पोखरा अभी वालिंग से 2 घण्टे की दूरी पर था। शाम होने को आ रही थी सो हमने यहीं रूकने का फैसला किया। हमने वहीं खड़े–खड़े ही आस–पास नजर दौड़ाई तो सड़क के दोनों किनारों पर कुछ होटल दिखाई पड़े। कुछ देर तक हम दोनों तरफ के होटलों की ओर बारी–बारी से ललचाई निगाहों से देखते रहे,ताकि किसी हाेटल का कोई एजेण्ट हमारे पास आए और हम उससे मोल–भाव करने के साथ साथ कुछ जानकारी भी हासिल कर सकें। लेकिन हायǃ किसी ने इन अभागों को घास नहीं डाली। हार मानकर हम खुद ही एक होटल के दरवाजे तक पहुँचे।
किसी पारिवारिक मकान के दरवाजे जैसे दिखते,लाॅज के प्रवेश द्वार से अन्दर घुसते ही,नेपाली चेहरे और कद–काठी का एक आदमी मिला। सामने दिख रहे एक कमरे,जो कि संभवतः किचेन था,में एक सुंदर महिला भी दिख रही थी।
"कमरा मिलेगा?"
"कितने लोग हैं?"
"दो हैं।"
"फेमिली हैं कि फ्रेण्ड?"
मैं चौंक पड़ा। मैंने सोचा कि हो सकता है दोनाें के लिए अलग प्रकार के कमरे मिलते हों।
मैं चौंक पड़ा। मैंने सोचा कि हो सकता है दोनाें के लिए अलग प्रकार के कमरे मिलते हों।
"फ्रेण्ड हैं भई।"
"मिल जाएगा।"
"कितने में मिलेगा?"
"500 में।"
"कुछ कम नहीं होगा।"
अपनी तो आदत है मोल–भाव करने की।
"देखो साहबǃ मकान वाले को किराया भी देना है। किराए पर मकान लेकर लाॅज चलाता हूँ। बिजली का बिल भी देना है।"
लाख प्रयास करने पर भी अगला रेट कम करने को तैयार नहीं था।
"बाथरूम होगा न कमरे में।"
"अटैच्ड नहीं है। यहाँ हर जगह ऐसे ही मिलेगा।"
भारत में बहुत जगह गया हूँ लेकिन होटल में इतने सवालों का सामना शायद ही कहीं करना पड़ा हो। होता तो ये है कि होटल वाला कमरा दिखाने की बात पहले करता है,रेट बाद में बताता है,अगर बहुत भीड़–भाड़ वाला सीजन न हो तो।
भारत में बहुत जगह गया हूँ लेकिन होटल में इतने सवालों का सामना शायद ही कहीं करना पड़ा हो। होता तो ये है कि होटल वाला कमरा दिखाने की बात पहले करता है,रेट बाद में बताता है,अगर बहुत भीड़–भाड़ वाला सीजन न हो तो।
कमरा पहली मंजिल पर था। वेल मेन्टेण्ड। परदे वगैरह लगे हुए। दो सिंगल बेड लगे हुए थे लेकिन अलग–अलग दो दीवारों के साथ। दोनों के बीच खाली जगह थी। मेन रोड की ओर खुलने वाली बड़ी–सी खिड़की से बाहर का नजारा दिखाई दे रहा था। हो सकता है यह फ्रेण्ड वाला कमरा हो। फेमिली वाले कमरों में शायद बेड एक साथ लगे होते होंगे– हमने आपस में मजाक किया। हमारा कमरा दो बेड का था। बगल में एक तीन बेड का कमरा था और इन दोनाें कमरों के लिए एक ही बाथरूम था। पाँच सौ नेपाली रूपए में कमरा महँगा नहीं था। 500 नेपाली मतलब लगभग 300 इण्डियन। इतना तो चल ही सकता है। नेपाल में रेट पूछते समय यह पूछ लेना आवश्यक होता है कि सामने वाला नेपाली में रेट बता रहा है या किसी अन्य मुद्रा में। वैसे तो भरसक नेपाली में ही सारे रेट बताए जाते हैं लेकिन कहीं–कहीं सामने वाला आपको भारतीय समझकर भारतीय रूपए में भी रेट बता सकता है और ऐसी स्थिति में भारी गफलत हो जाएगी।
हमने कमरा ले लिया। कमरा देते समय होटल मैनेजर ने दोनों हाथ जोड़कर पानी कम गिराने की प्रार्थना की।
"नहा तो सकते हैं न?"
