Friday, November 25, 2022

चौथा दिन– टापरी से सांगला

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अब तक की मेरी यात्रा कुछ इस तरह चल रही थी कि सुबह उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर बिना चाय–नाश्ते के बाइक की सवारी शुरू हो जा रही थी तो मैंने इसी परम्परा को आज भी जारी रखा। पेट में सिर्फ पानी ही था। आसमान में भी पानी और रास्तों पर भी पानी। ये पानी कहाँ तक साथ निभायेगा,कहना मुश्किल था। और इस पानी के खेल में मैं टापरी में तेल (पेट्रोल) लेना भूल गया। बारिश के बीच मैं चल तो चुका था लेकिन 10–12 किलोमीटर आगे करचम में एक चाय की दुकान में रूकना पड़ा। यहाँ से एक दिन के लिए मुझे सतलज से अनुमति लेनी थी और बास्पा के साथ चलना था। करचम में बास्पा और सतलज हमेशा के लिए एक हो जाती हैं। दोनों नदियों के संगम के नीचे सतलज पर एक बाँध बना दिया गया है। फलतः बाँध के नीचे और ऊपर नदियों का वेग समाप्तप्राय हो गया है। अप्रतिम सौन्दर्य बरसाती नदियों की यह दुर्दशा देखकर बहुत कष्ट होता है। बास्पा पर तो कई सारे छोटे बाँध बनाये गये हैं और उसकी तीव्र धारा का उपयोग कर बिजली बनायी जाती है। सांगला में एक ऐसे ही बाँध के पीछे बड़ी झील बन गयी है जिसका नाम भी बास्पा झील है।
ठण्ड बढ़ रही थी,बारिश कभी बूँदाबादी तो कभी रिमझिम के रूप में अपने रंग बदल रही थी। मैंने 15 रूपये की चाय पी और दो मिनट हाथ रगड़कर गर्म किया। मुझे लगा कि चायवाले ने मुझसे 5 रूपये अधिक ले लिया है क्योंकि अब तक मैं 10 की ही चाय पीता आ रहा था। अब मुझे सीधा चितकुल दिख रहा था क्योंकि करचम से चितकुल की दूरी गूगल मैप में केवल 40 किलोमीटर दिख रही थी। लेकिन यह दूरी केवल भ्रम पैदा कर रही थी। अगर मौसम सही होता तो यह दूरी बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन बारिश में यह मेरे लिए काफी लम्बी होने वाली थी। कुछ किलोमीटर चलने के बाद मुझे बारिश की वजह से पहाड़ की ओट में रूकना पड़ा। उस जगह पर रूकना कुछ कुछ नकारात्मक के साथ साथ सकारात्मक भी था। नकारात्मक ये कि समय का नुकसान हो रहा था। सकारात्मक ये कि मैं ऐसे पहाड़ के नीचे रूका था जिसे काटकर नीचे से सड़क बनायी गयी थी। तो अनुभव करने के लिहाज से मेरे लिए यह एक सुंदर सी जगह थी। सुंदर इसलिए भी कि नीचे घाटी में बसा एक छोटा सा गाँव और उसके ऊपर मँडराते बादल और साथ ही आसमान से बरसती रिमझिम बारिश,माहौल को और भी रोमांटिक बना रहे थे। यहाँ रूकने और फोटो खींचने के साथ साथ मैंने रेनकोट भी पहन लिया। साथ ही जूते निकाल कर सैण्डल भी पहन लिया क्योंकि जूते भीगने का डर था। मुझे लगा कि बारिश में भीगते पैरों के साथ मैं आसानी से चितकुल पहुँच जाऊँगा लेकिन यह मेरी अनुभवहीनता थी। बारिश मुझे अपनी अंतिम हद तक परेशान कर रही थी लेकिन मैं यह भी सोच रहा था कि मेरे पुरखे आदिमानवों ने ऐसे ही पहाड़ों की ओट और गुफाओं में अपनी पीढ़ियाँ गुजार दी होंगी। मुुझे तो केवल कुछ मिनट ही गुजारने थे। मुझे अपनी भीमबेटका की यात्रा और उसके दृश्य याद आ रहे थे।

