Friday, November 11, 2022

दूसरा दिन– अम्बाला से शिमला

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अगले दिन सुबह जब ट्रेन अम्बाला पहुँची तो मैं आराम से ट्रेन से उतरा। चूँकि ट्रेन अम्बाला तक ही जाती है इसलिए इस बात की चिन्ता तो कतई नहीं थी कि ये बैरन रेल मेरी बाइक को लेकर आगे चली जाएगी। लगेज वाली बोगी में मेरे अलावा एक और बाइक सवार थी जो बलिया से ही ट्रेन में सवार हुई थी। मेरी ʺअंतिम इच्छाʺ के अनुरूप मेरी बाइक को सिंगल स्टैण्ड पर ही खड़ा किया गया था जबकि साथ वाली बाइक डबल पर खड़ी थी। चूँकि मेरी सीट आगे की बोगी में थी तो मुझे पीछे लगेज वाली बोगी तक पहुँचने में कुछ समय लगा। लगेज वाली बोगी के पास कुछ गतिविधियाँ हो रही थीं जिन्हें मैं दूर से ही देखते हुए आ रहा था। सिंगल स्टैण्ड पर खड़ी मेरी बाइक बायें झुकते हुए,डबल स्टैण्ड पर खड़ी बाइक से बड़े ही जोशोखरोश के साथ शरीर रगड़ रही थी। उस बाइक के साथ दो–तीन लोग थे। लगेज का इंजार्च अकेला वर्दीवाला कर्मचारी था।
लेकिन बाइक उतरवाने की उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी। हो भी क्योंǃ रेलवे ने बाइक को एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक पहुँचाने का भाड़ा लिया है,लादने–उतारने का जिम्मा थोड़े न लिया है। अब रेलवे यात्री से किराया लेती है तो भी यात्री अपने पैरों पर चलकर ही ट्रेन में चढ़ता–उतरता है। उसके लिए कुली थोड़े लगाये जाते हैंǃ तुमको जल्दी हो तो हाथ लगाओ,बाइक उतर जायेगी। कड़क आवाज में जारी उसके धाराप्रवाह भाषण में अरस्तू की दार्शनिकता झलक रही थी। मैंने मन ही मन उसे साष्टांग दण्डवत किया। दूसरी बाइक के मालिकों ने हाथ लगाकर बड़ी ही बेरहमी से मेरी और अपनी बाइक उतरवायी। मैं कुछ कदम के फासले से इस सर्कस को बेटिकट देख रहा था। मेरी बाइक दरवाजे के पास थी इसलिए उसे पहले उतारना मजबूरी थी। लेकिन केवल इतने से ही समस्या समाप्त नहीं हुई। बाइक को प्लेटफार्म से बाहर ले जाना भी अपनी ही जिम्मेदारी थी। रेलवे क्या–क्या करे और कितनी जिम्मेदारियाँ निभायेǃ मेरे पास दो भारी भरकम बैग थे जिन्हें पीठ पर लादकर बाइक के साथ ले जाना संभव नहीं था। कोई कुली भी आस–पास नहीं दिख रहा था जिससे मैं मदद ले सकूँ। सारे कुली अब तक अपने ग्राहक पकड़ बाहर की ओर निकल चुके थे। अकेले यात्रा का पूरा मजा आना शुरू हो चुका था। साथ वाली बाइक को तो उसके साथ वाले ले गये लेकिन मैं अभी अपनी बाइक को कुछ दूरी से करूणापूर्ण नेत्रों से निहार रहा था। तभी एक कड़कती आवाज कानों में पड़ी–
ʺतेरी है?ʺ
मैंने चौंक कर अपने कान खड़े कर लिए। तभी वही आवाज एक बार फिर गूँजी–
ʺमैं पूछ रहा हूँ ये बाइक तेरी है?ʺ
मैं अपने और अपनी बाइक के इस सम्मान पर भावविह्वल हो उठा। लगेज वाली बोगी का इंजार्च वही वर्दीवाला किसी प्रतिष्ठित न्यूज चैनल के बड़े रिपोर्टर की भाँति मुझसे सवाल दाग रहा था।
बड़े ही दीन–हीन स्वर में मैंने उत्तर दिया–
ʺहाँ यह अभागी मेरी ही है।ʺ
ʺतो ले जाना हो तो ले जाओ क्योंकि मैं अकेला हूँ और अगले दो–तीन घंटे तक खाली नहीं रहूँगा।ʺ
वैसे मेरे देखने में वह व्यस्त बिल्कुल नहीं दिख रहा था।