"हाँ,नहाना मना नहीं है लेकिन पानी की बहुत कमी है। सड़क बनी रही है जिससे पाइप लाइन टूट गयी है।"
"साबुन लगाकर नहा सकते हैं कि नहीं?"
मेरे इस सवाल पर उसने हार मानने की मुद्रा में फिर से हाथ जोड़ लिए और सिर हिलाते हुए दूसरी तरफ खिसक गया।
सब कुछ तय करने के बाद भी एक बात अभी बाकी रह गयी थी और वह थी बाइक। होटल में बाइक खड़ी करने की कोई जगह दिखायी नहीं पड़ रही थी। बाइक को रात में कहाँ खड़ी करेंगेǃ मेरे इस सवाल पर होटल वाले ने सामने सड़क के उस पार बने एक छोटे से कमरे की ओर इशारा कर दिया।
मैंने पूछा– "वह क्या है।"
उसका जवाब था– "पुलिस चौकी।"
एक छोटे से कमरे के सामने की छोटी सी जगह को चारदीवारी से घेर दिया गया था और एक छोटा सा गेट भी लगा था। कमरे के दरवाजे के ऊपर लगे एक बोर्ड से यह जाहिर हो रहा था कि यह पुलिस स्टेशन ही है। एक बाइक व एक स्कूटी भी वहाँ पहले से खड़ी थी। मैंने फिर सवाल किया– "वहाँ बाइक सेफ तो रहेगी?"
मैंने पूछा– "वह क्या है।"
उसका जवाब था– "पुलिस चौकी।"
एक छोटे से कमरे के सामने की छोटी सी जगह को चारदीवारी से घेर दिया गया था और एक छोटा सा गेट भी लगा था। कमरे के दरवाजे के ऊपर लगे एक बोर्ड से यह जाहिर हो रहा था कि यह पुलिस स्टेशन ही है। एक बाइक व एक स्कूटी भी वहाँ पहले से खड़ी थी। मैंने फिर सवाल किया– "वहाँ बाइक सेफ तो रहेगी?"
"हाँ,पुलिस चौकी है। सभी लोग वहीं खड़ी करते हैं। आप कहीं भी कमरा लेंगे,बाइक तो वहीं खड़ी करनी पड़ेगी।"
मैं ये सोच रहा था कि वालिंग के सारे होटलों में ठहरने वालों की गाड़ियाँ इस पुलिस चौकी के छोटे से कैम्पस में कैसे खड़ी होंगी। हो सकता है सबके लिए शहर में अलग–अलग स्थान हों लेकिन इस होटल के लिए तो यही स्थान सुरक्षित था।
मैं ये सोच रहा था कि वालिंग के सारे होटलों में ठहरने वालों की गाड़ियाँ इस पुलिस चौकी के छोटे से कैम्पस में कैसे खड़ी होंगी। हो सकता है सबके लिए शहर में अलग–अलग स्थान हों लेकिन इस होटल के लिए तो यही स्थान सुरक्षित था।
मैं भी अपनी बाइक लेकर वहीं पहुँचा। इधर–उधर ताक–झाँक की तो कोई नहीं दिखा। गाड़ी खड़ी की और धीरे से होटल चला आया।
होटल में जो आदमी हमें पहले–पहल मिला था,और जो महिला दिखी थी,दाेनों पति–पत्नी थे और मिलकर इस होटल और रेस्टोरण्ट का संचालन कर रहे थे। हमें रात के भोजन की भी आवश्यकता थी सो उसके बारे में भी बात की। पता चला कि 150 रूपए में थाली वाला खाना मिल जाएगा। अब थाली मतलब नेपाली थाली,जिसमें भारतीय थाली की तरह से रोटियां नहीं होतीं। केवल चावल,सब्जी व दाल होते हैं। उसने जानकारी दी कि चिकेन भी मिल सकता है। इण्डियन थाली नहीं मिल पाएगी। रोटी कौन बनाएगाǃ पहली बार पता चला कि नेपाली लोग रोटी नहीं खाते हैं या फिर बहुत कम खाते होंगे।
मैंने मन ही मन अपनी किस्मत को जी भर कर कोसा। कहाँ से यह घुमक्कड़ी का रोग पाल लिया। चले आए नेपाल में और खाएंगे सिर्फ घास–पात। अब एक ही किचेन में चावल–दाल–सब्जी भी बनेगा और चिकेन भी। एक ही आदमी बनाएगा और फिर परोसेगा भी। फिर भी अब घुमक्कड़ी करनी है तो इतना तो एड्जस्ट करना ही पड़ेगा। मेरे साथ ये समस्या हमेशा पैदा होती है तो इसमें कोई नई बात नहीं थी। मेरे मित्र संतराज को कोई दिक्कत नहीं थी। नाम तो है "संतराज",लेकिन सर्वाहारी हैं। लेकिन मेरे लिए ऐसी परिस्थिति में समस्या खड़ी हो जाती है।
