Friday, May 24, 2019

वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)

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वैशालीǃ
वैशाली भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित कई घटनाओं का साक्षी रहा है। सर्वप्रमुख रूप से माना जाता है कि एक स्थानीय ʺवानर–प्रमुखʺ ने कोल्हुआ में बुद्ध को मधु अर्पण किया था। कोल्हुआ वैशाली का अभिन्न अंग रहा है। मधु अर्पण की यह घटना भगवान बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित आठ प्रमुख घटनाओं में से एक मानी जाती है। बुद्ध ने अपने जीवन के कई वर्षावास यहाँ व्यतीत किये। यहीं पर पहली बार संघ में भिक्षुणियों को प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की गयी और साथ ही बुद्ध ने अपने शीघ्र संभावित परिनिर्वाण की घोषणा भी की।
यहीं पर बुद्ध ने वैशाली की अभिमानी राजनर्तकी आम्रपाली को एक विनम्र भिक्षुणी के रूप में परिवर्तित किया।

मैं वैशाली के पास हूँǃ
छपरा से मुजफ्फरपुर जाने वाली सड़क और पटना से बेतिया–बगहा की ओर जाने वाली सड़क,एक–दूसरे को मानिकपुर नामक स्थान पर काटती हैं। इस चौराहे से छपरा 50 किमी दक्षिण–पश्चिम,मुजफ्फरपुर 30 किमी पूरब,पटना 60 किमी दक्षिण,तथा 120 किमी उत्तर–पश्चिम में बेतिया अवस्थित हैं। इस चौराहे के दक्षिण–पश्चिम वाले कोने की धरती पर आज के जमाने में बसे दो गाँव बसाढ़ और कोल्हुआ बिहार के गौरवशाली अतीत की कहानी कहते हैं।
सर अलेक्जेण्डर कनिंघम ने 1861-62 में चीनी उल्लेखों के आधार पर सीमित उत्खनन से प्राप्त साक्ष्‍यों से प्राचीन वैशाली की पहचान की। तत्पश्चात् टी. ब्लाच (1903-04) तथा डी.बी. स्पूनर 1913-14 द्वारा यहाँ उत्खनन किया गया। बाद में पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किये गये उत्खनन द्वारा इस स्थान के अति प्राचीन होने के साक्ष्‍य मिले।

तो आज मैं वैशाली में हूँǃ इतिहास के वैशाली में। वर्तमान के कोल्हुआ में।
आज के लगभग ढाई हजार साल से भी पहले,जब राजा ही प्रजा का ईश्वर होता था,तब बिहार के एक हिस्से में गणतंत्र या संघवाद के बीज पड़ चुके थे। यह अलग बात है कि उसका स्वरूप वह नहीं था जो आज है। छठी शताब्दी ई0पू0 के सोलह महाजनपदों के युग में,जबकि कोशल,वत्स,अवन्ति और मगध चार प्रमुख शक्तिशाली राजतंत्र थे,वज्जि संघ गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया। तत्कालीन वज्जि संघ आठ राज्यों का एक संघ था जिसमें वैशाली के लिच्छिवि प्रमुख थे। इन आठ राज्यों में वज्जि के साथ ही वैशाली के लिच्छिवि,मिथिला के विदेह,कुण्डग्राम के ज्ञातृक के अतिरिक्त उग्र,भोग,इक्ष्‍वाकु तथा कौरव शामिल थे। वज्जि संघ के अतिरिक्त कपिलवस्तु के शाक्य,सुमसुमार पर्वत (वर्तमान चुनार) के भग्ग,अलकप्प (वर्तमान बिहार के शाहाबाद,आरा व मुजफ्फरपुर जिले) के बुलि,केसपुत्त (संभवतः वर्तमान सुल्तानपुर जिला) के कालाम,रामग्राम (गोरखपुर और आस–पास) के कोलिय,कुशीनारा व पावा के मल्ल तथा पिप्पलिवन के मोरिय भी तत्कालीन समय के अन्य गणराज्य थे। वैशाली बुद्ध काल का सबसे बड़ा एवं शक्तिशाली गणराज्य था। वैशाली की पहचान मुजफ्फरपुर जिले के वर्तमान बसाढ़ ग्राम से की जाती है। वैसे आधुनिक उत्खननों से ये प्रमाणित हो चुका है कि प्राचीन वैशाली नगर अत्यन्त विस्तृत भूभाग में फैला था। बसाढ़ भले ही आज गाँव के स्तर पर पहुँच गया हो,लेकिन तत्कालीन समय में यह किसी विशाल शहर के रूप में था। वैसे एक तथ्य आज भी कायम है और वो ये कि गण्डक या सदानीरा तब भी वैशाली की पश्चिमी सीमा बनाती थी और आज भी यह वैशाली की पश्चिमी सीमा बनाती है। बुद्ध के समय में यहाँ का राजा चेटक था जिसके समय में यह राज्य समृद्धि की पराकाष्ठा पर था। चेटक की छलना नामक कन्या का विवाह मगध के राजा बिम्बिसार के साथ हुआ था। साथ ही महावीर की माता त्रिशला उसकी बहन थी।

