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Friday, January 20, 2017

वाराणसी दर्शन–गंगा के घाट और गंगा आरती

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गोदौलिया बनारस का सबसे पुराना बाजार है। इसलिए भीड़ तो होगी ही। चौराहे पर लगा बोर्ड बता रहा था– "काशी विश्वनाथ मन्दिर 500 मीटर और दशाश्वमेध घाट 700 मीटर।" चौराहे से पैदल ही जाना है और यही उचित है क्योंकि बाजार और संकरी सड़कों की वजह से गाड़ियां ले जाना काफी समस्या पैदा करने वाला है। फिर भी स्थानीय लोग कहां मानने वाले हैं। रिक्शाें और माेटरसाइकिलों की भीड़ तो थी ही और पैदल की तो पूछना ही क्या।
संकरी सड़कें और उन पर ऑटो रिक्शा की भीड़ की वजह से लगा जाम भी बनारस की एक खूबसूरती है। तो इस खूबसूरती का आनन्द उठाना है तो किराये पर ऑटो रिक्शा ले लीजिए अथवा इससे बचना चाहते हैं तो पैदल चलिए। तो हम पैदल ही बचते–बचाते,धक्के खाते चल दिये। रास्ते में काशी विश्वनाथ मन्दिर का सिंहद्वार दिखाई पड़ा। संगीता की इच्छा दर्शन करने की थी लेकिन अगर दर्शन की लाइन में लग जाते तो वहीं शाम हो जाती। मैं वैसे भी मन्दिरों का बहुत दर्शनाभिलाषी कभी भी नहीं रहा हूं। तो दर्शन का कार्यक्रम किसी तरह से टरकाया और टहलते हुए 2 बजे तक नदी किनारे पहुंचे।
मां गंगा का दर्शन करते ही मेरे मन के सारे पाप एडवान्स में ही दूर हो गये। मैंने संगीता से कह दिया कि मेरे सारे पाप धुल गये हैं,तुम्हारे न धुले हों तो नहा लो। लेकिन इतनी ठण्ड में,नदी के ठण्डे पानी में नहाने में तो बड़े–बड़ाें के छक्के छूट जायें। इसलिए नहाने और शरीर के पापों को धोने का कार्यक्रम भविष्य के लिए टाल दिया गया और केवल दर्शन का कार्यक्रम ही रखा गया। वैसे भी बनारस में गंगा का पानी कोई बहुत साफ नहीं है। कुछ खाने की इच्छा कर रही थी तो 30 रूपये के एक नमकीन के पैकेट और 15 रूपये वाली काफी पर हाथ साफ किया गया। यात्रा के दौरान मैं कम खाने–पीने का पक्षधर हूं क्योंकि इससे पेट हल्का रहता है और चलना फिरना आसान रहता है।

अब बोटिंग करने का फैसला किया गया। नाव वाले तो पहले से ही सिर पड़ रहे थे लेकिन रेट किसी का भी चार या पांच सौ से कम नहीं था। हमने भी किसी मंजे हुए हिन्दुस्तानी तीर्थयात्री की तरह से मोलभाव जारी रखा और केवल 100 रूपये में एक नाव किराये पर ले ही ली। तय हुआ कि दशाश्वमेध घाट से दक्षिण हरिश्चन्द्र घाट तक जायेंगे और वापस आ जाएंगे,सो चल दिए।
"ले चल मुझे भुलावा देकर,मेरे नाविक ....."
घाटों का सिलसिला शुरू हुआ। हमारे नाविक ने एक समझदार गाइड की तरह से बताना शुरू किया– "देखिए सर जी,बनारस में कुल चौरासी घाट हैं और किसी ने भी इन सभी चौरासी घाटों की यात्रा कर ली तो फिर चौरासी लाख जन्मों से उसे मुक्ति मिल जाती है। ये मुंशी प्रेमचन्द का घाट है,ये.....।" तबतक मैंने टोक दिया– "नहीं यार ये मुंशी प्रेमचंद का घाट नहीं है बल्कि उनके नाम पर इसका नाम रखा गया है। और ये सब गाइडों वाली जानकारी हमें मत दो। मैंने यहीं रहकर पढ़ाई की है। ये सब जानता हूँ।" बिचारा नाविक भला आदमी था, चुप लगा गया। वैसे ये मुक्ति या मोक्ष वाली बात मुझे पता नहीं थी क्योंकि इन 84 घाटों के दर्शन मैंने अपने छात्र जीवन में बहुत पहले ही कर लिया था। अब तक तो मुझे मोक्ष मिल जाना चाहिए था। बनारस आने वाला शायद ही कोई तीर्थयात्री इन 84 घाटों की यात्रा करता होगा। इसके लिए तो जुनून चाहिए। मुझे वो दिन याद आ गये जब मैं इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद बनारस में रहकर किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा था। मुझे मेरी ही तरह के दो बेवकूफ मित्र मिल गये थे। अपने जुनून में हम तीनों एक दिन ऑटो पकड़कर राजघाट पुल के पास पहुँच गये और वहाँ सड़क से नीचे उतरकर नदी किनारे घास–फूस,कीचड़–मिट्टी,गंदगी से भरे नाले और शहर के कूड़ेदान के रूप में उपयोग किये जाने वाले कुछ घाटों पर चलते हुए एक कॉपी में सारे घाटों के नाम नोट करते हुए दूसरे छोर तक चलते गये थे।