6 बज गए थे। अभी खाना मिलने में एक–डेढ़ घण्टे का समय था। बैठने से बेहतर था कि वालिंग की गलियों का एक चक्कर लगाया जाए। कुछ तो देखने काे मिलेगा। तो हम दोनों एक तिराहे से मुख्य सड़क छोड़कर नीचे ढलान की ओर जाने वाली सड़क पर निकल पड़े। वैसे तो नेपाली शहरों व बाजारों का रहन–सहन हम सोनौली के बाद सिद्धार्थनगर और बुटवल में भी देख चुके थे लेकिन वालिंग में तो बहुत कुछ दिख गया। हर दुकान पर शराब की बोतलें– किराने की दुकान हो या सब्जी की,होटल हो या रेस्टोरण्ट,सब जगह दिखाई पड़ रही थीं। अब हिन्दुस्तानी दारूबाजों के लिए तो यह देश स्वर्ग साबित होता। लेकिन सरकारों ने शायद इसकी अनुमति नहीं दी है। मीट की दुकानें भी बड़ी संख्या में दिख रही थीं। हाँ,हमारे कस्बों की तरह से सड़क किनारे खुले में मीट बिकता कहीं नहीं दिखा। हर घर में दुकान। आगे दुकान,पीछे मकान। और हाँ,मुझे तो ऐसा लगा कि दुकानों की संख्या खरीदारों से भी अधिक होगी। इसलिए कि खरीदार शायद ही कहीं दिख रहे थे। हमने भी मूँग की दाल के नमकीन का पैकेट खरीदा। हमारे अनुमान से इसे 10 भारतीय रूपए वाला पैकेट होना चाहिए था। लेकिन दुकानदार ने हमसे 20 नेपाली रूपए ले लिए। खरीदने से पहले हमने उसके प्रिण्ट रेट पर ध्यान नहीं दिया।
वालिंग की समुद्रतल से ऊँचार्इ लगभग 750 मीटर है तो मई–जून के महीने में हमारे मैदानों की तुलना में,मौसम में मामूली अन्तर ही था। रात भले ही कुछ अधिक ठण्डी हो जाए।
इधर हम तो वालिंग की सड़काें पर निरीक्षण कर रहे थे और उधर इस बात से अन्जान थे कि हमारा चेहरा यह बताने के लिए काफी है कि हम यहाँ के लिए बाहरी हैं। अधिकांश निगाहें हमारी तरफ उठ जा रही थीं। वैसे इस बात से कोई विशेष समस्या नहीं थी। भारत में आने वाले नेपाली कौतूहल का विषय हो सकते हैं लेकिन नेपाल में भारतीयों का आना–जाना एक आम बात है। हाँ,ये और बात है कि वालिंग में कम ही पर्यटक ठहरते होंगे और वालिंग की गलियों में टहलने वाला तो शायद ही कोई आता होगा। नेपाल–भारत सीमा से बुटवल तक मैदानी या तराई का क्षेत्र है। यहाँ की जनसंख्या भी मिश्रित है। अर्थात लोगों के चेहरे देखकर यह नहीं स्पष्ट होता कि वे नेपाली हैं कि भारतीय। लेकिन बुटवल से ही पहाड़ी इलाका शुरू हो जाता है और लोगों के चेहरे पर नेपाली पहचान स्पष्ट हो जाती है। तो वालिंग में संभवतः अधिकांश आबादी नेपाली ही होगी।
एक घण्टे तक टहलने के बाद हम होटल वापस लौट आए। लेकिन अभी खाना मिलने में लगभग आधे घण्टे की देरी दिखायी पड़ रही थी तो हम एक मेज कब्जा करके बैठ गए। अगल–बगल की मेजाें पर कुछ पुरूष व महिलाएं,जो कि नेपाली ही थे,बैठे थे। चिकेन की दावत चल रही थी। जाम छलक रहे थे। उनकी थाली रंगीन थी। वालिंग की शाम अपने पूरे शबाब पर थी और हम अभी अपनी "सादी" या "बेरंग" थाली का इंतजार कर रहे थे। किस्मत की ही बात है।
समय हुआ तो हमारी भी थाली आयी। इस सादी थाली में जगह–जगह आइटम तो कई रखे थे लेकिन स्वाद किसी में नहीं था। फिर भी पेट तो भरना ही था क्योंकि दिन भर सड़कों पर धूल फाँकने के बाद भी भूख जोर की लगी थी। मैं डर–डर के मुँह में कौर डाल रहा था कि कहीं कोई नान–वेज आइटम मेरी थाली में न आ गया हो। अब किसी तरह पेट भरा तो सोना भी जरूरी था। कमरे में गद्दे काफी मोटे लगे थे लेकिन जिसे गद्दे पर सोने की आदत न हो उसे मोटे गद्दे पर क्या खाक नींद आएगीǃ फिर भी नींद के लिए गद्दे नहीं,वरन थकान की जरूरत पड़ती है और वो हमारे पास थी।
