Friday, January 31, 2020

भारत की भूगर्भिक संरचना (2)

पुराण कल्प की शैलें
धारवाड़ समूह की चट्टानों के निर्माण के पश्चात,एक लम्बे समयान्तराल के बाद इस समूह की चट्टानों का निर्माण हुआ। इस दीर्घकाल में अनेक भूगर्भिक हलचलें हुईं जिससे दो संस्तरों में ये शैलें मिलती हैं। इनमें सबसे नीचे कुडप्पा समूह और ऊपरी भागों में विंध्यन समूह की शैलें पाई जाती हैं।

(1) कुडप्पा समूह की शैलें– कुडप्पा समूह की शैलें आर्कियन और धारवाड़ शैलों के ऊपर असम्बद्ध रूप में,विभिन्न मोटाई की,अनेक समानान्तर प्राचीन अवसादी शैलों के रूप में स्थित हैं। इनका नामकरण आन्ध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले के नाम पर हुआ है जहाँ ये एक विस्तृत अर्द्ध–चन्द्राकार क्षेत्र में फैली हुई हैं। यहाँ ये 6000 मीटर से भी अधिक मोटी हैं।
ऐतिहासिक कालक्रम में धारवाड़ युग की चट्टानें जलज क्रियाओं के फलस्वरूप,कट कर समुद्र व नदियों की निचली घाटियों में एकत्र होती रहीं। कालान्तर में इस निक्षेप ने परतदार या अवसादी चट्टानों का रूप ग्रहण कर लिया। इन्हीं चट्टानों को कुडप्पा समूह की शैलें कहा जाता है। इन शैलों में शेल,क्वार्ट्जाइट,स्लेट व चूना पत्थर की प्रधानता है। इन शैलों का पर्याप्त रूपान्तरण भी हुआ है। इन शैलों की उत्पत्ति के समय पृथ्वी पर जीवन का प्रादुर्भाव हो चुका था फिर भी इनमें अधिक कायान्तरण के कारण जीवावशेष नहीं पाए जाते।
इस समूह की शैलों को दो वर्गाें में रखा जाता है–
(i) निचली कुडप्पा शैलें– ये धारवाड़ शैलों के ऊपर असम्बद्ध रूप में मिलती हैं जिनमें पापाघानी और चेयार श्रेणियाँ प्रमुख हैं।
(ii) ऊपरी कुडप्पा शैलें– ये निचली कुडप्पा शैलों के ऊपर असम्बद्ध रूप में पाई जाती हैं। इनमें कृष्णा और नल्लामलाई श्रेणियाँ प्रमुख हैं।

ये शैलें भारत में लगभग 22000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में आन्ध्र प्रदेश,छत्तीसगढ़,राजस्थान,महाराष्ट्र,तमिलनाडु राज्यों और हिमालय के कुछ भागों में पाई जाती हैं। कृष्णा नदी की घाटी के सहारे फैली कुडप्पा शैलों की श्रेणी कृष्णा श्रेणी  के नाम से जानी जाती है। नल्लामलाई पहाड़ियों में इसे नल्लामलाई श्रेणी  कहा जाता है। चेयार नदी की घाटी में इसका नाम चेयार श्रेणी  है जबकि पापाघानी की घाटी में इसे पापाघानी श्रेणी  कहते हैं। उत्तरी कर्नाटक के बेलगाँव और गोदावरी की मध्यवर्ती घाटी में भी ये बिखरे हुए रूप में पाई जाती हैं। राजस्थान में अजमेर,पश्चिमी मेवाड़,अलवर,अजबगढ़ एनिरपुरा तथा मध्य प्रदेश के रीवाँ,बिजावर,ग्वालियर एवं छत्तीसगढ़ के कुछ भागों में भी यह शैलें पाई जाती हैं।
कुडप्पा समूह की शैलें आर्थिक दृष्टि से धारवाड़ समूह की तुलना में कम महत्व की हैं। इनमें खनिज भण्डार अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। इन शैलों में मुख्य रूप से लोहा और मैंग्नीज प्राप्त होता है। संगमरमर और रंगीन पत्थर,बालू पत्थर,चूना पत्थर और सीसा भी प्राप्त होता है। कुडप्पा एवं कर्नूल जिलों में एस्बेस्टस और टाल्क प्राप्त होता है। पूर्वी राजस्थान में इन्हीं शैलों से ताँबा,कोबाल्ट और रांगा प्राप्त होता है।

