Friday, December 6, 2019

प्रायद्वीपीय पठारी भाग (1)

भारत भूमि का सर्वाधिक प्राचीन खण्ड प्रायद्वीपीय पठारी भाग है जो लगभग 16 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इस तरह यह पठारी भाग भारत के कुल क्षेत्रफल के लगभग आधे भाग में दक्षिणी–पूर्वी राजस्थान,मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़,झारखण्ड,ओडिशा,महाराष्ट्र,गुजरात,कर्नाटक,आन्ध्र प्रदेश,तेलंगाना,केरल,तमिलनाडु इत्यादि राज्यों में विस्तृत है। भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र के समरूप यह पठारी भाग भी त्रिभुजाकार रूप में फैला है जिसका शीर्ष दक्षिण की ओर और आधार उत्तर की ओर है। प्राकृतिक दृष्टि से इसकी उत्तरी सीमा पर अरावली,कैमूर और राजमहल की पहाड़ियाँ स्थित हैं।
पश्चिम में पश्चिमी घाट और पूर्व में पूर्वी घाट इसकी सीमा बनाते हैं। मेघालय का पठार भी इसी पठार का उत्तरी–पूर्वी भाग है। यह पठार पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास के प्राचीन भूखण्ड गोण्डवानालैण्ड का अंग है। इस पठारी भाग पर भी अनेक ऊँची पहाड़ियाँ पायी जाती हैं जो लाखों वर्षाें तक चली अपरदन की प्रक्रिया के कारण घिस–पिट कर सपाट शिखरों वाली हो गयी हैं। यह पठार नदियों की कटान और अपरदन के कारण कई छोटे–छोटे भागों में विभाजित हो गया है जिसके अलग–अलग नाम पड़ गये हैं। इस पठार की औसत ऊँचाई 600 से 900 मीटर है। प्रायद्वीप का सामान्य ढाल उत्तर–पश्चिम से दक्षिण–पूर्व की ओर है।

अब बात करते हैं प्रायद्वीपीय पठारी भाग के क्षेत्रीय विभाजन की। भूगोल की किताबों में इस भूभाग का इतने अधिक तरीकों से वर्गीकरण किया गया है कि एक सामान्य व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। हिमालय की तरह से इस पठार में स्पष्ट विभाजन नहीं दिखता। दरअसल इस पठार का निर्माण प्रायद्वीपीय भूभाग में लाखों वर्षाें पहले भूगर्भ से निकले लावा के जमने से हुआ है। इस प्रक्रिया में धरातल में दरारें पड़ीं और इन दरारों से निकला लावा नदियों की धाराओं की तरह,ढाल के अनुसार नसों के रूप में फैलता गया। बाद में कई बार इस प्रक्रिया के दाेहराव के कारण इस भू–भाग की ऊँचाई बढ़ती गयी और पहाड़ियों तथा पठारी भाग की उत्पत्ति हो गयी। कालान्तर में लाखों वर्षाें तक अपरदन,भ्रंशन इत्यादि के कारण यह पठार कई भागों में विभाजित हो गया।

प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में 21 अंश से 24 अंश उत्तरी अक्षांशों के मध्य,पूर्व–पश्चिम दिशा में विस्तृत पहाड़ियों की श्रेणियाँ तथा नर्मदा व ताप्ती नदियाँ,प्रायद्वीप को दो असमान भागों में विभाजित कर देती हैं। नर्मदा के उत्तर में विन्ध्याचल श्रेणी और दक्षिण में सतपुड़ा श्रेणियाँ स्थित हैं। सतपुड़ा श्रेणी के दक्षिण में ताप्ती नदी प्रवाहित होती है। ये श्रेणियाँ उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के बीच में एक अवरोध के रूप में कार्य करती रही हैं जिसके फलस्वरूप उत्तरी भारत में आर्य संस्कृति और दक्षिणी भारत में द्रविड़ संस्कृति विकसित हुई। दक्षिणी भाग को मुख्य रूप से दकन के पठार से नाम से जाना जाता है। उत्तरी भूभाग के सबसे पश्चिमी हिस्से को मालवा पठार,मध्यवर्ती भाग को बुन्देलखण्ड–बघेलखण्ड पठार,पूर्वी भाग को छोटा नागपुर पठार तथा पूर्वोत्तर भारत में स्थित भाग को मेघालय के पठार के नाम से जाना जाता है। तो आइए इसके छोटे–छोटे भागों के बारे में विस्तार से जानते हैं–

