Pages

Friday, July 12, 2019

पावापुरी से गहलौर

इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–

नालंदा से 3 बजे पावापुरी के लिए चला तो आधे घण्टे में पावापुरी के जलमंदिर पहुँच गया। नालंदा के खण्डहरों से इसकी दूरी 15 किमी है। दोनों स्थानों के बीच सीधा रास्ता नहीं है। कई सम्पर्क मार्गाें से होते हुए जाना है। काफी पूछताछ करनी पड़ी। पावापुरी कस्बा पार करने के बाद दूर से ही पावापुरी का जलमंदिर दिखायी पड़ने लगता है। कमल के पत्तों से भरे एक बड़े तालाब में सफेद रंग में चमकता जलमंदिर दूर से ही अपनी भव्यता की कहानी कह रहा था। पावापुरी कस्बा जलमंदिर के पश्चिम की तरफ है जबकि जलमंदिर के उत्तर तरफ पावापुरी गाँव बसा हुआ है।
जैन धर्म से सम्बन्धित पावापुरी के अधिकांश मंदिर इस गाँव के इर्द–गिर्द ही बने हुए हैं। इनमें कुछ तो ऐतिहासिक स्थलों पर बने हुए हैं जबकि कुछ महावीर स्वामी की स्मृति में बने,बिल्कुल ही नवीन मंदिर हैं।
पावापुरी जैनियों का सर्वप्रमुख तीर्थ स्थान है। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी को 527 ई0पू0 में यहीं परिनिर्वाण प्राप्त हुआ। जिस स्थल पर महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ,उसी स्थान पर संगमरमर का बना हुआ वर्तमान जलमंदिर अवस्थित है। किंवदंती है कि इस स्थल पर पहले कोई तालाब नहीं था लेकिन श्रद्धालुओं द्वारा उस पवित्र स्थान की मिट्टी लगातार माथे पर लगाये जाने से वहाँ गहरा गड्ढा बन गया जिसे बाद में तालाब का रूप दे दिया गया।
527 ई0पू0 में भगवान महावीर के बड़े भाई राजा नन्दिवर्धन ने एक छोटे मंदिर का इसी स्थान पर निर्माण कराया था जिसका कालान्तर में पुनर्निर्माण होता रहा। वर्तमान में उसी स्थान पर तालाब के मध्य में,विमान आकार में सफेद संगमरमर का सुंदर मंदिर बनाया गया है। मंदिर में भगवान महावीर की चरण पादुका स्थापित है। मंदिर को मुख्य रास्ते से जोड़ने के लिए एक 600 फीट लम्बा पुल भी बनाया गया है। भगवान महावीर का देहावसान कार्तिक की अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन हुआ था। इस वजह से दीपावली के दिन पूरे भारत से जैन धर्मावलम्बी पावापुरी की यात्रा पर आते हैं। जैनियों के अनुसार दीपावली का त्योहार महावीर स्वामी के परिनिर्वाण की स्मृति में ही मनाया जाता है।

जलमंदिर से लगभग डेढ़ किमी की दूरी पर पूर्व दिशा में एक और मंदिर बना हुआ है। इसे ʺसमोशरण मंदिरʺ कहते हैं। यह मंदिर उस स्थान पर बना है जहाँ भगवान महावीर अपने अनुयायियों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। यह सफेद संगमरमर का बना हुआ एक गोलाकार मंदिर है जिसमें ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। नीचे की ओर,चारों ओर चबूतरे बने हुए हैं। ऊपर की ओर गुम्बद बना हुआ है जहाँ महावीर स्वामी के पदचिह्न बने हुए हैं। समोशरण मंदिर के पास ही ʺश्री आराधना मंदिरʺ के नाम से एक और नवीन मंदिर बना हुआ है। जलमंदिर के आस–पास तो फोटो खींचने पर कोई प्रतिबंध नहीं है लेकिन समोशरण मंदिर परिसर में बाहर से भी फोटो खींचने पर रोक है।
इन सभी मंदिरों के दर्शन के बाद मैंने अन्य जैन मंदिरों के बारे में कई लोगों से पूछताछ की। पता चला कि पावापुरी गाँव में भी एक जैन मंदिर है। मैंने तुरंत गाँव की गलियों में बाइक घुमा दी। यह मंदिर ʺवर्धमान महावीर मंदिरʺ के नाम से जाना जाता है। यह एक बड़े परिसर में बना मंदिर है जिसमें जैनियों के निवास और पूजा से सम्बन्धित अन्य कई भवन बने हुए हैं।
शाम के 5 बजे मैं पावापुरी से वापस लौट पड़ा। जलमंदिर के पूर्व की ओर बड़े–बड़े शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों की बड़ी–बड़ी इमारतें दिखायी पड़ रही थीं जो केवल जैन धर्म के प्रभाव के कारण बनी हैं। अन्यथा यह स्थान भी बिहार के अन्य गाँवों की तरह से ही एक गाँव जैसा दिखता।