(2) विंध्यन समूह की शैलें– इन शैलों का निर्माण कुडप्पा शैलों के बाद हुआ। विन्ध्याचल क्षेत्र में अधिक विस्तृत होने के कारण ये शैलें "विन्ध्यन क्रम" के नाम से प्रसिद्ध हो गयीं। ये परतदार शैले हैं जिनका निर्माण जलज निक्षेपों द्वारा हुआ है। ये निक्षेप समुद्र और नदी घाटियों में एकत्र हुए थे। विन्ध्यन शैलों से प्राप्त होने वाला बलुआ पत्थर इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि इनका निर्माण जिन निक्षेपों से हुआ था वे छ्छिले सागर में जमा हुए थे। पश्चिम में अरावली के सिरे पर चित्तौड़गढ़ से लेकर पूर्व में बिहार के सासाराम तक लगभग 1 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इन शैलों का विस्तार पाया जाता है। इनमें बालू पत्थर,शेल और चूना पत्थर की प्रधानता होती है जिसकी परतें 4000 मीटर तक मोटी होती हैं। अनेक स्थानों पर ये शैलें दक्कन ट्रैप की शैलों से ढक गयी हैं।
कुडप्पा शैलों की तरह ही विन्ध्यन शैलें भी दो स्पष्ट परतों में रखी जा सकती हैं–

(i) निचली विन्ध्यन समूह की शैलें– इन शैलों का निर्माण समुद्र में काफी गहराई तक जमा हुए निक्षेपों द्वारा हुआ है। इसके अतिरिक्त बड़ी नदियों के मुहाने पर जमा हुए पदार्थाें से भी इन शैलों का निर्माण हुआ है। इन शैलों के निचले भाग में क्वार्ट्जाइट,बीच में शेल और ऊपरी भाग में चूना पत्थर मिलता है। यह शैलें पाँच प्रमुख क्षेत्रों में मिलती हैं–
(a) साेन नदी की घाटी में ये सेमरी श्रेणी के नाम से जानी जाती हैं।
(b) आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी–पश्चिमी भाग में इन्हें कर्नूल श्रेणी कहा जाता है।
(c) भीमा नदी की घाटी में ये शैलें भीमा श्रेणी कहलाती हैं।
(d) राजस्थान में जोधपुर और चित्तौड़गढ़ में इनका नाम पलनी श्रेणी है।
(e) ऊपरी गोदावरी घाटी और नर्मदा घाटी के उत्तर में मालवा और बुंदेलखण्ड में ये बिखरे क्षेत्रों में मिलती हैं।

(ii) ऊपरी विन्ध्यन समूह की शैलें– ये शैलें नदियों की घाटियों में एकत्र हुए निक्षपों से निर्मित हुई हैं। इनमें बलुआ पत्थर,शेल और कांग्लोमरेट शैलें प्रमुख हैं। ये शैलें प्रायद्वीपीय भाग के अतिरिक्त हिमालयी भागों में भी पाई जाती हैं। निचली विन्ध्यन शैलों की भाँति ऊपरी विन्ध्यन शैलें भी पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से लेकर पूर्व में सासाराम एवं रोहतास तक तथा उत्तर में आगरा से दक्षिण में होशंगाबाद तक लगभग 103600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई हैं। वैसे इस विस्तृत क्षेत्र के बीच–बीच में ऐसे भाग भी हैं जहाँ ये शैलें नहीं पाई जातीं। इनकी अधिकतम चौड़ाई आगरा और नीमच के बीच में मिलती है। इनकी मोटाई 4200 मीटर तक पाई जाती है। ये प्रमुख रूप से निम्न क्षेत्रों में पाई जाती हैं–
(a) नर्मदा नदी के उत्तर में भाण्डेर,रीवाँ तथा कैमूर श्रेणी के रूप में।
(b) कटनी से इलाहाबाद जाने वाले रेलमार्ग के आस–पास।
(c) मुगलसराय से डेहरी–ऑन–सोन की ओर जाने वाले रेलमार्ग के आस–पास।
(d) प्रायद्वीप के उत्तरी–पश्चिमी भाग में अरावली श्रेणी और उसके निकटवर्ती भागों में।
(e) हिमालयी क्षेत्र में पीर–पंजाल और धौलाधार श्रेणियों तथा शिमला व स्पीति घाटियों आस–पास के भागों में स्लेट के रूप में इन शैलों का जमाव पाया जाता है।