मालवा का पठार– मालवा का पठार प्रायद्वीपीय भूमि पर दरारी उद्भेदन से निःसृत लावा से निर्मित है। ऐतिहासिक कालक्रम में यह काली मिट्टी का मैदान बन गया है। इसका सामान्य ढाल गंगा की घाटी की ओर है। इस पठार पर बेतवा,पार्वती,नीवज,काली सिंध,चम्बल आदि नदियाँ प्रवाहित होती हैं जो यमुना की सहायक नदियाँ हैं। काली मिट्टी से निर्मित ये मैदान काफी उपजाऊ हैं। पठार का सामान्य स्वरूप लहरदार है जिस पर यत्र–तत्र सपाट शिखरों वाली पहाड़ियाँ पायी जाती हैं।
इस पठार के पश्चिम में अरावली की पहाड़ियां,दक्षिण में विन्ध्याचल श्रेणी तथा उत्तरी–पूर्वी सीमा पर बुन्देलखण्ड व बघेलखण्ड के पठार स्थित हैं। पठार के उत्तरी भाग को चम्बल और उसकी सहायक नदियों ने बीहड़ खड्ड के रूप में परिवर्तित कर दिया है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई 250 मीटर तक है।

बुंदेलखण्ड–बघेलखण्ड या विंध्याचल पठार– मालवा पठार के उत्तरी–पूर्वी भू–भाग को बुंदेलखण्ड–बघेलखण्ड पठार या विंध्याचल पठार के नाम से जाना जाता है। यमुना नदी इस पठारी भाग की उत्तरी सीमा बनाती है जबकि दक्षिणी सीमा पर विंध्य श्रेणी फैली हुई है। इस पठार में भी यमुना और चम्बल नदियाें ने बीहड़ खड्ड बना रखे हैं। बुंदेलखण्ड उच्चभूमि या बुंदेलखण्ड पठार का विस्तार उत्तर प्रदेश के बांदा,हमीरपुर,जालौन और ललितपुर जिलों तथा मध्य प्रदेश के दतिया,टीकमगढ़,छतरपुर तथा पन्ना जिलों में है। जीर्णता इस भू–भाग की सामान्य विशेषता है। बेतवा,धसान और केन नदियाें ने इस प्रदेश में तीखे खड्डों और जलप्रपातों का निर्माण किया है। बुंदेलखण्ड के पूर्व में बघेलखण्ड उच्चभूमि या पठार स्थित है। इस प्रदेश के अन्तर्गत मध्य प्रदेश के सतना और रीवा के पठार तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर पठारी भाग आते हैं। सोन,टोंस,केन,कर्मनाशा और बेलांदरे इस भाग की प्रमुख् नदियाँ हैं।
उक्त समस्त भूभाग की ऊँचाई 150 से 200 मीटर के बीच है और उच्चावच्च में अत्यधिक विभिन्नता पायी जाती है।