बहरहाल अब हमने अपनी निगाह से दर्शन शुरू किया और कुहरे को चीरते हुए घाटों के फोटो खींचते रहे। मुंशी घाट के बाद दरभंगा घाट और तब तक ऊपर नजर गई तो लगा कि कोई आलीशान हवेली है। लिखा था– बृज रमा पैलेस। हमारे हमारे नाविक ने बताया कि यह किराये पर चलता है और इसमें विदेशी पर्यटक ठहरते हैं। वैसे तो बनारस में गंगा के किनारे बने इन सभी घाटों पर खड़े होकर ऊपर नजर दौड़ाई जाय तो लगता है कि हम राजस्थान के किसी राजमहलों वाले क्षेत्र में आ गये हैं। गंगा किनारे की सारी जमीन और इसमें बने भवन पहले से ही किसी न किसी के कब्जे में रहे हैं और आज भी किसी निजी मालिक या किसी धार्मिक संस्थान या भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कब्जे में हैं। इसके बाद राणा महल घाट,चौसट्टी घाट,दिग्पतिया घाट,पाण्डेय घाट,बबुआ पाण्डेय घाट,राजा घाट,मानसरोवर घाट,क्षेमेश्वर घाट,केदार घाट,विजयानगरम घाट वगैरह–वगैरह।
कुछ घाट ऐसे भी थे जिन्हें देखकर लग रहा था कि इनका नाम धोबी घाट होना चाहिए। क्योंकि यहां का नजारा ही ऐसा था– नदी में धुले जा रहे कपड़े और किनारे पर बंधी रस्सियों पर फैले कपड़े। क्या विडम्बना हैǃ नदी में हम पाप कम,गन्दगी अधिक बहाते हैं।
घाट तो और भी आगे थे लेकिन हमारा समझौता केवल हरिश्चन्द्र घाट तक ही था। क्योंकि जीवन का सत्य तो यहीं आकर पता चलता है। साथ ही हमारे समाज की वास्तविकता भी। जीवन का अन्त इन्हीं घाटों पर आकर होता है। लेकिन मनुष्य को जीवन देने वाली इन पवित्र नदियों के साथ हम क्या बर्ताव करते हैं वह भी इस घाट पर आकर दिख गया। नदी किनारे जलती लाशों और इसके बाद के सारे अवशिष्टों को नदी में बहा दिये जाने के बाद की परिस्थिति की कल्पना करके मन वितृष्णा से भर उठा।

