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नाको का मौसम अच्छा था तो मैं सुबह जल्दी निकलने के प्रयास में था। तैयार होकर बाहर निकलने की कोशिश की तो होटल का मुख्य दरवाजा बाहर से बन्द मिला। होटल वाले का कहीं अता–पता नहीं था। एक दो बार इधर–उधर की युक्ति लगाने और सोच–विचार करने में 10 मिनट गुजर गये। ऐसी परिस्थिति में कैसी मनोदशा होती है,यह वही समझ सकता है जो ऐसी दशा से गुजरा हो। आप कमरे से बाहर निकलना चाहते हों और दरवाजा बाहर से बंद हो। मुझे घबराहट सी होने लगी। अचानक होटल वाले का नम्बर दीवार पर लिखा दिख गया। मैं नम्बर डायल करने वाला ही था कि बिचारा खुद कहीं से प्रकट हो गया। मैंने चाय पीने की इच्छा व्यक्त की। कुछ ही देर में चाय तैयार हो गयी। सारी तैयारी के बाद सुबह के 08.10 पर मैं नाको की मीठी यादें लिए रवाना हो गया। नाको से लगभग 5 किलोमीटर की दूरी पर मालिंग नाला है। नाले से कुछ ही पहले बायें हाथ घाटी में मालिंग गाँव बसा है। इस गाँव के नाम पर ही नाले का भी नाम पड़ गया होगा। जैसा कि मैंने पढ़ और सुन रखा था,किसी जमाने में इस नाले को पार करना काफी खतरनाक होता था। लेकिन इस पर पुल बन जाने से यह अब आसान हो गया है। नाको से मालिंग नाले के कुछ पहले तक पक्की सड़क मिली लेकिन उसके बाद कच्चा रास्ता शुरू हो गया। रास्ते की चौड़ाई भर पहाड़ों की कटिंग पहले की ही पूरी है लेकिन पक्की सड़क नहीं बनी है। ऐसे ही रास्ते पर एक जगह ट्रक को साइड देते समय अधिक बायीं तरफ हट जाने से मैं पत्थरों में फँस गया और बाइक से नीचे उतरकर एक्सीलरेटर के सहारे बाइक को आगे बढ़ाना पड़ा। मुझे बताया गया था कि नाको से 35 किलोमीटर की दूरी पर समदो में पुलिस चेक–पोस्ट है जहाँ चेकिंग होती है और पुलिस रिकार्ड में इन्ट्री होती है। संभवतः चीनी सीमा के अधिक नजदीक होने के कारण सुरक्षाबलों द्वारा यहाँ अधिक सतर्कता बरती जाती है। मैं जिस समय चेक–पोस्ट पर पहुँचा,चेक करने वाले सारे भाई कहीं इधर–उधर थे और मैं बिना चेकिंग के ही आगे निकल गया। समदो मेरे मोबाइल के हिसाब से लगभग 3050 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित है।
समदो के 2-2.5 किलोमीटर आगे से दायीं तरफ एक रास्ता कटता है जो गुए या गिउ गाँव और साथ ही चीन बार्डर की ओर चला जाता है। समदो से गिउ गाँव की दूरी 12 किलोमीटर है। गिउ गाँव एक 500 साल पुरानी ममी के लिए प्रसिद्ध है। गिउ गाँव का रास्ता पूरी तरह से आफरोड है। चूँकि अपनी स्पीति घाटी की इस यात्रा में मैं यथासम्भव कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता था इसलिए गिउ की तरफ मुड़ गया। सवा दस बजे तक मैं गिउ गाँव में पहुँच गया। गिउ गाँव से कुछ पहले काफी संख्या में सुरक्षाबल के जवान तैनात दिखे। बाद में मुझे पता चला कि यह स्थान भारत–चीन सीमा के काफी नजदीक है। गिउ एक छोटा सा लेकिन सुंदर गाँव है। रास्ता पूरे गिउ गाँव को पार करते हुए ममी वाले स्थल की ओर चला जाता है। ममी वाले स्थल से लगभग आधा किलोमीटर पहले कुछ लड़के–लड़कियाँ मुझे वहीं रूकने और बाइक खड़ी करके पैदल जाने के लिए बोल रहे थे। मैं उनकी आवाज को अनसुनी करके आगे बढ़ गया। लेकिन थोड़ा सा ही आगे पत्थर पड़े होने की वजह से रास्ता बिल्कुल बन्द था और मुझे बाइक वहीं खड़ी करनी पड़ी। एक जे सी बी