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Friday, December 16, 2022

सातवाँ दिन– ढंखर से मुढ

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आज मुझे ढंखर से चल कर मुढ तक जाना था और उसके बाद काजा तक या फिर जैसा मूड करेǃ टिप–टिप बारिश आज भी पिण्ड नहीं छोड़ने वाली थी। स्पीति वाले भी इस बारिश के चलते हैरान थे। स्पीति में इतनी बारिशǃ गया निवासी होटल मैनेजर भी हैरान था– 
ʺस्पीति में इतनी बारिश मैंने पहले नहीं देखी।ʺ 
8.30 बजे मैं मुढ के लिए रवाना हो गया। आधी–अधूरी तैयारी के साथ,मतलब कम कपड़ों में। अगले एक घण्टे के अंदर ही मुझे समझ आ गया कि मुझे पूरी तैयारी के साथ एक घण्टे पहले निकलना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो मुढ में नाश्ता करने के बाद मैं शाम तक काजा पहुँच सकता था। लेकिन ऐसी भी क्या जल्दीǃ ढंखर से ताबो–काजा मुख्य मार्ग की दूरी लगभग 9 किलोमीटर है। फिर यहाँ से 9 किलोमीटर आगे मुख्य मार्ग को छोड़कर बायें हाथ पिन वैली के लिए एक रास्ता कटता है जो अटार्गो ब्रिज पर स्पीति नदी को पारकर मुढ की ओर चला जाता है। ढंखर से यहाँ तक मुख्य मार्ग तो ठीक–ठाक है लेकिन अटार्गो ब्रिज से आगे का रास्ता अधिकांशतः ऑफरोड है। अटार्गो ब्रिज से मुढ की दूरी लगभग 34 किलोमीटर है। दूरियों के ये सारे आँकड़े मुझे काफी छोटे व आसान लग रहे थे। लेकिन केवल तब तक,जब तक कि वास्तविकता से मुलाकात नहीं हुई थी। ढंखर से मुख्य मार्ग तक पहुँचने के बाद अब मुझे स्पीति का साथ छोड़कर पिन नदी का साथ पकड़ना था। ये रास्ते और नदियाँ जीवन की वास्तविकता का ज्ञान करा रहे थे। कभी इसके साथ तो कभी उसके साथ।

