Friday, December 20, 2019

उत्तरी मैदानी भाग (1)

उत्तरी मैदानी प्रदेश

हिमालय के दक्षिण में उसी के समानान्तर विशाल मैदानी प्रदेश फैला हुआ है। यह मैदानी प्रदेश हिमालय और दक्षिण के पठारी प्रदेश को एक दूसरे से अलग करता है। इस विशाल मैदान की उत्पत्ति हिमालय की उत्पत्ति के बाद हुई है। इस तरह भूगर्भिक दृष्टिकोण से यह नवीनतम भू–भाग है। इस मैदान का निर्माण करने वाली मुख्य नदियाँ सिन्धु,गंगा और ब्रह्मपुत्र हैं। इन मुख्य नदियों और इनकी सहायक नदियों ने एक लम्बे समयान्तराल में अवसादों का निक्षेप करके इस मैदान का निर्माण किया है और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। प्रशासनिक दृष्टि से इस मैदान का एक बड़ा भाग पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी पाया जाता है।
भारत में इस मैदान का विस्तार लगभग 7 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में पाया जाता है। यह मैदान हिमालय के समानान्तर पश्चिम से पूर्व की ओर 2400 किलोमीटर लम्बा है लेकिन इसकी चौड़ाई में अन्तर पाया जाता है। इस मैदान की चौड़ाई पश्चिम से पूर्व की ओर कम हाेती जाती है। पश्चिम में पंजाब में इस मैदान की चौड़ाई सर्वाधिक 500 किलोमीटर पायी जाती है। उत्तर प्रदेश में प्रयागराज के पास इसकी चौड़ाई 280 किलोमीटर हो जाती है जबकि बिहार में यह 200 किलोमीटर हो जाती है। झारखण्ड में यह चौड़ाई 160 किलोमीटर है जबकि असम में यह सँकरी होकर 100 किलोमीटर के आस–पास रह जाती है। यह मैदान प्रायः समतल और मंद ढाल वाला है। इस मैदान का अधिकांश भाग समुद्रतल से 150 मीटर से अधिक ऊँचा नहीं है। पूरब में यह मैदान अराकानयोमा की पहाड़ियों की तलहटी में समाप्त हो जाता है जबकि पश्चिम में राजस्थान की मरूभूमि में विलीन हो जाता है।

भारत के इस विशाल मैदानी भाग का निर्माण हिमालय और प्रायद्वीपीय पठारी भाग से निकलने वाली नदियों द्वारा लाए गए जलोढ़ के निक्षेप के कारण हुआ है। इन जलोढ़ निक्षेपों की सही–सही गहराई अब तक नहीं मापी जा सकी है। कुछ अनुमानों के अनुसार इस जलोढ़ की औसत गहराई 1300 से 1400 मीटर के बीच है। यह गहराई बुंदेलखण्ड के उत्तर में पायी जाती है। इन मैदानों की सर्वाधिक गहराई हरियाणा के अंबाला,यमुनानगर और जगाधरी में 8000 मीटर के आस–पास है। नीरस समरूपता इस मैदान की सबसे बड़ी विशेषता है जिसमें सैकड़ों किलोमीटर तक उच्चावच्च में कोई भिन्नता नहीं दिखायी देती। इस वजह से इस मैदान का वर्गीकरण करना अत्यन्त कठिन है। छाड़न झील,तटबन्ध,भूड़,बीहड़,खोल इत्यादि जैसे स्थलरूप इस मैदान की एकरसता को यत्र–तत्र भंग करते हैं। बाढ़ वाले क्षेत्रों में नदियों का मार्ग परिवर्तन भी इस मैदान की एक अन्य विशेषता है। यह मैदान कहीं भी समुद्रतल से 300 मीटर से अधिक ऊँचा नहीं है। वैसे यह ऊँचाई सहारनपुर,अंबाला और लुधियाना के बीच पायी जाती है। सहारनपुर से कोलकाता तक इस मैदान की लम्बाई 1500 किलोमीटर है। इस मैदान का औसत ढाल 20 सेण्टीमीटर प्रति किलोमीटर है। जैसे–जैसे पश्चिम से पूरब की ओर बढ़ते हैं यह ढाल और भी मंद होता जाता है। वाराणसी से गंगा के डेल्टाई क्षेत्र तक यह ढाल और भी कम होकर 15 सेण्टीमीटर प्रति किलोमीटर तक रह जाता है।
मिट्टी की विशेषताओं और ढाल के आधार पर इस मैदान का वर्गीकरण निम्न रूपों में किया जाता है–
1. भाबर मैदान
2. तराई मैदान
3. भांगर या बांगड़ मैदान
4. खादर मैदान
5. रेह
6. भूड़
7. डेल्टाई मैदान
1. भाबर मैदान– इसका विस्तार शिवालिक श्रेणियों के दक्षिण में पश्चिम से पूरब की ओर,जम्मू से असम तक पाया जाता है। हिमालय से निकलने वाली जलधाराएँ जब गंगा के मैदानी प्रदेशों में उतरती हैं तो उनके साथ बहकर आए हुए पत्थरों के छोटे–बड़े टुकड़े यथा कंकड़,बजरी और मोटे अवसाद,भारी मात्रा में जमा हो जाते हैं क्योंकि मैदानी भाग में प्रवेश करने के कारण इन धाराओं की गति काफी मन्द हो जाती है। कहीं–कहीं तो इन पत्थरों की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि छोटी धाराएं,जिन्हें चोस या राओस कहते हैं,इनके नीचे विलुप्त हो जाती हैं। केवल बड़ी नदियाँ ही इनके ऊपर से प्रवाहित होती हैं। कंकड़–पत्थरों से ढके इस भाग को ही भाबर कहते हैं। भाबर मैदान,गंगा मैदान की उत्तरी सीमा पर 8 से 15 किलोमीटर की चौड़ाई में फैले हुए हैं। ये मैदान फसलों की खेती के लिए अनुपयुक्त होते हैं। यहाँ केवल लम्बी जड़ों वाले वृक्ष ही उग पाते हैं। इन भागों में निवास करने वाले अधिकांश पशुपालक होते हैं।

