Friday, February 10, 2023

तीर्थन से वापसी

इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–

मनुष्य जीवन एक यात्रा है। यह यात्रा अनवरत चलती रहती है जब तक कि यात्रा का माध्यम अर्थात यह शरीर विराम न ले ले। यात्रा के अवरूद्ध होने का अर्थ होता है–मृत्यु। इस दीर्घ यात्रा के मध्य अनेक छोटी छोटी यात्राएं स्वचालित रूप से गतिमान होती रहती हैं। यात्रा आनन्द का सृजन करती है,अनुभव देती है,मेल–मिलाप कराती है,अनजानी संस्कृतियों के बारे में नजदीक से जानने का अवसर प्रदान करती है। स्थायित्व नीरसता उत्पन्न करता है। रूके हुए जल पर धूल की परत जम ही जाती है। मैंने भी अपनी जीवनयात्रा का एक छोटा सा अंश आज पूर्ण कर लिया था।इस अंशमात्र में मैंने सूखे–उजड़े पहाड़ देखे थे तो हरियाली से लदे–फदे पहाड़ भी देखे थे। प्राणिमात्र के लिए आवश्यक लेकिन शरीर को जलाती सूरज की किरणें भी देखीं थी। जीवन के लिए अनिवार्य लेकिन शरीर की नमी सोख लेने को आतुर,अनहद नाद उत्पन्न करती कठोर वायु का अनुभव किया था। भागमभाग को जीवन का पर्याय समझने वाले मनुष्यों का का जंगल देखा था तो कोसों तक फैला बियावान भी देखा था। हर परिस्थिति में जीवन का सृजन करती नदियों को देखा था। यात्रा का यह अंश समाप्ति की ओर था,इसलिए मन कुछ उदास था।

अगले दिन सुबह मुझे चण्डीगढ़ के लिए निकलना था,सो निकला।  दूरी कम तय करनी थी,लगभग 260 किलोमीटर। शाईरोपा से मैं कुमारसैंण होकर नारकण्डा,शिमला,सोलन के रास्ते भी चण्डीगढ़ पहुँच सकता था लेकिन यात्रा के आरम्भ में मैं इसी सड़क से गुजरा था तो यह रास्ता मेरी प्राथमिकता में नहीं था। वापसी में मैंने औट वाली सुरंग के बगल से गुजरते हुए,सुन्दरनगर–बिलासपुर वाला रास्ता चुना। दोनों की दूरी लगभग बराबर ही है तो क्यों न एक नये रास्ते से चला जायǃ तो मैं आराम से चला और शाम तक सड़कों का आनन्द लेते हुए चलता रहा। सुबह का रास्ता तो बहुत खूबसूरत था क्योंकि ब्यास नदी के किनारे–किनारे चलना था। लेकिन मण्डी के आस–पास ब्यास ने साथ छोड़ दिया। या फिर मैंने ही ब्यास का साथ छोड़ दिया। आगे जैसे–जैसे ऊँचाई घटती गयी,सितम्बर की ऊमस भरी गर्मी परेशान करने लगी।
चण्डीगढ़ में मुझे अपने छोटे भाई के यहाँ ठहरना था। इसके अगले दिन अम्बाला से ट्रेन के द्वारा मुझे गोरखपुर रवाना होना था और वहाँ से घर। चँकि मुझे अम्बाला में बाइक की बुकिंग भी करनी थी,इसलिए इस लेख में यह छोटी सी कहानी जोड़नी जरूरी है।

मेरा टिकट तो पहले से ही बुक था लेकिन बाइक की बुकिंग वहाँ पहुँचकर करनी थी। इस काम में सहूलियत के लिहाज से मैं ट्रेन के निर्धारित समय से काफी पहले अम्बाला रेलवे स्टेशन के पार्सल कार्यालय पहुँच गया। वहाँ काउंटर से आदेश मिला कि पहले गाड़ी को पैक करा कर लाइए। मेरे बलिया रेलवे स्टेशन पर तो बस यह बताने भर की देर थी कि बाइक बुक करनी है,सारी सेना मेरे ऊपर टूट पड़ी थी लेकिन यहाँ तो मामला उल्टा था। एक–एक काम के लिए आदमी ढूँढ़ना पड़ रहा था। उस पर भी एक बड़ी समस्या आन पड़ी। ये तो तय था कि गाड़ी आज बुक हो जाएगी लेकिन ट्रेन में आज लदेगी या कयामत के दिन,इसका कोई भरोसा नहीं था। मैं बाइक को आज ही ट्रेन में चढ़ाना चाह रहा था। क्योंकि तब यह मेरे साथ ही गोरखपुर उतर जाती और फिर मैं इसी बाइक पर सवार होकर अपने घर पहुँच जाता। वैसे तो मुझे अभी बाइक को ट्रेन पर चढ़ाना ही बड़ी समस्या लग रही थी लेकिन मुझे पता नहीं था कि इसे गोरखपुर में उतारना तो और भी टेढ़ी खीर होने वाली है। अब मुझे महसूस हो रहा था कि ट्रेन के झमेले में पड़ने से बेहतर तो यही रहा होता कि मैं ड्राइव करके ही घर पहुँच गया होता। लेकिन अब तक तो बाइक चलाने के लिए मुफीद,सुबह के कई घण्टे बेकार में बीत चुके थे। ट्रेन में मेरी अपनी टिकट भी पहले से बुक थी। हार मानकर मैंने बाइक बुक करने का फैसला किया। आगे जो होगा देखा जाएगा।

