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Friday, August 6, 2021

मंदार पहाड़ी पर

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विक्रमशिला के बाद अब मेरी अगली मंजिल थी– मंदार पहाड़ी। वैसे तो यहाँ जाने के लिए बारिश का मौसम ही बेहतर होता है क्योंकि उस समय पर्याप्त हरियाली होती है,लेकिन मुझे तो अप्रैल का महीना ही मिला था। वो कहते हैं न कि सावन के अंधे को हर जगह हरा ही सूझता है,तो मुझे भी घूमने के लिए किसी मौसम की दरकार नहीं होती। अब मुझे कहलगाँव और उससे आगे मंदार हिल तक जाना था। भरी दुपहरी और आगे मिलने वाले रास्ते के बारे में सोचकर ही रूह काँप रही थी। लेकिन जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों का क्या डरǃ भागलपुर–कहलगाँव वाली सड़क के दोनों किनारे बने ईंट–भट्ठों को कोसते हुए मैं चलता रहा। खराब सड़क का डर मन में इतना गहरे पैठ गया था कि मंदार हिल जाने के लिए गलत रास्ता पकड़ लिया। वैसे तो पूरी यात्रा में मैंने गूगल मैप का सहारा लिया था लेकिन इस बार थोड़ी जल्दबाजी हो गयी। मुझे कहलगाँव से भागलपुर की ओर लगभग  10 किलोमीटर चलने के बाद मंदार हिल की तरफ मुड़ना चाहिए था। यहाँ से मंदार हिल का बिल्कुल सीधा रास्ता मिल जाता है लेकिन मैं चिकनी सड़क देखकर गूगल मैप के सहारे कुछ किलोमीटर पहले ही मुड़ गया। इसमें भी गूगल मैप की कोई गलती नहीं थी। अब मुझे लिंक सड़कों के सहारे काफी इधर–उधर भटकना पड़ा। समय भी अधिक लग गया। इस भटकने का फायदा यह रहा कि एक दुकान पर 10 रूपये के रेट वाले बहुत ही अच्छे पेड़े खाने को मिले। नुकसान ये कि एक जगह पुलिस की चेकिंग में मॉस्क न लगाने की वजह से 50 रूपये का जुर्माना भरना पड़ा। 
थोड़ी सी सहूलियत जुर्माना भरने में यहाँ भी हई। वो ये कि यहाँ पुलिस ने जितने भी मुर्गे पकड़ रखे थे,उनमें सबसे पहले मुझसे जुर्माना वसूला गया जिससे कि मास्टर साहब को जल्दी छुट्टी मिल सके। वैसे भी मास्टर साहब लोग जल्दी छुट्टी के लिए लालायित रहते ही हैं। अब तक की यात्रा में पुलिस से कई बार साबका पड़ा था लेकिन कोई समस्या नहीं आयी थी। बल्कि एक जगह तो एक दारोगा जी बहुत प्रभावित भी हुए कि मैं इतनी दूर से बाइक पर घूमने आया हँ,वो भी बिहार। चूँकि घूमने के नाम पर बिहार की ओर कम ही लोग आते हैं।

