Friday, June 21, 2019

राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िंदा हैǃ (दूसरा भाग)

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मेरा अगला पड़ाव था– मनियार मठ। इसके लिए मुझे ब्रह्मकुण्ड से लगभग 1 किमी की दूरी तय करनी थी। ब्रह्मकुण्ड के पास की बस्ती के बाद मानव आवास लगभग समाप्त हो जाते हैं और राजगीर पीछे छूटने लगता है। मुख्य मार्ग पर लगभग 1 किमी चलने के बाद दाहिनी तरफ एक पतली सड़क निकलती है। दायें मुड़ते ही बायीं तरफ एक स्मारक परिसर दिखायी पड़ता है। परिसर की चारदीवारी से सटकर बाइक खड़ी करते ही एक चारपहिया गाड़ी से कुछ लोग उतरे और मुझसे पहले ही अन्दर पहुँच गये। अन्दर बैठे एक दुबले पतले शख्स ने उन्हें लपक लिया। मैं समझा कोई कर्मचारी होगा।
लेकिन वो दुबला पतला शख्स तो काफी तेज निकला। बड़े ही सलीके से तेज तर्रार भाषा में मनियार मठ के इतिहास और भूगोल के बारे में लम्बा–चौड़ा भाषण झाड़ दिया। भाषण समाप्त होने के बाद कुछ मदद की भी अपेक्षा कर दी। तब समझ में आया कि वह एक गाइड है। मनियार मठ में कोई कर्मचारी न होने का वाजिब फायदा उठा रहा है। वैसे उसकी बातें अच्छी लगीं। मैंने भी उसे 10 रूपये का ईनाम दिया। साथ ही सभी लोगों के चले जाने के बाद मोबाइल से उसके भाषण का एक वीडियो भी बनाया। उसे अपना परिचय दिया तथा उसका परिचय भी लिया।
माना जाता है कि यह स्मारक तत्कालीन राजगृह नगर के मध्य में अवस्थित था। पालि ग्रन्थों के अनुसार इसका नाम मणिमाल चैत्य था जबकि महाभारत के अनुसार इसका नाम मणिनाग मंदिर था। इस स्थान पर एक कुएं जैसी संरचना बनी हुई है जिसका व्यास 3 मीटर तथा दीवारों की मोटाई 1.20 मीटर है। इसकी वाह्य भित्ति पर बने आलों में पुष्पाहार से सुसज्जित लिंग,चतुर्भज विष्णु,सर्प से लिपटे गणेश तथा छः भुजाओं वाले नृत्यरत शिव की 0.6 मीटर आकार की गच प्रतिमाएं थीं जिनमें से अधिकांश नष्ट हो गयी हैं। कला शैली की दृष्टि से ये प्रतिमाएं गुप्तकाल की मानी जाती हैं। कुण्ड,चबूतरे व मंदिर आदि के रूप में आस–पास स्थित अन्य छोटी संरचनाएं प्रायः सर्प पूजा से सम्बन्धित धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकाण्ड से जुड़ी प्रतीत होती हैं। उत्खनन से प्राप्त सामग्री में पहली–दूसरी शताब्दी ई. का मथुरा के चित्तीदार लाल बलुए पत्थर से बना एक उभयमुखी मूर्तिपट्ट अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिस पर सर्प फण से युक्त नाग और नागिन मूर्तियां बनी हुई हैं तथा एक मूर्ति के नीचे मणिनाग अंकित है। इसके अतिरिक्त पक्की मिट्टी से बने सर्पफण, बहुमुखी पात्र तथा पूजा में काम आने वाली वस्तुएं बहुतायत में प्राप्त हुई हैं जिसमें से अधिकांश सामग्री नालन्दा स्थित पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित रखी गयी हैं। इस पुरास्थल के ऊपर एक टिन शेड डालकर इसे सुरक्षा प्रदान की गयी है।

