफी पुराना बसा है तो जाहिर है कि पुरानी इमारतें तो रहेंगी ही। लेकिन शायद चन्देरी और चन्देरी के लोग चन्देरी की इस पुरातनता में छ्पिे महत्व काे अभी नहीं समझ सके हैं। तभी तो पर्यटन के नक्शे में अपने से दो–ढाई सौ किलाेमीटर की रेंज में स्थित ऐतिहासिक महत्व के शहरों जैसे ग्वालियर,झांसी या फिर खजुराहो की तुलना में कम जाना–पहचाना सा लगता है। कभी कभी तो गलियाें में घूमते हुए मुझे लगा कि यह कस्बा कितना उजाड़ सा लगता है लेकिन चन्देरी के बाहर से दिखते इस स्वरूप से सुन्दर इसका वो रूप है जो आज सैकड़ों या हजारों साल पहले बसा होगा– सत्ता के केन्द्र के रूप में। उस रूप को मन के अन्दर महसूस ही किया जा सकता है।
तो बची खुची चन्देरी फिर कभी। 1.30 बजे तक कबील खान ने मुझे टैक्सी स्टैण्ड पर छोड़ दिया। साथ ही इस आग्रह के साथ अपना मोबाइल नम्बर भी दिया कि अगली बार परिवार के साथ आने पर मेरी ही सेवा लीजिएगा। मैंने धन्यवाद देकर पिण्ड छुड़ाया। मेरा अगला प्लान था ललितपुर पहुँचकर नाइट हाल्ट करना। इसलिए बस पकड़ने की जल्दी थी। अब भोजन की बारी थी। लेकिन इस समय भोजन से मेरा मतलब पेट भरने से था न कि भोजन करने से। संयोग से एक ढाबे में मध्य प्रदेश की प्रसिद्ध सेव टमाटर की सब्जी और रोटियाँ मिल गयीं तो पेट भर लिया। अब फिर से नये वाले बस स्टैण्ड आना था। आटो की तलाश में मैं घूम ही रहा था कि कबील खान फिर मिल गये। अगले के मन में सहानुभूति उमड़ पड़ी। सो 10 रूपये में मुझे नये वाले बस स्टैण्ड छोड़ दिया। वहां ललितपुर के लिए एक बस पहले से ही लगी थी। इन्तजार करने का सवाल ही नहीं था।

2.15 पर बस चल पड़ी और उसी कचूमर निकाल सड़क पर,जिस पर चलकर मैं चन्देरी आया था,चलते हुए सवा घण्टे की यात्रा के बाद 3.30 पर ललितपुर पहुँच गयी। यहाँ पहुँचकर लगा कि काफी जल्दी आ गया। अभी कुछ देर और चन्देरी घूम सकता था। लेकिन अब तो ललितपुर आ गया था। अब अगले चरण में कमरे की तलाश शुरू हुई लेकिन बस स्टैण्ड के पास मैं होटल नहीं खोज सका। हैं ही नहीं या किसी गली–कूचे में इक्का–दुक्का होंगे तो मुझे दिखे नहीं। एक–दो ठेले–खोमचे वालों की सलाह पर मैं आटो पकड़कर रेलवे स्टेशन आ गया। यहाँ बड़ी आसानी से 250 में एक डबल रूम मिल गया। अभी 4.30 बज रहे थे तो ललितपुर रेलवे स्टेशन के आस–पास चहलकदमी करने के लिए मेरे पास काफी समय था।

कौशक महल का मुख्य द्वार
कौशक महल

कौशक महल के अन्दर के कुछ भाग

कटी घाटी

शहजादी का रोजा
शहजादी के रोजा के अन्दर बनी कब्रें
शहजादी के रोजा की भीतरी दीवार
लक्ष्‍मण मंदिर
परमेश्वर ताल
बुन्देला राजा भरत शाह की छत्री

बड़ा मदरसा
बड़ा मदरसा के अन्दर का भाग
बत्तीसी बावड़ी

बत्तीसी बावड़ी के अन्दर उकेरा गया एक लेख
सिंहपुर महल

सिंहपुर महल
शेखों का मकबरा
शेखों का मकबरा

अगला भाग ः देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

1. चन्देरी की ओर
2. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से
3. चन्देरी–इतिहास के झरोखे से (अगला भाग)
4. देवगढ़–स्वर्णयुग का अवशेष

5. ओरछा–जीवित किंवदन्ती
6. झाँसी–बुन्देलों ने कही कहानी
7. दतिया–गुमनाम इतिहास

6 comments:

  1. कबीले वाले ऐसे ही होते है।
    बत्तीशी बावडी व ताल सुन्दरता से परिपूर्ण मिले।

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    1. धन्यवाद जी। आपने अच्छा नाम दिया– कबीले वाले। वैसे सुन्दरता तो व्यक्ति की नजर में ही होती है– इतिहास हो या फिर प्राकृतिक दृश्य।

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    2. गढ़कुंडार का इतिहास भी बताओ भैया जी खंगार क्षत्रियों का

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    3. बिल्कुल उदय जी,जानकारी मिली तो अवश्य लिखूँगा।

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  2. बहुत उम्दा जानकारी और फोटो...चलो आशा करते है कि आपकी पोस्ट पढ़कर कुछ लोग तो जानेंगे चंदेरी को और उसके गौरवशाली इतिहास को....

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    1. धन्यवाद भाई। कहीं भी जाने पर कुछ न कुछ जानकारी तो मिलती ही है। हम तो उसे बस कैमरे में या डायरी में भरकर ले आने का काम ही करते हैं।

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