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Friday, January 3, 2020

उत्तरी मैदानी प्रदेश (3)

ब्रह्मपुत्र का मैदान– इसे असम या ब्रह्मपुत्र घाटी  के नाम से भी जाना जाता है। यह मेघालय के पठार और हिमालय श्रेणियों के मध्य लम्बे और सँकरे मैदान के रूप में फैला हुआ है। इस मैदान के उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियाँ,दक्षिण में गारो,खासी,जयन्तिया व मिकिर की पहाड़ियाँ और पूर्व में पटकोई और नागा पहाड़ियाँ सीमा बनाती हैं। ब्रह्मपुत्र नदी इसके लगभग बीचोबीच से होकर अत्यधिक चौड़ाई में प्रवाहित होती है। मानसून में कभी–कभी तो ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई बढ़कर 8 किलोमीटर तक हो जाती है जिससे इसे पार करना अत्यन्त कठिन हो जाता है।
ब्रह्मपुत्र नदी सदिया के निकट पहाड़ों से उतरकर मैदानों में प्रवेश करती है और 720 किलोमीटर तक पश्चिम दिशा में प्रवाहित होने के बाद धुबरी के पास दक्षिण की ओर मुड़कर बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है। ब्रह्मपुत्र अपने प्रवाह क्षेत्र में मंद ढाल के कारण फैल कर प्रवाहित होती है और कई धाराओं में बँट जाती है। इन धाराओं के बीच कई द्वीप उत्पन्न हो जाते हैं। यह मैदान ब्रह्मपुत्र के साथ साथ 720 किलोमीटर की लम्बाई और 80 किलोमीटर की चौड़ाई में विस्तृत है। पश्चिमी सीमा को छोड़कर यह मैदान शेष तीन तरफ से ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इस मैदान की ऊँचाई पश्चिम में 30 मीटर से लेकर पूरब में 130 मीटर तक है। मंद ढाल और भारी मात्रा में अवसादों के जमाव के कारण नदी की धारा के बीच में कई द्वीप पाए जाते हैं। ब्रह्मपुत्र की धाराओं के बीच भारत का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली  अवस्थित है जिसका क्षेत्रफल 930 वर्ग किलोमीटर है। अमेजन नदी के मराजो द्वीप  के बाद यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा नदी द्वीप है। इस मैदान का ढाल गंगा के मैदान के ढाल से भी कम अर्थात 12 सेण्टीमीटर प्रति किलोमीटर पाया जाता है। इस मैदान के उत्तर में शिवालिक की पहाड़ियाँ एकदम से खड़ी हो जाती हैं,जिस कारण यहाँ तीव्र ढाल पाया जाता है। हिमालय से निकलती अनेक धाराओं के कारण यहाँ चौड़ी तराई पट्टी और दलदली भूमियाँ पायी जाती हैं। ब्रह्मपुत्र के उत्तरी किनारे पर तटबंध भी पाए जाते हैं। गोखुर या छाड़न झीलें भी पायी जाती हैं। ब्रह्मपुत्र की घाटी में इसके दोनों तरफ एकाकी पहाड़ी टीले पाए जाते हैं। यह मैदान भारत के सर्वाधिक उपजाऊ मैदानों में से एक है जहाँ चावल और पटसन की खेती की जाती है। ब्रह्मपुत्र के उत्तर स्थित मैदान तीव्र ढाल वाला जबकि दक्षिण का मैदान मंद ढाल वाला है। ब्रह्पुत्र को तिब्बत में त्सांगपो  के नाम से जाना जाता है और जब यह अरूणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है तो इसे दिहांग  के नाम से जाना जाता है। सदिया नामक स्थान पर जब इसमें उत्तर की ओर से दिबांग  और पूर्व की ओर से लोहित नदियाँ आकर मिलती हैं तो वहाँ से यह ब्रह्मपुत्र  के नाम से जानी जाती है। इसकी 35 सहायक नदियाँ हैं जो इसके समानान्तर प्रवाहित होती हुई इसमें मिल जाती हैं। ब्रह्मपुत्र में दक्षिण की ओर से लोहित,दिहांग,डिसांग,धनसिरी,कपीली,निहो दिहांग,बूढ़ी दिहांग,सिंगरा नदियाँ आकर मिलती हैं जबकि उत्तर की ओर से मनास,सनकोशी,सुबनसिरी इत्यादि आकर मिलती हैं। इस मैदान में कामाख्या देवी शक्तिपीठ मन्दिर अवस्थित है। इसके अतिरिक्त सघन वनों की उपस्थिति के कारण काजीरंगा और मानस वन्य जीव अभयारण्य भी स्थापित किए गए हैं।

