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Friday, August 19, 2016

अभिलाषा

आशा की डाली हुई पल्लवित औ
प्रकाशित हुई रवि किरण हर कली में,
जगी भावनायें किसी प्रिय वरण की
सजाये सुमन उर की प्रेमांजली में,
अरेǃ तुम अभी आ गये क्रूर पतझड़
सुरभि उड़ गई, जा मिली रज तली में।

हुआ दग्ध अन्तर, उड़ा जल गगन में
बना वाष्प संग्रह, उठा भाव मन में,
कि हो इन्द्रधनु सप्तरंगी मिलन का
रहे सर्वदा रूप भासित नयन मेंं,
बरस ही गया टूट कर आसमां से
सजल कल्पना का भवन ध्वस्त क्षण में।

छ्पिाये हुए उर में पावक विरह का
चला अभ्र धारण किये मन में आशा,
ये वाहक पवन भी तो है किंतु निष्ठुर
उड़ाये निरूद्देश्य होती निराशा,
ह्रदय चीरकर के किया जग उजाला
नहीं बुझ सकी किन्तु दर्शन पिपासा।

उषा के नयन से बरसते तुहिन कण
सजा सुप्त सरसिज, हुआ गात कम्पित,
पवन भी चला मंदरव में सुगन्धित
जगी चेतना तब हुए पत्र पुलकित,
किया दृग अनावृत न देखा किसी को
मिला अश्रुकण भी न, है पुष्प कुसुमित।

छ्पिा शुभ्र दिनकर, घना श्याम अम्बर,
उठा कंप  मन में, उठी एक ईहा,
बुझे प्यास मन की, मिले एक जीवन
सुखद अनुभवों की करूं फिर समीहा,
गिरा सीप में बन गया बिन्दु मोती
तृषित रह गया चिरतृषित ही पपीहा।

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