उसने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की भाँति अंतिम निर्णय सुना दिया था। अब और किसी सवाल की गुंजाइश नहीं दिख रही थी। मैंने भी अंतिम निर्णय ले लिया था। एक किलोमीटर से कुछ अधिक की दूरी तय करते हुए पहले मैंने पार्सल कार्यालय तक अपने दो बैग पहुँचाये। वहाँ काउण्टर पर बैठी महिला कर्मचारी से सारी रामकथा सुनाकर अपने बैग कुछ देर के लिए वहाँ रखने की इजाजत माँगी। भारतीय रेल जब टॉयलेट में बैठकर हजारों किलोमीटर की यात्रा करने की इजाजत दे सकती है तो मुझे तो कुछ मिनटों के लिए बैग ही रखने थे। महिला कर्मचारी को शायद मेरे ऊपर दया आ गयी और उसने मेरा सामान एक कोने में रखने की इजाजत दे दी। वैसे भी महिलाओं को पुरूषों पर दया कुछ अधिक ही आती है। फिर बाइक लेने के लिए उल्टे पैर वापस भागा। प्लेटफार्म पर यात्रियाें की भारी भीड़ थी– ʺदेश–देश के भूपति नाना।ʺ प्लेटफॉर्म तो यात्री के लिए घर जैसा होता है। जहाँ मर्जी बैठे,जहाँ मर्जी सोये। मेरे लिए खाली हाथ प्लेटफार्म चेंज करना कोई बड़ी समस्या नहीं थी क्योंकि ऐसी आपदा वाली स्थिति में ओवर ब्रिज के बजाय पैदल ही लाइन क्राॅस करने की छूट होती है। इन सब कलाओं में मुझे महारत हासिल है। लेकिन बाइक को बहलाते–फुसलाते पार्सल कार्यालय तक लाने में पसीने छूट गये। क्योंकि प्लेटफॉर्म के विभिन्न भागों पर भिन्न–भिन्न भूपतियों ने कब्जा कर रखा था। उन्हें क्या पता कि यहाँ बाइक भी आ सकती है। बाइक भी अपनी पीठ पर बैठे आदमी की बात आसानी से सुनती है और झटपट एंगल और डाइरेक्शन बदल लेती है लेकिन पैदल डगराने वाले के सामने वो भी अपने ढेर सारे नखरे दिखाती है।

जल्दी–जल्दी बाइक को रेलवे के नियम–कानूनों के चंगुल से मुक्त कराया और गुस्से में वहीं,प्लेटफार्म पर ही बाइक की सारी पैकिंग फाड़कर नंगा कर दिया। इस प्रक्रिया में प्लेटफार्म भीषण रूप से गंदा हो गया। भयानक प्रदूषण फैल गया। प्लेटफार्म पर इतनी गंदगी देख एक कर्मचारी मुझसे उलझ गया। इतने भारी जुर्म की वजह से उससे दो–ढाई सेकण्ड तक बकझक भी हुई। मैं सोच रहा था कि यदि रेलवे की औपचारिकताएं पूरी किये बिना बाइक लेकर चला जाऊँ तो? कोई भी यहाँ पूछने वाला नहीं था। लेकिन फिर हो सकता है कि रेलवे मेरी बाइक को खोजना शुरू कर दे और मैं ही चोर मानकर पकड़ा जाऊँ।