जैसा कि मैं पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि मैंने गलत रास्ता पकड़ लिया था,तो काफी कुछ इधर–उधर भटकते हुए मैं फिर से उसी मुख्य मार्ग पर पहुँच गया जिस पर मुझे पहले आना चाहिए था। विक्रमशिला से अब तक मैं 36 की बजाय 52 किलोमीटर चल चुका था और अभी मंदार हिल तक 33 किलोमीटर जाना था। अविवेकपूर्ण निर्णय की सजा मिल रही थी,उस परिस्थिति में जबकि एक–एक मिनट कीमती था। दरअसल भागलपुर और कहलगाँव के बीच की सड़क की खराब दशा ने मुझे ऐसा निर्णय लेने पर बाध्य कर दिया था। शाम के लगभग 4 बजे मैं मंदार पहाड़ी पहुुँचा। पहाड़ी से कुछ ही दूरी पर एक गाँव है लेकिन पहाड़ी पर आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए पहाड़ी के नीचे एक छोटा सा बाजार बस गया है। एक पेड़ की छाया में मैं बाइक खड़ी करके किसी ऐसे आदमी की खाेज करने लगा जिसे बाइक और उस पर बँधे बैग का जिम्मा दिया जा सके। पास ही एक बाइक पर सवार तीन युवक भी इसी उधेड़बुन में थे। उन्होंने तो यहाँ तक निर्णय कर लिया था कि दो ऊपर घूमने जाएंगे और एक बाइक की रखवाली करेगा। मैं अकेला किसके सहारे बाइक को छोड़ता? तभी हाथ में झोला लटकाये एक ʺलगभग बुजुर्गʺ व्यक्ति मेरी तरफ आया और एक छोटी सी पर्ची झोले में से निकाल मेरी ओर बढ़ा दी। मैं समझ गया कि यह पर्ची बाइक के लिए ही होगी। मैंने पूछा–
ʺबाइक सुरक्षित रहेगी न?ʺ
ʺआपको चिन्ता करने की जरूरत ही नहीं है।ʺ
वैसे भी मैंने जिस दिन से बिहार में प्रवेश किया था,चिन्ता करना छोड़ ही दिया था।
ʺकितने पैसे?ʺ
ʺ5 रूपये।ʺ
ʺबाइक पर बैग भी है।ʺ
ʺकोई बात नहीं।ʺ
ʺहेलमेट भी है।ʺ
ʺफिर तो 10 रूपये लगेंगे।ʺ
उसने संविधान पीठ का अन्तिम निर्णय सुना दिया। मैंने बिना अधिक सोचे 10 रूपये आगे बढ़ा दिये और पिट्ठू बैग पीठ पर लादकर चल पड़ा,बिना इस बहस में पड़े कि असली मंदराचल पर्वत यही है या कोई और। वैसे दूर से देखकर तो यही लगता है कि असली मंदराचल यही होना चाहिए। क्योंकि इसके चिकने किनारे समुद्र मंथन के दौरान पानी की रगड़ से ही इतने चिकने हुए होंगे। अब भूगोलवेत्ता तो इसकी कुछ अलग ही व्याख्या करेंगे। उनकी नजर में समुद्र में मथनी के रूप में प्रयोग किये जाने के लिए यह पहाड़ शायद बहुत छोटा हो। मैं भी सोच रहा था कि समुद्र मथने के लिए इसे यहाँ से उठाकर कितनी दूर समुद्र तक ले जाया गया,फिर इसे यहाँ लाकर रखा गया। कितनी मेहनत की गयी होगीǃ वैसे इन मान्यताओं पर बहस करने की गुंजाइश नहीं। ये आस्था का विषय हैं।