मशीन रास्ते से पत्थर हटाकर रास्ता बनाने में लगी थी। इतने में ही पहले आवाज देने वाली लड़की वहाँ पहुँच गयी और 30 रूपये की इन्ट्री फीस वाली रसीद मेरे मत्थे मढ़ गयी। इन सबसे निबटकर मैं ममी वाली जगह पहुँचा। वहाँ एक नयी मोनेस्ट्री का निर्माण कार्य चल रहा है। मैं पहले वहीं पहुँचा। अन्दर कार्य चल रहा था। मैं अन्दर प्रवेश करने के लिए जूते उतारने लगा तो एक एक लड़के ने सलाह दी कि जूते के साथ भी जा सकते हैं क्योंकि अभी निर्माण कार्य चल रहा है।
लेकिन वहाँ किसी तरह की ममी को न देखकर मैंने उसी लड़के से ममी के बारे में पूछा। लड़के ने जवाब दिया–
ʺबगल के कमरे में ममी आप ही का इन्तजार कर रही है।ʺ
वास्तव में ममी मेरा ही इन्तजार कर रही थी। क्योंकि ममी को खोजने वाला वहाँ और कोई न था। मोनेस्ट्री के बगल में एक छोटे से कमरे में ममी बिल्कुल अकेले बैठी हुई थी। मैंने दरवाजा खोलकर ममी के दर्शन किये और फोटो खींचे। ममी के फोटो खींचने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
कहते हैं कि यह ममी 500 साल पुरानी है। 1975 में आये एक भूकम्प के बाद सड़क निर्माण के दौरान मलबा हटाते समय,भारत–तिब्बत सीमा पुलिस के जवानों को एक टूटा हुआ स्तूप मिला। इसी मलबे में से यह ममी प्राप्त हुई। जाँच–पड़ताल के पश्चात पता चला कि यह ममी 14वीं शताब्दी की है। माना जाता है कि यह ममी उस समय के प्रसिद्ध लामा संघ तेनजिन की है। याेग–ध्यान की अवस्था में ही देहान्त होने अथवा मलबे में दबने की वजह से उनका शरीर ममी के रूप में परिवर्तित हो गया।
अब मेरा अगला लक्ष्य था गिउ से 35 किलोमीटर की दूरी पर मुख्य सड़क पर बसा ताबो गाँव। ताबो,नाको से 64 किलोमीटर जबकि समदो से 28 किलोमीटर की दूरी पर है। 12 बजे से कुछ पहले मैं ताबो पहुॅंच गया। ताबो गाँव मुख्य सड़क से बायीं ओर या दक्षिण तरफ,मुख्य सड़क और स्पीति नदी के बीच बसा हुआ है। ताबो की ऊँचाई समुद्रतल से 3280 मीटर है। ताबो में दो स्थान देखने लायक हैं– ताबो मोनेस्ट्री और ताबो की गुफाएं। ताबो मोनेस्ट्री सड़क के बायीं तरफ गाँव के मध्य स्थित है जबकि गुफाएं सड़क के दाहिनी ओर ऊँचाई पर स्थित हैं।
अभी मैंने नाको से चलकर अधिक दूरी तय नहीं की थी तो फिर ताबो में रूकने का कोई प्रश्न ही नहीं था। हाँ मेरे ʺदोपहर वाले ब्रेकफास्टʺ का समय हो चुका था। मैंने एक रेस्टोरण्ट चुना और 70 रूपये वाले पनीर परांठे का आर्डर जारी कर दिया।
यहाँ भी चितकुल वाली कहानी दोहरायी जा रही थी। रेस्टोरेण्ट में काम करने वाले लड़के बिहार के गया जिले के रहने वाले थे। मैंने पूछा–
ʺयहाँ कैसे चले आए?ʺ
वही पुराना जवाब–
ʺदिल्ली में काम करने गए थे। वहाँ से किसी के साथ चले आए।ʺ
ʺयहाँ रहना अच्छा लगता है?ʺ
छोटा सा जवाब–
ʺहाँ।ʺ
अच्छे–बुरे का सवाल ही नहीं उठता। रहने और खाने को मिल जाता है। जिन्दगी चल रही है। इससे अधिक और चाहिए क्या। दिल्ली में काम करने की तुलना में यहाँ अधिक आराम रहता होगा। यहाँ मुझे एक–दो बाइकर भी मिले। एक तो लखनऊ का ही रहने वाला था लेकिन एक ग्रुप में किराये की बाइक पर स्पीति वैली घूमने आया था। हेलमेट के ऊपर कैमरा,बाइक के हैण्डल बार पर कैमरा,हाथ में कैमरा। आया तो था स्पीति वैली घूमने लेकिन स्पीति वैली से कोई खास मतलब नहीं था। केवल सड़क नापनी थी। दिल्ली में बैठा कोई व्यक्ति फोन पर ही उसे गाइड कर रहा था– यहाँ से वहाँ जाओ,वहाँ से यहाँ। मुझसे परिचय हुआ तो उसने लम्बी–चौड़ी हाँकनी शुरू कर दी– ʺलखनऊ में बड़ा बिजनेस है,ये है–वो है। फलां–ठिकां .............।ʺ मैं जल्दी से उससे पिण्ड छुड़ाकर इधर–उधर हो लिया। वैसे स्पीति वैली या लद्दाख की बाइक यात्रा करने वाले अधिकांश ऐसे ही होते हैं।