अब मुझे रास्ता पूछने की कोई जरूरत नहीं थी। लगभग 20 किमी की दूरी तय करनी थी। पावापुरी से गिरियक होते हुए मुख्य मार्ग पकड़कर राजगीर चले आना था। आज शरीर कुछ राहत महसूस कर रहा था। धूप कुछ कम लगी थी। लम्बी दूरी तक बाइक नहीं चलानी पड़ी थी। शाम को राजगीर की सड़कों पर टहलने के लिए पर्याप्त समय था। रंग–बिरंगे इक्के,जैसे मैंने पहले कहीं नहीं देखे थे,राजगीर की सड़कों पर दौड़ लगा रहे थे। इनकी सजावट देखकर दिल खुश हो जा रहा था।

18 अप्रैल
आज मुझे राजगीर से विदा लेनी थी। लेकिन अभी मैं घोड़ा–कटोरा ताल नहीं जा पाया था। स्थानीय लोगों से की गयी पूछताछ और मौसम के मिजाज को देखते हुए लग रहा था कि तालाब में पानी कम ही होगा। इसके अतिरिक्त बाइक से यहाँ पहुँचने का विकल्प भी नहीं था। क्योंकि यहाँ ताँगे से जाना पड़ता है। राजगीर के विश्व शांति स्तूप जाने के लिए जहाँ रोपवे बना है,वहीं से घोड़ा–कटोरा जाने के लिए इक्के मिलते हैं। आज मेरे पास पर्याप्त समय था तो मैंने नित्यकर्म से निवृत्त होकर सुबह की चाय पी और गया जाने वाली सड़क पर बने रोपवे की ओर चल पड़ा।
सुबह के 7 बज रहे थे। स्टैण्ड पर पता चला कि घोड़ा–कटोरा जाने वाले ताँगे 8 बजे के बाद आयेंगे। एक घण्टे तक बैठकर इन्तजार करना मेरे बस की बात नहीं थी। घोड़ा–कटोरा फिर कभी। मैं आगे बढ़ चला। मेरी अगली मंजिल थी बोध गया। लेकिन वहाँ मुझे शाम तक पहुँचना था। उसके पहले रास्ते में दो छोटे–छोटे पड़ाव और भी थे। पहला पड़ाव था आधुनिक जमाने के माउण्टेनमैन कहे जाने वाले दशरथ माँझी का गाँव गहलौर और दूसरा पड़ाव था बराबर की गुफाएं।

राजगीर की पहाड़ियाँ राजगीर के 10 किमी पूर्व में स्थित गिरियक से शुरू होती हैं और दो श्रृंखलाओं में विभाजित होकर दक्षिण–पश्चिम दिशा में जेठियन घाटी होते हुए आगे चलती चली जाती हैं। इनकी पूँछ लगभग 60 किमी दूर बोध गया तक फैली है। ऐतिहासिक राजगीर इन्हीं दोनों श्रृंखलाओं के मध्य अवस्थित था। वर्तमान राजगीर इन पहाड़ियों से थोड़ा सा हटकर उत्तर की ओर बसा है। राजगीर के बस स्टेशन से गया जाने सड़क दक्षिण की ओर निकलती है और फिर पहाड़ियों को पार कर,पश्चिम मुड़कर गया की ओर चली जाती है। राजगीर में यह सड़क पहाड़ियों की श्रृंखलाओं को दो जगह पार करती है। यहाँ पहाड़ियों की श्रृंखला कुछ दूर तक टूटी हुई है। बस स्टेशन से लगभग 6 किमी की दूरी पर राजगीर की साइक्लोपियन दीवार के अवशेष मिलते हैं। यहाँ पर सड़क पहाड़ियों को पूरी तरह से पार कर जाती है। यहीं से मुख्य सड़क छोड़कर दाहिने हाथ एक सड़क निकलती है जो बिल्कुल पहाड़ियों के साथ साथ,पहाड़ियों के दक्षिणी किनारे पर,दक्षिण–पश्चिम की ओर चलती रहती है और जेठियन होते हुए आगे जाकर गया वाली मुख्य सड़क में मिल जाती है। जेठियन से आगे इसी सड़क पर दशरथ मांझी का गाँव का गहलौर पड़ता है और मुझे आज यहीं जाना था।
तो मेरी बाइक इसी सड़क पर दौड़ रही थी। यह पतली सी चिकनी,बिल्कुल खाली–खाली सड़क,बलखाती हुई पहाड़ियों से होड़ लेती चली जा रही थी और मैं अप्रैल की मार से सूखी लाल–भूरी पहाड़ियों पर नजर दौड़ाता गहलौर की ओर चलता जा रहा था। ऐसी ही किसी कठाेर पहाड़ी को काटने में दशरथ मांझी ने अपना सारा जीवन ही न्यौछावर कर दिया।