31 मई
लगभग पौने एक घण्टे में हमारी तलाश पूरी हो सकी। कमरा वैसे तो दूसरी मंजिल पर था लेकिन शंका मिटाने के लिए नीचे उतरने वाली बीमारी नहीं थी। 600 में नान–अटैच्ड व 800 में अटैच्ड। हमने लाख मोल–भाव करने की कोशिश की लेकिन रेट तो रेट है। टस से मस नहीं हुआ। ऐसा रेट मैंने अभी भारत में कहीं नहीं देखा था। तो फिर एक नान–अटैच्ड कमरा बुक कर लिया गया। कमरे के अन्दर की साज–सज्जा अच्छी की गयी थी। फर्नीचर बिना कुछ कहे अपना बड़प्पन दिखा रहे थे। कमरे की एक खिड़की बाहर की ओर खुल रही थी और वहाँ से दूर दिख रही पहाड़ियों पर पैराग्लाइडिंग का जबरदस्त नजारा दिखाई पड़ रहा था। दूर से लग रहा था जैसे आसमान में बहुत सारी चीलें उड़ रही हों।
होटल में खाने का रेट 300 रूपए था। तो फिर अधिक सम्भावना इसी बात की थी कि कभी–कभार चने–चबेने पर भी काम चला लेने वाले प्राणी,एक जून के भोजन के लिए,इतने पैसे नहीं खर्चने वाले। बाहर किसी ठेले–खोमचे पर,समोसे या फिर मैगी पर भी काम सरक जाएगा। वैसे अभी घर से लाए गए छप्पन भोग में से भी कुछ आइटम बचे थे।
नहा–धो लेने के बाद हम बाहर निकले। पहला निशाना था– डेविस फाल। तो रास्ता भूलते–पूछते पहुँच गए। अब पोखरा का डेविस फॉल प्रसिद्ध है तो कोई बड़ा झरना होगा। लेकिन उसके गेट के पास पहुँचकर पूछताछ करनी पड़ी। एक गेट बना था इन्ट्री के लिए। मन में बड़ा असमंजस उत्पन्न हो रहा था। इस छोटे से गेट के अन्दर कितना बड़ा झरना होगाǃ लेकिन उसके पहले समस्या बाइक की थी। पता चला कि गेट के सामने,सड़क के उस पार स्टैण्ड है। स्टैण्ड समझ में नहीं आ रहा था। सड़क किनारे दस के लगभग मोटरसाइकिलें खड़ी थीं। हमने सोचा कि यहीं बाइक खड़ी कर देते हैं। लेकिन बाइक खड़ी करने से पहले ही पर्ची लिए एक लड़का हाजिर हो गया।
डेविस फाल पोखरा से सोनौली आने वाले मुख्य मार्ग पर ही,पोखरा के मुख्य शहर से लगभग दो किलाेमीटर की दूरी पर स्थित है और इसके आस–पास भी शहर बसा हुआ है। यह एक छोटा सा लेकिन सुंदर झरना है। हम लोग जिस समय पहुँचे,उस समय बहुत अधिक भीड़ नहीं थी। यह एक पतली और सँकरी धारा वाला झरना है। हम चूँकि मई के महीने में पहुँचे थे,इसलिए पानी और भी कम था। लेकिन फिर भी तेज धार की वजह से उठने वाली फुहारें बहुत सुंदर लग रही थीं। यह झरना पहाड़ी की कगार से न गिरकर चट्टानों के अंदर बनी कंदराओं में गिरता है। इस वजह से अंधेरी कंदराओं में गिरता सफेद झरना और इसके साथ चट्टानों पर चिपकी हरियाली बहुत सुंदर दिखती है। धार की कटान की वजह से चट्टानों पर बनी संरचनाएं भी बहुत सुंदर दिख रहीं थीं। नीचे गिरने के बाद यह झरना सुरंग के अंदर भूमिगत हो जाता है। इसका नेपाली नाम "पाताले छांगो" है।
11 बज रहे थे। डेविस फाल देखने के बाद हमारा अगला निशाना विश्व शांति स्तूप या पीस पैगोडा था। हमने रास्ता पता किया तो मालूम हुआ कि यह और आगे अर्थात शहर से दूर,सोनौली जाने वाली सड़क पर है। एक किमी से कुछ कम ही चलकर हमने रास्ता पूछा तो भ्रम जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी। दो लोगों ने रास्ता बताया–
"रास्ता तो दो किमी और आगे से है लेकिन आप यहाँ से भी ऊपर जा सकते हैं।"
हमने रास्ते की स्थिति निश्चित करने के लिए फिर से पू्छा–
"बाइक आसानी से ऊपर चली तो जाएगी?"
