Friday, December 13, 2019

प्रायद्वीपीय पठारी भाग (2)

अरावली पहाड़ियाँ– यह भारत की प्राचीनतम वास्तविक (वलित) पर्वत श्रेणी है। यह श्रेणी थार मरूस्थल की पूर्वी सीमा पर अहमदाबाद के निकट,नर्मदा नदी के तट से प्रारम्भ होकर उत्तर–पूर्व दिशा में दिल्ली के दक्षिण–पश्चिम तक,लगभग 800 किलोमीटर की लम्बाई में फैली हुई हैं। उत्तर–पूर्व की ओर इस श्रेणी की ऊँचाई और चौड़ाई क्रमशः घटती जाती है और दिल्ली के पास यह छोटे–छोटे टीलों के रूप में रह जाती है। इसकी औसत ऊँचाई 300 से 900 मीटर के बीच है। दक्षिण की ओर गुजरात में यह विदीर्ण पठार के सदृश दिखती है परन्तु उत्तर की ओर राजस्थान में यह स्पष्ट पर्वत श्रेणियों की तरह से दिखती है।
इस श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी आबू के निकट गुरूशिखर है जिसकी ऊँचाई 1722 मीटर है जबकि उत्तर में इसकी ऊँचाई 60 मीटर रह जाती है। गोरानघाट दर्रा गुरूशिखर को आबू पर्वत से अलग करता है। उदयपुर के निकट स्थित अरावली श्रेणी के दक्षिणी भाग को जरगा पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है जहाँ यह 1220 मीटर ऊँची है। उदयपुर से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हल्दीघाट दर्रा राजसमंद और पाली जिलों को जोड़ता है। इसका नामकरण यहाँ पायी जाने वाली हल्दी जैसी पीले रंग वाली मिट्टी के कारण हुआ है। हल्दीघाटी की प्रसिद्ध लड़ाई यहीं हुई थी। उदयपुर के निकट मेवाड़ पहाड़ी पश्चिम की ओर से खड़े कगार के रूप में दिखती है। ब्यावर के निकट स्पष्ट दो श्रेणियाँ उभरती हैं जो 100 किलोमीटर की लम्बाई तक चलती हैं। यहाँ इनकी चौड़ाई 25 से 30 किलोमीटर तक हो जाती है। अजमेर के निकट 11 से 16 किलोमीटर की चौड़ाई में कई समानान्तर श्रेणियाँ प्रकट होती हैं। अलवर के निकट इन्हें हर्षनाथ की पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है जिनकी ऊँचाई 670 मीटर है। दिल्ली के निकट यह दिल्ली की पहाड़ियों के नाम से जानी जाती है और यहाँ इसकी ऊँचाई 300 मीटर के आस–पास पायी जाती है। यह श्रेणी जल–विभाजक के रूप में है। इसके पूर्वी भाग की ओर से निकलने वाली नदियाँ जैसे बनास इत्यादि गंगा घाटी की ओर प्रवाहित हो जाती हैं। पश्चिमी भाग से निकलने वाली नदियाँ जैसे माही और लूनी अरब सागर की ओर प्रवाहित होती हैं। उल्लेखनीय है कि अरावली से निकलने वाली सभी नदियाँ बरसाती नदियाँ हैं जो ग्रीष्मकाल में सूख जाती हैं।
अरावली श्रेणियों के पश्चिम में लगभग 640 किलोमीटर लम्बा और 160 किलोमीटर चौड़ा थार का मरूस्थल विस्तृत है। इसमें बालुका स्तूप पाये जाते हैं जिनका ढाल अरावली श्रेणी की ओर मन्द और दूसरी तरफ तीव्र होता है। इस मरूस्थल में सांभर,लूनकरणसर,डीडवाना आदि खारे पानी की झीलें पायी जाती हैं।

काठियावाड़ प्रायद्वीप और कच्छ का रन – यह थार के मरूस्थल के दक्षिण–पश्चिम में 900 से 1200 मीटर ऊँचाई वाला लहरदार मैदान है। प्राचीन काल में सौराष्ट्र कदाचित एक द्वीप था और कच्छ व खम्भात की खाड़ियाँ परस्पर मिली हुई थीं। सौराष्ट्र के उत्तर में स्थित कच्छ का रेतीला व उजाड़ पहाड़ी भाग,प्राचीन काल में अरब सागर का एक भाग था जो नदियों द्वारा निक्षेपित पदार्थाें से पाट दिया गया। अब यह एक नमकीन दलदली क्षेत्र है। वर्षाकाल में यह क्षेत्र समुद्री नमकीन जल तथा लूनी व माही नदियों के जल से भर जाता है। सूखे मौसम में तीव्र वाष्पीकरण द्वारा इसके धरातल पर नमक की परत फैल जाती है। काठियावाड़ प्रायद्वीप का अधिकांश भाग बालुका स्तूपों से भरा दिखायी पड़ता है। इसका मध्यवर्ती दक्षिणी भाग अधिक ऊँचा है। यहाँ पर गिरनार और गिर पहाड़ियाँ स्थित हैं। 1117 मीटर ऊँचा गिरनार शिखर सबसे ऊँची चोटी है।