मैंने दूसरी तरफ नजरें घुमाईं तो गंगा का विराट स्वरूप दिख रहा था। दूर तक फैली जलराशि में तैरती छोटी–छोटी नावें,उन पर यात्रा करते लोग और उन लोगों द्वारा नदी में फेंके जा रहे दानों को चुगने के लिए सैकड़ों की संख्या में टूट पड़ते पक्षी। यह एक दूसरा ही दृश्य दिख रहा था। यही जीवन है।
अब तक हमारा नाविक हांफते हुए नाव को वापस किनारे ला चुका था। डगमगाती नाव से हम सीढ़ियों पर उतरे और अपने अगले लक्ष्‍य की तलाश करने लगे। दशाश्वमेध घाट से उत्तर तरफ एक–दो घाटों के बाद है– मानमन्दिर घाट। इसे आमेर के राजा मानसिंह ने सन् 1600 में बनवाया था। बाद में सन् 1710 में महाराजा सवाई जयसिंह ने इस महल की छत पर एक वेधशाला बनवाई। सवाई जयसिंह के द्वारा ही दिल्ली एवं जयपुर में भी वेधशालाओं का निर्माण कराया गया। वर्तमान में यह भवन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। इसके आकर्षण से प्रभावित होकर हम भी इसके अन्दर पहुंच गये। यहां भी टिकट की व्यवस्था थी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की भेदभाव वाली व्यवस्था के अनुसार विदेशियों के लिए टिकट 200 रूपये और हमारे लिए केवल 20 रूपये।
पहली नजर में तो यह महल बेकार जैसा लगा लेकिन ज्यों–ज्यों इसके अन्दर प्रवेश करते गये इसकी कलात्मकता का अनुभव होता गया। इसकी दीवारों,छतों एवं खिड़कियों पर की गयी कारीगरी को देखकर मन सम्मोहित हो उठा। इसकी छत पर बनी वेधशाला के उपकरण आज भी काम करने की स्थिति में हैं। इन उपकरणों को देखकर यह महसूस हो जाता है कि आज से 300 साल पहले भी विज्ञान कितनी उन्नत दशा में था। वर्तमान में इन उपकरणों को प्रचालित करने वाले वास्तविक खगोलशास्त्री यहां के बन्दर हैं जिनसे बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है। क्योंकि हमारे सामने ही एक बन्दर ने एक पर्यटक को काट लिया।

मानमन्दिर से निकलकर हमने एक छोटी सी चाय की दुकान पर धरना दिया। कुछ बेकरी वाले बिस्कुट और चाय। फिर आगे की यात्रा। एक बार फिर नाव की सवारी। लेकिन इस बार थोड़ा महंगा पड़ा। इस बार दशाश्वमेध घाट से उत्तर मर्णिकर्णिका घाट तक की यात्रा 150 रूपये में तय करनी पड़ी। फिर मानमन्दिर घाट से सिलसिला शुरू हुआ तो ललिता घाट,त्रिपुर भैरवी घाट,मीर घाट आदि–आदि घाटों से चलता हुआ मणिकर्णिका घाट तक पहुंच गया।
फिर वह दृश्य सामने था जिसके प्रतिभागी हिन्दुस्तानी लोग थे और दर्शक वर्ग जो किराये की नावों पर बैठा था,विदेशों से आया हुआ था। चिताओं पर जलते मानव शरीर,घाट पर लगा हुआ लकड़ियों का अम्बार,नदी उस पार से नावों पर लाद कर लायी जातीं लकड़ियां,मकानों और मन्दिरों काे अपने आगोश में लेता हुआ धुएं का गुबार,एक मनुष्य को उसकी जीवन यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुंचाने आयी अनगिनत मनुष्यों की भीड़ और इस सम्पूर्ण दृश्य की विचित्रता को निर्विकार भाव से देखते विदेशी दर्शक। कितना अजीब हैǃ
हम भी कुछ देर तक इस दृश्य के भागीदार बने रहे और फिर वापस चल दिये। मानमन्दिर घाट पर उतरे और फिर उसके उत्तर में बने ललिता घाट की ओर चल दिये। मंजिल थी ललिता घाट पर बना एक मन्दिर। यह घाट और वहां बना पाशुपतेश्वर का मन्दिर नेपाल के राजा द्वारा बनवाया गया था। नेपाली शैली में लकड़ी का बना यह मन्दिर अत्यन्त सुन्दर है। कुछ समय हमने मन्दिर के आस–पास बिताया और फिर दशाश्वमेध घाट की ओर चले क्योंकि हमारी आखिरी मंजिल गंगा आरती अभी बाकी थी। काफी थक चुके थे इसलिए चने का दाना खाने के बाद काफी पी गयी। अभी गंगा आरती में कुछ समय बाकी था इसलिए वहीं सीढ़ियों पर बैठ गये।

