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अगले दिन सुबह के समय सांगला में भी रिमझिम बारिश होती रही। मु्झे इस बारिश और अपनी किस्मत पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन कोई चारा नहीं था। सुबह के आठ बजकर 10 मिनट पर बारिश बन्द होते ही मैं सांगला से रवाना हो गया। बारिश की वजह से रास्ता और भी खराब हो गया था।
करचम में बास्पा अपने अंतिम पड़ाव में,अपना स्वत्व सतलज को सौंप देती है। वैसे तो अपने अंतिम स्थल पर नदी बिल्कुल धीमी हो जाती है लेकिन करचम में बने बाँध ने बास्पा को और भी धीमा कर दिया है। तो मैंने भी कराहती हुई बास्पा से विदा ली और एक बार फिर सतलज के साथ हो लिया।
सुबह के 10 बजे तक मैं रिकांग पिओ में था। वैसे तो आज मुझे नाको तक जाना था और रिकांग पिओ जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी,लेकिन मुझे गमबूट खरीदना था। आवश्यक सामान खरीदने और ठहरने के लिए रिकांग पिओ अच्छा और बड़ा मार्केट है। फिलहाल तो गमबूट की भी कोई अधिक आवश्यकता नहीं दिख रही थी लेकिन मौसम के मिजाज को देखते हुए यह निर्णय लेना पड़ा। रिकांग पिओ या फिर संक्षेप में केवल पिओ,मुख्य मार्ग से अलग हटकर काफी ऊँचाई पर स्थित है। सांगला से पिओ की दूरी 37 किलोमीटर है। रिकांग पिओ की समुद्रतल से ऊँचाई 2290 मीटर तथा मुख्य मार्ग से दूरी लगभग 5 किलोमीटर है। मुख्य मार्ग से पिओ की ओर जाने के लिए तीखी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। दो दिन पहले जब मु्झे भाबनगर में कमरा नहीं मिल रहा था तो एक महिला ने पिओ जाने की सलाह दी थी। लेकिन मेरी तो मंजिलों का कोई ठिकाना ही नहीं था। वैसे होटल,रेस्टोरेण्ट या फिर जरूरत की वस्तुएँ खरीदने के लिए पिओ बहुत अच्छा मार्केट है। पिओ के बाद स्पीति वैली में ऐसा मार्केट उपलब्ध नहीं है। मेरी बाइक चितकुल के पास सिंगल स्टैण्ड धँसने से उलट गयी थी जिससे उसका क्लच लीवर टेढ़ा हो गया। पिओ में मैंने एक कार मैकेनिक के पास जुगाड़ यंत्र की सहायता से उसे सीधा कराया। वैसे वो मैकेनिक मुझे किसी बाइक मैकेनिक के पास भेजने के फेर में था क्योंकि उसके पास आवश्यक यंत्र नहीं थे। लेकिन मैंने उसे क्लच लीवर को सीधा करने के लिए आवश्यक जुगाड़ यंत्र के बारे में जानकारी दी और तब वो बाइक में हाथ लगाने को तैयार हुआ।
पिओ में मेरे लिए और कोई काम नहीं था तो मैं सीधा वापस नीचे उतरने लगा। लेकिन जल्दी ही मुझे काम मिल गया। अभी मैं मुख्य मार्ग से कुछ दूर पिओ की तरफ ही था कि बाइक लहराने लगी। सूत्रों से पता चला कि अगला पहिया पंक्चर हो गया है। मैंने नीचे मुख्य मार्ग पर आकर रास्ते में खड़े होकर बस का इंतजार करते दो लोगों से पंक्चर वाले का पता पूछा। पता चला कि मुझे पीेछे की ओर एक–डेढ़ किलोमीटर जाना पड़ेगा। पीछे की ओर मतलब वापस करचम की ओर। और कोई विकल्प नहीं था। वैसे तो मेरे पास पंक्चर रिपेयर किट थी लेकिन मैं उसे आपात प्रयोग के लिए बचा कर रखना चाहता था। बताये गये पते पर पंक्चर वाला मिल