Friday, November 4, 2022

स्पीति वैलीः यात्रा का आरम्भ

अपने आदिम इतिहास में मानव प्रकृति का पूजक रहा है। प्रकृति के विभिन्न स्वरूप उसकी छोटी सी सत्ता से कहीं अधिक शक्तिशाली थे। इसलिए उसने नियतिवाद को स्वीकार किया। आदिम मनुष्य प्रकृति का सहचर था,प्रेमी था। उसने नदियाें में,पहाड़ों में,आकाश में,सूरज में,चन्द्रमा में,वृक्षों में देवत्व का आरोपण किया। जो शक्तिशाली था,सुन्दर था,जीवन देता था– देवतुल्य था। मुझे भी यह देवत्व आकर्षित करता है,भाता है। हिमालय को नगराज की उपाधि दी गयी। कितना शक्तिशाली है यहǃ इस शक्ति का अंशमात्र इसने सदानीरा नदियों को दे दिया। इन नदियों ने अपनी अंशमात्र शक्ति प्रदान कर मानव सभ्यताओं को जन्म दिया। पर शायद इस नगराज से कुछ भेदभाव भी हो गया। नहीं तो इसके दो पक्ष नहीं दिखतेǃ एक पक्ष की ओर तो इसने अपनी देवत्व की शक्ति से जीवन को प्रस्फुटित किया,उसे सजाया–सँवारा पर दूसरे पक्ष की ओर देखा तक नहीं। उसे छोड़ दिया अपने भाग्य पर। सूरज की तीक्ष्‍ण किरणों और निर्बाध वायु के तीव्र वेग ने इसे अत्यन्त दुर्गम बना दिया। परन्तु मनुष्य इतना भी निरीह नहीं था। उसने अपने नियतिवाद का त्याग किया। अपनी दुर्धर्ष जिजीविषा के बल पर निर्जन में भी जीने की कला विकसित की। हिमालय के कृष्णपक्ष में भी सौन्दर्य का दर्शन किया। और इस संघर्ष में उसके साथी बने– बुद्ध। बुद्ध ने अपनी निराकार शक्ति से दुर्गम में भी मनुष्य की सभ्यता को साकार किया। इस सभ्यता की साथी बनी– स्पीतिǃ
और स्पीति में बुद्ध सर्वव्याप्त हैं। स्पीति नदी की घाटी में बुद्ध को सर्वत्र महसूस किया जा सकता है। स्पीति जितना शोर करती है,उसकी घाटी उतनी ही शान्त है। बिल्कुल शान्त। जीवन की भागमभाग कुछ बाहरी मनुष्यों के आने पर ही दिखती है। नहीं तो स्पीति में तो बिल्कुल ही शांति है। निविड़ शान्ति।

इसी शांति का साक्षात् करने मैं स्पीति घाटी की यात्रा पर जा रहा था। मन में दबी हुई एक लालसा पूरी होने जा रही थी। इच्छाएं आकार ले रही थीं। शंकाओं के बादलों के बीच से उम्मीद का सूरज झाँक रहा था,क्योंकि यात्री बाइक से सितम्बर के उत्तरार्द्ध में स्पीति वैली की सैर पर जा रहा था। शंका डर की जननी है। मन में हजारों शंकाएँ काले बादलों की तरह से उमड़–घुमड़ रहीं थीं क्योंकि महीना भी सितम्बर  का था–
माैसम कैसा होगा,बरफ तो नहीं जमी होगी,बारिश तो परेशान नहीं करेगी, रास्ते कैसे होंगे,रहने का ठिकाना कैसा होगा,खाना कैसा मिलेगा,कहीं रास्ते में बाइक खराब हो गयी तो क्या होगा,रास्ते में दुकानें मिलेंगी या नहीं,तबीयत तो नहीं खराब होगी,वगैरह–वगैरह। लेकिन बन्दे ने सारे प्रश्न कन्धे झटक कर बंगाल की खाड़ी में फेंक दिये और सीना 56 इंच का करके बाइक पर दाँव लगा दिया। बहुत सारे पुराने यात्रियों की पुरानी किताबें पहले पढ़ी थीं–  आज से 50 या 100 साल पहले हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों की यात्रा के बारे में। उस संसाधन विहीन समय में जब दुर्गम को पार किया जा सकता था तो आज तो बहुत ही सरल होगा।
सितम्बर का मौसम इस क्षेत्र में पतझड़ का होता है। इस समय प्रकृति यहाँ कई रंगों में बिखरी होती है। तो एक बेरंग भू–भाग में इसी रंगीनियत को साकार होते देखने के लिए मैंने सितम्बर का महीना चुना था।