सीढ़ियों पर बैठे–बैठे हम कैमरे की नजर से गंगा आरती की तैयारियों को देखते रहे। विदेशी मेहमानों के बैठने के लिए उनके होटल वालों ने कुर्सियों की व्यवस्था की थी। देशी दर्शकों के लिए भी कुछ दरियां बिछी हुईं थीं। लेकिन मुझे फोटो खींचने थे इसलिए मैंंने एक उपयुक्त जगह देखकर नंगे फर्श पर आसन जमा लिया नहीं तो कोई और उस जगह को कब्जा लेता। जनवरी के पहले हफ्ते में नंगे फर्श पर बैठना किसी तपस्या से कम नहीं था फिर भी आरती तो देखनी ही थी।
लगभग 6.30 बजे आरती शुरू हुई। अलौकिक दृश्य था। घाट पर रंग–बिरंगी बिजली की सजावट। पृष्ठभूमि में मधुर धुनों पर बजता धार्मिक गीत–संगीत। लम्बी–लम्बी रस्सियों के सहारे बजती घंटियां। विभिन्न विधानों से आरती करते विप्रजन। और इस स्वर्गिक दृश्य के हर एक पल के साथ एकाकार हो जाने को आतुर सीढ़ियों और नावों पर सवार भारी जनसमूह। इस दृश्य का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। हम भी मंत्रमुग्ध हो ठण्ड और समय की परवाह किये बिना देखते रहे। 
और जब लगभग 45 मिनट बाद आरती समाप्त हुई तो लगा जैसे कोई मायाजाल टूटा हो। ठण्ड लग रही थी। ठण्ड की वजह से मैं कब उकड़ूँ बैठ गया था पता ही नहीं चला। हम जल्दी से आटो रिक्शा पकड़ने के लिए गोदौलिया चौराहे की ओर दौड़ पड़े।

तारों के जंजाल के बीच दिखता काशी विश्वनाथ मन्दिर का सिंहद्वार 
इसे क्या कहा जायǃ







मोक्ष प्राप्ति हेतु गंगा यात्रा


इसका नाम धोबी घाट नहीं तो और क्या ठीक रहेगाǃ
दाने के लालच में नावों पर मंडराते पक्षी
हरिश्चन्द्र घाट
गंगा का विस्तार 


दशाश्वमेध घाट पर अपनी–अपनी दुकान लगाये छाताधारी सैनिक

नदी किनारे विचरण करते ये भोले बाबा मिल गये जिन्हे फोटो खींचने के एवज में दस रूपये देने पड़े

ये पिल्ले विदेशी पर्यटकों के लिए कौतूहल का विषय बने हुए थे

मान मन्दिर की वेधशाला
मान मन्दिर


मानमन्दिर वेधशाला के असली खगोलशास्त्री


मानमन्दिर की दीवारें व खिड़कियां
मानमन्दिर की छत का दृश्य
मानमन्दिर के ऊपर से लिया गया फोटो
भोले बाबा की नगरी में ये न मिलेǃ

डोमराजा का महल

मणिकर्णिका घाट
मर्णिकर्णिका घाट पर नदी में धंसे एक मन्दिर के बारे तमाम किंवदन्तियां प्रचलित हैं 

ललिता घाट पर नेपाली राजा द्वारा बनवाया गया मन्दिर
गंगा आरती की तैयारी








आरती देखने के लिए नावों पर सवार जनसमूह

सम्बन्धित यात्रा विवरण–

2 comments:

  1. मोल भाव के तो आप मास्टर हो चुके हो....आपकी हर यात्रा में एक नया मोल भाव देखने मिलता है....

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  2. ब्रजेश भाई, नपे-तुले शब्दों में एक बढ़िया लेख, बनारस भी कई बार जाना हुआ है लेकिन गंगा आरती में शामिल होने का सौभाग्य मुझे अभी तक नहीं मिल पाया है ! हर यात्रा से वापसी करते हुए यही विचार आते है कि गंगा आरती अगली बार ही सही !

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