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आज यात्रा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन था। यात्रा की कठिनाई का मुझे कुछ–कुछ आभास तो था लेकिन आज की यात्रा कितनी कठिन हो सकती है,इससे मैं बिल्कुल अंजान था। सामने दिख रही छोटी–छोटी चोटियों पर जमी बर्फ और ऊपर से गुनगुनी धूप,मुझे अलौकिकता का आभास दे रही थी। अपनी यात्रा का आधा से भी अधिक भाग सफलतापूर्वक पूरा कर लेने की वजह से मैं अत्यधिक रोमांचित था। स्पीति का यह वातावरण मुझे अच्छा लग रहा था। मैं महसूस कर रहा था कि वास्तव में यहाँ की जिन्दगी बहुत ही शांतिपूर्ण है। सुबह के 6 बजे लोसर का तापमान था–माइनस 1 डिग्री।
खुद को और बाइक को तैयार कर मैं 7.45 बजे लोसर से आगे निकल पड़ा। हवा और ठण्ड दोनों ही तीखी मिर्च की तरह लग रही थी। लोसर गाँव से निकलते ही पुलिस चेक में इन्ट्री होती है। आगे की सड़क बिल्कुल स्पीति नदी के किनारे–किनारे गुजरती है। 6-7 किलोमीटर तक स्पीति की चौड़ी घाटी के किनारे खूबसूरत सड़क भागती रही। इस बीच एक बोर्ड पर लिखी सूचना दिखी कि आगे मोबाइल का नेटवर्क नहीं मिलेगा। मैंने तुरंत रूक कर घर फोन किया और उसके बाद निश्चिंत होकर आगे बढ़ चला। यहाँ से कुंजुम पास अभी लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर है। कुछ ही देर में स्पीति ने दूर होते–होते बिल्कुल ही साथ छोड़ दिया।
मानो कह रही हो– ʺमेरे साथ तो बहुत आराम से कटी,अब जाओ चुनौतियों का सामना करो।ʺ
सामने ऊंचाई दिख रही थी। मैं समझ गया कि अब चढ़ाई चढ़नी है और आगे कुंजुम दर्रे को पार करना है। कम दूरियों पर पहाड़ी मोड़ मिल रहे थे। इसका मतलब था कि रास्ता तीखी चढ़ाई चढ़ रहा था। जब तक खुली घाटी में चल रहा था,तब तक तो अच्छी खासी धूप लग रही थी और तेज हवा के बाद भी ठण्ड परेशान नहीं कर रही थी। लेकिन ऊँचाई चढ़ते हुए जब सूरज पहाड़ियों की ओट में हो गया तो फिर ठिठुरते हाथों से बाइक सँभालना मुश्किल होने लगा। एक हल्का दस्ताना,जो मेरे पास था,उस कठाेर ठण्ड से लड़ने में असमर्थ था। मेरी निगाहें अब सामने दिख रही पहाड़ियों की रिज (कटक या श्रेणी) को ही देख रही थीं कि कब ये खत्म हों और सूर्यदेव की किरणें मेरे ऊपर पड़ें। लेकिन अगले कुछ देर तक ऐसा नहीं हुआ तो मुझे रूकना पड़ा। हथेलियाें को रगड़कर गर्म करना पड़ा और तब जाकर मेरी यात्रा आगे बढ़ सकी। कहाँ तो मैं मुट्ठी भर धूप की तलाश में था पर यहाँ तो चुटकी भर धूप भी मयस्सर नहीं थी। मेरे हिसाब से रास्ता बहुत ही खराब था। ऐसी परिस्थितियों में मेरे लिए दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा भी यहीं मिला और वो ये कि बेल्जियम का एक नागरिक साइकिल पर स्पीति वैली की यात्रा कर रहा था। यहाँ की भाषा और रास्तों से बिल्कुल अंजान। मैं वास्तव में हैरत में था। ऐसे ही रूकते चलते 8.45 बजे अर्थात लोसर से 18 किलोमीटर की दूरी 1 घण्टे में तय करते हुए मैं कुंजुम दर्रे तक पहुँचा तो सड़क किनारे दाहिने हाथ कुंजुम देवी का मंदिर दिखायी पड़ा और साथ ही एक बोर्ड पर लिखी ऊँचाई भी दिखी–
