इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–
यात्रा का सिद्धान्त है– चरैवेति। उपनिषद के इस सूत्र वाक्य को सार्थक करते हुए मुझे भी चलना ही था। बारिश आये या बाढ़,यात्रा तो करनी ही थी। जब यात्रा को उद्देश्य बनाकर यात्री घर से निकल चुका है तो यात्रा तो होनी ही है। अगर मौसम की बाधाओं के चलते मैं वापस लौटता तो मेरी आत्मा उसी तरह मुझे धिक्कारती,जिस तरह राहुल सांकृत्यायन अपने लेख ʺअथातो घुमक्कड़ जिज्ञासाʺ में एशियाई कूप–मण्डूकता को धिक्कारते हैं। सही भी है,अपनी घुमक्कड़ी के बल पर ही यूरोपियनों ने अमेरिका और आस्ट्रेलिया पर कब्जा कर लिया और हम भारतीय पीछे रह गये। खैर,मेरी यात्रा की उस जमाने की यात्राओं से कोई तुलना नहीं। मैं तो बस दस–बारह दिनों के लिए किसी अन्जानी जगह पर शांतिपूर्वक समय बिताने और उस जगह से परिचित होने के लिए निकला था।
अगले दिन सुबह के 7.30 बजे मैं शिमला से रवाना हो गया। लोगबाग शिमला में छुटि्टयाँ बिताने आते हैं,मैं केवल एक रात बिताने के लिए आया था। मेरी जिन्दगी में शिमला के लिए इतना ही समय था। बारिश बन्द हो चुकी थी। आसमान में बादल थे। मौसम सुहाना था। मैं हल्के कपड़ों में ही आगे की यात्रा के लिए चल पड़ा। चूँकि मेरा इकलौता जूता कल शाम की बारिश में भीग चुका था और अभी भी उसके पूरी तरह से सूखने के आसार नहीं थे तो मैंने सैण्डल पहन ली थी। ऊपर तो जैकेट पहनने की वजह से ठण्ड नहीं लग रही थी लेकिन पैरों में ठण्ड लगने लगी। ठण्ड तो नंगे हाथाें में भी लग रही थी लेकिन यह अभी बर्दाश्त की सीमा के अन्दर थी। शायद हाथों में पैरों से अधिक ताकत होती है। कुछ ही देर बाद एक चाय की दुकान पर रूककर मुझे पैरों में जूते पहनने पड़े। अब तक यह कुछ–कुछ सूख चुके थे और मोजे पहन लेने की वजह से ठण्डी हवा से कुछ राहत मिल गयी।
पहले से बनायी गयी योजना के अनुसार मुझे शिमला से 150 किलोमीटर के आस–पास की दूरी तय करनी थी। इस स्थिति में सराहन या फिर जेवरी तक मैं पहुँच सकता था। जेवरी सतलज किनारे नीचे बसा कस्बा है जबकि सराहन जेवरी से आठ–दस किलोमीटर की दूरी पर,ऊँचाई पर बसा स्थान है। मेरी योजना भागमभाग की तो बिल्कुल नहीं थी। जब मर्जी चलेंगे,जहाँ मर्जी ठहरेंगे और जब मर्जी खायेंगे। आँखों और मन को शांति देना ही मेरी इस यात्रा का पहला उदृदेश्य था। जिन्दगी का कुछ अंश तो पुरसुकून से गुजरे। रास्ते का सम्पूर्ण आनन्द लेते हुए चलने के हिसाब से मेरी योजना बिल्कुल भी गलत नहीं थी लेकिन कभी–कभार वो होता है जो हमने पहले से सोचा नहीं होता है।
और कभी–कभी अचानक में हुआ काम भी अच्छा हो जाता है।
नारकण्डा 2700 मीटर की ऊँचाई पर है जबकि रामपुर बुशहर 1020 मीटर पर। जाहिर है नारकण्डा पूरी तरह से एक हिल स्टेशन की तरह है जबकि रामपुर बुशहर बिल्कुल सतलज के किनारे नदी घाटी में बसा है। शिमला से नारकण्डा की दूरी लगभग 60 किलोमीटर है जबकि रामपुर बुशहर भी नारकण्डा से इतनी ही दूरी पर स्थित है।नारकण्डा अपने सेब के बगीचों के लिए प्रसिद्ध है। शांति से दो–चार दिन बिताने के लिए नारकण्डा अच्छी जगह है।इस यात्रा में इनमें से किसी भी स्थान पर ठहरा जा सकता है लेकिन एक दिन में केवल इतनी कम दूरी तय करना मुझे ठीक नहीं लगा।