आगे बढ़ने पर रास्ता क्रमशः खराब होता जा रहा था। लेकिन उससे भी कई गुना बड़ी समस्या थी– बारिश। कोढ़ में खाज। इस बीच मोबाइल का नेटवर्क कब गायब हो चुका था,मुझे पता नहीं चला। इतना अवश्य मालूम था कि पिन वैली में नेटवर्क नहीं मिलता है और अब यह कल ही मिलेगा। परिस्थितियों को देखते हुए मैंने गमबूट पहन लिया था। तैयारी पूरी थी लेकिन परिस्थिति बहुत ही प्रतिकूल थी। बारिश की वजह से तापमान काफी गिर गया था। रास्ते के गड्ढों में पानी भर गया था। अब तक की यात्रा में मैंने दस्ताने नहींं पहने थे। लेकिन आज मजबूर होकर दस्ताने पहनने पड़े। मेरे दस्ताने बहुत अच्छे नहीं थे और हाथ भीग जाने के कारण बाइक चलाना मुश्किल होता जा रहा था। रास्ते में आदमी नाम का जीव कहीं भी दिखायी नहीं पड़ रहा था। पिछली रात मैंने आज के मौसम के बारे में काफी सर्च किया था,लेकिन आज समझ आ रहा था कि जीरो के आस–पास या माइनस टेम्परेचर क्या होता है। मुझे ठण्ड महसूस हो रही थी और साथ ही चाय की तलब लग रही थी। अटार्गो ब्रिज और मुढ के लगभग बीच में एक गाँव है गुल्लिंग। गाँव देखकर मुझे थोड़ी उम्मीद बँधी। मैंने एक–दो लोगों से चाय–परांठे के बारे में पूछा तो पता चला कि मुढ के पहले कुछ नहीं मिलेगा। मैं बहुत निराश हुआ लेकिन हिम्मत हारने का सवाल ही नहीं था। 10.45 बजे तक मैं संगनम गाँव पहुँचा। उम्मीद थी कि यहाँ कुछ मिल जायेगा लेकिन यहाँ भी निराशा हाथ लगी। सारे ढाबे सितंबर में पर्यटकों की कम संख्या के कारण बंद हो चुके थे। मैं संगनम को पार कर आगे निकल गया। गाँव से थोड़ा सा आगे निकलते ही सड़क किनारे बिल्कुल अकेले में एक झोपड़ी दिखी। मैंने रूकने का इरादा बनाकर गाड़ी वहीं खड़ी कर दी। एक स्थानीय व्यक्ति दरवाजे पर बैठा हुआ था। मैंने बिना झिझके सवाल किया–
ʺचाय मिलेगी?ʺ
उसने थोड़ा ठिठक कर मेरी ओर देखा और कुछ संकोच करते हुए बोला–
ʺरेस्टोरेण्ट तो यहाँ नहीं है लेकिन आइए आपको चाय पिलाता हूँ।ʺ
शायद उसे मुझ पर दया आ गयी थी। मैं रेनकोट और गमबूट पहने उसकी झोपड़ी के अन्दर प्रवेश कर गया। एक छोटा सा कमरा था जिसमें एक परिवार की आवश्यकता की सारी चीजें बहुत ही व्यवस्थित ढंग से रखी गयी थीं। एक कोने में रसोई से जुड़ी व्यवस्था थी तो एक कोने में भगवान बुद्ध भी विराजमान थे। एक तरफ एक बोरे में जौ तथा दूसरे बोरे में भुना हुआ जौ भी रखा हुआ था। तुरन्त ही गैस स्टोव पर दूध की चाय बनने लगी और मेरे सामने एक कटोर में भुना हुआ जौ आ गया। मैं जौ वाले बोरे पर बैठ गया और इस स्थानीय किसान का अतिथि बन गया। यह व्यक्ति संगनम का रहने वाला किसान था। यहाँ इसने अपने खेतों में एक झोपड़ी बना रखी थी। इसके दो छोटे बच्चे खेल रहे थे। पत्नी गाँव गयी थी। बातें होने लगीं।

पता चला कि ऐसी बारिश कई सालों के बाद हो रही थी। शायद मेरी स्पीति यात्रा की खुशी में। उसने बताया कि जौ,आलू और मटर की अच्छी खेती होती है। अप्रैल के साथ ही फसल की बुवाई शुरू हो जाती है जो अगस्त तक कट जाती है। खाने के लिए जौ का सत्तू प्रमुख रूप से उपयोग में लाया जाता है। मैंने दलाई लामा की आत्म कथा में पढ़ रखा था कि तिब्बती जौ का सत्तू और चाय का सेवन पूरे वर्ष करते हैं। वैसे मेरा प्रमुख सवाल यही था कि यहाँ रहने का क्या फायदाǃ वह किसान बता रहा था कि यहाँ का वातावरण बहुत ही साफ है और प्रदूषण नहीं है। वैसे मेरा सवाल बहुत ही बेतुका था। मनुष्य धरती के हर कोने में अत्यधिक प्रतिकूल परिस्थितियों में निवास करता आया है बिना इस सवाल का जवाब खोजे कि वह वहाँ क्यों रहता है। अभी मैं चाय पी ही रहा था कि किसान की पत्नी भी आ गयी। उससे भी परिचय हुआ। मैं उन दोनों की खातिरदारी से अभिभूत हो रहा था। मैंने पैसे देने की कोशिश की लेकिन उसने विनम्रता से इन्कार कर दिया। मेरे पास उन्हें देने के लिए धन्यवाद के अलावा और कुछ नहीं था। अभी यहाँ मोबाइल की पहुँच ही नहीं है सो मोबाइल नंबर लेने–देने का सवाल ही नहीं था। साथ ही मोबाइल जनित बुराइयाँ भी नहीं हैं।
किसान ने यह भी बताया कि संगनम से आगे मुढ का रास्ता बहुत ही खराब है। पूरे रास्ते पत्थर गिरते हैं और कभी भी रास्ता बंद हो सकता है। मेरे तो देवता ही कूच कर गये। सब कुछ के बावजूद मैं आगे बढ़ चला। पीछे लौटने के बारे में सोचना भी व्यर्थ था। 