आर्थिक दृष्टि से विन्ध्यन शैलें भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इनमें चूना पत्थर,बलुआ पत्थर,चीनी मिट्टी,अग्निसह मिट्टी,वर्ण मिट्टी प्राप्त होती है। चूना पत्थर सीमेण्ट उद्योग के लिए कच्चे माल का काम करता है जबकि बलुआ पत्थर इमारत निर्माण में प्रयोग में लाया जाता है। भारत की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतें जैसे लाल किला,आगरे का किला,साँची का स्तूप,जामा मस्जिद,सिकन्दरा और फतेहपुर सीकरी की इमारतें इन्हीं पत्थरों से बनी हैं। इन शैलों से पन्ना तथा गोलकुण्डा की खानों से हीरे भी निकाले जाते हैं। सघन बालू पत्थरों का उपयोग पत्थरों की पिसाई करने वाले पत्थराें के रूप में भी किया जाता है।

द्रविड़ कल्प की शैलें
इस समूह की शैलों का निर्माण कैम्ब्रियन काल से लेकर मध्य कार्बानिफेरस काल तक हुआ। ये भारत में बहुत ही कम क्षेत्रफल में और छ्टिपुट रूप से मिलती हैं। ये मुख्यतः प्रायद्वीपीय  भागों से बाहर के क्षेत्रों में पाई जाती हैं और जीवावशेषों से युक्त हैं। इन शैलों की उत्पत्ति 60 से 30 करोड़ वर्ष पूर्व हुई। चूँकि इन शैलों में अधिक जीवावशेष मिलते हैं,अतः माना जाता है कि द्रविड़ कल्प में पृथ्वी पर जीवन का उद्भव हो गया था। इस समूह की शैलों में काल के अनुसार क्रमशः कैम्ब्रियन,आर्डाेविसियन,सिलूरियन,डेवोनियन और कारबोनिफेरस क्रम की शैलों को सम्मिलित किया जाता है।

कैम्ब्रियन युग की शैलें– कैम्ब्रियन शब्द की उत्पत्ति ग्रेट ब्रिटेन स्थित वेल्स के लैटिन शब्द केम्बिया  से हुई है। इस प्रकार की शैलें हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी,कश्मीर के बारामूला व अनन्तनाग जिलों और पीर पंजाल के क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इस प्रकार की शैलें भारत–पाकिस्तान सीमा पर स्थित साल्ट श्रेणी  में भी मिलती हैं। इन शैलों में स्लेट,क्वार्ट्जाइट,बलुआ पत्थर,चीनी मिट्टी,डोलोमाइट और नमक के जमाव पाए जाते हैं।
आर्डोविसियन युग की शैलें– इस नाम की भी उत्पत्ति वेल्स के आर्डोविसज  से हुई है। इस प्रकार की शैलें हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी,कश्मीर की लिद्दर घाटी और उत्तराखण्ड के कुमाऊँ क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इन शैलों में क्वार्ट्जाइट,बलुआ पत्थर और चूना पत्थर के निक्षेप पाए जाते हैं।
सिलूरियन युग की शैलें– यह नाम भी वेल्स के स्थानीय लोगों के नाम पर पड़ा है। इस प्रकार की शैलें हिमाचल प्रदेश की स्पीति व कुल्लू घाटी,कश्मीर के अनन्तनाग की लिद्दर घाटी और हंदवाड़ा में बिखरी हुई मिलती हैं। इन शैलों में चूना पत्थर और शेल के भण्डार मिलते हैं।
डेवोनियन युग की शैलें– इसका नाम इंग्लैण्ड के डिवोनशायर  के नाम पर पड़ा है। इस प्रकार की शैलों में जीवावशेष नहीं पाए जाते हैं। इनकी परतें काफी मोटी हैं। इनकी मोटाई 900 मीटर तक है। यह हिमाचल प्रदेश की स्पीति घाटी,कश्मीर की लिद्दर घाटी और पीर पंजाल क्षेत्र में मिलती हैं। इन शैलों में क्वार्ट्जाइट प्रमुखता से मिलता है।
कार्बाेनिफेरस युग की शैलें– इस युग की शैलें 35 करोड़ वर्ष पुरानी हैं। इसी युग में कोयले का निर्माण शुरू हुआ था। भूगर्भ में इन्हें कोयला युक्त शैल कहा जाता है। इन्हें तीन समूहों– ऊपरी,मध्य और निम्न क्रमों में रखा जाता है। इन शैलों को गोण्डवाना क्रम की शैलों के नाम से जाना जाता है और आर्यन कल्प की शैलों के साथ रखा जाता है।



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