Friday, January 13, 2023

नवाँ दिन– काजा से लोसर

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देर रात तक पियक्कड़ों के प्रवचन सुनते रहने से नींद पूरी नहीं हुई थी। ऐसा इस यात्रा में पहली बार हुआ था। सुबह सिर भारी हो गया। मुझे लगा कि मैं शायद अपने क्षेत्र के कस्बों जैसे किसी कस्बे में आ गया था। काजा इस क्षेत्र के गाँवों से काफी कुछ अलग स्वभाव का है। फिर भी चलना तो था ही। सुबह उठकर पहला काम था बाइक चेक करना। आज इसने स्टार्ट होने में थोड़े से नखरे दिखाये,शायद कल की धुलाई में प्लग वगैरह में कहीं पानी प्रवेश कर गया था। चेन को टाइट करने के साथ साथ आयलिंग भी करनी थी। सुबह के 8 बजे मैं काजा से रवाना हो गया। आज का प्रारम्भिक लक्ष्‍य की मोनेस्ट्री और किब्बर गाँव होते हुए लोसर तक पहुँचना था।
उसके बाद जैसी परिस्थिति बनेगी, देखा जायेगा। काजा से लगभग तीन किलोमीटर आगे मुख्य सड़क एक पुल के सहारे नदी के दक्षिणी किनारे पर चली जाती है जबकि उत्तरी किनारे पर एक दूसरी लिंक रोड निकलती है जो की मोनेस्ट्री,किब्बर और चिचम गाँव होते हुए,काजा–लोसर मुख्य मार्ग से,काजा से 40 किलोमीटर आगे और लोसर से 17 किलोमीटर पहले मिल जाती है। अगर सीधे काजा से लोसर जाना होता तो कुछ ही घण्टों का रास्ता था। लेकिन अधिकांश यात्री इस रास्ते से नहीं गुजरते वरन की मोनेस्ट्री,किब्बर गाँव और चिचम ब्रिज होते हुए ही जाते हैं। ये सभी स्पीति वैली के बड़े आकर्षण हैं। मैं भी इसी मार्ग का अनुसरण कर रहा था।

राेज की तरह आज भी मैं खाली पेट काजा से सुबह 8 बजे की मोनेस्ट्री की ओर चल पड़ा। 10-11 किलोमीटर आगे ही ʺकीʺ या ʺकीहʺ गाँव है। मैं सोच कर चला था,चाय यहीं पिेयेंगे। एक छोटी दुकान कहें या रेस्टोरेण्ट,सड़क किनारे दिखायी पड़ा। सामने एक लड़का धूप सेंक रहा था। मुझे पहले ही आभास हो गया कि यह गया (बिहार) का ही होगा। वास्तविकता भी यही थी। यहाँ की चाय 15 की थी। पास में ही दुकान के मालिक का छोटा सा घर भी था। चाय पूरी बनती उसके पहले मालिक व मालकिन भी आ धमके। बातें होने लगी।
इलाका भले ही दुर्गम है लेकिन उन्हें यहीं अच्छा लगता है। शांति है,सुकून है। बस और जीने के लिए चाहिए क्याǃ ये जवाब मुझे इस यात्रा में हर बातचीत में मिला।
मुझे लघुशंका महसूस हो रही थी। लेकिन आस–पास हाजत रफा करने के लिए कोई उपयुक्त जगह नहीं दिख रही थी। अगर पास में गाँव नहीं होता तो मैं आसानी से निपट लेता। बिल्कुल नंगे पहाड़,न कोई पेड़–पौधे न कोई झाड़ी। मैंने दुकान मालिक से पूछा तो उसने उँगली से इशारा किया। एक छोटा सा मिट्टी का बना घर जैसा ढाँचा दिखायी पड़ रहा था जिसके दरवाजे पर टाट का फटा परदा टाँग दिया गया था। मैं अन्दर घुसा तो समझ में आया कि यह स्पीति मॉडल का शुष्क टॉयलेट है। अन्दर जगह इतनी कम थी कि सिर बचाना पड़ रहा था। पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। गंध भरपूर आ रही थी। स्पीति मॉडल टॉयलेट से इस यात्रा में मेरा यह पहला साबका पड़ा था।