अभी अँधेरा होने में कुछ समय था तो मैं मनियार मठ से आगेे उसी सड़क पर बढ़ता चला गया। पता चला था कि आगे सोन भण्डार व जरासंध की रणभूमि है। दोनों जगहों के नाम से ही रोमांच उत्पन्न हो रहा था। वैसे सोन भण्डार से सोना मिलने की उम्मीद कम ही थी क्योंकि मेरे पहले भी बहुत लोग आ चुके होंगे। फिर भी उम्मीद में मैंने बाइक दौड़ा दी। कुछ ही मिनटों में जंगल के बगल से गुजरती सड़क पर चरती गायों के झुण्ड के बीच से होता हुआ सोन भण्डार पहुँच गया। वैसे इस सोन भण्डार मे उस समय कोई दिखायी नहीं पड़ रहा था। आश्चर्य की बात है। सोने के भण्डार में कोई नहीं। वैभार गिरि की तलहटी में एक छोटा सा परिसर है जिसके अन्दर दो गुफाएं दिखाई पड़ती हैं। सोन भण्डार की दोनों गुफाओं का निर्माण तीसरी या चौथी शताब्दी में जैन मुनि वैरदेव ने करवाया था। ये गुफाएं जैन तपस्वियों की साधना स्थली थीं। किंवदंती है कि मगध नरेश बिम्बिसार का खजाना इन गुफाओं में छ्पिाया गया था। इसी कारण इन्हें स्वर्ण भण्डार या सोन भण्डार के नाम से जाना जाता है। पूर्वी गुफा दोमंजिला थी जिसमें जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें स्थापित थीं। इस गुफा से गुप्तकालीन गरूड़आरोही विष्णु की प्रतिमा भी प्राप्त हुई जिसे नालन्दा संग्रहालय में रखा गया है। यहाँ शिलाओं पर शिलालेख भी अंकित हैं। कहते हैं कि इन शिलालेखों में अंकित संकेतों को जो समझ पायेगा वह सोने के खजाने के दरवाजे को खोल सकेगा। 
सोन भण्डार से 1-1.5 किमी की दूरी पर पूर्व दिशा में जंगल के रास्ते आगे बढ़ने पर जरासंध का अखाड़ा या जरासंध की रण भूमि बनी हुई है। चारों तरफ से पत्थरों को चुनकर दीवार जैसी संरचना बनायी गयी है और बीच में मिट्टी भरकर इस अखाड़े का स्वरूप प्रदान किया गया है। कहते हैं कि इस अखाड़े की मिट्टी बहुत ही बारीक और सफेद रंग की थी लेकिन कुश्ती के शौकीन लोग इस मिट्टी को खोद ले गये। माना जाता है कि यह जगह महाभारतकालीन है। यहाँ पाँच पाण्डवों में से एक,भीम और जरासंध के बीच एक माह तक मल्लयुद्ध होता रहा। उस समय अर्जुन,भीम और श्रीकृष्ण एक साथ वेश बदल कर राजगृह में प्रवेश किये थे।

जरसंध की रणभूमि का निरीक्षण करते हुए मुझे लगा कि अब अँधेरा होना शुरू हो गया है। अगर अधिक देर हुई तो जंगल के अन्दर रहने वाले जीव–जंतु बाहर आ सकते हैं और बाहर आकर इसी जरासंध के अखाड़े में मुझसे कुश्ती भी लड़ सकते हैं। कोई बीच–बचाव करने वाला भी मौजूद नहीं है। तो फिर मैंने जल्दी से अपनी राम–पोटरिया उठाई और बाइक पर सवार हो गया। कुछ दूर चलने के बाद ही बाइक की लाइट जलानी पड़ी। होटल पहुँचा तो दिन भर की थकान शरीर पर हावी हो चुकी थी। बाइक होटल वाले के हवाले कर कमरे में बैग पटका। रात के खाने के लिए इसी होटल में दिन में ही 80 रूपये वाली थाली का आर्डर कर चुका था। थाली थोड़ी महँगी तो लगी थी लेकिन थकान की वजह से रेस्टोरेण्ट ढूँढ़ने की जहमत उठाने की हिम्मत नहीं कर रही थी। वैसे थाली सामने आयी तो खाना पसंद नहीं पड़ा। उसी समय तय कर लिया कि कल यहाँ खाना नहीं खाऊँगा। बिहार में अनाज का ऐसा अकाल नहीं कि खाना बढ़िया न मिले।