नीचे से आरम्भ करके पहाड़ी के शीर्ष पर बने जैन मन्दिर तक पहुँचने के लिए पक्की सीढ़ियाँ बन गयी हैं। इस कारण इस पहाड़ी पर संभवतः ट्रेकिंग का वास्तविक आनन्द ही खत्म हो गया है। पहाड़ी की बाहरी चिकनी बनावट को देखकर तो यही प्रतीत होता है कि जिस समय सीढ़ियाँ नहीं बनी होंगी,इसकी चढ़ाई काफी कठिन रही होगी। पहाड़ी के आधार के पास एक जलाशय है जिसका नाम पापहरणी है। ऐसे धार्मिक नाम हमारे भारत में बहुत सारे मिल जाएंगे। लेकिन कोरोना का डर कहें या और कुछ,आज के दिन इस जगह भीड़ का बिल्कुल अता–पता नहीं था। नहीं तो मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि यहाँ भीड़ अच्छी–खासी होती होगी। जलाशय के बीच में भगवान विष्णु का एक मन्दिर बना हुआ है। इसी प्रांगण के पास से मंदार पहाड़ी की चढ़ाई शुरू होती है। मेरे अलावा कुछ और लोग भी मंदार पहाड़ी की ऊँचाई पर मस्ती करने के लिए जा रहे थे। ये बात और थी कि इस सूखे मौसम में पहाड़ी बिल्कुल सूखी–सूखी सी दिख रही थी। पहाड़ी की मध्यवर्ती ऊँचाई पर सीता कुण्ड नामक एक छोटा सा तालाब स्थित है जो इस पहाड़ी का संभवतः सर्वाधिक सुन्दर स्थान है। इस तालाब से ऊपर बायीं तरफ कुछ ऊँचाई पर एक छोटा सा हिन्दू मन्दिर बना हुआ है जिसके सामने दो साधु आराम से बैठे हुए थे,दुनिया की सारी झंझटों से बिल्कुल निश्चिंत। मेरी भी इच्छा इसी तरह की निश्चिंतता प्राप्त करने की होती है लेकिन शायद परिवार बसा लेने के बाद यह संभव नहीं दिखता। फिर तो अंतहीन जिम्मेदारियों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
दाहिनी तरफ का रास्ता सर्वाधिक ऊँचाई पर बने जैन मन्दिर की ओर चला जाता है। मैं भी इसी तरफ चल पड़ा। चढ़ाई तेज थी और मैं समय बचाने के लिए तेजी से भाग रहा था। ऊपर तक पहुँचते–पहुँचते पसीने छूट गये। फिर भी रास्ते में रूकते–चलते नीबू–पानी पीते और फोटो खींचते,मैं आधे घण्टे से भी कम समय में जैन मन्दिर तक पहुँच गया। यद्यपि मैं नीचे से ही बोतल में पानी भरकर लाया था,लेकिन यह गर्म हो गया था। रास्ते में  एक जगह 10 रूपये में नीबू–पानी बिक रहा था। मैंने भी सूखते गले को तर करने की गरज से एक गिलास नीबू–पानी खरीदा लेकिन उसकी मात्रा और गुणवत्ता देखकर फिर दुबारा पीने की हिम्मत नहीं पड़ी। मुझे नासिक की अंजनेरी पहाड़ी का वह 5 रूपये वाला नीबू–पानी याद आ गया जिसे मैंने कई गिलास पिया था। वहाँ 5 रूपये में नीबू–पानी के बाद कई गिलास पानी भी मिला था लेकिन यहाँ 10 रूपये में एक गिलास नीबू–पानी के बाद एक बूँद पानी भी मयस्सर नहीं हुआ। मीठे मुँह विदाई कर दी गयी। मैं नीबू–पानी वाले को आशीर्वाद देता हुआ हुआ आगे बढ़ गया। मंदार पहाड़ी पर नीचे से ऊपर जाते समय पूरे रास्ते में जगह–जगह छोटी–छोटी मुर्तियाँ और पूजा किये जाने वाले छोटे–छोटे स्थान बने हुए हैं।

मंदार पहाड़ी बिहार के बांका जिले में अवस्थित है। मान्यता है कि इस पहाड़ी पर भगवान विष्णु का निवास है। पौराणिक मान्यता के अनुसार एक बार देवासुर संग्राम के समय देवताओं और असुरों द्वारा समुद्रमंथन के लिए इसी पहाड़ी को मथनी के रूप में प्रयोग में लाया गया था। अब समुद्रमंथन के पश्चात इस पहाड़ी को समुद्र से इतनी दूर लाकर क्यों रखा गया,पता नहीं। इतना ही नहीं,इस पहाड़ी के ऊपर हिन्दू और जैनियों के मन्दिर भी बन गये। मन में मंथन करते मैं जैन मन्दिर तक पहुँचा और एक परिक्रमा के पश्चात नीचे उतर पड़ा। जैन मंदिर में कुछ निर्माण कार्य भी चल रहा था।
नीचे पहुँचा तो मेरी बाइक,उस पर बँधा बैग और हेलमेट पूरी तरह सुरक्षित मेरा इन्तजार कर रहे थे। अलबत्ता मैंने जिसे इन सबका जिम्मा सौंप रखा था वही गायब था। दरअसल अब शाम हो रही थी और पहाड़ी पर घूमने वाला अब कोई नहीं था। तो टिकट वाले बुजुर्ग ने भी संभवतः अपने घर का रास्ता नाप लिया होगा। अकेले मेरी गाड़ी की रखवाली करने से रहा।