मैंने ताबो मोनेस्ट्री का भ्रमण किया। इसके बाद गुफाओं की ओर गया। ताबो मोनेस्ट्री ताबो नामक गाँव में समुद्रतल से 3280 मीटर की ऊँचाई पर अवस्थित है। इस मोनेस्ट्री की स्थापना 996 ई0 में तिब्बत के एक राजा द्वारा की गयी थी। ताबो मोनेस्ट्री दीवारों पर बनी चित्रकारी के लिए भी जानी जाती है। इन चित्रों के कारण इसे हिमालय की अजन्ता और एलोरा भी कहा जाता है। लेकिन मेरी समझ से ताबो की तुलना अजन्ता और एलोरा से करना ठीक नहीं है। अपने पुरातन स्वरूप में संचालित यह भारत और हिमालय की सबसे पुरानी बौद्ध मोनेस्ट्री है। ताबो में मामूली चहल–पहल जैसी दिखायी पड़ रही थी क्योंकि यह मुख्य मार्ग के बिल्कुल किनारे अवस्थित है और स्पीति की यात्रा करने वाले बाइकर अपने चाय–नाश्ते के लिए यहाँ रूक रहे थे।
ताबो में कुछ समय बिताने के बाद मैं आगे बढ़ गया। अब मैं ढंखर की ओर जा रहा था जो ताबो से 30 किलोमीटर की दूरी पर है। ढंखर गाँव मुख्य सड़क छोड़कर आठ किलाेमीटर की दूरी पर,ऊपर की ओर बसा है।
जब मैं ढंखर पहुँचा तो दिन के 2.15 बज रहे थे। आज की रात मैंने ढंखर में ही बिताने का निर्णय कर लिया था। ढंखर की पुरानी मोनेस्ट्री से कुछ पहले बनी नयी मोनेस्ट्री के गेस्ट हाउस में मैं चाय पीने पहुँचा। चाय पिलाने वाले व्यक्ति से काफी बातें हुईं। यह भाई भी बिहार के गया जिले का रहने वाला था। मैंने स्पीति वैली के हर हिस्से में पाये जाने वाले गया जिले के लड़कों के बारे में उससे पूछा तो उसका कहना था कि वही उन सबका हेड है। कमरे के बारे में भी काफी मोलभाव हुआ। 900-1000 से शुरू करके वह 800 पर आकर अटक गया था। मैं भी 500 से ऊपर बढ़ने को तैयार नहीं था। बात न बनते देख मैं वापस मुड़ गया। अभी मैं बाइक के पास ही पहुँचा था कि वह गया निवासी होटल मैनेजर पीछे से आवाज लगाते मुझे बुलाने आ पहुँचा। उसने लामाजी से बात करके मेरे लिए समझौता कर लिया था। मैंने 500 वाली कसम दुहराई। बिना बाथरूम वाला कमरा 500 में मिल गया। दो कमरों के बीच एक बाथरूम था और दूसरे कमरे में अब कोई आने वाला नहीं था,तो फिर मुझे कोई समस्या नहीं थी। कमरा परदे वगैरह के साथ वेल–मेंटेन था। ढंखर में रूकने की मेरी कोई योजना नहीं थी। लेकिन पता चला था कि ढंखर गाँव से ऊपर एक झील है जहाँ ट्रेकिंग करके जाना पड़ेगा तो मैंने रूकने की योजना बना ली थी। क्योंकि अब मेरा अगला पड़ाव पिन वैली में बसा मुढ गाँव था। मुढ की दूरी ढंखर से 50 किलोमीटर है और ढंखर से मुढ तक यह दूरी तय करने में काफी समय लगने वाला था क्योंकि यह 50 किलोमीटर देखने में छोटी दूरी लग सकती है लेकिन वास्तव में है नहीं।