17 अप्रैल
सुबह जबरदस्ती सोकर उठना पड़ा। जबरदस्ती का मतलब ये कि उठने की हिम्मत नहीं कर रही थी। वजह ये कि रात भर ठीक से नींद नहीं आयी थी। वजह ये कि होटल के कमरे का पंखा बहुत ही धीमा चल रहा था। और यह इतना धीमा चल रहा था कि मच्छरों को उड़ाने में असमर्थ था। और जब मच्छरों को उड़ाने में असमर्थ था तो मुझे क्या खाक उड़ाताǃ एकाध घण्टे सोने और एकाध घण्टे डिस्टर्ब होने के बाद मैं गुस्से में नीचे उतरा और होटल स्टाफ के पास पहुँचा। अभी सभी लोग जगे थे। मैंने जबरदस्त फूँ–फाँ करते हुए पंखे के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करायी तो जल्दी–जल्दी क्वायल ऊर्फ मच्छरमार अगरबत्ती की व्यवस्था की गयी। इतनी जल्दी पंखा तो बनने से रहा। क्वायल तो मिली लेकिन स्टैण्ड नहीं मिला। स्टैण्ड के अभाव में क्वायल को फर्श पर ही लेटना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि एकाध घण्टे बाद ही क्वायल बुझ गयी। क्वायल बुझने के एकाध घण्टे बाद मैं फिर से जग गया। फिर से क्वायल जलाई और उसे दीवार के सहारे खड़ा किया। लेकिन एकाध घण्टे बाद यह फिर से बुझ गयी। यह प्रक्रिया रात भर चलती रही। मैं रात भर एकाध घण्टे सोता और एकाध घण्टे जगता रहा। साथ ही पंखे और क्वायल को भी कोसता रहा। सोचता रहा बिम्बिसार और अजातशत्रु कैसे सोते रहे होंगे। मतलब इतिहास फिर से ज़िंदा हो गया।