भारत के मैदानी प्रदेशों की उपयोगिता–
1. भारत का यह विशाल मैदान नदियों द्वारा पहाड़ों का अपरदन कर लाए गए निक्षेपों का जमाव होने से बना है। इन निक्षेपों को काँप  कहा जाता है। इनके कारण यह मैदानी प्रदेश अत्यन्त उपजाऊ है। इसकी उर्वरता के कारण ही इसे भारत का अन्न भण्डार  कहा जाता है।
2. नदियों के मार्ग में ढाल प्रवणता अत्यन्त कम है। इस कारण ये आसानी से नौकारोहण के योग्य हैं।
3. समतल और मुलायम धरातल होने के कारण यहाँ सड़क और रेलमार्गाें का सघन जाल बिछ गया है।
4. उपजाऊ मैदान होने और पीने के पानी की सुगम उपलब्धता होने के कारण यहाँ सघन जनसंख्या निवास करती है।
5. इस मैदान में प्रवाहित होने वाली नदियाँ हिमालय से निकलती हैं जिन्हें वर्ष भर बर्फ पिघलने से जल की प्राप्ति होती रहती है। अतः सदावाहिनी हैं।
6. यह मैदान भूमिगत जल का बहुत बड़ा भण्डार है।
7. यह मैदान प्राचीन सभ्यताओं की जन्म–भूमि रहा है। इस मैदान में प्रवाहित होने वाली नदियों के किनारे अनेक प्राचीन शहर विकसित हुए।
8. अन्न और जल की सर्वसुलभता होने के कारण यह मैदान भारत की लगभग 45 प्रतिशत जनसंख्या को आश्रय प्रदान करता है।

उत्तरी मैदानी भाग की उत्पत्ति– आज से लगभग पौने दो लाख वर्ष पहले,हिमालय पर्वत के निर्माण के पश्चात,जब हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं का उत्थान पूर्ण हो चुका था तो हिमालय और दक्षिण के पठारी भाग के बीच एक गहरी खाई की उत्पत्ति हो गयी। फलतः हिमालय की उत्पत्ति से पूर्व इस भाग पर अस्तित्व में रहे टेथिस सागर का जल इस खाई में भर गया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बंगाल की खाड़ी और अरब सागर उसी टेथिस सागर के अवशिष्ट भाग हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ शेष बचे टेथिस सागर को कंकड़ पत्थर और अवसादों के निक्षेपण से तेजी से भरने लगीं। इस तरह एक लम्बे समयान्तराल में इन नदियों द्वारा एक समतल मैदानी भाग का निर्माण किया गया जो आज सिन्धु–गंगा–सतलज के मैदानी प्रदेश के रूप में जाना जाता है।
मध्य हिमालय के निर्माण के समय यहाँ विशाल इण्डोब्राह्म नदी पश्चिम से पूर्व दिशा में ब्रह्मपुत्र से सतलज की घाटी के उत्तर तक प्रवाहित होती थी। किन्तु शिवालिक श्रेणियों के निर्माण के समय दक्षिण के पठार का उत्तरी–पूर्वी भाग अर्थात छोटा नागपुर का पठार (वर्तमान झारखण्ड) और मेघालय के पठार के बीच का भाग नीचे की ओर धँस गया और एक गर्त का निर्माण हो गया। फलस्वरूप सम्पूर्ण भू–भाग की अपवाह व्यवस्था बदल गयी। सारी नदियाँ इसी गर्त में गिरने लगीं। पूर्वकालीन इण्डोब्राह्म नदी का पूर्वी भाग ब्रह्मपुत्र के रूप में पूर्व से पश्चिम की प्रवाहित होने लगा तथा इसका पश्चिम की ओर वाला भाग गंगा के रूप में पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होकर इसी गर्त में गिरने लगा। इस तरह इस गर्त में नदियों की मिट्टी भरने से गंगा और ब्रह्मपुत्र के डेल्टाई मैदान का निर्माण हुआ। विस्तृत संदर्भ के लिए हिमालय की उत्पत्ति देखें।