कुंजुम पास
4590 मीटर
मैं रोमांचित था इस स्थान और इस ऊँचाई पर पहुँचकर। एक छोटी सी तख्ती पर कहीं लिखा था–
ʺकृपया माता के मंदिर की परिक्रमा करके ही जायें।ʺ
अगर ये न भी लिखा होता तो भी मैं मंदिर तक अवश्य जाता। मंदिर बुद्ध धर्म से संबंधित झण्डियों से पटा हुआ है। स्पीति की तेज हवा में ये झण्डियाँ आँधी की तरह फड़फड़ा रही थीं। मंदिर के गेट पर माता की कृपा से चेन्नई निवासी एक भाई से मुलाकात हो गयी जो मंदिर की परिक्रमा कर लौट रहा था। हाय–हैलो हुई,छोटा सा परिचय हुआ। फिर मैं मंदिर तक पहुँचा,परिक्रमा की और इस उम्मीद में ताँक–झाँक की कि कोई पुजारी या लामा दिखायी पड़े लेकिन मंदिर के आस–पास कोई भी आदमजात नहीं दिखायी पड़ रहा था। मैं वापस लौटा और आगे चल पड़ा। कुंजुम पास के साथ स्पीति की सीमा समाप्त हो चुकी थी और अब मैं लाहौल क्षेत्र में प्रवेश कर गया था। रास्ते में चेन्नई के उस बाइकर से फिर मुलाकात हुई। इस भाई से आज की आगे की यात्रा में दिन भर साथ बना रहा। टूटी–फूटी हिन्दी में परिचय हुआ जिससे ये पता चला कि इस भाई को टूटी–फूटी हिन्दी भी नहीं आती है। तो फिर मैंने अपनी टूटी–फूटी इंग्लिश शुरू की जो शाम तक जारी रही। परिचय हुआ तो पता चला कि यह भाई सीधे चेन्नई से बाइक पर स्पीति वैली की यात्रा पर निकला है। इतना ही नहीं,मुझे तो स्पीति वैली की यात्रा के बाद घर लौटना था लेकिन इस भाई काे स्पीति के बाद लद्दाख की यात्रा पर भी जाना था। मैंने इस दुस्साहसी भाई को झुककर सलामी दी और साथ हो लिया। एक से भले दो। अब हमारा अगला लक्ष्य था चंद्रताल झील जो कुंजुम पास से लगभग 20 किलोमीटर या लोसर से 38 किलोमीटर है।
मुख्य मार्ग छोड़कर जब हमारी बाइक चन्द्रताल वाले रास्ते पर मुड़ी तो तुरंत ही समझ में आ गया कि आगे का रास्ता कैसा रहने वाला है। रास्ते की चौड़ाई इतनी ही है कि एक चारपहिया और एक दुपहिया गाड़ी काफी सोच समझकर ही क्राॅस कर पायें। कहीं–कहीं तो इनका क्रॉस होना संभव ही नहीं है। दोनों तरफ से चारपहिया गाड़ियाँ क्रॉस करने के लिए कहीं किसी चौड़ी जगह की खोज करनी पड़ेगी। कुछ ही दूर जाने के बाद एक अच्छी खासी वॉटरक्रसिंग मिली जो मेरी इस यात्रा की पहली वाटर क्रासिंग थी। चंद्रताल के रास्ते पर बाइक की स्पीड पहले से भी कम हो चुकी थी। आगे भी कई वाटर क्रासिंग मिली लेकिन परेशान करने वाली कोई नहीं थी।