इसी बीच नारकण्डा से कुछ किलोमीटर आगे इठलाती–बलखाती सतलज से मुलाकात हो गयी और दिल जवान हो गया। अब मुझे इस चंचल नदी के साथ साथ ही,इसकी धारा के विपरीत,बहुत दूर तक चलना था। मन तो कह रहा था कि काशǃ इस नदी के किनारे ही एक घर बना लेता।
शिमला से नारकण्डा और रामपुर बुशहर होते हुए स्पीति वैली की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर बसा जेवरी शिमला से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है। इस जेवरी से ही सराहन की चढ़ाई शुरू होती है। रामपुर बुशहर बिल्कुल नदी के किनारे नदी की निचली घाटी में अवस्थित है। यहाँ तक मौसम गर्म था और मुझे रास्ते में यहाँ तक बारिश भी नहीं मिली। रामपुर से आगे बारिश आ जाने के कारण एक चाय की दुकान में मुझे रूकना पड़ा। चाय पीते समय दुकान वाले से कुछ बातें हुईं। मैंने उससे सराहन में ठहरने के बारे में पूछा। उसकी सलाह ये थी कि आगे आप भाबनगर में रूक सकते हैं। आसानी से कमरा मिल जायेगा। उसकी यह सलाह मेरे दिमाग में बैठ गयी थी। वैसे भी चायवाला कोई दुकानदार नहीं वरन एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी था और अपने रिटायरमेण्ट के पश्चात सपरिवार इस खूबसूरत जगह पर जीवन–यापन कर रहा था। मुझे उसकी खुशकिस्मती पर जलन हो रही थी।
मैं जब जेवरी पहुँचा तो दिन के 1 या 1.30 बज रहे थे। इसी समय कमरा लेकर ठहरने का विचार मेरे गले नहीं उतरा। जबकि जेवरी में आसानी से कमरा मिल गया होता। जेवरी समुद्रतल से 1850 मीटर की ऊँचाई पर है जबकि सराहन 2300 मीटर की ऊँचाई पर। सराहन मुख्य मार्ग से हटकर है तो फिर सराहन जाने का कोई तुक नहीं बनता। तो चायवाले की सलाह के हिसाब से मैं भाबनगर को लक्ष्य कर आगे बढ़ गया। जेवरी से भाबनगर केवल 25 किलोमीटर ही है। लेकिन यह एक गलत निर्णय साबित हुआ।
हाँ इतना अवश्य हुआ कि चौरा और तराण्डा नामक स्थानों पर पहाड़ों की कटिंग का सुंदर दृश्य देखने को मिला। इसके फोटो इण्टरनेट पर बहुत देखने को मिलते हैं। वास्तव में पहाड़ की यह कटिंग और इसमें निकलती सड़क देखने लायक है। इसकी फोटो खींचने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई थी।
भाबनगर किन्नौर जिले में एक तहसील मुख्यालय है लेकिन यहाँ ठहरने के विकल्प सीमित हैं या फिर नहीं हैं। इसलिए भाबनगर की बजाय,पीछे की ओर जेवरी या सराहन अथवा आगे टापरी में ठहरने के बारे में सोचना उचित है। इस बीच बारिश भी शुरू हो चुकी थी। मैं घण्टे भर से अधिक भाबनगर में कमरे के लिए भटकता रहा। कभी किसी होटल के फेर में तो कभी बिजली विभाग के रेस्ट हाउस के फेर में। रेस्ट हाउस में तो पचास तरह की समस्यायें निकलीं और एक बिना नाम वाले होटल में,बिना अटैच्ड बाथरूम के 1000 रूपये से भी महँगे कमरे थे। किसी ने सलाह दी कि 20 किलोमीटर आगे टापरी चले जाओ,सस्ते कमरे मिल जाएंगे। मरता क्या न करता। टापरी की ओर कदम बढ़ा दिये। लेकिन यह मुई बारिश रूकने का नाम नहीं ले रही थी। भाबनगर से थोड़ा सा आगे बढ़ा तो बारिश तेज हो गयी। मैंने भी कसम खा रखी थी कि आज रेनकोट नहीं पहनूँगा। एक छोटी सी खुली मडई में शरण ली। लेकिन वहाँ एक अकेली महिला पहले से ही खड़ी थी जो किसी बस का इन्तजार कर रही थी। उस अकेली महिला को मुझसे डर लगा कि नहीं,ये तो मुझे पता नहीं पर मुझे उस अकेली महिला से अवश्य डर लग रहा था।