वास्तव में रास्ता किसान के बताये से भी अधिक खतरनाक था। पूरे रास्ते के एक किनारे पिन नदी प्रवाहित होती है जबकि दूसरे किनारे कम ऊँचाई की खड़ी पहाड़ियाँ हैं जिनसे पत्थर गिरते रहते हैं। लगातार जारी बारिश की वजह से पत्थर गिरने की संभावना और भी बढ़ गयी थी। पूरे रास्ते पत्थर बिखरे हुए थे और ऊपर से गिर भी रहे थे। मेरी स्पीड बहुत ही कम हो गयी थी। तेज बाइक चलाने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। एक आँख सामने तो एक ऊपर की ओर देख रही थी। अगर आज बारिश नहीं हो रही होती तो पिन वैली बिल्कुल सूखी और उजाड़ दिख रही होती। उजाड़ तो आज भी दिख रही थी,हाँ बारिश की वजह से सूखी न होकर गीली हो गयी थी। आमतौर पर हिमालय को जैसा हरा–भरा हम देखते हैं,वैसी हरियाली कहीं भी नहीं दिख रही थी। हवा काफी तेज चल रही थी। नदी की कृशकाय धारा अत्यधिक शोर कर रही थी। मुढ का रास्ता बिल्कुल ही एकान्त जैसा दिखता है और मुढ गाँव भी बिल्कुल एकान्त में बसा हुआ है। पता नहीं कब और क्यों यहाँ आबादी बसी होगीǃ
और एक जगह तो लकड़ी के लट्ठे लदा एक ट्रक पहाड़ की तरफ वाली साइड में,कीचड़ में बुरी तरह फँस चुका था। साथ ही उसी कीचड़ में ट्रक के बगल से एक पिकअप आगे निकलने की कोशिश में फँसने की तैयारी कर रही थी। वैसे उसके फँसने की बजाय नीचे खाई में पलटने की संभावना अधिक दिखाई दे रही थी क्योंकि उसके निकलने भर की पर्याप्त जगह ही नहीं थी। मुझे लगा कि यदि ट्रक के बगल में यह पिकअप फँस गयी तो पूरा रास्ता ही बन्द हो जायेगा। मैंने अपनी बाइक पिकअप के बगल में लगाकर ड्राइवर से प्रार्थना की कि भइया पहले मुझे निकल जाने दो उसके बाद बेशक तुम भी अपनी गाड़ी फँसा लेना। पिकअप वाले ने मेरी प्रार्थना सुन ली और मैं किसी तरह कीचड़ में फिसलते–बचते आगे निकला।

दोपहर के 12 बजे के आस–पास उसी टिप–टिप बारिश में मैं मुढ पहुँचा और एक बड़े से होटल के सामने अपनी बाइक खड़ी कर दी। पास ही खड़े होकर आपस में बतकूँचन कर रहे लामाओं की एक टुकड़ी ने मुझे चारों तरह से घेर लिया। सवालों की बौछार होने लगी। मसलन– कहाँ से आए,कहाँ जाना है,कौन सी बाइक है वगैरह,वगैरह। जमीन ऊँची–नीची होने की वजह से सिंगल स्टैण्ड पर मेरी बाइक अधिक झुक रही थी तो एक लामा ने पत्थर खोजकर दिया। 
मैंने सवाल किया– ʺयहाँ मोबाइल नेटवर्क पकड़ता है क्या?ʺ
एक लामा ने जवाब दिया– ʺहम ही नेटवर्क हैं।ʺ
मैंने शाबासी में ताली बजायी।
रास्ता खराब होने और ब्लॉक होने की संभावना पर भी चर्चा हुई। रास्ता ब्लॉक होने से उन्हें कोई खास परेशानी नहीं थी। इस बात को लेकर वे आश्वस्त थे कि रास्ता जल्दी ही खुल भी जाएगा। इस तरह की परिस्थितियों में रहने के वे अभ्यस्त हैं। मोबाइल नेटवर्क की पहुँच न होने से बेवजह के पचड़ों से वे अभी बहुत दूर हैं।