चंद्रताल के रास्ते के साथ ही साथ चेनाब से मुलाकात हो चुकी थी। इसने आज की यात्रा में लंबी दूरी तक साथ निभाने का वादा किया। मेरे मन में कई सारे प्रश्न उठ रहे थे पर जवाब शायद चेनाब के पास भी नहीं थे। वही चेनाब जो कश्मीर को जीवन प्रदान करती है,यहाँ इस बियावान में बिल्कुल अकेले,शाेर मचाती हुई,बाकी दुनिया से बेखबर अपनी जीवन यात्रा को प्रवाहित करती रहती है। चंद्रताल के रास्ते में कुछ मनुष्य दिखे जो सड़क निर्माण कार्य में लगे कामगार थे। कच्छप गति से बन रही सड़क के निर्माण में इन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगा रखी थी। यहाँ पर ये कैसे रात बिताते होंगे,मेरे लिए यह गहन चिंतन का विषय था। झील से कुछ किलोमीटर पहले रास्ता बिल्कुल नदी की छोड़ी हुई घाटी से होकर गुजर रहा था,बिल्कुल नदी के तल पर। नदी में अगर बाढ़ आ जाये तो यह पूरा रास्ता पानी में डूब जाएगा। चन्द्रताल से दो–ढाई किलोमीटर पहले टेण्ट वाले कैम्प बने हुए हैं जहाँ रात में ठहरा जा सकता है। वैसे अभी दिन के 10.30 बज रहे थे तो मेरे लिए रूकने की काेई संभावना नहीं थी। चंद्रताल झील के आधा किलोमीटर से कुछ अधिक पहले ही बाइक का रास्ता बन्द हो जाता है और वहाँ से पैदल ही जाना पड़ता है। एक–दो चारपहिया गाड़ियाँ यहाँ पहले से खड़ी थीं। हमने भी अपनी बाइक्स को यहीं खड़ी किया और पैदल झील की ओर चल पड़े। ऊँचे–नीचे रास्ते से झील दूर से ही दिखायी पड़ रही थी। नीले स्वच्छ पानी में बर्फ से ढकी चोटियों के प्रतिबिम्ब ऐसे दिखायी पड़ रहे थे मानो पानी के नीचे भी बर्फ से ढकी चोटियों वाला पहाड़ प्रवेश कर शीर्षासन कर रहा हो। पहाड़ तो पहाड़,कुछ तो बादल भी पानी के अन्दर प्रवेश कर गये थे। इस शुष्क प्रदेश में 4300 मीटर की ऊँचाई पर इतनी बड़ी झील का अस्तित्व किसी महान आश्चर्य से कम नहीं है। इस झील में जादुई आकर्षण है। लेकिन वास्तविकता यह है कि यहाँ या तो घुमक्कड़ पशुचारक ही ठहर सकते हैं या फिर धन और समय व्यय करके आया हुआ कोई पर्यटक। हमारे पास समय की कमी थी। कुछ देर झील के किनारे बिताने के पश्चात हम वापस लौट पड़े। इक्का–दुक्का गाड़ियों से क्रासिंग हुई। किसी चारपहिया गाड़ी को तेज स्पीड में ओवरटेक करना तो बहुत ही कठिन काम है।
दोपहर के 12 बजे तक हम चन्द्रताल झील के रास्ते को छोड़कर मुख्य मार्ग पर स्थित बाटल पहुँच चुके थे। यहाँ चाचा–चाची का ढाबा प्रसिद्ध है। यहाँ चाय नाश्ते का यह इकलौता स्थान है। सुबह से अब तक साथ में लाये गये बिस्कुट–नमकीन के अलावा कुछ भी नसीब नहीं हुआ था। इस ढाबे के बाद शाम तक कहाँ खाने को मिलेगा,कुछ भी भरोसा नहीं था। भूख अपने इशारे कर रही थी। हमने 50 रूपये वाले परांठे और 40 वाली काॅफी का आर्डर कर दिया। पीले रंग के प्लास्टिक से ढके ढाबे में सब कुछ पीला–पीला दिख रहा था। जिन्दादिल चाचा और चाची मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे। पता चला कि वे यहाँ कई दशकों से रह रहे हैं। दुकान में चाय–नाश्ते के अलावा शुद्ध शिलाजीत और केसर के साथ मोती और मालाएं भी उपलब्ध हैं। मेरे साथी चेन्नई वाले बाइकर ने मोती की माला खरीदने की कोशिश की। उसने मुझसे असली–नकली का सवाल किया। मैंने मना कर दिया। चाची हमारे इशारे समझ गयी और कुछ नाराज भी हो गयी। मैं ऐसी जगहों पर खरीदारी के पक्ष में नहीं रहता। तिस पर भी यहाँ कौन सी मोती की खान है जो ओरिजिनल और सस्ता मोती मिलेगा। हमने चाचा से आगे के रास्ते के बारे में पूछा–