तो अब मैं ढंखर में कमरा ले चुका था। कमरा लेकर व्यवस्थित होने के बाद मैं ढंखर झील के लिए निकल पड़ा। होटल का कर्मचारी मुझे सांत्वना दे रहा था कि झील बहुत दूर नहीं है। केवल एक घण्टे का रास्ता है। मैं उसकी बात को अनसुना कर झील के रास्ते पर चल पड़ा। पास ही खड़े लामाजी (बौद्ध भिक्षु) ने रास्ता और दिशा बतायी और मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। इस समय मैं मोबाइल के हिसाब से 3854 मीटर की ऊँचाई पर था और झील इससे भी अधिक ऊँचाई पर 4136 मीटर पर थी। तो साँसें फूलना लाजमी था। मैं बड़ी–बड़ी ऊँचाइयों को पार करता जा रहा था। ढंखर की यह ऊँचाई मेरे लिए वो अधिकतम ऊँचाई थी जहाँ मैं रात को ठहरने वाला था। 45 मिनट में लगभग 2 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए मैं झील तक पहुँच गया। रास्ते में तीन युवा भी मिले जो वापसी कर रहे थे। और जब मैं ऊपर झील तक पहुँचा तो बंगाल के चार लोगों की एक टीम वहाँ पहले से पहुुँची हुई थी जो एक–डेढ़ मिनट में ही वहाँ से वापस हो गयी। झील 4136 मीटर की ऊॅंचाई पर है। तेजी से चलते हुए झील के पास रूकने पर कुछ सेकेण्ड के लिए सिर चक्कर देने लगा लेकिन जल्दी ही यह स्थिति ठीक हो गयी।
आसमान में बादल घिरे हुए थे। इस वजह से झील का दृश्य जितना सुंदर दिखना चाहिए था,उसमें कुछ कमी आ गयी थी। सूरज चमक रहा होता तो शायद झील का सौन्दर्य निखर उठा होता। अब मैं झील के पास बिल्कुल अकेला था। झील चारों तरफ से छोटी छोटी पहाड़ियाें से घिरी हुई है। झील की अवस्थिति ऐसी है कि वहाँ से नीचे ढंखर का कोई दृश्य नहीं दिखायी पड़ता। उसके लिए किसी चोटी पर चढ़ना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में मन अजीब सी बातें सोचने लगता है।
ये नंगे पहाड़ बहुत ही उदास लगते हैं। कुछ–कुछ डरावने भी। ये झील और चोटियाँ तो रोज एक–दूसरे को देखते होंगे। इसलिए ये एक–दूसरे को बखूबी जानते होंगे। यहाँ शायद मैं ही अजनबी हूँ। लोग तो कुछ न कुछ नाम रख ही देते हैं– पियो तो पियक्कड़,बाइक चलाओ तो बाइकर,ट्रेकिंग करो तो ट्रैकर। लेकिन असली पहचान तो ऐसी जगहों पर आकर ही होती है। बियावान में बिल्कुल अकेले। सारी ताकत लगाकर चिल्लाने पर भी कोई सुनने वाला नहीं मिलेगा। इस समय की मनोदशा को शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता। इसका अनुभव ही किया जा सकता है। कुछ देर वहाँ टहलने के बाद मैं नीचे लौट पड़ा। लौटते समय एक बंगाली परिवार मिला जो झील की ओर जा रहा था। लेकिन आधे रास्ते से पहले ही उनकी हालत काफी खराब लग रही थी। साँसें फूल गयी थीं। मुझे तो उनके पहुँचने में भी संदेह लग रहा था। लगभग आधा रास्ता पार कर जाने के बाद पहाड़ की ऊँचाई से नीचे ढंखर गाँव,ढंखर मोनेस्ट्री और स्पीति नदी का दृश्य काफी सुंदर दिख रहा था। मेरे नीचे आते–आते बारिश शुरू हो गयी और धीरे–धीरे तेज होने लगी। वैसे बारिश इतनी ही थी कि कुछ मिनटों तक बिना भीगे बाहर टहला जा सकता था। मोनेस्ट्री के आस–पास के मैदान में भिक्षुओं वाले कपड़े पहने छोटे–छोटे बच्चे खेल रहे थे। नीचे आने के बाद मैंने बाइक पर एक नजर डाली। बाइक का चेन मुझे कुछ ढीला लगा। मैं सारे हथियार निकालकर चेन टाइट करने लगा। यह कारीगरी देख उन सारे छोटे बच्चों ने मुझे घेर लिया और मुझ पर सवालों की बौछार कर दी। इधर बारिश अपना रंग गाढ़ा करती जा रही थी। मैं जल्दी से चेन टाइट कर कमरे में भागा। किसी तरह भीगते–भीगते बचा। ब्रेक लगाने पर अगले ब्रेक शू में से घर्र–घर्र की आवाज भी आ रही थी जिसका मतलब था कि ब्रेक शू घिस चुका है और नया लगवाना पड़ेगा। लेकिन यह यह काम मेरे बस का नहीं था और यह काजा में ही संभव था।