कहते हैं कि वैशाली की स्थापना इक्ष्‍वाकुवंशी राजा विशाल ने की थी जिनके नाम पर इसका नाम वैशाली पड़ा। इस तथ्य का उल्लेख पुराणों सहित अनेक ऐतिहासिक गाथाओं व किंवदंतियों में भी मिलता है। छठीं शताब्दी ई0पू0 में शक्तिशाली लिच्छिवियों की राजधानी होने के साथ ही इसे विश्व का प्रथम गणतंत्रात्मक राज्य तथा लोकतंत्र की जन्मभूमि होने का भी गौरव प्राप्त है। यह जैन धर्म के संस्थापक चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मस्थली भी है। वैशाली भगवान बुद्ध को अत्यंत प्रिय थी। यहाँ के एक वानर प्रमुख ने बुद्ध को मधु अर्पण किया था जिसे भगवान बुद्ध के जीवन की आठ प्रमुख घटनाओं में से एक माना जाता है। वैशाली में ही बुद्ध ने राजनर्तकी आम्रपाली का आतिथ्य स्वीकार किया तथा आम्रवन का उपहार स्वीकार किया। प्रथम बार भिक्षुणी संघ की स्थापना भी वैशाली में ही हुई। बुद्ध ने अपना अन्तिम उपदेश वैशाली में ही दिया तथा अपने महापरिनिर्वाण की घोषणा की। अपने हिस्से में प्राप्त बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर लिच्छिवियों ने एक स्तूप का निर्माण कराया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात् कालाशोक के समय में बुद्धघोष की अध्यक्षता में दि्वतीय बौद्ध संगीति का आयोजन भी वैशाली में किया गया। वानर प्रमुख द्वारा भगवान बुद्ध को मधु अर्पण करने की घटना की स्मृति में मौर्य सम्राट अशोक ने एक स्तूप का निर्माण कराया जिसके पास ही एक प्रस्तर स्तंभ का भी निर्माण कराया गया जो वर्तमान में कोल्हुआ नाम गाँव के पास अवस्थित है।
चौथी शताब्दी के आरम्भ में वैशाली की राजकुमारी कुमार देवी का विवाह गुप्तवंश के सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ हुआ। इस वैवाहिक सम्बन्ध से वैशाली को राज प्रतिनिधि के रूप में महत्व प्राप्त हुआ। वैशाली के महत्व का वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी किया है। वैसे गुप्तकाल के पश्चात् वैशाली की प्रतिष्ठा धीरे–धीरे क्षीण होने लगी।

साहित्यिक साक्ष्‍यों के अलावा वैशाली के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों से इस बात के प्रमाण प्राप्त होते हैं कि प्राचीन वैशाली नगर का विस्तार वर्तमान के बसाढ़,कोल्हुआ,बनिया,चक रामदास,लालपुरा,वीरपुर,मधुवन आदि ग्रामों तक था।
कोल्हुआ में किये गये उत्खनन के फलस्वरूप बहुतायत में पुरासामग्री प्राप्त हुई है जिनमें कीमती पत्थर के मनके,मृण्मय आकृतियाँ,मुद्राएं,रत्नजटित ईंटें,अभिलेखयुक्त मृद्भाण्ड का टुकड़ा तथा किरीटयुक्त वानर की मृण्मय आकृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
उत्खनन से प्राप्त इमारतों में कूटागार,स्वस्तिकाकार विहार,पक्का जलाशय,बड़ी संख्या में मनौती स्तूप तथा लघुमंदिर प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त आंशिक रूप से मिट्टी में दबा हुए अशोक स्तम्भ तथा स्तूप का निचला भाग भी खोजा गया। यह स्तम्भ स्थानीय लोगों में ʺलाटʺ के नाम से प्रसिद्ध था। चुनार के बलुआ पत्थर से निर्मित यह एकाश्मक स्तंभ 11 मीटर ऊँचा है। इसके शीर्ष पर सिंह बना हुआ है। यह अशोक द्वारा निर्मित प्रारंभिक स्तम्भों में से एक है जिस पर कोई अभिलेख अंकित नहीं किया गया है। कुछ अक्षर अवश्य ही दिखायी पड़ते हैं जो गुप्तकाल के माने जाते हैं। इस स्तम्भ के शीर्ष भाग में उल्टे कमलदल की आकृति बनी हुई है जिसके ऊपर एक चौकोर पत्थर रखा हुआ है। इस पत्थर के ऊपर एक उत्तरमुखी सिंह स्थापित है। कहते हैं कि सिंह के मुख की दिशा अशोक की लुम्बिनी यात्रा को प्रदर्शित करती है।