"हाँ जी, मैं अभी कुछ देर पहले ही तो आया हूँ।"
हमने उसकी बात सुनने में लापरवाही की। उसने सिर्फ यह बताया था कि मैं नीचे आया हूँ। उसने यह नहीं कहा था कि इस रास्ते से मैं ऊपर गया हूँ। हमने एक पतली सी गली नुमा दिखते रास्ते पर बाइक घुसा दी। लेकिन कुछ ही दूर चलने पर हकीकत पता चल गयी। सच्चाई यह थी कि यह रास्ता अभी बनने की प्रक्रिया में था और अभी सिर्फ पत्थर तोड़े गए थे। हमने उन्हीं पत्थरों पर बाइक दौड़ा दी। अब चल दिए थे तो अच्छे रास्ते की उम्मीद में आगे बढ़ते गए। बेतरतीब बिखरे पत्थरों पर बाइक चलाना किसी स्टंट से कम नहीं था। तो किसी तरह कुछ दूर बाइक पर चढ़कर तो कुछ दूर पैदल धक्का लगाते ऊपर पहुँचे। गनीमत यह थी कि कुल दूरी डेढ़ किमी के आस–पास ही थी। ऊपर पहुँचे तो एक छोटे से मैदान में काफी दुपहिया और चारपहिया गाड़ियां खड़ी थीं। यानी यह स्टैण्ड था। हम मन में सोच रहे थे कि इतने खतरनाक रास्ते पर इतनी चारपहिया गाड़ियां कैसे ऊपर आ गयीं। जरूर कोई दूसरा रास्ता भी है। आस–पास कुछ छोटी दुकानें भी दिख रहीं थीं। विश्व शान्ति स्तूप अभी और भी ऊपर दिख रहा था। पता चला कि बाइक यहीं खड़ी करके सीढ़ियों से ऊपर जाना पड़ेगा। हमने भी बाइक पार्क की और सीढ़ियों का रास्ता पकड़ लिया। काफी सीढ़ियां चढ़ने के बाद हम ऊपर पहुँचे। और ऊपर पहुँचने के बाद,विश्व शांति स्तूप के बिल्कुल पास पहुँचने के पहले,नीचे पोखरा शहर का ऐसा सुंदर नजारा दिखा कि मन मस्ती में आ गया। विश्व शांति स्तूप के आस–पास,सीढ़ियों की कठिन चढ़ाई के बावजूद,अच्छी–खासी भीड़ थी। और ऐसी जगहों पर इकट्ठी होने वाली भीड़ की एक विशेषता तो बिल्कुल काॅमन है,और वो ये कि फोटो खींचने के लिए जिसने सबसे सुविधाजनक जगह कब्जा कर ली,वह वहाँ से हटने को बिल्कुल भी तैयार नहीं होता। यहाँ भी वही हो रहा था। 'सेल्फी टूरिस्टों' की अच्छी–खासी भीड़ थी।
इस विश्व शांति स्तूप का निर्माण जापान की एक संस्था निप्पोन्जन म्योहोजी द्वारा कराया गया है। इस संस्था की स्थापना सन 1918 में एक बौद्ध भिक्षु निचिदात्सो फुजी ने की थी। फुजी ने दूसरे विश्व युद्ध के विध्वंसक परिणामों को अपने सामने देखा था। और इस वजह से उन्होंने विश्व में शांति की स्थापना का संदेश देने के लिए जापान के एक शहर में,1954 में इस तरह का पहला विश्व शांति स्तूप बनवाया। इसके बाद इसी क्रम में विश्व में 100 शांति स्तूपों की स्थापना का निश्चय किया गया। वर्तमान में यही संस्था विश्व में शांति स्तूपों का निर्माण करा रही है। नेपाल में बना यह स्तूप अपनी तरह का पहला और विश्व स्तर का 71वाँ शांति स्तूप है। भारत में भी कई स्थानों पर इस तरह के शांति स्तूपों की स्थापना की गयी है।