उक्त सारी प्रक्रिया और बाइक को पार्सल कार्यालय से बाहर निकालकर,पेट्रोल डालकर,बैग बाँधकर चलने के लिए तैयार करने में डेढ़ घंटे खप गये। खप गये या यूँ कहें कि बर्बाद हो गये। वैसे भी यह समय बचाने का कोई उपाय नहीं था। इतना समय तो लगना ही था। 9 से 10.30 बज गये। जिस तरह अर्जुन को सिर्फ मछली की आँख दिखी थी उसी तरह अब मुझे स्पीति वैली दिख रही थी। जबकि पेट में सुबह से अब तक सिर्फ एक कप चाय ही गयी थी। वैसे भी खाने की इच्छा नहीं कर रही थी। तो मैं सिर्फ ʺपीते हुएʺ हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला की ओर रवाना हो गया। रास्ते में जो कुछ भी मिला– मसलन पानी,नीबू पानी,मिल्क शेक वगैरह–वगैरह,मैं पीता रहा। मौसम मेरे साथ था। बादल घिरे हुए थे तो सितंबर अथवा क्वार मास की तेज धूप से मुझे प्रकृति प्रदत्त सुरक्षा मिल रही थी। बारिश होने की भी संभावना नहीं दिख रही थी। अतः बाइक की यात्रा में किसी प्रकार की बाधा नहीं थी। अंबाला से निकलकर पंचकुला पहुँचने तक चौड़ी–चौड़ी सड़कें और बड़े–बड़े फ्लाई ओवर मुझे कहीं–कहीं भ्रम में डाल रहे थे। क्योंकि इन सड़कों पर मैं पहली बार अपनी बाइक चला रहा था। मैं पूर्वी यूपी के एक छोटे से गाँव का रहने वाला देहाती आदमी यही सोच रहा था कि ऐसे बड़े–बड़े शहर बसाने और इतनी लम्बी–चौड़ी सड़कें बनाने का काम तो भगवान ही कर सकता है,आदमी तो कतई नहीं।
हरियाणा की सीमा तक तो बाइक वायुवेग से भागती रही क्योंकि चार लेन की जबरदस्त सड़क बनी हुई है। लेकिन हिमाचल की सीमा शुरू होते ही निर्माणाधीन 4 लेन की सड़क ने स्पीड धीमी कर दी। यह राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 5 है जो आगे की यात्रा में काफी लम्बी दूरी तक,खाब में सतलज और स्पीति के संगम तक मेरा साथ निभाता रहा। ट्रैफिक भी अत्यधिक मिलता रहा। लेकिन बलखाती–लहराती सड़कों पर बाइक चलाने का अपना अलग ही आनन्द है और हिमालय के पहाड़ों पर मैं पहली बार बाइक चला रहा था। 

शाम के 3.30 बजे लगभग 150 किलोमीटर की दूरी तय कर मैं शिमला पहुँचा। यह मेरे लिए पहली शिमला यात्रा थी। दिन भर की बाइक यात्रा में मौसम ने बखूबी साथ निभाया था। बादल घिरे हुए थे लेकिन एक बूँद भी बारिश नहीं हुई। इस तरह मैं धूप और बारिश दोनों से बचा रहा। वैसे तो कोशिश करने पर मैं शिमला से आगे कुफरी,ठियोग या फिर नारकण्डा भी पहुॅंच सकता था लेकिन मेरी इच्छा शिमला में ही एक रात रूकने की थी। थोड़ा शिमला का भी मजा लिया जाय। तो फिर शिमला में ही आशियाने की तलाश शुरू हुई। शिमला की सड़कों की कोई जानकारी न होने के कारण मैं रात्रि का ठिकाना खोजने के लिए कुछ देर भटकता रहा और इस बीच रिमझिम बारिश भी शुरू हो गयी और काफी देर तक चलती रही। बारिश इतनी तेज नहीं थी कि मैं बैठकर इसके बन्द होने का इन्तजार करता। ठिकाना खोजने की जद्दोजहद में देर तक भटकने के एवज में मुझे यह सजा मिल रही थी। लेकिन बारिश की ही तरह, कमरे की तलाश में मैं भी चलता रहा और तब तक चलता रहा जब तक कि कमरा नहीं मिल गया। इस जुनून में बारिश ने मु्झे पूरी तरह सराबोर कर दिया। पैण्ट–शर्ट से लेकर जूते तक,सब कुछ भीग गया। वैसे यह मायावी बारिश मामूली नहीं थी। अपनी गति में बदलाव करती यह बारिश पूरी शाम और पूरी रात जारी रही। मैं शिमला की शाम में,शिमला की सड़कों पर टहलने के लिए बेताब हुआ जा रहा था और बारिश थी कि मेरी इस बेताबी को बढ़ाती ही जा रही थी।