विंध्याचल श्रेणी– विंध्याचल श्रेणी का विस्तार पश्चिम में गुजरात के जोबत और राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से लेकर बिहार के सासाराम तक है। इसकी कुल लम्बाई लगभग 1050 किलोमीटर और औसत ऊँचाई 750 से 1200 मीटर के बीच है। यह पर्वत श्रेणी विंध्याचल,भारनेर,कैमूर व पारसनाथ पहाड़ियों का समूह है। यह श्रेणी मालवा और बुन्देलखण्ड–बघेलखण्ड पठारों की दक्षिणी और पूर्वी सीमा बनाती है। यह श्रेणी उत्तर भारत के गंगा नदी क्रम को दक्षिण भारत की नदियों के क्रम से अलग करती है जिसे भूगाेल की भाषा में जलविभाजक कहते हैं। इस श्रेणी की पहाड़ियों के शीर्ष चपटे हैं जो पठारी विशेषताओं को दर्शाते हैं। विंध्य श्रेणी का उत्तरी ढाल मंद है जबकि दक्षिणी ढाल अत्यंत खड़े ढाल वाला है। दक्षिण में नर्मदा और सोन की घाटियों की ओर विंध्य श्रेणी खड़े कगार के रूप में दिखायी देती है।

सतपुड़ा श्रेणी– विंध्याचल श्रेणी के ही लगभग समानान्तर,नर्मदा नदी के दक्षिण में,पश्चिम से पूर्व की ओर सतपुड़ा श्रेणी भी फैली हुई है। यह श्रेणी पश्चिम में राजपीपला की पहाड़ियों से आरम्भ होती है तथा पूर्व और उत्तर–पूर्व दिशा में आगे महादेव और मैकाल पहाड़ियों के रूप में छोटा नागपुर के पठार तक फैली हुई है। इसकी पूर्वी सीमा राजमहल की पहाड़ियाँ बनाती हैं। इस श्रेणी की औसत ऊँचाई 760 मीटर है। इसकी ऊँचाई सर्वत्र 500 मीटर से अधिक है और कहीं–कहीं 1000 मीटर से अधिक ऊँची पहाड़ियाँ दिखायी पड़ती हैं। सतपुड़ा श्रेणी की सबसे ऊँची चोटी धूपगढ़ है जो 1350 मीटर ऊँची है और महादेव पहाड़ियों में स्थित है। धूपगढ़ के पास ही मध्य प्रदेश का प्रसिद्ध हिल–स्टेशन पंचमढ़ी स्थित है। सतपुड़ा के उत्तरी ढाल खड़े कगार के रूप में हैं जिस कारण नदियाँ अनेक जलप्रपात बनाती हैं। जबलपुर के निकट नर्मदा नदी पर धुआंधार ऐसा ही एक जलप्रपात है। यहाँ संगमरमर की चट्टानें पायी जाती हैं। इसकी दूसरी मुख्य चोटी अमरकंटक है जो 1127 मीटर ऊँची है। अमरकंटक के पास से ही नर्मदा,सोन और महानदी नदियाँ निकलती हैं और अरीय अपवाह प्रतिरूप का प्रदर्शन करती हैं। सतपुड़ा श्रेणी,नर्मदा और ताप्ती नदियों के अपवाह क्षेत्रों को अलग करती है।

छोटा नागपुर का पठार– इस पठार का विस्तार झारखण्ड,प0 बंगाल के पुरूलिया जिले व छत्तीसगढ़ के उत्तरी–पूर्वी भाग में पाया जाता है। महानदी,सोन,स्वर्णरेखा,बराकर,कोयला व दामोदर इस पठार की प्रमुख नदियाँ हैं जो गहरी घाटियों से होती हुई अलग–अलग दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। इन नदियों ने इस पठारी प्रदेश में कई गहरे गार्ज और जलप्रपातों का निर्माण किया है। सोन नदी,पठार के उत्तर–पश्चिम में प्रवाहित होकर गंगा में मिल जाती है। दामोदर नदी पठार के बीच पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती हुई हुगली नदी में मिल जाती है। कोनार तथा बाराकर इसकी सहायक नदियाँ हैं। महानदी इस पठारी भाग की दक्षिणी सीमा बनाती है। राजमहल की पहाड़ियाँ इस पठार की उत्तरी सीमा बनाती हैं। यह पठार कई छोटे–छोटे टुकड़ों में बँटा हुआ है जिसमें रांची,हजारीबाग,सिंघभूमि,धनबाद,पलामू,संथाल परगना और पुरूलिया के पठार प्रमुख हैं। दामोदर नदी के उत्तर में कई पहाड़ियों का समूह मिलता है। दामोदर नदी के दक्षिण में राँची का पठार विस्तृत है। इसकी औसत ऊँचाई 700 मीटर है। कुछ ऊँची–नीची पहाड़ियों के अतिरिक्त राँची का पठार प्रायः समतल है। इसी समतल भू–भाग में राँची नगर बसा हुआ है। पठार से चारों दिशाओं में कई छोटी–छोटी नदियाँ निकलती हैं जिस कारण पठार किनारों पर काफी कटा–फटा है। यह पठार भारत के खनिज संसाधनों में सबसे धनी प्रदेशों में से एक है। वन संपत्ति की दृष्टि से भी यह पठारी भाग अत्यधिक धनी है।