यहाँ से निपटकर मैं की मोनेस्ट्री की ओर बढ़ा। यहाँ से की मोनेस्ट्री या गोम्पा लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर,मुख्य मार्ग छोड़कर कुछ ऊपर की ओर है। हाँ,मोनेस्ट्री काफी बड़े आकार में होने और ऊँचाई पर बनी होने के कारण दूर से ही दिख जाती है। एक बार में तो इसे देखकर एक किले का भ्रम होता है लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। की मोनेस्ट्री का इतिहास उथल–पुथल भरा रहा है जिसके बारे में बाहर लगे एक सूचना पट्ट पर जानकारी अंकित की गयी है। इसकी स्थापना सन् 1008 से 1064 ई0 के मध्य हुई थी। 14वीं और 17वीं सदी में मंगोलों के आक्रमण ने इसे नष्ट कर दिया। 1820 में गुलाम खान और रहीम खान के नेतृत्व में डोेगरा सेना ने इस बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया। उसी वर्ष सिख सेना ने भी इसे नुकसान पहुँचाया। 1840 के दशक में एक अग्निकाण्ड ने भी इसे भारी नुकसान पहुँचाया। 1975 में एक भयंकर भूकम्प ने इसे अत्यधिक क्षति पहुँचाई 
जिसकी मरम्मत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और राज्य लोक निर्माण विभाग की सहायता से की गई। विनाश और निर्माण के उत्तरोत्तर प्रयासों के परिणामस्वरूप इस मोनेस्ट्री का विकास एक पिरामिड के रूप में होता चला गया। मोनेस्ट्री में प्राचीन भित्तिचित्रों,उत्कृष्ट पुस्तकों और ध्यान मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमाओं का बड़ा संग्रह है। तंग्युर नामक एक कमरे में भित्तिचित्रों की प्रचुरता है। की मोनेस्ट्री की इमारत तीनमंजिली है जिसकी पहली मंजिल मुख्यतः भूमिगत है और इसका उपयोग भण्डारण के लिए किया जाता है। की गोम्पा गेलुक्पा संप्रदाय के अंतर्गत आता है। 

मोनेस्ट्री में एक चारपहिया गाड़ी से कुछ लोग घूमने आये थे,मानो स्विट्जरलैण्ड घूमने आए हों। यहाँ के स्थानीय लोग धूप सेंकने में मस्त थे। यह मोनेस्ट्री दूर से भले ही बहुत विशाल लगती हो,पास से इतनी बड़ी महसूस नहीं हो रही थी। मैं धीरे–धीरे कुछ देर तक मोनेस्ट्री में,जहाँ तक संभव था,टहलता रहा। मोनेस्ट्री की ऊँचाई से नीचे के खेतों और स्पीति नदी का दृश्य बहुत ही शानदार दिखायी पड़ रहा था। वास्तव में मैं यही देखने आया था। मोनेस्ट्री के अन्दर एक लामाजी से मुलाकात हुई,हाय–हेलो भी हुई। परिचय हुआ,कुछ छोटी–छोटी बातें हुईं। नीचे लौटा तो सोचा कि कम से कम एक कप चाय पी लेते हैं। मोनेस्ट्री के पास ही एक रेस्टोरेण्ट भी है। लेकिन यहाँ तो लेने के देने पड़ गये। यहाँ की चाय 30 रूपये की थी। सुबह के 9.30 बज रहे थे और मेरी ये दूसरी चाय थी। सामान्य बात यह थी कि इस रेस्टोरेण्ट में भी काम करने वाले लड़के बिहार के गया जिले के थे। जी हाँ,चितकुल से लेकर यहाँ तक की यात्रा में होटलों और रेस्टोरेण्ट्स में गया जिले के लड़कों का पाया जाना मेरे लिए अब एक सामान्य बात बन चुकी थी।