ʺअंकल अभी मनाली पहुँचने में कितना समय लगेगा?ʺ
ʺअभी 50 किलोमीटर है बेटाǃ कम से कम 4 घण्टे लगेंगे।ʺ
हम घनघोर आश्चर्य में थे। 4 घण्टे में केवल 50 किलोमीटरǃ बाइक को सिर पर लाद कर ले जाना पड़ेगा क्याǃ
ʺआगे का रास्ता इससे भी खराब है क्या अंकल?ʺ
ʺअभी क्याǃ ये तो ट्रेलर था। असली फिल्म तो आगे है।ʺ
अपने तो देवता ही कूच कर गये। वैसे अंकल सही थे और हम भ्रम में। लोसर से सुबह निकलने के बाद चन्द्रताल होते हुए लोसर तक लगभग 55 किलोमीटर की दूरी तय करने में हमें लगभग सवा चार घण्टे लगे थे। यहाँ तक सड़क पक्की तो नहीं थी लेकिन देखने पर कम से कम सड़क जैसा आभास तो हो ही रहा था। लेकिन यहाँ से आगे तो कई जगह रूककर यही सोचना पड़ा कि सामने रास्ता है या पत्थर,रास्ता है या नदीǃ वास्तविकता ये थी कि अंकल के बताये अनुसार हम 4 घण्टे में इस इलाके से निकल तो गये लेकिन शरीर की चूलें हिल गयीं।
12.40 पर हम बाटल से रवाना हो गये। मोबाइल का नेटवर्क और किलोमीटर के पत्थर,कहीं मिलने का कोई प्रश्न ही नहीं था। मिलने थे तो बस पत्थरों से भरे रास्ते,ऊँचा–नीचा धरातल,खतरनाक वॉटर क्रॉसिंग,नीला आसमान,तेज चमकता सूरज,सूखी हवा,तीखी धूप और तीखी ठण्ड। पेड़–पौधे,जीव जंतु और आदमी नामक जीव तो इक्के–दुक्के ही दिखने थे। हिमालय पार के क्षेत्र में पानी विरल है तो आदमी,जीव–जंतु और वनस्पति,सब कुछ विरले ही मिलता है।
छोटा दारा के पास मनाली की ओर से आती एक कार मिली। कार में दो पर्यटक थे जिसमें एक महिला भी थी। कार के ड्राइवर को मेरी बाइक का नंबर परिचित सा लगा तो उसने मुझे रोका। वैसे उसकी मजबूरी थी कि मेरी जगह कोई भी होता तो वह उसे रोकता। कार में नीचे से पत्थर से टक्कर हो गयी थी और मोबिल चैम्बर क्षतिग्रस्त होने से उसका मोबिल लीक हो रहा था। अब कार न तो वापस मनाली जा सकती थी और न आगे लोसर की ओर। ड्राइवर बहुत ही परेशानी में था। बातें हुई तो पता चला कि कार हरियाणा की थी जबकि ड्राइवर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का। शायद इसीलिए उसे मेरी बाइक का नंबर परिचित सा लगा था। ड्राइवर ने कार मालिक का नंबर दिया और हमसे निवेदन किया कि जब भी मोबाइल का नेटवर्क मिले,उसे हम कार खराब होने की सूचना दे दें। बहुत ही विकट अनुभव था। मैं सोच कर ही काँप उठा। यह गाड़ी यहाँ से कब और कैसे निकलेगीǃ इनकी रात इस बियावान में कैसे गुजरेगीǃ वैसे जानकारी के लिए बता दूँ कि मेरे मोबाइल में नेटवर्क शाम के 5 बजे के आस–पास आया और तब मैं उस कार मालिक को सूचना दे पाया।