छत्तीसगढ़ का मैदान– रायपुर,बिलासपुर,दुर्ग और राजगढ़ जिलों तक फैले महानदी बेसिन को छत्तीसगढ़ मैदान के नाम से भी जाना जाता है। महानदी और इसकी शाखाएं– सिवनाथ,हसदेव और माना,यहाँ से प्रवाहित होने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। इस मैदान की सीमाओं पर पहाड़ियों और पठारों की श्रृंखला विद्यमान है। लोमारी पठार,पेंड्रा पठार तथा छुरी और रायगढ़ की पहाड़ियाँ इसकी उत्तरी सीमा बनाती हैं। इसकी पश्चिमी सीमा की ऊँचाई 700 से 900 मीटर है जहाँ मैकाल श्रेणी पायी जाती है। इसकी दक्षिणी सीमा पर दल्ली–राजहरा की पहाड़ियाँ हैं तथा दक्षिण–पूर्व में रायपुर जिले की उच्चभूमि स्थित है। छत्तीसगढ़ राज्य का प्रसिद्ध कोयला क्षेत्र कोरबा,इसी मैदान में अवस्थित है। दल्ली–राजहरा की पहाड़ियों से लौह अयस्क निकाला जाता है।

दण्डकारण्य– दण्डकारण्य एक लहरदार पठारी भाग है जो उड़ीसा के कोरापुट व कालाहांडी,छत्तीसगढ़ के बस्तर और आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी,विशाखापत्तनम और श्रीकाकुलम जिलों में फैला हुआ है। बैलाडीला श्रेणी इसी पठारी भाग में पाई जाती हैं जिसकी अबुझमार पहाड़ियाें में लौह अयस्क की भारत की प्रसिद्ध खानें स्थित हैं। महानदी की सहायक तेल और उदंती और गोदावरी की सहायक सबरी और सिलेरू नदियाँ इसी भाग में प्रवाहित होती हैं।

मेघालय का पठार– इसे शिलांग पठार के नाम से भी जाना जाता है। इसके अंतर्गत गारो,खासी,जैंतिया और मिकिर पहाड़ियाँ आती हैं। मेघालय पठार को प्रायद्वीपीय भारत से अलग करने वाले भूभाग को माल्दा दर्रा कहा जाता है। इस पठार की सर्वाधिक ऊँचाई शिलांग चोटी (1823 मीटर) पर है जबकि गारो पहाड़ियों की सर्वाेच्च चोटी नॉकरेक (1515 मीटर) है। जयन्तिया पहाड़ियों में,चेरापूँजी के 16 किलोमीटर पश्चिम में स्थित मॉसिनराम में विश्व की सर्वाधिक वर्षा दर्ज की जाती है। मिकिर की पहाड़ियाँ,मेघालय पठार से अलग हटकर असम प्रान्त में अवस्थित हैं तथा तीन तरफ से मैदानों से घिरी हुई हैं। इस पठारी भाग का उत्तरी ढाल मंद है जबकि दक्षिण की ओर खड़ा कगार पाया जाता है।












अगला भाग ः प्रायद्वीपीय पठारी भाग (2)

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