शिमला,एक ऐसी जगह जिसकी हवाओं की उपमा दी जाती है। श्यामला देवी के नाम पर बसे इस शहर को आज के लगभग 200 साल पहले अंग्रेजों ने पहचाना था। 19वीं सदी के आरम्भ में गोरखा युद्ध के बाद 1819 में अंग्रेज प्रशासकों ने इसे स्थापित किया। उस समय यह स्थान हिंदू देवी श्यामला के नाम पर अत्यन्त लोकप्रिय था। 1864 में यह शहर ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन बना और यह स्थिति 1947 तक बनी रही। तब से आज तक यह एक छोटे से गाँव से,एक बड़े शहर में बदल चुका है। बड़ा शहर इस मायने में कि यह एक लम्बे समय तक ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रहा। आज भी हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। नहीं तो जनसंख्या के दृष्टिकोण से यह एक छोटा शहर ही है। हाँ,पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यह जनसंख्या भी बहुत है। शिमला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना तब हुई जब 1906 में कालका–शिमला रेल लाइन का निर्माण हुआ। इस रेल लाइन की वजह से देश के अन्य भागों से शिमला तक की पहुँच आसान हो गयी। 1876 में शिमला को अविभाजित पंजाब की राजधानी घोषित किया गया। 1971 में पंजाब के पहाड़ी जिलों को अलग कर हिमाचल प्रदेश नामक राज्य बनाया गया और शिमला इस प्रदेश की राजधानी बनी। अंग्रेजों द्वारा इस जगह की खाेज किये जाने के बाद से यहाँ मेरे पहुँचने में दो सौ साल लग गये। और आज भी मैं यहाँ सिर्फ एक रात बिताने के उद्देश्य से पहुँचा था क्योंकि मेरा गंतव्य तो कहीं और था। 

बारिश के धीमी होते ही मैं कमरे से बाहर निकला और माल रोड की ओर दौड़ लगा दी। इस बेतुकी बारिश ने मुझे एक छाता खरीदने पर भी मजबूर कर दिया। बारिश का भी कोई तुक होता है क्याǃ यह शायद मुझे ही बेतुकी लग रही थी। क्योंकि संभवतः मैं ही बेतुके समय पर यहाँ आया था। लेकिन फिर एक बेतुका सवाल– यहाँ आने का भी कोई समय होता है क्याǃ नहीं,बिल्कुल नहीं। पहाड़ों की सुंदरता को अगर देखना हो तो बारिश से बेहतर दूसरा समय हो ही नहीं सकता।
वैसे मेरी पहली जरूरत इस समय भोजन की थी। काफी कुछ खोजने पर दो रेस्टोरेण्ट मिले। मैंने दोनों में बात की। दोनों की शर्तें लगभग एक जैसी ही थीं लेकिन एक ने तो बिल्कुल टका सा जवाब दे दिया– ʺ7 बजे के पहले खाना नहीं मिलेगा।ʺ शायद वह डर रहा था कि 7 बजे के पहले मैं खाना खाने बैठा तो उसका सारा खाना खा जाऊँगा। मैं समय बिताने के लिए सड़क पर टहलता रहा। रिमझिम बारिश में भीगे शिमला का सौन्दर्य कुछ बढ़ सा गया था। साथ ही अब मेरे पास छाता भी था। मेरी गलती यह थी कि मुझे छाता घर से ही लाना चाहिए था लेकिन वो गलती अब दूर हो चुकी थी। 7 बजे के बाद जब एक रेस्टोरेण्ट में मैं पहुँचा तो वहाँ काम चालू होने वाला था। रेस्टोरेण्ट वाले पहले अपने लिए खाना बनाकर खाने की तैयारी में थे। इसके बाद मेरा नंबर था। यह व्यवस्था मैं पहली बार देख रहा था। खाना खाने के बाद जब मैं वापस लौटा तो अँधेरे की वजह से रास्ता भटक गया। गूगल मैप की मदद से होटल पहुँचा। 














अगला भाग ः शिमला से टापरी

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी

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