चेनाब हमारे साथ साथ चल रही थी। सड़क के बायीं ओर या दक्षिणी किनारे पर। स्वाभाविक है कि दाहिने या उत्तरी किनारे से जलधाराएं चोटियों से नीचे आकर चेनाब से मिलने जाती हैं। सड़क कच्ची है और इन जलधाराओं पर हर जगह पुल नहीं बने हैं तो फिर वॉटर क्रॉसिंग एक सामान्य बात है। हमें भी पाँच–छः बड़ी क्रॉसिंग मिलीं लेकिन हम आसानी से उन्हें पार कर गये। मैंने अपना गमबूट भी नहीं पहन रखा था। हमें बताया गया था कि बाटल और ग्राम्फू के बीच छतड़ू एक स्थान है जहाँ चाय–नाश्ता मिल सकता है। मैं चाय के लिए रूकना चाह रहा था लेकिन मेरे चेन्नई वाला साथी आगे बढ़ना चाह रहा था। मुझे भी चाय के लिए रूकने की बजाय आगे बढ़ना ही बेहतर लगा,सो हम साथ में लिए बिस्कुट और नमकीन चबाते हुए आगे बढ़ते रहे। कुछ किलोमीटर के बाद ही हमारे दुर्भाग्य से सामने की पहाड़ियों पर घने बादलों का दर्शन हुआ। जब तक हम सँभल पाते,ग्राम्फू से लगभग 1 घण्टे पहले,बादलों ने मूसलाधार बारिश शुरू कर दी। जी हाँ,एक घण्टे पहलेǃ यहाँ दूरियाँ किलोमीटर की बजाय घण्टे में ही मापना ठीक है। रेनकोट पहनकर हमने यात्रा तो जारी रखी लेकिन कच्चा रास्ता कीचड़ से भर गया और तेज चढ़ाई पर बाइक चलाना अत्यन्त दुष्कर हो गया। मेरी बाइक में से पता नहीं कहाँ से कुछ आवाज भी आने लगी। मुझे लगा कि इंजन में से कुछ आवाज आ रही है। कीचड़ में बाइक फिसल रही थी। मैं काफी डर गया। बाद में पता चला कि यह आवाज चेन के कीचड़ में सन जाने की वजह से आ रही थी।
शाम के 4.15 बजे हमें पक्की सड़क के दर्शन हुए और तब हमें लगा कि हम किसी दूसरी दुनिया में आ पहुँचे हैं। माहौल हरा–भरा हो चला था। साथ में चल रही चेनाब वही थी लेकिन इसने अब हरियाली का चोला ओढ़ लिया था। वास्तव में हम किसी दूसरी दुनिया में ही थे– हिमालय पार की दुनिया में। पावरफुल बाइक्स ने 80-90 की स्पीड पर दौड़ लगानी शुरू कर दी। 4.30 पर खोकसर में हम एक ढाबे में रूके। काफी और मोमो का नाश्ता हुआ। कीचड़ से सने जूते और रेनकोट वाली हमारी वेश–भूषा देखकर ढाबे में बैठे कुछ लोगों ने हमारा परिचय लिया। हमें स्पीति बाइकर जानकर वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मेरा मोबाइल नम्बर भी लिया। मेरे साथी चेन्नई वाले बाइकर को अभी लद्दाख की यात्रा पर निकलना था। मैं आश्चर्यचकित था कि यह बन्दा लद्दाख और स्पीति वैली की एक साथ यात्रा कर रहा है,वो भी चेन्नई से बाइक पर आकर और मैं केवल स्पीति वैली की यात्रा करके ही अपने को बहादुर समझ रहा था। आज रात में सिस्सू में उसकी बुकिंग थी और मुझे मनाली में अपना ठिकाना खोजना था। हम दोनों ने अपने–अपने मोबाइल से,एक साथ खड़े होकर सेल्फी ली। अपने हाथों के फोटो खींचे,जो ठण्ड से सुन्न हुए जा रहे थे और फिर