राजगीर से जेठियन की दूरी 19 किमी है जबकि गहलौर जेठियन से 10 किमी है। जेठियन तक पहाड़ी के बायें किनारे पर चल रही सड़क,जेठियन में अचानक मोड़ लेते हुए ऊपर चढ़ जाती है और पहाड़ी को पार दूसरे तरफ उतर जाती है। अर्थात अब मैं पहाड़ियों की श्रृंखलाओं के बीच जेठियन घाटी में आ गया था। कुछ किमी चलने के बाद मुझे इस सड़क को छोड़कर बायें हाथ एक दूसरी सड़क पर मुड़ना पड़ा जो गहलौर जाती है। थोड़ी ही देर में सुबह के 8.15 बजे तक मैं दशरथ मांझी के गाँव गहलौर पहुँच गया। गाँव के थोड़ा सा पहले सड़क किनारे दशरथ मांझी की स्मृति में बनी बड़ी–बड़ी सरकारी इमारतों को देखकर तो लग ही नहीं रहा था कि यह काेई पिछड़ा इलाका होगा। लेकिन आगे बढ़ते ही तस्वीर साफ होने लगी। गहलौर अभी शायद सोकर उठ ही रहा था। सड़क किनारे बनी इक्का–दुक्का दुकानें अभी खुलने की तैयारी कर रही थीं। एक झोपड़ी में बनी चाय–पकौड़े की दुकान देखकर मैंने चाय पीने की इच्छा जतायी लेकिन यहाँ तो अभी धुआँ उठना शुरू ही हुआ था। कुछ भी मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही थी। पास ही दशरथ मांझी की स्मृति में बना स्मारक दिख रहा था जिसके चबूतरे बैठा एक आदमी खैनी रगड़ रहा था। मुझे कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। मैं सीधे उस जगह पहुँच गया जहाँ मांझी ने अपना पसीना बहाया था। दोनों तरफ खड़े दो पहाड़ी कगार और बीच से गुजरती सड़क इस बात की खुलेआम गवाही दे रहे थे कि यहाँ क्या हुआ था। तभी एक बाइक पर सवार तीन लड़के पहुँचे। इधर–उधर कूद–फाँदकर,टेढ़े–सीधे होकर सेल्फी खींची,मेरी तरफ देखकर मुस्कराये और चलते बने। इसी बीच एक कार आकर रूकी। कुछ लोग उतरे,सेल्फी ली,मेरी तरफ घूरकर देखा और मुझे कोई पागल पत्रकार समझकर आगे निकल गये। शायद वे इस बात पर आश्चर्य कर रहे थे कि मैं अपनी सेल्फी न लेकर पत्थरों की फोटो खींच रहा था।
और तभी दशरथ मांझी के बनाये ताज़महल के ऊपर से प्लास्टिक की बाेतल हाथ में लिए एक स्थानीय बुजुर्ग नीचे उतरा। उसके हाथ में बोतल देखकर मैं समझ गया कि यह ऊपर क्या करने गया था। उसने मेरी तरफ घूरकर देखा और चबाते हुए शब्दों में कहा–
ʺहाय रे बिहार के गरीबी।ʺ
उसके बोलने का लहजा और अंदाज देखकर मुझे झटका सा लगा। मैं बिहार के उस मेहनतकश इंसान को सलाम करने गया था न कि बिहार की गरीबी का मजाक उड़ाने। लेकिन मुझे गले में कैमरा लटकाये वहाँ टहलते देखकर उस व्यक्ति के मन में सदियों से दबी कुण्ठा बाहर आ गयी। दशरथ मांझी जैसे व्यक्ति का सम्मान भी ईर्ष्या की विषयवस्तु हो सकती है– मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा था। दशरथ मांझी के नाम से इस छोटे से स्थान का जितना मान बढ़ा है,वह अविश्वसनीय है। फिर भी कुछ लोगों के मन में उनके प्रति अनादर हो सकता है,यही दुनिया की सच्चाई है।

अब वहाँ रूकना मेरे लिए मुश्किल था। मैंने जल्दी से दो–चार फोटो खींचे और बाइक पर सवार हो गया। अभी भी गहलौर गाँव की दुकानें ठीक से नहीं जग पायी थीं। वैसे मैं उनसे उम्मीद भी छोड़ चुका था। मैंने आगे बाइक दौड़ा दी। जिस सड़क से मैं गहलौर पहुँचा था वह आगे जाकर गया जाने वाली मुख्य सड़क में मिल जाती है। लेकिन अब मेरा अगला पड़ाव था– बराबर की गुफाएं। तो मैं वापस जेठियन वाली सड़क तक लौटा और यहाँ से खिज्रसराय जाने वाली सड़क पकड़ ली। खिज्रसराय फल्गु नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा है जहाँ से बराबर गुफाओं की दूरी लगभग 7 किमी है। वैसे गहलौर से बराबर गुफाओं की दूरी 35 किमी है। फल्गु नदी में रत्ती भर भी पानी नहीं था। दूर–दूर तक धूल उड़ रही थी। धूप की तीव्रता तेजी से बढ़ती जा रही थी। ऐसे ही मौसम में 10 बजे तक मैं बराबर पहुँचा।




जल मंदिर का सम्पर्क पुल


जल मंदिर




समोशरण मंदिर
पावा गाँव में वर्धमान मंदिर


दशरथ मांझी का बनाया रास्ता

अगला भाग ः बराबर की गुफाएँ

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. बिहार की धरती पर
2. वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम

No comments:

Post a Comment