तो सुबह जबरदस्ती सोकर उठा। इधर–उधर की करने के बाद जबरदस्ती नहाया और जबरदस्ती ही बाइक पर सवार हो गया। सुबह के 6 बजे मैं सप्तपर्णी गुफा की ओर निकल पड़ा। सप्तपर्णी गुफा मतलब वैभार गिरि के ऊपर। यहाँ चढ़ने का रास्ता ब्रह्मकुण्ड के पास से निकलता है। तो लक्ष्‍मीनारायण मन्दिर के सामने बाइक को 15 रूपये के सिक्कों के ऊपर खड़ा कर दिया। मन्दिर के पीछे एक पगडण्डी निकलती है जो पहाड़ी रास्तों की तरह से इधर–उधर भटकती हुई वैभार गिरि के ऊपर चली जाती है। ब्रह्मकुण्ड से सप्तपर्णी गुफा तक यह लगभग 2 किमी का छोटा सा ट्रेक है। इस ट्रेक के किनारे कई मन्दिर और स्मारक हैं। तो मैं इसी पगडण्डी पर ऊपर की ओर चल पड़ा। और जब ऊपर की ओर चला तो नीचे का नजारा शानदार था। कहीं ब्रह्मकुण्ड के पास बना लक्ष्‍मी नारायण मन्दिर तो कहीं पाण्डु पोखर तो कहीं जापानी मन्दिर। और पूरा राजगीर कस्बा तो दिखायी दे ही रहा था।
थोड़ा सा ही आगे एक घर जैसी बनी बड़ी चट्टानी संरचना में कुछ छोटी–छोटी गुफाएं दिखायी पड़ती हैं। ये पिप्पल गुफाएं हैं। इन्हें जरासंध की बैठक के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ भगवान बुद्ध (563-483 ई.पू.) प्रायः आया करते थे। जैन साहित्य के अनुसार इन गुफाओं के प्रवेश द्वार पर एक पीपल का पेड़ था जिस कारण इनका नाम पिप्पल गुफा पड़ गया। यह संरचना बिना तराशे गये पत्थरों को एक के ऊपर एक जमा कर बनायी गयी है। उल्लेखनीय है कि पत्थरों को जोड़ने के लिए किसी प्रकार के सीमेण्ट इत्यादि का प्रयोग नहीं किया गया है। इस संरचना के आधार पर चारों ओर छोटी–छोटी कोठरियां बनी हुई हैं जो गुफा जैसी दिखायी पड़ती हैं। इन कोठरियों के कारण ही इनका नाम गुफा या गुहा पड़ा। पिप्पल गुहा से और ऊपर चढ़ने पर,खुला वातावरण हवा के वेग को तीव्र कर देता है। माहौल अत्यन्त आनन्ददायक हो जाता है। कुछ ही आगे जैन मन्दिरों की कतार शुरू हो जाती है।

वैभार गिरि राजगीर का सबसे महत्वपूर्ण पर्वत या स्थान है। यहाँ जैन,बौद्ध और हिन्दू तीनों धर्माें से सम्बन्धित मन्दिर पाये जाते हैं। जैन मान्यतानुसार इस पहाड़ी का नाम ʺपाँचवां पहाड़ श्रीवैभारगिरिʺ भी है। इस पहाड़ी पर जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के पाँच बड़े और एक लघुमन्दिर बना हुआ है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर शाखा का भी एक मन्दिर बना हुआ है। सबसे पहले रास्ते के बायें किनारे श्वेताम्बर शाखा का एक मन्दिर मिलता है। इसके थोड़ा सा आगे बायें हाथ एक रास्ता निकलता है जिस पर कुछ दूर चलने पर पहाड़ी के किनारे श्वेताम्बर शाखा का एक और मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर का नाम श्री धन्ना शालिभद्र महावीर स्वामी मन्दिर है। इससे थोड़ा सा आगे रास्ते के दाहिने किनारे दिगम्बर शाखा का एक मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर रास्ते के बायें किनारे श्वेताम्बर शाखा का एक और मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर का नाम श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर है। इस मन्दिर के पास से ही बायीं तरफ एक पगडण्डी निकलती है। इस पगडण्डी पर कुछ दूर चलने पर दाहिनी तरफ एक प्राचीन बौद्ध मन्दिर के खण्डहर दिखाये पड़ते हैं। यह पगडण्डी जहाँ खत्म होती है वहाँ ईंटों से बने एक प्राचीन शिव मन्दिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। इस मन्दिर का गर्भगृह अवशेष के रूप में बचा हुआ है। इसमें एक छोटा सा शिवलिंग और एक नंदी प्रतिमा दिखायी पड़ती है। इस पगडण्डी पर वापस आकर पुनः मुख्य रास्ते पर आगे बढ़ने पर जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा का एक मन्दिर मिलता है। यह श्रीमुनिसुव्रतस्वामी श्वेताम्बर जैन मन्दिर है। इस मन्दिर के पास ही एक और छोटा सा मन्दिर है। इसका नाम श्री वासुपूज्यस्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर है। इन मन्दिरों के बाद मुख्य रास्ता पगडण्डियों में तब्दील हो कर जंगल में गुम हो जाता है। लेकिन रास्ते पर थोड़ा सा पीछे हटकर दाहिनी तरफ सीढ़ियाँ मिलती हैं जो नीचे की तरफ जाती हैं। ये सीढ़ियाँ ऐतिहासिक सप्तपर्णी गुफा की ओर जाती हैं। सीढ़ियों से उतरकर एक ढलवाँ रास्ता आगे बढ़ता है जो छोटी सी समतल जगह में समाप्त हो जाता है। यहाँ बायें पहाड़ी दीवारों में छः गुफाएं बनी हुई हैं।