की मोनेस्ट्री से निकलकर अब मैं किब्बर गाँव की ओर चल पड़ा। लगभग 7 किलोमीटर की दूरी 20 मिनट में तय करते हुए मैं आराम से किब्बर गाँव पहुँच गया। मुझे भूख लग रही थी इसलिए मैं कोई रेस्टोरेण्ट खोज रहा था। कुछ दूर ढलानों पर बने बिल्कुल एक ही आकार–प्रकार के घर तो दिखायी पड़ रहे थे लेकिन आदमी एक भी नहीं दिखायी पड़ रहा था। सामने सड़क किनारे दो मंजिल वाले दो रेस्टोरेण्ट भी दिखायी पड़ रहे थे लेकिन आदमी वहाँ भी कोई नहीं दिखायी पड़ रहा था। मैंने एक–दो मिनट तक इधर–उधर ताक–झाँक कर मनुष्य नामक जीव का पता लगाने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। सोचा कुछ देर फोटो ही खींच लेते हैं। इस बीच एक रेस्टोरेण्ट की ऊपर वाली मंजिल पर एक लड़का ब्रश करता दिखा। मैंने उससे पूछा–
ʺरेस्टोरेण्ट बन्द है क्या?ʺ
ʺनहीं खुला है।ʺ
वास्तव में रेस्टोरेण्ट खुला ही तो था। ये और बात थी कि आदमी नहीं दिख रहे थे। स्पीति में 10 बजे तो ब्रश करने का ही टाइम होता है। शायद मैं ही जल्दी आ गया था। अगर और कुछ मिनट तक वह लड़का नहीं दिखा होता तो मैं वहाँ से वापस लौट गया होता। मजबूरी ये थी कि विकल्प भी सीमित थे। मैं तुरंत ऊपर पहुँचा और 70 रूपये प्लेट वाली मैगी के लिए आर्डर कर दिया। वैसे ये मैगी भी कम नखरे वाली नहीं थी। थी तो बहत अच्छी लेकिन मेरे सामने आने में इसने 20 मिनट लगा दिये। किब्बर से पहले एक और रास्ता निकलता दिखा था। यह टशीगंग गाँव की ओर जाता है। उधर जाने की मेरी इच्छा हो रही थी लेकिन रास्ता बिल्कुल ऑफरोड दिख रहा था तो मैंने उधर जाने का विचार त्याग दिया।

किब्बर एक छोटा सा लेकिन बहुत ही खूबसूरत गाँव है। गाँव की ओर देखने पर एक नजर में लगता है कि पूरी योजना के साथ इसे बसाया गया है। सारे के सारे घर एक जैसे दिखते हैं। श्वेत रंग में रंगे,बिल्कुल एक जैसे– दोमंजिले या तीनमंजिले घर। एक जैसी खिड़कियाँ,एक जैसे दरवाजे। हाँ,किब्बर के घर एक बात में स्पीति के अन्य गाँवों से अलग हैं और वो यह कि ये पत्थर से बने हैं जबकि स्पीति के अन्य गाँवों में घर मिट्टी के बने होते हैं। किब्बर एक ग्राम पंचायत है जिसके अन्तर्गत पाँच ग्राम सम्मिलित हैं– किब्बर,की,चिचम,गेटे और टशीगंग। ये सारे आपस में काफी दूरी पर बसे हैं। जिस स्थान पर मैं खड़ा था वहीं ग्राम पंचायत कार्यालय को इंगित करता एक सूचना बोर्ड लगा था। इस बोर्ड पर निम्न सूचनाएँ अंकित थीं–
कुल जनसंख्या ः 1186
कुल गाँव ः 5
समुद्रतल से ऊँचाई ः 4205 मीटर
ये सूचनाएँ वास्तव में हैरत में डालने वाली थीं। समुद्रतल से इतनी अधिक ऊँचाई पर,आपस में कई किलोमीटर की दूरी पर बसे ये बहुत ही छोटे–छोटे गाँव,इस दुर्गम में कैसे अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं,सोचकर अजीब सा महसूस होता है।

की और किब्बर के बाद अब मुझे चिचम होते हुए लोसर की ओर निकलना था। रास्ते में किसी गाँव में रूकना–न रूकना मेरी मर्जी के ऊपर निर्भर था। किब्बर से चिचम ब्रिज लगभग 4 किलोमीटर और वहाँ से चिचम गाँव 2 किलोमीटर है। चिचम ब्रिज के बारे में मैंने खबरें पढ़ रखी थीं। यह एशिया का सर्वाधिक ऊँचा पुल है जो 2017 में बनकर तैयार हुआ। इसके पहले यह दर्जा चीन में सिंधु नदी पर बने एक पुल को प्राप्त था। इसकी लम्बाई 120 मीटर और ऊँचाई 150 मीटर है। यह पुल लगभग 4000 मीटर की ऊँचाई पर सांबा–लांबा नामक नाले पर बना हुआ है। यह नाला आगे चलकर स्पीति नदी में मिल जाता है। दिलचस्प बात ये है कि इसे बनाने में 16 साल खप गये। इस पुल का सबसे बड़ा फायदा ये है कि चिचम गाँव काजा से सीधा जुड़ गया अन्यथा यहाँ से काजा आने के लिए लोसर होकर ही आना पड़ता था। दूरी भी 25 किलोमीटर तक घट गयी। मैं भी आज इसी पुल की वजह से किब्बर से सीधे चिचम होते हुए लोसर की ओर जा रहा था अन्यथा किब्बर से वापस काजा की ओर जाना पड़ता।
किब्बर के बाद चिचम गाँव तक रास्ता ऑफरोड ही है लेकिन उसके बाद पक्की सड़क मिलने लगती है। चिचम के कुछ किलोमीटर आगे क्याटो और क्याटो से कुछ आगे हंसा गाँव है। ये बहुत छोटे–छोटे गाँव हैं। क्याटाे से कुछ पहले काजा–लोसर वाली मुख्य सड़क,नदी को पार करते हुए दूसरे किनारे पर किब्बर–चिचम वाली लिंक रोड से मिल जाती है। चिचम के बाद अच्छी सड़क मिल जाने पर मेरी बाइक बेधड़क भागती रही। स्पीति के किनारे सुंदर भूदृश्यों से सामना हो रहा था। हरियाली का तो निशान दिखना ही यहाँ दुर्लभ है लेकिन नदी के दोनों किनारों पर कम ऊँचाई की चोटियाँ और कगार बहुत सुंदर लगते हैं। अधिक ऊँची चोटियों पर बर्फ जमी हुई थी। दूर–दूर तक धरातल काफी कुछ समतल जैसा दिखायी पड़ रहा था। वास्तव में ऐसे बियावान में सुंदरता की परिभाषा भी बदल जाती है। शायद ऐसी ही परिस्थिति में किसी ने कहा होगा कि सुंदरता को देखने के लिए निगाहों की आवश्यकता पड़ती है।