अब तक की बातचीत और परिस्थितियों को देखते हुए मैंने आज ही मुढ से निकलने का विचार रद्द कर दिया। बारिश अब भी बदस्तूर जारी थी। सामने पिन नदी की घाटी में कोहरे के बीच सुंदर नजारा धुँधला सा दिखायी पड़ रहा था। मैंने यहीं ठहरने का निर्णय ले लिया था। जिस हाेटल के सामने बाइक खड़ी थी,मैंने पहले वहीं पूछताछ की। मामला पूरे एक हजार का था जो अपनी जगह से हिलने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था। अगर कमरा एक हजार का था तो खाना भी ढाई–तीन सौ से कम का नहीं होगा। मैं तेजी से गुणा–गणित कर रहा था। फिर थोड़ा सा आगे तारा होम स्टे की ओर बढ़ा। यहाँ भी मामला 1000 से 900 तक आया लेकिन वहीं चिपक गया। मुझे हिचकता देख उसने एक और ऑफर दिया– दादी वाले का। दरअसल कुछ दूरी पर कीचड़ से भरे रास्ते पर बिना नाम–गाँव का दादी का होम स्टे था। 600 में बिना बाथरूम वाला कमरा था। दो कमरों के बीच एक बाथरूम। मैंने तुरंत यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन इतना सब बताने के बाद वह होटल संचालक ʺअभी 5 मिनट में आता हूँʺ कहकर पता नहीं कहाँ गायब हो गया। उसके ये 5 मिनट बहुत भारी थे। पूरे 20 मिनट बाद उसके दर्शन हुए। अब मैं कहीं इधर–उधर जाने की स्थिति में भी नहीं था। सोचा कि इन्तजार ही कर लिया जाय। गनीमत यही थी कि मुझे यहीं ठहरना था और अभी समय दोपहर का ही था। फिर वह मुझे कमरा दिखाने ले गया। कमरा बिल्कुल सजा–सँवरा था,मेरी उम्मीद से भी अधिक। उस मकान में नीचे की मंजिल पर दादी और उनका परिवार रह रहा था जबकि ऊपर की मंजिल पर दो कमरे होम स्टे के रूप में थे। एक कमरा मैंने ले लिया था और दूसरे में अब और किसी के आने की संभावना मौसम को देखते हुए कम ही थी।