गया लेकिन उसे मेरा पंक्चर बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। क्योंकि वह केवल पंक्चर वाला न होकर मल्टीपरपज मिस्त्री था और उसे किसी बड़ी गाड़ी में कोई बड़ा काम मिला हुआ था। हाँ,उस मिस्त्री ने मेरा इतना भला अवश्य किया कि एक अन्य पंक्चर वाले का पता बताकर एक–डेढ़ किलोमीटर और पीछे भेज दिया। वास्तव में ट्यूबलेस टायर की अहमियत इसी वक्त समझ आ रही थी। मैं जब अगले मिस्त्री के पास पहुँचा तो वो भी एक बड़ी गाड़ी के इंजन के बिल्कुल भीतर घुसा हुआ था। मैं उसके सामने भी गिड़गिड़ाया लेकिन उसने बिना मेरी तरफ देखे सवाल दाग दिया–
ʺट्यूबलेस है?ʺ
मेरा जवाब हाँ में सुनकर उसने अपने चेले को आदेश जारी किया–
ʺट्यूबलेस है। केवल सुई लगानी है।ʺ
मेरी जान में जान आयी। चेले ने सुई लगाने से पहले बारीक निरीक्षण किया। पता चला कि शीशे का टुकड़ा धँस गया था। वैसे पंक्चर से मैं अकेले परेशान नहीं था। एक आर्मी का ट्रक ड्राइवर भी अपनी पंचर ट्रक को लेकर परेशान था। उसका भी पंक्चर बनाने वाला कोई नहीं था। उसे सिर्फ यही जवाब मिल रहा था कि बड़ी गाड़ियों का पंक्चर यहाँ नहीं बनता। हाँ मेरे अपने राज्य उत्तर प्रदेश और यहाँ पंक्चर रिपेयर के रेट में कोई अंतर नहीं था,केवल 50 रूपये।
आज की मेरी यात्रा भी रोज की ही तरह चल रही थी। मतलब सुबह के समय पेट में केवल पानी और चाय। दोपहर में ब्रेकफास्ट। वैसे आज ऊपर से आने वाले पानी अर्थात बारिश से भी,सुबह से ही पूरी तरह मुक्ति मिल चुकी थी। तो दोपहर के लगभग सवा बारह बजे मैं सड़क किनारे एक ढाबे में रूका। 50 रूपये में भर प्लेट गोभी परांठा और दही का नाश्ता शानदार रहा। इस समय मैं रिकांग पिओ से लगभग 40 किलोमीटर आगे था। वैसे तो पिओ से आगे निकलने के बाद ही मुझे माहौल में कुछ परिवर्तन होता महसूस हो रहा था लेकिन अब यह परिवर्तन धीरे–धीरे स्पष्ट हो रहा था। अब मैं महा–हिमालय श्रेणी को पार कर उस पार जाने वाला था। हरियाली में धीरे–धीरे कमी होती दिख रही थी। इसके कुछ किलोमीटर पहले रिब्बा नामक स्थान के पास एक पुलिस चेक–पोस्ट पर इन्ट्री भी करानी पड़ी। इन्ट्री कराते वक्त मैं सोच रहा था– हिमालय के उस पार जाने वालों में आज मेरा नाम भी दर्ज हो ही गया।
कुछ किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद परिवर्तन बिल्कुल स्पष्ट होने लगा। वही हिमालय था,वही सतलज थी,वही देश और मैं भी वही था। लेकिन अब बहुत कुछ बदलने वाला था। बाइक चलती जा रही थी। इसे माहौल के बदलने से कुछ खास सरोकार नहीं था। लेकिन मुझे था। जो बारिश मुझे कई दिनों से परेशान करती आ रही थी,वह अब पूरी तरह गायब होती दिख रही थी। सारी परेशानियाँ सहने के बाद अब मैं खुश था। जिस दुनिया में जाने की सोच कर चला था वह अब मेरे सामने आने वाली थी। एक अनजानी दुनिया अर्थात हिमालय पार की दुनिया। थोड़ी ही देर बाद मैं पूह में था। समुद्रतल से 2600 मीटर की ऊँचाई पर रिकांग पिओ से 70 किलोमीटर दूर। कुछ ही देर पहले परांठे खाने के बावजूद मैं पूह में एक ढाबे पर अपने को चाय पीने से नहीं रोक सका। 10 की चाय काफी अच्छी थी। यह ढाबा एक ही परिवार की महिलाएं चला रही थीं। मैंने उनसे कुछ बातें कीं। मुझे सबसे अधिक डर स्पीति वैली की ठण्ड से था। तो मैं इस बारे में किसी से भी सवाल कर रहा था। मैंने यही सवाल आगे भी दुहराया।