नदियों का मार्ग परिवर्तन–.हिमालय से उत्पन्न होने वाली नदियों का सिन्धु–गंगा–ब्रह्मपुत्र के मैदान में मार्ग परिवर्तन का लम्बा इतिहास रहा है। हिमालय की नदियाँ जब पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं तो कम ढाल के कारण इनका वेग मंद पड़ जाता है। साथ ही इनकी धारा में पहाड़ों से बहा कर लाया गया मलबा भी भारी मात्रा में रहता है। इस वजह से ये लहरदार मार्ग से प्रवाहित होती हैं। धारा के साथ आया हुआ मलबा जब कहीं अधिक मात्रा में जमा हो जाता है तो नदी अपना पुराना मार्ग त्याग कर नया मार्ग अपना लेती है। इसके अतिरिक्त नदियाँ दूसरी नदी का अपहरण भी कर लेती हैं। उदाहरण के लिए वैदिक कालीन सरस्वती नदी पहले राजस्थान से होकर प्रवाहित होती थी लेकिन बाद में संभवतः यमुना ने इसका अपहरण कर लिया अथवा इसी की धारा पूर्व की ओर मुड़कर गंगा घाटी की ओर हो गयी।
माना जाता है कि 16वीं सदी में मुगल सम्राट अकबर के समय चिनाब और झेलम नदियों का सिन्धु नदी में डच  नामक स्थान पर संगम होता था लेकिन वर्तमान में ये 100 किलोमीटर नीचे मिठानकोट नामक स्थान पर सिन्धु नदी से मिलती हैं। साथ ही मुल्तान उस समय रावी नदी के किनारे स्थित था लेकिन अब यह रावी नदी से 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। इसी तरह व्यास नदी भी आज के 200 साल पहले मुल्तान और माण्टगोमरी के बीच प्रवाहित होती थी लेकिन वर्तमान में यह फिरोजपुर में सतलज नदी में मिल जाती है।
बंगाल और बिहार तो नदियों के मार्ग परिवर्तन के लिए कुख्यात रहे हैं। माना जाता है कि गंगा की सहायक नदियाँ गंडक,घाघरा,सोन और पुनपुन,पटना के पास ही गंगा से मिल जाती थीं लेकिन वर्तमान में इन सभी के संगम स्थल बदल गए हैं। कोसी और दामोदर तो अपनी बाढ़ों और मार्ग परिवर्तन के लिए जानी जाती रही हैं। इसी तरह कोलकाता पहले समुद्र के किनारे बसा हुआ था। लेकिन गंगा ने अपने डेल्टा का विस्तार करते हुए इसे समुद्र से दूर कर दिया है। ब्रह्मपुत्र नदी पहले मयमनसिंह नामक स्थान से होकर प्रवाहित होती थी लेकिन अब यह वहाँ से 65 किलोमीटर पश्चिम की ओर चली गयी है। ब्रह्मपुत्र 200 साल पहले ढाका के पूर्व से होकर प्रवाहित होती थी लेकिन अब यह ढाका के पश्चिम से होकर प्रवाहित होती है।
मार्ग परिवर्तन उत्तरी विशाल मैदान में प्रवाहित होने वाली नदियों की स्वाभाविक विशेषता रही है लेकिन इस प्रक्रिया में इन नदियों ने महाविनाश भी किया है। इन नदियों के कारण इनके किनारे नगर बसते रहे हैं लेकिन इन नदियों की बाढ़ों ने कई नगरों काे नष्ट भी किया है।













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