उपर्युक्त स्तम्भ के पास बना मुख्य स्तूप वानर–प्रमुख द्वारा भगवान बुद्ध को मधु–अर्पण की घटना की स्मृति में निर्मित है। मूल रूप से मौर्यकाल में निर्मित यह स्तूप ईंटों द्वारा बना है। बाद में कुषाण काल में इसमें परिवर्द्धन करके प्रदक्षिणा पथ जोड़ा गया। बाद में गुप्तकाल और उसके बाद के समय में इसे ईंटों से आच्छादित किया गया जिससे इसके आकार में वृद्धि होती गयी। इस स्तूप को आनन्द का अर्द्धांग स्तूप भी कहा जाता है। इस अर्द्धांग स्तूप की एक अलग कहानी भी है। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द निर्वाण प्राप्त करने के लिए वैशाली आ रहे थे। यह खबर वैशाली के निवासियों के अलावा गंगा के दक्षिणी किनारे पर बसे मगध के शासक अजातशत्रु को प्राप्त हुई। फलतः गंगा के उत्तरी किनारे पर लिच्छिवि तथा दक्षिणी किनारे पर अजातशत्रु उनके स्वागत के लिए खड़े हो गये। आनन्द के सामने धर्मसंकट उत्पन्न हो गया कि किसकी तरफ जायें। ऐसी परिस्थिति में आनन्द ने नदी की बीच धारा में ही निर्वाण प्राप्त किया। निर्वाण के पश्चात् उनका शरीरावशेष आधा–आधा बँटकर नदी के दोनों किनारों पर जा लगा। इन अवशेषों को प्राप्त कर इनके ऊपर वैशाली और मगध दोनों ने स्तूप का निर्माण किया। शरीर के आधे अवशेष पर निर्मित होने के कारण इसे अर्द्धांग स्तूप भी कहा जाता है।
स्तूप के पास ही एक 65X35 मीटर आकार वाला जलाशय भी है जिसे वानरों ने भगवान बुद्ध के लिए निर्मित किया था। इसे मर्कट हद भी कहते हैं। इस जलाशय के दक्षिणी तथा पश्चिमी किनारों पर स्नान हेतु घाट भी बने हैं। जलाशय के पास ही एक कूटागारशाला का भी निर्माण किया गया था जो बुद्ध का प्रवास एवं प्रवचन स्थल था। कहते हैं कि एक बार यहाँ अपने प्रवास के दौरान भगवान बुद्ध ने उपवास रखा था। जिस दिन उनका उपवास सम्पन्न हो रहा था,उसी दिन मर्कट हद से कुछ बन्दर निकल कर आये और उनके भिक्षापात्र को उठा ले गये। उसे उन्होंने लीची एवं मधु से भरकर उनके सामने रख दिया।
उपर्युक्त के अतिरिक्त स्वस्तिकाकार आधार–विन्यास वाला भिक्षुणी विहार तथा बड़ी संख्या में अनावृत मनौती स्तूप भी यहाँ निर्मित किये गये थे।

मैं कोल्हुआ के स्मारक परिसर में देर तक चक्कर लगाता रहा। अचानक एक नयी चीज दिखी। अशोक स्तम्भ के चारों तरफ सुरक्षा के लिए लोहे की रेलिंग बनी हुई है। कुछ बिल्कुल ग्रामीण सी दिखती महिलाएं आयीं और उनमें से एक रेलिंग लाँघ कर अन्दर प्रवेश कर गयी। कुछ पल तक स्तम्भ से मत्था टिकाकर खड़े होने के बाद वह स्तम्भ का चक्कर लगाने लगी। मैं ध्यान से उसकी हरकतें देखने लगा। कुछ ही पलों में मुझे समझ में आ गया कि उस महिला पर कोई भूत सवार है जिसे भगाने के लिए यह यत्न किये जा रहे हैं। कुछ देर तक यह क्रिया–कलाप चलते रहे। काफी प्रयासों के बाद भी संभवतः भूत ने पीछा नहीं छोड़ा तो उसे चेतावनी देकर जल्दी ही पीछा छोड़ने के आदेश जारी कर दिये गये। वस्तुतः इस स्थान पर बहुत पहले से भूत भगाये जाते रहे होंगे। अब इस स्थान को पुरातत्व विभाग वालों ने कब्जा कर लिया है तो क्या किया जाये। परिसर के पिछले हिस्से में एक लैला–मजनूं भी अपने लिए सेफ जगह की तलाश कर रहे थे। एक भरा–पूरा परिवार भी था जो अपने ढेर सारे बच्चों को सहेजने की जद्दोजहद में ही परेशान था। परिसर में टहलते एक आदमी ने मुझसे सवाल किया– ʺयहाँ बस यही है कि और भी कुछ देखने लायक है।ʺ
ʺक्या देखना चाहते हैंʺ – मैंने हँसते हुए सवाल किया।
ʺनहीं मेरा मतलब था कि केवल खण्डहर ही दिख रहे हैंʺ – उस आदमी ने कहा।
ʺतो बड़ी–बड़ी चमचमाती इमारतें तो किसी बड़े शहर में ही मिलेंगीʺ – मैं जवाब देकर आगे बढ़ गया।


वैशाली का स्तूप
स्तूप के पास अशोक स्तम्भ



अशोक स्तम्भ के पास भूत उतारती महिला




अगला भाग ः वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)


सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. बिहार की धरती पर
2. वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम

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