एक–दूसरे से विदा ली। मैंने लोसर से चन्द्रताल होते हुए अपनी वर्तमान लोकेशन अर्थात खोकसर तक की दूरी गूगल मैप से पूछी तो हैरान रह गया। कुल 108 किलोमीटर की दूरी गूगल 3.30 घण्टे में दिखा रहा था। मुझे रूकते–चलते,खाते–पीते लोसर से यह दूरी तय करने में पौने नौ घण्टे लगे थे। मैं यह नहीं कह रहा कि इतने समय में यह दूरी तय करना असंभव है। लेकिन मेरे लिए तो ऐसे रास्ते पर एक घण्टे में 30 किलोमीटर का औसत निकाल पाना असंभव ही है।
खोकसर से आगे बढ़ने के साथ ही शाम ढल रही थी। मेरे जूते और पैर पूरी तरह से भीग चुके थे। पैरों में तीखी ठण्ड लग रही थी। मजबूरन मुझे रूककर पैरों में पालीथीन बाँधना पड़ा। खोकसर से लगभग 8 किलोमीटर आगे एक स्थान पर सीधी सड़क सिस्सू होते हुए केलांग और फिर लेह की ओर निकल जाती है जबकि बायें चेनाब को पार कर अटल टनल का प्रवेश मार्ग मिल जाता है। साथ ही चेनाब का साथ भी यहां छूट जाता है। चेनाब को पार कर जब मैं अटल टनल के सामने पहुँचा तो सड़क के एक तरफ गाड़ियों और मनुष्यों की भीड़ जमा थी। मुझे लगा कि टनल में प्रवेश के लिए लाइन लगी होगी लेकिन कुछ ही पलों में साफ हो गया गया कि यह सुरंग के प्रवेश द्वार का फोटो खींचने वालों की भीड़ थी। मैं बिना फोटो खींचे प्रवेश द्वार के काफी नजदीक पहुँच गया था। एक सेकेण्ड के अंदर ही मुझे लगा कि मुझे भी फोटो खींच ही लेना चाहिए था। सामने तैनात पुलिस वाला इशारे से मुझे आगे बढ़ने के लिए कह रहा था। मैंने उससे इशारों में ही कुछ सेकेण्ड की अनुमति माँगी और झट से मोबाइल कैमरे से टनल के प्रवेश द्वारा की फोटो खींची। इसके बाद मैं ऐतिहासिक अटल टनल में दाखिल हो गया।
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चन्द्रताल की ओर |
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चन्द्रताल |
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चन्द्रताल के पहले बने कैम्प |
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बातल में चाचा–चाची का ढाबा |
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बन्द रास्ते को खोलती जेसीबी मशीन |
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ये भी रास्ता ही हैǃ |
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कार के मोबिल चैम्बर क्षतिग्रस्त होने से लीक हुआ ऑयल |
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चन्द्रताल से वापसी के बाद आगे के रास्ते में |
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चन्द्रताल का सौन्दर्य |
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चन्द्रताल के स्वच्छ पानी में पहाड़ों का प्रतिबिम्ब |
अगला भाग ः मनाली
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
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