दक्कन का पठार– दक्कन के पठार को महाराष्ट्र का पठार भी कहा जाता है। यह लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश,छत्तीगढ़,गुजरात,कर्नाटक,तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश राज्यों में फैला हुआ है। यह पठार पूर्व में अमरकंटक और सरगुजा तक,पश्चिम में कच्छ तक,दक्षिण में बेलगांव व दक्षिण–पूर्व में राजमहेन्द्री तक फैला हुआ। तापी नदी इसकी उत्तरी सीमा बनाती है। पश्चिम में पश्चिमी घाट इसे दीवार की तरह से घेरे हुए हैं। इस पठार का निर्माण भूगर्भ से निकले लावा के जमने से हुआ है। यहाँ लावा की परतों की मोटाई लगभग 2000 मीटर तक पायी जाती है। पश्चिमी भाग में यह गहराई सर्वाधिक है जो पूर्व की ओर क्रमशः घटती जाती है। कच्छ क्षेत्र में इसकी गहराई 760 मीटर है जबकि नागपुर के पास यह केवल 15 मीटर ही है। जबलपुर के निकट लावा की परतें 6 से 8 मीटर तक गहरी हैं। इस पठार का ढाल उत्तर–पश्चिम की ओर से दक्षिण–पूर्व की ओर पाया जाता है। इस पठार पर गोदावरी,कृष्णा,तुंगभद्रा,वर्धा व इनकी सहायक नदियाँ प्रवाहित होती हैं।