स्टेशन के बाहर के कैम्पस में पैकिंग करने वाला महारथी मिला। उसने पैकिंग के लिए केवल 500 की डिमाण्ड की। यह पैकिंग भी स्टेशन के बाहर सामने दिख रहे ओवर ब्रिज के नीचे एक सुरक्षित ठिकाने पर होनी थी। मरता क्या न करताǃ मैं सारा सामान लदी बाइक को लेकर कूड़े–कचरे के बीच उस सुरक्षित ठिकाने पर पहुँचा,जहाँ बाइक की पैकिंग होनी थी। बाइक पैक करने वाले ने लगे हाथ एक और निर्देश जारी किया और वो ये कि सड़क के उस पार फलां गली में,फलां दुकान पर एक फॉर्म मिलेगा। बाइक बुक करने के लिए उसे भर कर रेलवे को देना अनिवार्य है। मैं भागते हुए गया और फॉर्म खरीद लाया। पेट्रोल निकालने के लिए एक अदद बाेतल की भी जरूरत थी। ईश्वर की कृपा से वह मैं साथ लेकर गया था। इतने सारे काम और भाग–दौड़ करने वाला मैं अकेला। साँसें फूल गयीं।
इस बीच एक और दिलचस्प बात हुई। सामान बाँधने वाली रबर की रस्सियाँ खरीदने वाले दो लोग पहुँच गये। वे मेरी रस्सियाँ किसी भी कीमत पर खरीदना चाह रहे थे और मुझे बेचनी नहीं थीं क्योंकि आगे भी मुझे उनकी जरूरत पड़नी थी। मैं हैरत में था कि क्या ये रस्सियाँ यहाँ नहीं मिलती होंगीǃ किसी तरह उनसे पिण्ड छूटा।

सब कुछ के बाद आखिर बाइक बुक हो गयी। मेरी गतिविधियाँ देखकर काउण्टर पर बैठी महिला क्लर्क ने सहानुभूति भरे लहजे में सवाल किया–
ʺआज ही इसे ट्रेन पर चढ़ा लेंगे?ʺ
मैं आश्चर्यचकित रह गया। मुझे लगा कि वास्तव में यह असंभव सा काम है। फिर भी मैंने हार मानना नहीं सीखा था। चूँकि गरज मेरी थी तो फिर अपना सारा सामान और बाइक मैंने उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचायी जिस पर ट्रेन आनी थी। यहाँ मुझे वही वर्दीवाला बन्दा मिला जो बाइक उतारने के समय मिला था। मैंने दीन–हीन बनकर उससे निवेदन किया,लेकिन उस दिन वह हिन्दुस्तान का सबसे व्यस्त आदमी था। उसके कान पर जूँ नहीं रेंग रही थी। मैं समझ रहा था कि वह बस रेट बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहा था। आखिर किसी तरह दस मिनट तक चले मोल–भाव और चिरौरी–विनती के बाद कागज के कुछ नोटों के बदले बात बन सकी। बाइक उसके हवाले कर मैं ट्रेन का इंतजार करने लगा। उसने मेरा फोन नंबर भी लिया ताकि बाइक चढ़ाने के बाद मुझे सूचित कर सके। वैसे बाइक को सुरक्षित तरीके से ट्रेन में चढ़ाने की पूरी जिम्मेदारी लेने के बाद उसने एक चेतावनी भी दी–
ʺभई,यहाँ तो तुम्हारी बाइक मैं बिल्कुल ठिकाने से लगा दूँगा लेकिन दिल्ली वालों का कोई भरोसा नहीं है। वहाँ तो बस वो हाल करते हैं कि पूछो मत।ʺ