गूगल मैप से मैंने यह तो जान ही लिया था कि टापरी भी बिल्कुल नदी के किनारे है तो यह भी स्पष्ट था कि यह नीचे घाटी में ही होगा और नीचे बारिश की उम्मीद कम होगी। टापरी छोटा सा गाँव है। अब इसका यह नाम कैसे पड़ा,यह शोध का विषय है। शायद किसी जमाने में यहाँ कोई चाय की टपरी रही हो। रूकने के विकल्प यहाँ भी सीमित हैं लेकिन हैं अवश्य। सस्ते हैं तो अच्छे नहीं हैं और अच्छे हैं तो महँगे हैं। मैंने अपनी समझ से महँगा चुना। 800 का कमरा और 150 की थाली। लेकिन सब कुछ बहुत ही अच्छा था। बस थोड़ी सी गड़बड़ यह थी कि होटल में रेस्टोरेण्ट के साथ साथ बार भी था। थाली के लिए भी मुझे रेस्टोरेण्ट तक नहीं जाना था,बस फोन घुमाना था। देर रात तक रेस्टोरेण्ट–कम–बार में से आवाजें आती रहीं। मैं समझ रहा था कि बार में कथावाचन चल रहा है। वैसे मुझे इन आवाजों से कोई खास दिक्कत नहीं थी क्योंकि मेरा कमरा रेस्टोरेण्ट से काफी दूर था।
अगले दिन मुझे टापरी से आगे निकलकर भारत के आखिरी गाँव चितकुल तक जाना था। इसके पहले भी मैं उत्तराखण्ड में आखिरी गाँव माणा की यात्रा कर चुका हूँ। अब मुझे ये पता करना शेष है कि भारत में और कितने आखिरी गाँव हैं। पुरानी योजना के हिसाब से आज मैं टापरी के बजाय सराहन में ठहरा होता। लेकिन एक चायवाले की गलत सलाह की वजह से मैं काफी आगे बढ़ गया था,लेकिन आज मेरे लिए वही सलाह सही साबित होने वाली थी। मैं अपनी पूर्वयोजना से लगभग 50 किलोमीटर आगे बढ़कर ठहरा था। वैसे मौसम खराब नहीं होता तो मेरी योजना बिल्कुल ठीक रही होती लेकिन रात से ही टापरी में टिप–टिप बारिश जारी थी। सुबह भी रिमझिम बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। मैंने कमरे से चेकआउट कर होटल के पोर्च में अपने बैग जमा कर लिए थे। बाइक के साथ भी एक समस्या आ गयी थी। बिचारी को रोज रात में बाहर ही खड़ा होना पड़ता था। बाहर खड़ा होने में तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बारिश की वजह से दिक्कत आन पड़ी थी। बाइक के डिजिटल मीटर में कहीं से पानी घुस गया था और वह चमकने की बजाय भुक–भुक कर रहा था। मैंने बैग से प्लास्टिक का थैला निकाला और उसे कवर किया। बारिश कुछ धीमी पड़ रही थी तो मैंने दोनों बैग प्लास्टिक से ढककर बाइक पर बाँध दिये और सुबह के लगभग 8 बजे टापरी को अलविदा कर दिया। उल्लेखनीय है कि अब तक की यात्रा में मैं रेनकोट के प्रयोग से बचता आया था। मेरा मानना यह है कि शरीर पर बहुत अधिक कपड़े पहनकर और हाथ में दस्ताने लगाकर बाइक चलाने में दिक्कत आती है।
अगला भाग ः टापरी से सांगला
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
No comments:
Post a Comment