अपराह्न के 3.30 बजे जब मैं लोसर पहुँचने वाला था तो सड़क एक बार फिर से स्पीति को पार कर दूसरे या दक्षिणी किनारे पर चली गयी,स्पीति की घाटी में बिल्कुुल स्पीति के साथ साथ,स्पीति के बराबर। स्पीति के शोर के अलावा लोसर बिल्कुल शांत था। नदी को पार करते ही बायीं तरफ,मुख्य लोसर गाँव के पहले एक–दो होम स्टे बने हुए हैं। बिल्कुल नदी किनारे की लोकेशन देख मैं उधर मुड़ गया। लेकिन आदमी नाम का जीव यहाँ से अन्तर्ध्यान हो चुका था। हार मानकर मैं लोसर गाँव की ओर बढ़ गया। सड़क के दोनों किनारे बसे लोसर में जिन्दगी बिल्कुल स्पीति वैली के अन्दाज में चुपचाप अपने रास्ते गुजर रही थी। ना काहू से दोस्ती,ना काहू से वैर। मैं एक चाय की दुकान में रूक गया। एक मिनट बाद ही दो–तीन बुलेट वाले शांति भंग करते हुए आ धमके। उन्होंने महँगी वाली काॅफी का आर्डर दिया। वे लोग जल्दी में थे। बातों से पता चल रहा था उनकी योजना आज शाम तक मनाली तक पहुँचने की थी। मेरी समझ से ये लगभग असंभव लग रहा था। क्योंकि लोसर से मनाली की दूरी लगभग 125 किलोमीटर है और अपराह्न के 3.30 बजे के बाद यह दूरी तय करने की कल्पना वही कर सकता है जो इस रास्ते के बारे में जानता न हो। अगर ये चन्द्रताल जाते,जो लोसर से 40 किलोमीटर है तो उन्हें वहीं कैम्प में रूकना पड़ता या फिर बाटल में चाचा–चाची के ढाबे में। मेरा इरादा आँखें मूँदकर रास्ता नापना नहीं था सो मैं निश्चिंत था। मेरे जिम्मे कई काम थे– मसलन,अभी वाली चाय के बाद लोसर में रात बिताने के लिए कमरा ढूँढ़ना,फिर लोसर की सड़कों पर पैदल टहलना,स्पीति के किनारे फोटो खींचना,शाम को एक बार फिर से गरम चाय पीना और तब रात को खाना खाकर सोना।