पता नहीं कितनी बार मैंने सूची बनायी और बिगाड़ी थी,उन सामानों की जिन्हें किसी भी बाइकर को स्पीति घाटी की यात्रा पर लेकर जाना चाहिए। इण्टरनेट पर तमाम वेबसाइट खंगाली,फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर सलाह ली और अंत में जब लिस्ट फाइनल हो गयी तो लगा कि आधा काम समाप्त हो गया। इस सारे शोध के बावजूद,यात्रा पूरी होने के बाद समझ में यह आया कि वास्तविक अनुभव तो स्वयं ही प्राप्त होता है।
मनुष्य कितना भी परिपक्व हो जाय,पूर्ण नहीं हो सकता– यह मानकर मैंने पैकिंग कर ली और कयामत के दिन बाइक की पिछली सीट पर दो बैग बाँधकर,अपने शहर बलिया के रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा जहाँ से मुझे ट्रेन में बाइक बुक करनी थी। वैसे तो मैं बाइक को चलाकर भी ले जा सकता था लेकिन ट्रेन में ले जाने के पीछे मेरी सोच यह थी कि एक या दो दिन केवल सड़क नापने में जो ऊर्जा मैं खर्च करूँगा,उसे बचाकर आगे की यात्रा में प्रयोग कर सकता हूँ। बाइक बुक करने के लिए मैंने इधर–उधर से तमाम जानकारियाँ जुटाई थीं लेकिन संयोग से यात्रा शुरू करने से कुछ दिन पहले ही,किसी काम से बलिया रेलवे स्टेशन तक एक दिन जाने का अवसर मिल गया। लगे हाथ मैंने बाइक बुकिंग के बारे में पता करने की कोशिश की। मेरे मन में इस बारे में जितने भी सवाल थे,मैंने पार्सल कार्यालय में कुर्सी पर बैठे आदमी से एक–एक कर पूछ लिये,लेकिन उसके पास मेरे हर सवाल का सिर्फ एक ही जवाब था–
ʺट्रेन के समय से 2 घण्टे पहले बाइक लेकर आ जाइयेगा।ʺ 
मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो गयी। मैं बिना बताये सब कुछ समझ गया।

खैर आज के दिन मुझे वास्तविक रूप से बाइक बुक करनी थी,सो मैं स्टेशन के मुख्य गेट से प्लेटफार्म नं 1 पर घुसा,मसक समान रूप धरकर नहीं वरन वीर राजा पोरस की तरह दहाड़ते हुए,क्योंकि आज मैं कोई ऐरा–गैरा नहीं वरन स्पीति वैली की सैर पर जाने वाला बाइकर था। बलिया रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नं 1 पर प्रवेश करके दाहिने मुड़ते ही दो कदम पर पार्सल कार्यालय है। मैंने वहाँ पहुँचकर काउण्टर पर बैठे व्यक्ति से सिर्फ इतना ही कहा था–
ʺमुझे बाइक बुक करनी है।ʺ
पल भर की देर नहीं लगी,सिकन्दर की सारी सेना मुझ पर टूट पड़ी। एक लड़का तीन–चार कुलियों को साथ लेकर मेरी बाइक की तरफ दौड़ा। पहले तो बाइक को चलाकर–डगराकर लाया गया फिर जहाँ स्लीपर नहीं था,वहाँ बाइक को ससम्मान हाथों में टाँगकर सीढ़ियों के रास्ते प्लेटफार्म पर चढ़ा दिया गया। मैं अपनी बाइक का इतना सम्मान होते देखकर मन ही मन गदगद हो रहा था। मुझे नहीं पता था कि इस यात्रा में मेरी बाइक को मिलने वाला यह पहला और आखिरी सम्मान है।
सिर्फ एक सूचना माँगी गयी– ʺबाइक को जाना कहाँ है।ʺ
मुझे कहाँ जाना है इससे कोई मतलब नहीं था। हाँ,एक बात मुझे पहले से पता थी कि ट्रेन में बाइक को चढ़ाने से पहले ʺपेट्रोल–मुक्तʺ करना पड़ेगा। इसके लिए मैं एक लीटर की एक खाली बोतल घर से ही लेकर चला था और बाइक में भी नाप–तौल कर इतना ही पेट्रोल भरा था कि वह उस बोतल में समाहित हो जाय। बाइक की टंकी जब खाली की गयी तो पूरे एक लीटर पेट्रोल निकला। न कम न अधिक। मैं अपने इस ʺमैनेजमेण्टʺ पर बहुत ही खुश था। इतना तो महिलाएँ भी मैनेज नहीं कर पाएंगी। जल्दी–जल्दी बाइक को फटे गत्तों और जूट के फटे बोरे के टुकड़ों से ढक दिया गया। एक नया पीले रंग का प्लास्टिक,जिसे मैंने रेनकवर के रूप में प्रयोग करने के उद्देश्य से खरीदा था,बाइक को ओढ़ाने के लिए सुपुर्द कर दिया। पीली चुनरी ओढ़कर बाइक दुल्हन की तरह से खुश हो रही थी। बाइक को छोड़कर जाने का मन तो नहीं था लेकिन चूँकि उसी ट्रेन में मुझे भी सवार होना था तो बाइक को मैंने कुलियों के हवाले कर दिया। इसके बाद स्वयं भी ट्रेन में सवार हुआ और हमेशा की तरह ऊपर वाली सीट पर पसरकर स्पीति के सुहाने सपनों में खो गया।