ʺआगे ठण्ड अधिक मिलेगी क्या?ʺ
ʺनहीं लगभग इतनी ही रहेगी। ऊँचाई पर यहाँ से अधिक ठण्ड मिलेगी।ʺ
वैसे वास्तविकता यह थी कि अब तक ठण्ड से मुझे कोई खास समस्या नहीं आयी थी। हाँ,मन में डर अधिक था। यह डर इधर–उधर से जुटाई गयी जानकारियों की वजह से अधिक था। क्योंकि विभिन्न वेबसाइटों और फेसबुक पर लोगों ने इतनी अधिक सावधानियाँ बतायी थीं कि वे डर पैदा कर रही थीं।
अगले कुछ ही किलोमीटर में मैं वास्तविक स्पीति घाटी में प्रवेश कर गया। पूह से लगभग 12 किलोमीटर आगे खाब संगम नामक स्थान है जहाँ सतलज और स्पीति का संगम होता है। दाहिनी तरफ अर्थात उत्तर–पूर्व की ओर से सतलज आती है जबकि बायें अर्थात उत्तर–पश्चिम दिशा से स्पीति प्रवाहित होती हुई आती है। यहाँ स्पीति सतलज में विलीन हो जाती है। यहीं से स्पीति वैली आरम्भ हो जाती है या यूँ कहें कि समाप्त हो जाती है क्योंकि यहाँ स्पीति सतलज में विलीन हो जाती है। अब सतलज को छोड़कर स्पीति के साथ चलने का समय आ चुका था। मैं तथाकथित शिमला साइड से स्पीति वैली जा रहा था और और मनाली साइड से मुझे वापस आना था। इस तरह मुझे स्पीति के प्रवाह के उल्टी दिशा में यात्रा करनी थी। जिस सड़क के सहारे मुझे चलना था उसे स्पीति,लोसर गाँव के कुछ पहले या पश्चिम की ओर सम्पर्क करती है और पूरब में खाब संगम के पुल (स्पीति और सतलज का संगम) के पास छोड़ देती है।
वैसे तो असली स्पीति घाटी खाब संगम के बाद ही मिलती है लेकिन पूह के बाद से पूरी तरह से हिमालय पार या स्पीति घाटी जैसे नजारे दिखने लगते हैं। लगता है हम किसी दूसरी दुनिया में आ गये हैं। क्योंकि मैंने तो ऐसे नंगे,बदन उघाड़े पहाड़ पहले कभी नहीं देखे थे। अब तक तो सिर्फ और सिर्फ पहाड़ों की रूमानियत ही मैंने देखी थी–
हरे–भरे जंगलों से ढके खूबसूरत पहाड़,जंगलों से ऊपर बुग्यालों की हरी–भरी घासें। घासों के ऊपर बर्फ से ढकी खूबसूरत चोटियाँ। और इन चोटियों पर तिरते सफेद बादल। अब तक अंग–प्रत्यंगों को ढके शर्मीले पहाड़ ही मैंने देखे थे लेकिन ऐसे नंगे–ढीठ पहाड़ों से पहली बार सामना हो रहा था।
वैसे तो पिओ के बाद से ही रास्ता खाली–खाली सा दिखने लगा था लेकिन पूह के बाद बिल्कुल ही खाली हो गया। आसमान में छ्टिपुट बादल थे लेकिन बारिश बिल्कुल बन्द हो चुकी थी। सड़क खूबसूरत थी लेकिन गाड़ियाँ नदारद। पहाड़ थे लेकिन जंगल और जलधाराएं बिल्कुल नहीं। सतलज घाटी में जहाँ सड़क बिल्कुल नदी किनारे–किनारे ही बनी है,पूरी स्पीति वैली में यह नदी के बिल्कुल पास से बहुत कम ही गुजरती है। आस–पास का धरातल और उस पर बनी सड़क खुद ही इतनी ऊँचाई पर है कि दूर तक देखने पर बहुत ऊँचे पहाड़ों का आभास कम ही होता है। आज मुझे नाको तक पहुँचना था और नाको तक पहाड़ियों के बीच से गुजरती सुनसान सड़क,बहुत ही सुंदर दिखती है। सुनसान रास्ता भी सुंदर होता है क्याǃ बिल्कुल,महसूस करने की बात है। कहीं–कहीं सीमा सड़क संगठन का काम करते कुछ मजदूर दिख जा रहे थे तो कहीं इक्का–दुक्का आर्मी की गाड़ियाँ।