तो सारे मन्दिरों के दर्शन कर मैं भी सप्तपर्णी गुफा की ओर चल पड़ा। सप्तपर्णी गुफा के रास्ते पर चलने पर लगता है कि हम कितना नीचे उतर गये हैं। ये सप्तपर्णी गुफाएं वह स्थान हैं जहाँ बुद्ध के महापरिनिर्वाण के  छः माह के पश्चात्,उनके उपदेशों को संग्रहीत करने के लिए बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। इस बौद्ध संगीति में लगभग 500 बौद्ध सन्यासियों ने भाग लिया।
वैसे मैं जब सप्तपर्णी गुफाओं के पास पहुँचा तो गुफा परिसर के अन्तिम कोने से थोड़ा सा धुआँ उठता दिखायी पड़ा। गाढ़े कत्थई रंग का कपड़ा अधोवस्त्र के रूप में लपेटे,ऊपर एक नीले रंग का ब्लेजर पहने,सिर और दाढ़ी पर घुँघराले बाल रखे एक सन्यासी नुमा व्यक्ति,आग जलाने की चेष्टा में लगे थे। पास में कुछ कम्बल और उनके दैनिक उपयोग की कुछ वस्तुएं रखी हुई थीं। मैंने देखा कि कुछ कागज के टुकड़ों और कुछ सूखी मिर्चाें को इकट्ठा करके वे आग जलाने की कोशिश में लगे हुए थे लेकिन पहाड़ी की इस ऊँचाई पर बहने वाली तेज हवा उनके प्रयासों को बेकार कर दे रही थी। मैंने कैमरा उठाया तो उन्होंने फोटो खींचने से मना कर दिया। मैंने परिचय जानने का प्रयास किया तो लगा कि वे अनिच्छुक हैं। एक–दो लाइनों जितना लम्बा सवाल करने पर एक–दो शब्दों का जवाब मिल पा रहा था। मैं सिर्फ इतना ही जान सका कि वे यहीं रहते हैं और साधना करते हैं। कभी–कभार जरूरत पड़ने पर नीचे भी चले जाते हैं। रहने वाले राजगीर के आस–पास के ही हैं। पहले कहीं और रहते थे,फिर कहीं और।

मैं वापस लौट पड़ा। कुछ लोग मिले जो मन्दिरों की तरफ जा रहे थे। ये सभी विदेशी थे। एक–दो लोग पालकी पर भी आये थे। ये जैनी ही होंगे। आस्थावान व्यक्ति ही पालकी पर आता है। वरना शौकिया तो पालकी पर शायद ही जाते होंगे। लौटते समय तीन–चार जगहों पर कुछ स्थानीय लोग कुछ खाने–पीने की वस्तुएं बेचते मिले। ऊपर जाते समय इनकी संख्या कम थी। ये पूरी ताकत से मुझे अपना सामान बेचने की कोशिश करते रहे लेकिन असफल रहे। मैं नीचे ब्रह्मकुण्ड परिसर के बाहर आया तो बाइक मेरा इन्तजार कर रही थी।

मनियार मठ

सोन भण्डार

जरासंध का अखाड़ा





सप्तपर्णी गुफाएं



वैभार गिरि पर शिव मंदिर के खण्डहर

प्राचीन बौद्ध मंदिर के खण्डहर



अगला भाग ः राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िंदा हैǃ (तीसरा भाग)

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. बिहार की धरती पर
2. वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम

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