चाय से निवृत्त होकर एक होमस्टे में मैंने 700 का कमरा लिया। होमस्टे का संचालन मकान मालिक नहीं वरन मालकिन कर रही थी। उसकी लड़की इस काम में उसकी बखूबी मदद कर रही थी। मकान के ग्राउण्ड फ्लोर पर उनका आवास,जनरल स्टोर की दुकान व रेस्टोरेण्ट था जबकि ऊपर चार कमरे टूरिस्टों के लिए थे। दो अटैच्ड बाथरूम वाले और दो बिना बाथरूम वाले। इन दो बिना बाथरूम वाले कमरों के लिए एक कॉमन बाथरूम था। दोनों अटैच्ड बाथरूम वाले कमरे उस दिन बुक थे,जैसा कि मालकिन ने बताया। वैसे रात में यह स्पष्ट हो गया कि मेरे अलावा केवल एक कमरा ही बुक था और मकान मालकिन ने मुझसे झूठ बोला था। मैंने बिना बाथरूम वाला एक कमरा लिया और सामान रखकर बाहर सड़क पर निकल पड़ा।
मुख्य सड़क छोड़कर नीचे नदी किनारे बसे कुछ घरों की ओर जाते एक सँकरे रास्ते के किनारे पेड़ों की कतार रास्ते को खूबसूरत बना रही थी। स्पीति घाटी के लिए मौसम पतझड़ का चल रहा था तो पेड़ों की पीली पड़ी पत्तियाँ,पेड़ों के ऊपर घने फूलों का आभास दे रही थीं। वास्तव में यही देखने के लिए मैंने सितम्बर में इस यात्रा की योजना बनायी थी। वैसे तो नाको झील के पास भी ऐसा खूबसूरत दृश्य मैं देख चुका था लेकिन लोसर में भी स्पीति और उसकी घाटी कम खूबसूरत नहीं दिख रही थी।
लोसर से दो किलोमीटर पहले अर्थात काजा की तरफ सड़क,नदी को एक लोहे के पुल के जरिये पार करती है और एक खूबसूरत दृश्य उपस्थित होता है। मैंने अपने कमरे से इस पुल तक पैदल ही जाने की कोशिश की लेकिन तेज चलने पर साँसें उखड़ रही थीं तो वापस गया और बाइक लेकर लौटा। जब संसाधन उपलब्ध है तो शरीर को कष्ट देने की क्या आवश्यकताǃ तेज सूखी ठण्डी हवा भी काफी परेशान कर रही थी। मुँह और ओठ सूख रहे थे। स्पीति की यह हवा मेरी पूरी यात्रा में परेशान करती रही। मैं देर तक स्पीति के शोर करते पानी के किनारे टहलता रहा। आस–पास या दूर–दूर तक भी कोई आदमी नहीं दिख रहा था। कभी–कभार कोई गाड़ी घाटी की शांति को भंग करते हुए गुजर जा रही थी। वस्तुतः ऐसे स्थान के लिए शोर को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा। मनुष्यों की संख्या इतनी नहीं है कि शोर पैदा हो। वनस्पति न होने से जीव–जंतु भी नाममात्र ही होंगे। पेड़ों पर तेज शोर करने वाले पंक्षी भी नहीं हैं क्योंकि पेड़ भी गिनती के ही हैं। शोर का एकमात्र प्राकृतिक और निरंतर साधन है तो वह स्पीति नदी है। कभी–कभी हवा के झोंके भी कानों में हल्का शोर पैदा कर देते हैं। अन्यथा सड़क पर इक्का–दुक्का गुजरने वाली गाड़ियाँ ही स्पीति घाटी की शांति को भंग करती हैं। 

शाम होने के काफी पहले मैं नदी किनारे से वापस लोसर गाँव की ओर चाय पीने के लिए लौट चुका था। ठण्ड बढ़ रही थी। कमरे में रजाई थी लेकिन अभी कंबल से ही काम निकल रहा था। रात को बिना रजाई के काम चलने वाला नहीं था। लोसर की समुद्रतल से ऊँचाई 4090 मीटर है और अब तक मुझे ऐसी ऊँचाइयों की आदत पड़ चुकी थी। लोसर में बिजली सप्लाई ठीक थी लेकिन बिजली का आना–जाना जारी था। होमस्टे मालकिन से मैंने जल्दी खाने के लिए कह रखा था। खाना बनते ही मुझे सूचना मिली और मैं जल्दी से नीचे बने रेस्टोरेण्ट में पहुँच गया। एक–दो स्थानीय भी खाना खाने के लिए जमे हुए थे। 150 रूपये की थाली मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आयी। राजमा,कढ़ी,चावल और तवे की रोटी से सजी थाली का स्वाद मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। हाँ,पेट भरने के लिए यह थाली पर्याप्त थी।

काजा से आगे एक दुकान में

की मोनेस्ट्री का प्रवेश द्वार


चिचम ब्रिज





की मोनेस्ट्री




किब्बर गाँव





लोसर में रंग–बिरंगे पत्तों से लदे पेड़ों के बीच से गुजरता एक रास्ता


लोसर में स्पीति नदी





सम्बन्धित यात्रा विवरण–

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