नाको पहुँचने से कुछ पहले मैंने सड़क किनारे मिट्टी के बने छोटे घरों में रहने वाली एक महिला से नाको के बारे में पूछा। वह संभवतः मेरी भाषा नहीं समझी लेकिन नाको का नाम सुनकर मेरा मंतव्य समझ गयी। उसने सीधी उँगली ऊपर की उठाई। पहले तो मुझे लगा कि यह सीधा स्वर्गलोक की ओर इशारा कर रही है लेकिन जल्द ही समझ में आ गया कि दूरी अधिक नहीं है लेकिन ऊँचाई काफी चढ़नी है। नाको ठीक ऊपर की ओर था और वह उसी तरफ इशारा कर रही थी। खैर,ऊँचाई कोई समस्या नहीं थी। मैं ऊँचाई चढ़ने ही तो आया था।
अपराह्न के 3 बजे जब नाको के मुख्य चौराहे पर मेरी बाइक खड़ी हुई तो अनायास ही बगल की दुकान में खड़े एक आदमी ने पूछ लिया–
ʺकमरा चाहिए?ʺ
अन्धे को क्या चाहिए,दो आँखें। वैसे मेरी इस पूरी यात्रा में यह पहला और आखिरी आदमी था,जिसने मुझसे कमरा लेने के लिए पूछा था अन्यथा हर जगह मुझे खुद ही कमरे खाेजने पड़े। नाको एक बहत ही छोटा सा लेकिन बहुत ही सुंदर गाँव है। यह समुद्रतल से 3625 मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है,शिमला से 300 किलोमीटर दूर। मैं रोमांचित था,इस बात को लेकर कि इतनी ऊँचाई पर दूसरी बार रात बिताने जा रहा हूँ। इससे पहले अमरनाथ ट्रेक पर शेषनाग बेस कैम्प में भी लगभग 3700 मीटर की ऊँचाई पर रात बिता चुका हूँ। वैसे तो इससे काफी अधिक ऊँचाई हेमकुण्ड साहिब (4633 मीटर) में पार कर चुका था लेकिन वहाँ रात में ठहरना नीचे घांघरिया (3050 मीटर) में होता है। फूलों की घाटी भी 3600 मीटर की ऊँचाई पर ही है। यमुनोत्री (3293 मीटर),केदारनाथ (3583 मीटर),बद्रीनाथ (3300 मीटर),रूद्रनाथ (3600 मीटर) में भी रात को रूक चुका हूँ लेकिन इनकी ऊँचाई नाको से कम ही है। सितम्बर के महीने में ठहरने के लिए यहाँ कमरा खोजने की कोई जरूरत नहीं है। वह बिना खोजे मिल जाएगा। कमरे का रेट 800 से शुरू हुआ और मैंने रगड़ते–रगड़ते 550 तक पहुँचा दिया। कमरा अच्छा था। पूरी मकान सड़क के किनारे थी जबकि ठहरने वाले कमरे पीछे की ओर थे और बालकनी भी पीछे की ओर ही थी। सामने की ओर रेस्टोरेण्ट था। बालकनी से पूरे नाको का विहंगम दृश्य हिमालय की पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में बहुत ही सुंदर दिखायी पड़ रहा था। स्पीति वैली में आज मेरी पहली शाम थी।