2. तराई मैदान– भाबर के दक्षिण में 15 से 30 किलोमीटर चौड़ी तराई की पट्टी पायी जाती है। भाबर के मैदानों में कंकड़ों के नीचे छ्पिी जलधाराएं तराई में प्रकट हो जाती हैं। निम्न समतल मैदान,मंद ढाल और अधिक वर्षा के कारण नदियों का पानी सम्पूर्ण धरातल पर फैल जाता है जिस कारण दलदलों का निर्माण हो जाता है। इस भाग में नदियों का कोई निश्चित प्रवाह मार्ग नहीं हाेता। तराई मैदानों का निर्माण बारीक कंकड़,पत्थर,बजरी,रेत व चिकनी मिट्टी से हुआ है। तराई के मैदान पूर्वी भाग अर्थात ब्रह्मपुत्र घाटी में अधिक चौड़े हैं। यह अत्यधिक नमी वाला प्रदेश है जहाँ मच्छरों के कारण कई तरह की बीमारियाँ फैलने की आशंका रहती है। यहाँ घने जंगल और वन्य जीव भी अधिकता से पाये जाते हैं। जम्मू,पंजाब एवं हरियाणा,उत्तराखण्ड एवं उत्तर प्रदेश में कृषि भूमि हेतु तराई के वनों की कटाई कर दी गयी है।

3. भांगर या बांगड़ मैदान– पुराने जलोढ़ों के जमाव से निर्मित मैदानों को भांगर या बांगड़ कहते हैं। भांगर भूमि नदी की बाढ़ सीमा से ऊपर होते हैं जहाँ हर साल नदी की बाढ़ का पानी नहीं पहुँचता। यह मिट्टी गहरे हरे रंग की होती है जिसमें ह्यूमस पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। यह मिट्टी काफी उर्वर होती है। इस मिट्टी में कंकड़ भी पाए जाते हैं। यह मैदान लहरदार होते हैं।

4. खादर मैदान– नदियों की धारा के दोनों ओर फैले बाढ़ के मैदानों को खादर मैदान या बेट कहते हैं। ये वे क्षेत्र होते हैं जहाँ हर वर्ष नदियों की बाढ़ का पानी पहुँचता रहता है। हर वर्ष नदी का पानी आने की वजह से नवीन मिट्टी की एक पतली परत जम जाती है जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ जाती है। खादर भूमि में बालू,गादी,चिकनी मिट्टी और कीचड़ मिश्रित होते हैं। खादर मैदान रबी की फसल के लिए अत्यधिक उपयुक्त होते हैं।

5. रेह या कल्लर– यह कोई विशिष्ट मैदानी प्रदेश न होकर भांगर मैदानों का एक लक्षण् है। भांगर मैदानों मे जहाँ सिंचाई की अधिकता हो जाती है,वहाँ मिट्टी के ऊपर नमक की एक बारीक परत बिछ जाती है। सफेद परत वाली इस मिट्टी को रेह या कल्लर कहते हैं। शुष्क मौसम में यह धूल के रूप में परिवर्तित हो जाती है। स्थानीय ग्रामीण इस धूल का उपयोग कपड़ा धुलने के लिए करते हैं। उत्तर प्रदेश और पंजाब के शुष्क भागों में यह मिट्टी अनेक स्थानों पर मिलती है।

6. भूड़– यह भी भांगर मैदानों का ही एक लक्षण है। उन बांगर क्षेत्रों में जहाँ अपरदन के कारण मिट्टी की ऊपरी परत नष्ट हो जाती है,वहाँ नीचे की कंकरीली भूमि ऊपर आ जाती है। ऐसी भूमि को भूड़ के नाम से जाना जाता है। ये बजरी और कंकड़ के जमाव होते हैं जिनके ऊपर मिट्टी की मुलायम परत का विस्तार हो जाता है।

7. डेल्टाई मैदान– डेल्टाई मैदान खादर भूमियों के ही विस्तार के रूप में होते हैं। ये गंगा के निचले भागों में 1.9 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाए जाते हैं। मंद ढाल के कारण नदी के प्रवाह में कमी आने के से नदी द्वारा लाया गया मलबा तेजी से निक्षेपित हो जाता है और नदी का जल चारों तरफ फैल कर प्रवाहित होने लगता है। फलस्वरूप दलदलों की उत्पत्ति हो जाती है। डेल्टाई मैदान की उच्च भूमियों को चार तथा निम्न भूमियों को बिल कहते हैं। गंगा का डेल्टा एक सक्रिय डेल्टा है जिसका सागर की ओर निरन्तर विस्तार हो रहा है। 


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