रिमझिम बारिश में ठिठुरते पैरों के साथ मेरी बाइक धीमी गति के बुलेटिन की भाँति गतिमान होती रही। रूकने का सवाल ही नहीं था। जैसा कि मैं पहले उल्लेख कर चुका हूँ कि टापरी में पेट्रोल लेना भूल गया था तो अब दिमाग में तनाव होना स्वाभाविक था। बारिश और खराब रास्ते की वजह से यह तनाव और भी बढ़ रहा था। करचम से चितकुल तक का अधिकांश रास्ता ऑफरोड है। बारिश में तो यह और भी बदतर हो गया था। कहीं कीचड़,कहीं फिसलन तो कहीं गड्ढों में भरा पानी और उस पर तीखे मोड़। चलना दूभर हो रहा था। लेकिन रास्ते के साथ दिखते दृश्य इतने सुंदर हैं कि रास्ते की सारी समस्याएँ भूल जा रही थीं। दुख केवल इस बात का था कि बारिश की वजह से मैं फोटो नहीं खींच पा रहा था। बाइक के मीटर में पानी घुस ही चुका था,अब मोबाइल और कैमरे में भी पानी घुसाना बुद्धिमानी की बात नहीं थी। करचम से 17–18 किमी की दूरी पर स्थित सांगला तक पहुँचने में ही मुझे एक घण्टे के आस–पास समय लग चुका था। सांगला से थोड़ा सा पहले एक कार सवार मिला जो सांगला से करचम की ओर आ रहा था। गाड़ी रोककर उसने मुझसे रास्ते के बारे में पूछा। पता नहीं वह रास्ते के बारे में क्यों पूछ रहा था,क्योंकि वह गया तो इसी रास्ते से होगा। मैंने उसे जवाब देने की बजाय पेट्रोल पंप के बारे में पूछा। जवाब मिला कि सांगला में पेट्रोल मिल जायेगा। मैंने भी उसे बताया कि रास्ता लगभग ऐसा ही है। दरअसल उसकी कार के पहिए कीचड़ में फँस रहे थे। सांगला में जैसे ही मुझे पेट्रोल पंप दिखा,मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। एक समस्या तो दूर हुई। रही बात बारिश की तो यह शाश्वत सत्य बन चुकी थी। फिलहाल तो यह बन्द होने वाली नहीं थी। सांगला में सड़क किनारे ढेर सारे होटल और होमस्टे दिखायी पड़ रहे थे। मैंने उसी समय यह तय कर लिया कि यदि कोई विशेष समस्या नहीं आयी तो आज की रात सांगला में ही गुजरेगी।

सांगला और चितकुल के लगभग बीच में बसे गाँव रकछम तक पहुँचते–पहुँचते मेरे ठिठुरते पैरों ने जवाब दे दिया। मजबूरन एक सेब के बगीचे के पास मुझे रूकना पड़ा। वो सेब तोड़ने के लिए नहीं बल्कि पैरों की सुरक्षा के बारे में सोचने के लिए। मैंने बैग में से जूते निकाले और साथ ही जेब में रखे दो प्लास्टिक के थैले भी। प्लास्टिक के थैलों को जूतों के ऊपर से पहन लिया। इससे बड़ी राहत मिली। 