विश्व शांति स्तूप में शांति प्राप्त करने के बाद हम नीचे उतरे। रास्ते के किनारे एक दुकान में काफी को रोस्ट करके बेचा जा रहा था। 12.30 बजे तक हम सीढ़ियों से होते हुए नीचे स्टैण्ड तक आ गए। पेट को कुछ आवश्यकता महसूस हो रही थी। तो पास में दिखती एक ठीक–ठाक दुकान या फिर रेस्टोरेण्ट,जिसमें एक सुंदर महिला बैठी हुई थी,में हम घुस गए। भाव–ताव शुरू हुआ तो लगा कि गले के नीचे कुछ भी उतर नहीं पाएगा। काफी 70 रूपए और आइसक्रीम 100 रूपए। समझ नहीं आ रहा था कि ठण्डा लें या गरम। अब आ गए थे तो सोचा कि कुछ ले ही लिया जाय। तो हमने काफी का आर्डर दे दिया। वैसे शीशे के बड़े–बड़े गिलासों में 'काफी' अच्छी 'काफी' सामने आई तो मन को कुछ चैन मिला कि चलो कुछ तो वसूल हुआ। काफी की दावत के बाद हम बाइक के पास पहुँचे। स्टैण्ड वाले लड़के से नीचे जाने के लिए रास्ते के बारे में पूछा तो उसने दूसरी तरफ इशारा कर दिया। अर्थात हम जिस तरफ से आए थे उसके बिल्कुल उल्टी तरफ। हम हैरत में पड़ गए। आगे बढ़े तो बिल्कुल पक्की सड़क मिली। हाँ,अधिक घुमाव की वजह से दूरी कुछ अधिक लग रही थी। नीचे उतरते हुए हम बड़ी आसानी से सोनौली–पोखरा मुख्य मार्ग तक पहुँच गए। वहाँ बाकायदा विश्व शांति स्तूप की ओर इशारा करता एक छोटा सा संकेतक बना हुआ मिला। जिसे देखकर हमें लगा कि हम अच्छे–खासे मूर्ख बन गए थे।
अभी दोपहर के 1 बज रहे थे। तो हम वापस फेवा लेक की ओर चल पड़े।
वालिंग और पोखरा के बीच कहीं पर |
होटल की खिड़की से दिखती पैराग्लाइडिंंग |
डेविस फाल |
विश्व शांति स्तूप की ऊँचार्इ से दिखती फेवा झील और पोखरा शहर |
विश्व शांति स्तूप |
पोखरा घाटी में मकानों का समंदर |
पोखरा के आसमान में उड़ता एक हेलीकाप्टर |
पहाड़ की तलहटी में पोखरा झील |
शानदार लेख। अच्छे छाया चित्र ।
ReplyDeleteधन्यवाद मलय जी,प्रोत्साहन के लिए। आगे भी आते रहिए।
DeleteBadhiya pandey ji
ReplyDeleteधन्यवाद करुणाकर जी
DeleteRosted coffee ki aap ne mahek yaad dila di poore chetra me wahi to hai jo maze daar khusboo se man mugdh kar deti hai
ReplyDeleteहां जी वो तो है.
Deletewah maza aa gya padh kr
ReplyDeleteधन्यवाद जी. आगे भी पढते रहिए
DeleteThanks dear
ReplyDeleteवॉलिंग का बढ़िया चित्रण किया है होटल वाले से negotiation में उसका मकान किराए पे लेने का रोना हँसी आ गयी पढ़ कर...बढ़िया वर्णन...
ReplyDeleteवालिंग एक सुंदर जगह है। वैसे पोखरा से कुछ ही पहले होने के कारण यहाँ कम ही लोग ठहरते हैंं।
DeleteWaah Shaandar, Yatra Vritant
ReplyDeleteअनेकशः धन्यवाद नवल जी।
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