ʺस्पीतिʺ जिसका उच्चारण भोटी भाषा में ʺपि–तीʺ के रूप में होता है,का अर्थ है– मध्यप्रदेश या मध्यवर्ती क्षेत्र। हिमालय और लद्दाख के बीच में अवस्थित होने के कारण शायद इसका यह नाम पड़ा। स्पीति नाम की नदी जिस क्षेत्र से होकर प्रवाहित होती है,उसे स्वाभाविक रूप से स्पीति घाटी के नाम से जाना जाता है। घाटी का मुख्य ढाल उत्तर–पश्चिम से दक्षिण–पूर्व की ओर है। दक्षिण में उच्च हिमालय इसकी सीमा बनाता है। दक्षिण–पूर्व के एक कोने में पहाड़ों को काटकर स्पीति सतलज में विसर्जित हो जाती है। स्पीति एक शीत मरूस्थल है। हिमालय के वृष्टि–छाया क्षेत्र में होने के कारण स्पीति घाटी में बारिश नहीं होती,या बहुत कम होती है। अगस्त और सितम्बर के महीने में फुहारें पड़ती हैं। नवम्बर से लेकर मई तक रास्ते बर्फ के कारण बन्द हो जाते हैं। मौसम बहुत कठोर होता है। कहते हैं कि रास्ते में चलते समय यदि सामने से धूप लग रही हो तो चेहरे पर मई के महीने के जैसी जलाने वाली धूप लगती है,जबकि पीछे की तरफ गर्दन पर दिसम्बर जैसी ठण्ड लगने लगती है। घर के बाहर धूप में,मई के महीने जैसा एहसास होता है तो घर के अन्दर छाये में दिसम्बर का। स्पीति घाटी की औसत ऊँचाई 4000 मीटर से भी अधिक है। जबकि पश्चिमी हिमालय में वृक्षरेखा (ट्री लाइन) 3000 मीटर पर ही पायी जाती है। 4600 मीटर पर स्थायी हिमरेखा पायी जाती है। अतः स्पीति घाटी में प्राकृतिक वनस्पति विरले ही दिखायी पड़ती है। परिणामतः वनस्पतियों पर आश्रित जीव–जंतु भी बड़ी मुश्किल से ही मिलते हैं। वैसे मैं स्पीति के इस निर्जन और वीरान स्वरूप को ही देखने के लिए जा रहा था। कई साल पहले पढ़ी गयी दलाई लामा की आत्मकथा के कुछ दृश्य साकार हो रहे थे। शायद तिब्बत भी ऐसा ही दिखता होगा। इक्के–दुक्के पेड़ और कुछ झाड़ियाँ उन्हीं स्थानों पर दिखती हैं,जहाँ स्थानीय निवासियों ने अपने जीवन–यापन के लिए उन्हें उगा रखा है। इन नाममात्र के वृक्षों और झाड़ियों के भी कई स्वरूप होते हैं। और सितंबर के महीने में इनका जो रूप होता है,वह अलौकिक होता है। यह समय पतझड़ का होता है और मौसम के प्रभाव में पेड़ों के पत्ते कुछ हरे,कुछ पीले और कुछ लाल होकर ऐसा दृश्य उपस्थित करते हैं मानो पूरा पेड़ ही रंग–बिरंगे फूलों से लद गया हो। मैं ऐसे ही दृश्यों को देखने की कल्पना में भाव–विभोर हुआ जा रहा था।