मेरी इस यात्रा में आज पहला दिन था जब बारिश के आतंक से पूरी तरह से मुक्ति मिली थी। उछलने–कूदने के लिए सूखी जमीन मिली थी। टहलने के लिए सूखी सड़कें मिली थीं। मैं कैमरा लेकर नाको की गलियों में निकल पड़ा। नाको मोनेस्ट्री एक छोटी सी मोनेस्ट्री है जिसके आस–पास किसी आदमी का कोई अता–पता नहीं था। लेकिन मोनेस्ट्री के पास से नीचे की घाटी अपने पूरे परिदृश्य में खूबसूरत स्वरूप में दिखायी पड़ती है। क्योंकि नाको काफी ऊँचाई पर अवस्थित है। मैं नाको मोनेस्ट्री के आस–पास टहल ही रहा था कि मेरा भ्रम तोड़ने के लिए टिप–टिप बारिश फिर से शुरू हो गयी। वैसे इस बारिश का कोई मतलब नहीं था क्योंकि इस बारिश में भी नाको में कोई छाता लगाये नहीं दिख रहा था। मैं भी इस बारिश की परवाह किये बिना नाको झील की ओर बढ़ चला। और जब कुछ दूर पहले से ही नाको झील मुझे दिखी तो मुझे लगा कि मेरी यात्रा सफल हो गयी। पतझड़ के असर से पीले पड़े पत्तों वाले,पेड़ों से घिरी हरे साफ पानी वाली झील,इस बियावान में जीवन का गीत गाते हुए लग रही थी। पेड़ों पर पतझड़ था पर मुझे तो वसंत ही दिख रहा था। वो कहते हैं न कि सावन के अन्धे को हरा ही सूझता है। मैंने झील की परिक्रमा की। एक तरफ से झील तक पहुँचा था,दूसरी तरफ से बाहर निकलने की कोशिश में,पीठ पर घासों का भारी गट्ठर लादे एक बूढ़ी दादी से रास्ता पूछा। उन्होंने हाथ से बस इशारा भर किया। जिसका मतलब ये था कि यही रास्ता है जिस पर वो जा रही हैं। मैं धीरे से उनके पीछे हो लिया। पतली–पतली धूल–मिट्टी भरी गलियाँ निकलती जा रही थीं। बूढ़ी दादी की धीमी गति की वजह से मैं उनसे आगे निकल गया। कुछ ही पलों में लगा कि मैं रास्ता भटक गया लेकिन फिर गूगल मैप का सहारा लिया और केवल दिशा का ध्यान रखते हुए मुख्य सड़क पर निकल गया। वास्तव में मैं रास्ता भूला नहीं था वरन रास्ता भूलने जैसा भ्रम हुआ था। वैसे नाको की गलियाँ और नाको गाँव इतना बड़ा नहीं है कि यहाँ रास्ता भूलने की नौबत आये। लगभग आधा नाको ऐसी ही पतली गलियों में बसा हुआ है। मुख्य मार्ग पर अधिकतर दुकानों और होमस्टे वालों का कब्जा है। ऐसे ही एक दुकान वाले से मैं भी टकरा गया। दरअसल मेरा सेफ्टी रेजर इसी यात्रा में कहीं छूट गया था। नया सेफ्टी रेजर खरीदने के लिए दुकान देख पहुँचा। दुकानदार को मैं भी मिल ही गया था। काफी बातें हुईं,बहुत अच्छा लगा। दुकानदार का दुख ये था कि बाहरी लोग यहाँ आते हैं तो पूछते हैं कि यहाँ क्या देखने लायक है। अरे भाई,यहाँ के लोगों से मिलो,बातें करो,यहाँ का वातावरण देखो। कैसी अलग दुनिया है,इसके बारे में जानना कम है क्या?
वास्तव में उसकी बात बिल्कुल सही थी। मैं भी दरअसल यही खोज रहा था। यही देख रहा था।
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नाको मोनेस्ट्री |
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बलखाती सड़क का नृत्य |
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नाको से दूर घाटी में बसा एक गाँव |
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नाको गाँव |
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नाको झील और नाको गाँव |
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नाको झील |
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सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
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