पश्चिमी घाट या सह्याद्रि– पश्चिमी घाट दक्कन के पठार की सीमा बनाते हुए,उत्तर में ताप्ती नदी की घाटी से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक 1600 किलोमीटर की लम्बाई में फैले हुए हैं। उत्तर में इनकी चौड़ाई कम है जहाँ ये 50 किलोमीटर तक चौड़े हैं जबकि दक्षिण में इनकी चौड़ाई बढ़ती गयी है और वहाँ ये 80 किलोमीटर तक चौड़े हो गये हैं। पश्चिमी घाट की औसत ऊँचाई 1000 से 3000 मीटर के बीच है। पश्चिम की तरफ अर्थात अरब सागर की ओर इनका ढाल बिल्कुल खड़ा है जबकि पूर्व की ओर से देखने पर पर्वत जैसा कुछ आभास ही नहीं होता। इसका पूर्वी ढाल क्रमशः नीचा हाेता हुआ पठार के रूप में परिवर्तित हो गया है। लावा के क्रमिक प्रवाहों से निर्मित होने के कारण इसका पश्चिमी ढाल सीढ़ीनुमा खड़ा दिखायी देता है,इसी कारण इसका नाम घाट पड़ गया। सह्याद्रि श्रेणी प्रायद्वीपीय भारत के लिए जलविभाजक का कार्य भी करती है। इसके पश्चिमी ढालों से निकलने वाली नदियाँ अरब सागर में गिर जाती हैं जबकि पूर्वी ढाल से निकलने वाली नदियाँ बंगाल की खाड़ी में प्रवाहित होती हैं। पश्चिम में अरब सागर में प्रवाहित होने वाली नदियाँ तीव्र ढाल के कारण अत्यन्त तीव्रगामी हैं।
पश्चिमी घाट का प्रारम्भ ताप्ती नदी के दक्षिणी छोर के पास से खानदेश में होता है। आरम्भ से लेकर गोवा की सीमा के पास मलप्रभा नदी के उद्गम तक के भाग को उत्तरी सह्याद्रि के नाम से जाना जाता है। इसकी लम्बाई 650 किलोमीटर है। इस भाग में इसकी औसत ऊँचाई 500 मीटर तक है लेकिन कुछ चोटियाँ 1000 मीटर से भी अधिक ऊँची हैं। इनमें हरिश्चन्द्र गढ़ (1424 मीटर),महाबलेश्वर (1438 मीटर),कलसूबाई (1646 मीटर) तथा साल्हेर (1567 मीटर) प्रमुख हैं। इसी भाग में थालघाट तथा भोरघाट नामक प्रमुख दर्रे भी हैं। थालघाट 581 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और मुम्बई से कोलकाता जाने के लिए मार्ग प्रदान करता है। भोरघाट 630 मीटर की ऊँचाई पर है जिससे होकर मुम्बई–पुणे मार्ग गुजरता है। पश्चिमी घाट का यह भाग लावा की परतों से ढका हुआ है जिसका अपरदन कम होता है। इस कारण पहाड़ियों के शीर्ष बिल्कुल सपाट दिखायी देते हैं। किनारों की तरफ से अधिक अपरदन होने के कारण इसके ढाल कगार की भाँति खड़े दिखायी पड़ते हैं। पश्चिमी घाट के इस भाग से गोदावरी,कृष्णा,भीमा नदियों का उद्गम होता है। महाबलेश्वर,माथेरान,खण्डाला आदि पर्यटक स्थल इसी भाग में अवस्थित हैं। महाबलेश्वर का येना प्रपात 183 मीटर ऊँचा है। तापी और गोदावरी नदियों के बीच,पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से निकलकर एक श्रेणी पूर्व की ओर चली गयी है जिसे स्थानीय रूप से सतमाला और अजंता श्रेणी के नाम से जाना जाता है। इसी तरह गोदावरी और भीमा नदियों के बीच एक और श्रेणी पश्चिमी घाट से निकलकर दक्षिण–पूर्व की ओर चली जाती है जिसे बालाघाट श्रेणी के नाम से जाना जाता है।
मलप्रभा नदी के उद्गम से पालघाट दर्रे तक के भाग को मध्य सह्याद्रि के नाम से जाना जाता है। इसकी भी लम्बाई लगभग 650 किलोमीटर है। इस भाग में पश्चिमी घाट की चौड़ाई काफी अधिक हो जाती है। इस भाग  में पश्चिमी घाट समुद्र की तरफ से खड़ी दीवार की भाँति 1500 से 2000 मीटर तक ऊँचे दिखायी पड़ते हैं। इसी भाग में शर्वती नदी पर बना गरसोप्पा या जोग जलप्रपात भारत का सबसे ऊँचा जलप्रपात है। इसकी ऊँचाई 250 मीटर है। तुंगभद्रा और कावेरी नदियों का उद्गम इसी भाग में होता है। इस भाग में पश्चिमी घाट,पूर्वी घाट से मिलकर पर्वतीय गाँठ का निर्माण करता है। इस गाँठ की दक्षिण की तरफ नीलगिरि की पहाड़ियाँ पायी जाती हैं। नीलगिरि पहाड़ियाँ लगभग 2500 वर्ग किलोमीटर भाग में फैली हुई हैं। दक्षिणी भारत का प्रसिद्ध पर्यटक स्थल ऊटी,नीलगिरि की पहाड़ियों पर ही बसा हुआ है। इस भाग में कई ऊँची चोटियाँ मिलती हैं जैसे– दोद्दाबेटा (2637 मीटर),मकूर्ती (2554 मीटर),पुष्पगिरि (1714 मीटर),कुद्रेमुख (1892 मीटर),कोटाबेट्टा (1638 मीटर) इत्यादि।
नीलगिरि पहाड़ियों के दक्षिण पालघाट दर्रा स्थित है। इस दर्रे की चौड़ाई 24 किलोमीटर है। इसे पलक्काड घाट के नाम से भी जाना जाता है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 75 से 300 मीटर तक है। यह तमिलनाडु के कोयम्बटूर शहर को केरल के कोच्चि और कोझीकोड शहरों से जोड़ता है।
पालघाट दर्रे से लेकर कन्याकुमारी तक 290 किलोमीटर की लम्बाई में फैली श्रेणी को दक्षिण सह्याद्रि कहते हैं। इस भाग में तीन पहाड़ियों के समूह पाये जाते हैं। उत्तर की ओर अन्नमलाई पहाड़ियाँ,दक्षिण में इलायची की पहाड़ियाँ और पूर्व की ओर पलनी की पहाड़ियाँ। पश्चिमी घाट की सबसे ऊँची चोटी अनाईमुड़ी,इसी भाग में स्थित है। इसकी ऊँचाई 2695 मीटर है। तमिलनाडु का कोडाईकनाल पर्यटक स्थल पलनी की पहाड़ियों में स्थित है जबकि केरल का मुन्नार अन्नामलाई की पहाड़ियों में बसा है। इलायची की पहाड़ियाें में इलायची के वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं।