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रोऊँ या हँसू। फिर भी मैं अपनी जिद पर कायम था। ट्रेन आयी और मैं सवार हुआ,यह दुआ करते हुए कि मेरी बाइक भी सवार हो जाय। लेकिन अगले आधे घण्टे तक उसका फोन नहीं आया। मेरी उम्मीद धुँधली हो रही थी कि अचानक उसका फोन आया कि–
ʺभई मैंने तो बाइक चढ़ा दी लेकिन दिल्ली में देख लेना।ʺ
मैं निश्चिन्त हो गया। वैसे भी मुझे करना कुछ नहीं था। चार–पाँच घण्टे की यात्रा के बाद जब ट्रेन दिल्ली में रूकी तो मैं सिर पर पाँव रखकर भागा। मेरी बोगी बिल्कुल आगे की ओर थी जबकि बाइक बिल्कुल पीछे लदी थी। जब मैं लगेज वाली बोगी के सामने पहुँचा तो आँखें फटी रह गयीं। सामानों का मेला लगा था,ट्रेन में चढ़ने के लिए। इतना सामान तो इस एक बोगी में चढ़ाने के लिए डण्डे से ठेल–ठेल कर भरना पड़ेगा। फिर मेरी बाइक की क्या दशा होगीǃ तभी बोगी के अन्दर नजर गयी। सामने दुनिया का शायद सबसे बड़ा अजूबा मुझे दिखायी पड़ा– एक बाइक ऊपर,आसमान की ओर जा रही थी। मैंने आँखें मींच कर फिर से देखाǃ यह सच था या फिर मेरी नजरों का भ्रमǃ
एक बाइक को बोगी की दीवार के सहारे उर्ध्वाधर मुद्रा में खड़ा किया जा चुका था और अब मेरी बाइक का नंबर था। योजना ये थी कि बाइक को उर्ध्वाधर खड़ा करके उसके चारों ओर इतने सामान के बोरे भर दिये जायं कि बाइक बिचारी को हिलने का भी अवसर भी न मिले। अगर मेरी बाइक के साथ ऐसा होता तो उसका पीछे वाला मडगार्ड टूट जाता क्योंकि यह कुछ अधिक लम्बा है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ था। फिर भी मैंने आपत्ति की और साथ में वीडियो बनाना भी शुरू कर दिया। मेरी आपत्ति पर तो वहाँ काम कर रहे सुपरवाइजर ने ध्यान दिया लेकिन वीडियो बनाने पर भड़क गया। नौबत झगड़े की आ गयी। ट्रेन भी रवाना होने वाली थी। नतीजतन मैं मोबाइल जेब में रखकर भागा और मेरी बाइक भी पहले की ही तरह अर्थात क्षैतिज अवस्था में खड़ी रह गयी। हाँ,उसके ऊपर भी सामान लदा कि नहीं या फिर लदा तो कितना लदा,मुझे नहीं पता।

बाइक ट्रेन में चढ़ तो गयी थी,अब उतारने की समस्या थी। इतना तो तय था कि रेलवे के कर्मचारी इसे अपनी मर्जी से मेरे गंतव्य पर नहीं उतारेंगे। मैंने सभी संभव विकल्पों पर सोचना शुरू किया। एक विकल्प तो यह था कि रेल मदद एप्प पर शिकायत दर्ज कराकर बाइक को उतारा जाय और दूसरा यह कि किसी मित्र को स्टेशन पर पहले से भेज कर बाइक को उतारने का प्रयास किया जाय। मैंने दोनों उपायों का सहारा लिया। रेल मदद एप्प पर मेरी शिकायत दर्ज हो गयी और उधर से आश्वासन भी मिला लेकिन मुझे पूरा भरोसा नहीं हो सका। आखिर दूसरा उपाय ही काम आया। एक बड़े भाई जैसे मित्र को मैंने गोरखपुर स्टेशन पर पहुँचने का निवेदन किया। उनके प्रयास से बाइक ट्रेन से उतर सकी अन्यथा निश्चित ही आगे चली गयी होती।

मैंने ट्रेन से उतरकर मित्र को धन्यवाद दिया,बाइक पर अपना सामान बाँधा और 120 किलोमीटर की दूरी तय कर घर की ओर रवाना होने से पहले इस बात की कसम खायी कि–

ʺभविष्य में कभी भी अपनी बाइक को ट्रेन में बुक नहीं करूँगा।ʺ 


सम्बन्धित यात्रा विवरण–

No comments:

Post a Comment

Top