शाम के सवा पाँच बज चुके थे। अब मुझे भागलपुर तक लगभग 50 किलोमीटर भागना था। कमरा भी खोजना था। मैं सिर पर बाइक रखकर भागा। राहत की बात ये थी कि अब बिल्कुल सीधी और अच्छी सड़क पर चलना था। मुझे सूत्रों से पता चला था कि भागपुर में रेलवे स्टेशन के आस–पास काफी होटल मिलेंगे। मैं गूगल मैप के सहारे भागपुर रेलवे स्टेशन तक पहुँचा। स्टेशन पहुँचने के पहले ही होटल दिखने शुरू हो गये। भागलपुर रेलवे स्टेशन से सुल्तानगंज की ओर जाने वाली सड़क पर बहुत सारे होटल हैं। इन्हीं में से मैंने अपने लिए एक चमकता–दमकता होटल चुना। होटल किसी बंगाली दादा का था। दादा ने मेरी बाइक देखकर ही मेरा परिचय पूछना शुरू कर दिया। सारा परिचय जान लेने के बाद मुझसे बहुत प्रभावित हुए तथा अपनी आवभगत के द्वारा मुझे भी प्रभावित किया। 300 में एक डबल रूम फिक्स हो गया। बाइक कुछ देर के लिए बाहर खड़ी रही और फिर अन्दर उसने अपने लिए भी जगह तलाश ली।

आज दिन भर की यात्रा में शरीर पर इतनी धूल पड़ी थी कि मैंने पहले स्नान किया और फिर खाने की तलाश में भागलपुर की सड़कों पर निकल गया। क्योंकि मुझे कहीं भी खाने की तलाश करनी पड़ती है। आधे–पौन घण्टे तक इधर–उधर भटकने के बाद मैं असफल होकर लौट आया और फिर होटल वाले से ही शाकाहारी रेस्टोरेण्ट के बारे में पता किया। पता चला कि बगल वाली गली में दूसरी मंजिल पर एक शाकाहारी होटल है। नाम वो बिचारा भी नहीं बता पाया। आखिर 10-15 मिनट की तलाश के बाद मैं अपनी मंजिल तक पहुँचा। खाना तो साधारण ही मिला,लेकिन रेस्टोरेण्ट शुद्ध शाकाहारी था।
होटल के काउण्टर पर नाइट ड्यूटी दादा के लड़के की थी। रात में उससे भी परिचय हुआ। ढेर सारी बातें हुईं। इतना तो पक्का हो चुका था कि मेरी तरह से बाइक पर बिहार घूमने कोई विरला ही आता है। बाहरी लोग बिहार के नाम पर वैसे ही कम आते हैं और जो भी आते हैं राजगीर,नालंदा और बोधगया से लौट कर चले जाते हैं। बड़ी संख्या बिहार के लोगों की ही होती है। लड़के ने मुझे भागलपुर की कुछ घूमने लायक जगहों के बारे में बताया। लड़के ने बताया कि भागलपुर की प्रसिद्धि जिस चीज से है,वह है भागलपुरी सिल्क। भागलपुरी चद्दरों का प्रयोग तो हम सभी करते हैं लेकिन इस तथ्य पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। उसने मु्झे भागलपुरी चद्दरों की दुकानों के बारे में भी बताया लेकिन समस्या यह थी कि मुझे चद्दर खरीदनी ही नहीं थी।

अगली सुबह मैं लड़के के बताये अनुसार भागलपुर की दो जगहों पर घूमने के लिए निकला। ये दो जगहें थीं– बूढ़ानाथ या वृद्धेश्वरनाथ मंदिर और कुप्पाघाट आश्रम। ये दोनों ही स्थान शहर के बिल्कुल भीतर,गंगा के किनारे अवस्थित हैं और यहाँ तक पहुँचने के लिए पतली सड़कों पर भटकते हुए मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ी। वृद्धेश्वरनाथ भगवान शिव का मंदिर है जहाँ दर्शन करने के बाद मैं कुप्पाघाट की ओर चल पड़ा। कुप्पा का अर्थ होता है गुफा या सुरंग। यहाँ महर्षि मेंही ने साधना की थी और उन्हीं की स्मृति में यहाँ एक आश्रम की स्थापना की गयी है। आश्रम में बनी इमारतों के अलावा एक खूबसूरत पार्क भी बनाया गया है जो दर्शनीय है। धार्मिक लोगों के लिए दोनों ही स्थान घूमने लायक हैं।




मंदार पहाड़ी के ऊपर स्थित तालाब










मंदार पहाड़ी के नीचे बना मंदिर

मंदार पहाड़ी


वृद्धेश्वरनाथ मंदिर

कुप्पाघाट आश्रम के कुछ नजारे–







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