दोपहर के पौने बारह बजे मैं चितकुल पहुँचा।
समुद्रतल से 3450 मीटर की ऊँचाई पर। चितकुल किन्नौर घाटी में बसा हुआ है। कहते हैं कि किन्नौर धरती और स्वर्ग के बीच की भूमि है। तो अब मैं बिल्कुल स्वर्ग के मुहाने पर ही था। मन रोमांचित था। इस समय यह स्वर्ग बिल्कुल शान्त था। रिमझिम बारिश ने इसे और भी शान्त कर रखा था। जीवन के लक्षण को दर्शाने वाली आवाजें या गतिविधियां मुश्किल से ही दिख रही थीं। चितकुल बास्पा के किनारे बसा हुआ है लेकिन काफी ऊँचाई पर।बास्पा चितकुल की जीवनरेखा है। सुन रखा था कि चितकुल भारत का आखिरी गाँव है। इसके पहले एक और आखिरी गाँव माणा भी मैं जा चुका था। तो फिर कितने आखिरी गाँव हैंǃ इस तरह तो सीमान्त में बसे बहुत सारे आखिरी गाँव होंगे। वैसे चितकुल बास्पा घाटी का तो आखिरी या पहला गाँव अवश्य है।
एक–दो रेस्टोरेण्ट के सामने 4–6 लोगों की भारी भीड़ थी जो इस बारिश में मेरी तरह ही घूमने चले आये थे। अन्तर सिर्फ इतना था कि वे मेरी तरह बाइक से नहीं बल्कि चारपहिया गाड़ियों में आये थे। बारिश थोड़ी धीमी तो जरूर हुई थी लेकिन बन्द अब भी नहीं हुई थी। पहले तो मैंने बाइक से,चितकुल के आर–पार,आगे 2–3 किलोमीटर तक की दौड़ लगायी,जहाँ तक कि एक–दो घर या आदमी दिख रहे थे फिर वापस चितकुल गाँव लौटा। एक बिल्कुल खाली रेस्टोरेण्ट की खोज की जहाँ बैठकर आराम से पराँठे खाये जा सकें और दो–चार फोटो भी खींचे जा सकें। वैसे भी सारे रेस्टोरेण्ट खाली ही थी। मैंने रेस्टोरेण्ट में 60 रूपये के गोभी पराँठे व 20 की चाय का आर्डर दे दिया और आराम से खिड़की से बाहर बारिश में नहाये चितकुल का सौन्दर्य देखता रहा। साथ ही रेस्टोरेण्ट में काम कर रहे लड़कों से भी बातचीत होती रही। मैं उनके रंग–रूप और बोली से पहचान चुका था कि वे कहाँ के रहने वाले हैं–
ʺकहाँ के रहने वाले हो भई,यहाँ के लोकल तो नहीं लगते?ʺ
ʺबिहार से।ʺ
ʺअरे यार मैं भी तो उधर का ही हूँ। किस जिले से हो?ʺ
ʺगया से।ʺ
ʺकैसे इतनी दूर पहुँच गये। मैं भी छपरा के बगल वाले बलिया जिले का हूँ।ʺ
यहाँ कैसे पहुँचे के जवाब में उस लड़के ने संक्षेप में अपनी रामकहानी बतायी कि कैसे वो दिल्ली काम करने गया था। वहाँ कोई मिल गया जो यहाँ तक लाया। अधिक विस्तृत बात करने से वे कतरा रहे थे। वैसे अपने इस काम से वे लड़के खुश दिख रहे थे। वास्तव में एक आदमी को जीने के लिए क्या चाहिएǃ दो वक्त का खाना,रहने के लिए छत,पहनने के लिए कपड़े। वैसे इतना सब कुछ मिलने के बाद आदमी आगे की सोचने लगता है। इन लड़कों को यहाँ यह सब कुछ मिल रहा था। साथ ही वह चीज भी बिना प्रयास के मिल रही थी जिसकी खोज में मैं इतनी दूर स्पीति वैली की यात्रा पर निकला था। वैसे यह निश्चित नहीं था कि वे हिमाचल का सौन्दर्य देखने के लिए यहाँ आये थे या आजीविका की तलाश में। मेरी आगे की यात्रा में पता चला कि बिहार के इस गया जिले ने पूरी स्पीति वैली को या फिर इस रूट को अकेले ही सँभाल रखा है। गया जिला थोड़ा सा भी हाथ खींच ले तो इस पूरे क्षेत्र की बैण्ड बज जाय। इस बीच एक विदेशी कपल भी वहाँ आ पहुँचा। वे क्या खाना चाह रहे थे,होटल के लड़के नहीं समझ पा रहे थे। भाषा समझ में आये तो सम्पर्क का माध्यम है,समझ में न आये तो बहुत बड़ी बाधा है। कुछ पूछताछ करने के बाद वे वापस लौट गये। चितकुल में मैंने कमरों के बारे में भी पूछताछ की। यहां के रेट हजार–बारह सौ से कम नहीं थे। वैसे भी मेरा यहाँ रूकने का कोई इरादा नहीं था तो ʺदोपहर का ब्रेकफास्टʺ लेने के बाद मैं यहाँ से वापस लौट पड़ा। 