कुछ ही देर में शाम गहराने लगी। हल्का धुँधलका छाने लगा। रिमझिम से भी कुछ धीमी बारिश पड़ रही थी। ढंखर में कई दिन से बिजली नहीं आ रही थी,इसलिए अँधेरा छाया हुआ था। इक्का–दुक्का जगहों पर सोलर लाइट की बत्तियाँ जल रही थीं। आम घरों और मेरे होटल में भी,मोमबत्तियों के सहारे जिन्दगी चल रही थी। बारिश की बूँदों के अतिरिक्त कहीं से भी किसी भी तरह की आवाज का कोई नामोनिशान नहीं मिल रहा था। नीचे की मंजिल पर किचेन में दो से तीन लोग थे और उससे ऊपर की मंजिल पर कमरे में मैं अकेला। अधिकांश ढंखर सन्नाटे में डूबा हुआ था। इस क्षेत्र में सर्वत्र व्याप्त स्पीति नदी,ढंखर में इतनी नीचे है कि उसका कलरव यहाँ तक पहुँचने में असमर्थ था। उसकी दूरी गाँव से इतनी है कि उसका शोर कहीं हवाओं में खो जाता होगा। मेरे कमरे में भी एक मोमबत्ती जल रही थी। बिल्कुल सजे–धजे कमरे की खिड़कियों से परदे हटाकर मैं बाहर फैले अँधेरे को चीरने की असफल कोशिश कर रहा था। ऐसे नीरव एकान्त में मन बिल्कुल दार्शनिक हो जाता है। मैं सोच रहा था कि काशǃ दुनिया की झंझटों में उलझा न होता तो यहीं किसी पहाड़ की गोद में एक छोटा सा घर बना लेता। इन नंगे पहाड़ों से बातें करना तब शायद और आसान होता। मैंने ढंखर से वादा किया कि ऐसी रात का अनुभव फिर से लेने के लिए मैं फिर से ढंखर आऊँगा। तभी साँय–साँय करती हवा,अधखुली खिड़की के रास्ते कमरे में आयी और मोमबत्ती बुझा गयी। और मैं मोमबत्ती जलाने की झंझट में उलझ गया।
थोड़ी देर बाद नीचे से सूचना आयी कि खाना तैयार है। मैंने 60 रूपये वाले पनीर परांठे का आर्डर दिया था। लम्बे–चौड़े रेस्टोरण्ट में,रिमझिम बारिश की टिप–टिप करती बूँदों की आवाज के बीच,मोमबत्ती की रोशनी में बिल्कुल अकेले बैठकर रात का खाना खाने का भी अपना मजा है। मेज पर तीन तरह की चटनियाँ अलग–अलग छोटी कटोरियों में ढक कर रखी हुई थीं लेकिन अँधेरे में उन्हें पहचानना मुश्किल हो रहा था कि कौन सी मीठी है और कौन तीखी। किचेन में तीन लोग थे लेकिन वे आपस में शायद बात भी नहीं कर रहे थे या फिर बहुत ही धीमी आवाज में मामूली बातें कर रहे थे। कई दिन से बिजली न होने से उनके मोबाइल भी चार्ज नहीं थे। मेरा काम तो पावर बैंक के सहारे चल रहा था।
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ढंखर के कमरे में मोमबत्ती के सहारे |
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गिउ गाँव में ममी वाली मोनेस्ट्री |
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गिउ की ममी |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ताबो की पुरानी मोनेस्ट्री |
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ताबो की गुफाएं |
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ढंखर की ऊँचाई से स्पीति नदी |
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ढंखर मोनेस्ट्री |
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ढंखर झील |
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ढंखर झील के पास से नीचे दिखती ढंखर मोनेस्ट्री और स्पीति नदी |
अगला भाग ः ढंखर से मुढ
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
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