पूर्वी घाट– भारत के पूर्वी तट के सहारे,महानदी के दक्षिण से लेकर नीलगिरि की पहाड़ियों तक फैली पहाड़ियों को पूर्वी घाट के नाम से जाना जाता है। इनकी दिशा उत्तर–पूर्व से दक्षिण–पश्चिम की ओर तथा लम्बाई 1300 किलोमीटर है। ये पहाड़ियाँ पश्चिमी घाट की तरह अविच्छिन्न रूप में न होकर जगह–जगह बिखरी पहाड़ियों के रूप में पायी जाती हैं। पूर्वी घाट की औसत ऊँचाई 615 मीटर है। वास्तव में ये पर्वत श्रेणी न होकर पठार का उत्थित भाग हैं जो आसपास के धरातल से ऊँचा है। महानदी और गोदावरी नदियों के बीच  इनकी चौड़ाई 190 किलोमीटर से लेकर दक्षिण में 75 किलोमीटर के बीच बदलती रहती है। इस श्रेणी को अनेक स्थानों पर नदियों ने काट दिया है जिस कारण कई अलग–अलग पहाड़ियों की उत्पत्ति हो गयी है।
पूर्वी घाट को चार भागों  में बाँटा जा सकता है–

पहला भाग  सबसे उत्तरी भाग है जो महानदी के उत्तर में उड़ीसा के मयूरभंज जिले तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में विस्तृत है। ये पहाड़ियाँ उत्तर–दक्षिण दिशा में फैली हुई हैं जिन्हें गढ़जात पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है। इसे उड़ीसा उच्चभूमि के नाम से भी जाना जाता है। इस पठारी भाग के उत्तर में छोटा नागपुर का पठार,पश्चिम में महानदी बेसिन तथा पूर्व में,पूर्वी तटीय मैदान अवस्थित हैं। पूर्वी घाट के इसी भाग में मलयगिरि (1187 मीटर),मेघासनी (1165 मीटर) और गन्धमादन (1060 मीटर) शिखर पाये जाते हैं।

पूर्वी घाट का दूसरा भाग  महानदी और गोदावरी नदियों के बीच अवस्थित है। इस भाग में यह सर्वाधिक विशिष्ट स्वरूप में पाया जाता है। यहाँ यह वास्तविक पर्वत के रूप में दिखायी पड़ता है। इस भाग में इसकी औसत ऊँचाई 1000 मीटर है। इसी भाग में महेन्द्रगिरि चोटी (1501 मीटर) पायी जाती है जो गंजाम जिले में अवस्थित है। इस भाग से कई नदियाँ जैसे मचकुण्ड,सबरी,सिलेरू,इन्द्रावती इत्यादि निकलती हैं। गोदावरी नदी पूर्वी घाट के इस भाग को गहरे गार्ज द्वारा पार करती है। 

कृष्णा नदी के दक्षिण से पूर्वी घाट का तीसरा भाग  शुरू होता है जो चेन्नई शहर के पास तक चलता है। इस भाग में नल्लामल्ला,पालकोण्डा और वेलीकोण्डा,एर्रमला,कोंडाविडु और शेषाचलम की पहाड़ियाँ पायी जाती हैं। ये सभी आन्ध्र प्रदेश में अवस्थित हैं। इस भाग की औसत ऊँचाई 750 मीटर है। नल्लामल्ला की लम्बाई 430 किलोमीटर और एवं औसत ऊँचाई 900 से 1100 मीटर है। ये पहाड़ियाँ उत्तर–दक्षिण दिशा में फैली हुई हैं जिनके आर–पार,उत्तर में कृष्णा और दक्षिण में पेन्नार नदियाँ प्रवाहित होती हैं।

चेन्नई शहर के पास पूर्वी घाट का चौथा भाग  शुरू होता है और यहाँ इसकी दिशा दक्षिण–पश्चिम की ओर हो जाती है। इस भाग में जावाडि,गिन्नी,शेवराय,पंचमलाई आदि पहाड़ियाँ पायी जाती हैं। नीलगिरि पहाड़ियों के पास इनका अलग अस्तित्व समाप्त हो जाता है और ये पश्चिमी घाट से मिल जाते हैं। यहाँ ये एक विस्तृत पठार के रूप में 2400 वर्ग किलोमीटर भूभाग में फैले हुए हैं जिसे कर्नाटक का पठार भी कहा जाता है। इस भाग में चन्दन और सागवान के जंगल बहुतायत से पाए जाते हैं। कावेरी और पेन्नार नदियों के बीच वाले भाग में मेलागिरी की पहाड़ियाँ पायी जाती हैं जो चन्दन के वनों के लिए प्रसिद्ध हैं।













अन्य सम्बन्धित विवरण–

No comments:

Post a Comment

Top