लाहुल और स्पीति,हिमाचल प्रदेश का एक जिला है। इसमें दो तहसीलें हैं– स्पीति और लाहुल या लाहौल । स्पीति का मुख्यालय काजा में तथा लाहौल का मुख्यालय केलांग में है। ये दोनों पहले दो जिले हुआ करते थे। तब लाहौल का मुख्यालय कराडंग और स्पीति का मुख्यालय धनकर या ढंखर में था। 1960 में दोनों को मिलाकर एक जिला बना दिया गया जिसका प्रशासनिक मुख्यालय केलांग में है। लाहौल से पश्चिम उदयपुर नाम की एक उप–तहसील भी है। विकासखण्ड या ब्लाॅक भी दो ही हैं– लाहौल और स्पीति। लाहौल में 28 और स्पीति में 13 ग्राम पंचायतें हैं जबकि कुल गाँवों की संख्या 521 है। वैसे गाँवों की इस संख्या से लाहौल और स्पीति के बारे में कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल है। ये गाँव हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों जैसे नहीं होते और दक्षिण भारत के गाँवों जैसे तो बिल्कुल नहीं। लाहौल और स्पीति का कुल क्षेत्रफल 13833 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 31528 है। इस तरह जनसंख्या घनत्व 2 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से कुछ ही अधिक है। यही कारण है कि स्पीति की यात्रा में मनुष्य के दर्शन के लिए आँखें तरस जाती हैं। मुझे ऐसी जगहें अच्छी लगती हैं।

4590 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित कुंजुम दर्रा लाहौल और स्पीति को अलग करता है। कुंजुम दर्रे से होकर एक सड़क गुजरती है जो लाहौल और स्पीति को जोड़ती है और मुझे इसी सड़क पर यात्रा करनी थी। यह दर्रा जून से अक्टूबर तक ही खुला रहता है। बाकी समय भारी हिमपात के कारण बंद हो जाता है। वैसे मेरी यात्रा के दौरान भी एक दिन अफवाह उड़ी थी कि कुंजुम पास में भारी बर्फबारी के कारण रास्ता बन्द हो गया है। मैं उस दिन काजा में था। यह खबर सुनकर तो मेरे हाथ पाँव फूल गये थे। हाँ,इस समय शिमला के रास्ते स्पीति घाटी में प्रवेश किया जा सकता है। मुझे इसी रास्ते से जाना था। वैसे यह बर्फ भी बड़ी अजीब चीज है। मौसम के साथ यह भी हिमालय के बंजारे चरवाहों की तरह अपना घर बदलती रहती है। मौसम इसके लिए अनुकूल हो तो पहाड़ों की जड़ों तक चली आती है और मौसम प्रतिकूल हो तो यह हमें प्रतिकूल और दुर्गम जगहों तक खींच ले जाती है। तो ट्रेन की ऊपरी बर्थ पर लेटे–लेटे मैं इन्हीं दृश्यों को अपने मन में मूर्त रूप लेते देख रहा था। चिन्तन कर रहा थाǃ



चितकुल के रास्ते में नीचे घाटी में बसा एक गाँव

सांगला में बास्पा नदी

नाको झील और नाको गाँव

ढंखर मोनेस्ट्री

पिन वैली

लांग्जा में बुद्धि मूर्ति

विश्व का सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित डाकघर,हिक्किम

की मोनेस्ट्री

लोसर में स्पीति नदी

चन्द्रताल



सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी


No comments:

Post a Comment

Top