चितकुल से कुछ दूर चलने के बाद बारिश का गुस्सा कुछ कम हुआ। शायद ये नहीं चाह रही थी कि मैं चितकुल तक पहुँच पाऊँ। बारिश धीमी हुई तो बाइक की स्पीड थोड़ी बढ़ी। जाते समय चितकुल से थोड़ा सा पहले मैं कुछ दृश्य छोड़कर गया था जिनकी फोटो मुझे खींचनी थी। धीमी बारिश में ही मैंने कुछ देर तक फोटोग्राफी की। थोड़ा सा आगे एक झरने का बहुत ही सुंदर दृश्य था। मैंने गाड़ी खड़ी कर मोबाइल से रिकार्डिंग शुरू की लेकिन कुछ ही सेकेण्ड बीते होंगे कि बाइक धड़ाम की आवाज के साथ जमीन पर लोट गयी। दरअसल बाइक सिंगल स्टैण्ड पर खड़ी थी और स्टैण्ड बालू में धँस गया था। अब कहाँ की फोटोग्राफी। बाइक को खड़ी करने की विकट समस्या थी। बाइक को अकेले उठाने के लिए पीछे बँधे दोनों बैग खोलने पड़ते और दूसरा कोई आदमी यहाँ दूर–दूर तक नहीं दिख रहा था। अचानक 100 कदम की दूरी पर झाड़ियों के बीच एक चेक–पोस्ट दिखी। मैं आशा बाँधे वहाँ तक गया तो पोस्ट के अन्दर सुरक्षाबल का एक जवान तैनात था। मैंने निवेदन किया तो वह सहर्ष तैयार हो गया। चार हाथ लगते ही बाइक उछलकर खड़ी गयी। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और बाइक खड़ी करने का एक सबक सीखते हुए आगे बढ़ चला। वैसे तो पहले भी स्टैण्ड धँसने से बाइक गिरने का अनुभव हो चुका था लेकिन शायद उस अनुभव से मैंने कोई सीख नहीं ली थी। बायीं तरफ गिरने से बाइक का क्लच लीवर टेढ़ा हो गया था।

दोपहर बाद 2 बजे तक मैं सांगला में था। अब यहाँ से आगे बढ़ने का मतलब होता कि अगला पड़ाव रिकांग पिओ या कल्पा में बनता। लेकिन मैं सांगला की सुंदर घाटी भी देखना चाहता था। साथ ही बारिश में बाइक चलाने से मन भी उकता गया था। तो मैंने सड़क किनारे एक गेस्ट हाउस में 600 में रात भर के लिए एक कमरा खरीद लिया। कमरा बहुत सुंदर था और सांगला की सड़कों पर टहलने के लिए मेरे पास पर्याप्त समय भी था। साथ ही बारिश भी बन्द हो चुकी थी। तो मैंने कैमरा उठाया और बास्पा नदी पर बने पुल की ओर चल पड़ा। आज मैंने केवल 75 किलोमीटर बाइक चलाई थी लेकिन बारिश और ऊबड़–खाबड़ रास्ते ने बहुत परेशान किया था।

चितकुल और सांगला बास्पा नदी की घाटी में बसे हैं। इनके अलावा करचम से चितकुल जाते हुए कई छोटे–छोटे गाँव रास्ते में पड़ते हैं जैसे बटसेरी,रकछम वगैरह। यह नदी अपनी घाटी में निवास करने वाले इन गाँवों को न केवल जीवन प्रदान करती है वरन अप्रतिम सौन्दर्य भी बरसाती है। करचम से चितकुल जाने वाली सड़क इन गाँवों को स्पर्श करती हुई ऊपर ही ऊपर निकल जाती है जबकि ये सारे गाँव नीचे की ओर नदी की घाटी में बसे हुए हैं। चितकुल घाटी की बजाय ऊपर बसा हुआ है। आज की बेमौसम बरसात केवल मुझे ही नहीं परेशान कर रही थी,वरन बास्पा नदी की घाटी में खड़ी और कटी हुई फसल को भी जबरदस्त नुकसान पहुँचा रही थी। सड़क आधी से भी अधिक ऑफरोड है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि यह कभी बनायी जरूर गयी होगी लेकिन इसकी अधिकांश पिच उखड़ कर समाप्त हो चुकी थी। ऊपर चितकुल में काफी ठण्ड थी जबकि नीचे सांगला में काफी राहत। 

सांगला में भी बास्पा की घाटी बहुत सुंदर है। सांगला समुद्रतल से 2700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है इसलिए ठण्ड चितकुल की तुलना में कम थी। बारिश बन्द होने के बाद गाँव के ऊपर ढेर सारे बादल गाँव को ऊपर से सफेद रंग में रँग रहे थे। फोटो खींचने के लिए ढेर सारा मसाला पड़ा हुआ था। शाम होने से काफी पहले मैं सांगला की सड़कों पर निकल पड़ा। सांगला में नाग देवता का एक खूबसूरत मंदिर है लेकिन वहाँ के ठीकेदार यानी पुजारी ने मंदिर में मुझे घूमने ही नहीं दिया। उसे लग रहा था कि मैं मंदिर में गंदगी फैला दूँगा और फोटो खीचूँगा। नाग देवता के मंदिर से कुछ दूर नीचे बास्पा नदी प्रवाहित होती है। मुख्य सड़क के किनारे,जहाँ मैं ठहरा था,से लेकर नदी किनारे तक तीखी ढलान है। नदी के उस पार जाने के लिए एक पुराना लोहे का पुल बना हुआ है। इस पुल से नदी और सांगला गाँव का खूबसूरत नजारा दिखायी पड़ता है। रास्ते के दोनों किनारे,सेब के पेड़ों से ढके हुए हैं। इस बीच टिप–टिप बारिश भी शुरू हो चुकी थी। और मैं इस टिप–टिप बारिश के बीच खूबसूरत नदी घाटी और बादलों से ढके गाँव के खूबसूरत नजारे का सम्पूर्ण आनन्द ले रहा था।
सांगला में होटल का कमरा और बाहर का प्रांगण तो बहुत ही खूबसूरत था लेकिन खाना उतना ही साधारण। तिस पर भी थाली का रेट 170। थाली में केवल 2 रोटी,आलू मटर की सब्जी,पता नहीं किस चीज की दाल और ढेर सारा चावल। थाली की कमी चाय पूरी कर रही थी। चाय बहुत अच्छी तो नहीं थी लेकिन 30 रूपये में पूरी गिलास भर चाय मिली थी। वैसे भी अपनी यात्राओं में मैं स्वाद के अधिक फेर में नहीं रहता।
सांगला और चितकुल के ठीक बीच में,चितकुल से पहले रकछम गाँव में भी ठहरने के विकल्प उपलब्ध हैं। मुझे भी 700 में एक कमरा मिल रहा था जो देखने में तो काफी अच्छा लग रहा था लेकिन मेरे बजट के हिसाब से महँगा था। रकछम सेब के बगीचों के बीच प्रकृति की गोद में बसा एक सुंदर गाँव है। यहाँ ठहरना प्रकृति से मुलाकात करने जैसा होता। वैसे इस सुअवसर का लाभ मैं नहीं उठा सका। रकछम में सेब के बागान ढेर सारे हैं। मैंने सेब खरीदने की सोची लेकिन पता चला कि फसल अभी कच्ची है। 



बास्पा घाटी में बसा एक गाँव


चितकुल में एक रेस्टोरेण्ट में



सांगला में बास्पा नदी



सांगला में सेब के बाग

सांगला गाँव





अगला भाग ः सांगला से नाको

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी


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