कमरा देखने के बाद मैं नीचे सड़क पर अपनी बाइक के पास आया। होटल संचालक से अपनी व्यथा बतायी–
ʺभाई दो–दो बैग ले जाने हैं। ऊपर चढ़ना है और रास्ते में पर्याप्त मात्रा में कीचड़ भरा है।ʺ
उसने मेरी व्यथा को सच मानकर एक लड़के को आवाज लगायी। उस लड़के ने सहर्ष मेरे दोनों बैग आसानी से ऊपर पहुँचा दिये। रास्ते में वह मुझे अपनी क्षमता के बारे में भी बताता गया– ʺये क्या हैǃ मैं तो इससे दुगुना भारी बैग भी आसानी से लेकर ऊपर चढ़ जाऊँगा।ʺ
मुझे ऐसे ही एक आदमी की जरूरत थी।
कमरे में व्यवस्थित होने तक 12 बजे से अधिक का समय हो चुका था। और साथ ही मेरे ब्रेकफास्ट का समय भी हो चुका था। तो मैं फिर से उसी होम स्टे संचालक की शरण में पहुँचा। इस बार वह बिचारा सशरीर गायब हो चुका था। कुछ देर इन्तजार करने के बाद उसके दर्शन हुए। मैंने भावविभोर होकर उससे पूछा–
ʺखाने को कुछ मिल जाएगा।ʺ
ʺसब कुछ मिल जाएगा। क्या लेगें?ʺ उसने बहुत ही आत्मविश्वास से उत्तर दिया।
ʺमैगी या परांठा मिलेगा?ʺ
ʺअभी पूछ कर आता हूँ।ʺ
कहकर बन्दा नीचे जा रही सीढ़ियों से भूमिगत हो गया। मैं सोच रहा था कि अभी तो यह सब कुछ देने की बात कर रहा था और फिर पूछने चला गया। 10 मिनट बाद फिर से उसके दर्शन हुए।
परांठा नहीं मिल पाएगा। मैगी मिल जाएगी।
मेरे लिए सब एक बराबर था क्योंकि भूख जो लगी थी। मैंने मैगी का आर्डर जारी कर दिया। बन्दा 5 मिनट में आने की बात कह कर फिर से अन्तर्ध्यान हो गया। 5 मिनट के इन्तजार में 20 मिनट बीत गये। मैं उसकी लेटलतीफी पर कुढ़ रहा था। इतने में एक महिला नीचे से ऊपर आयी। यह उसकी पत्नी हो सकती थी। मैंने विनम्रता से उसके सामने अपने गुस्से का इजहार किया। महिला की बातों से तो लग रहा था कि शायद उसे मैगी के आर्डर का पता ही न हो।

खैर,जैसे–तैसे मैगी मिली। मैं आज शायद दुनिया का सबसे निश्चिंत व्यक्ति था। जो बिल्कुल खाली रेस्टोरेण्ट में,बिल्कुल अकेले,स्पीति की टिप–टिप बारिश के बीच,खिड़की के उस पार दूर तक फैली,कुहरे में ढकी हुई खूबसूरत पिन वैली को निहारता हुआ मैगी सुड़क रहा था। मेरी मैगी खत्म होने तक एक मराठी परिवार उस रेस्टोरेण्ट में आ पहुँचा। उनके लिए मुढ नाश्ते का एक ठिकाना भर था क्योंकि रात में उन्हें काजा में ठहरना था। यह परिवार चण्डीगढ़ तक फ्लाइट से आया था और वहाँ से गाड़ी बुक करके। उनके आते ही होटल संचालक उनकी आवभगत में व्यस्त हो गया। वैसे उसकी लेटलतीफी अभी भी जारी थी। उस दिन मेरी तरह एक और बाइकर भी मुढ में आया जो गुजरात का रहने वाला था,एक्सपल्स 200 बाइक लेकर। मैंने परिचय किया। बताया कि मैं भी एक्सपल्स 200 टी लेकर आया हूँ। वैसे उसने दूसरे होम स्टे में 850 में कमरा लिया था।
नाश्ता कर लेने के बार अब मेरे पास छाता लेकर मुढ की सड़कों पर घूमना और फोटो खींचना,ये दो काम ही बचे थे। लेकिन ये मुई बारिश और तेज हवा,ये भी नहीं करने दे रहे थे। कुछ देर बाद मैं अपने ठिकाने अर्थात दादी वाले होम स्टे पहुँच गया। बढ़ती ठण्ड में चाय की तलब लग रही थी। लेकिन बारिश में कीचड़ भरी सड़क पर फिर से निकलने का मन नहीं कर रहा था। अन्तरात्मा की आवाज कहीं कोई आत्मा सुन रही थी। थोड़ी ही देर बाद होम स्टे की अन्दर वाली सीढ़ियों से एक काँपती हुई अस्पष्ट सी आवाज आयी तो मैं कमरे से बाहर निकलकर गैलरी में आया। बूढ़ी दादी हाथों में चाय का प्याला लिए सीढ़ियों पर खड़ी थीं। मैंने दादी को हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया और चाय लेकर कमरे में आ गया। दादी कुछ बातें भी बोल रही थीं लेकिन उनकी भाषा मेरी समझ के बाहर थी।

भुने हुए जौ और चाय

संगनम के किसान की झोपड़ी में


मुढ में बारिश का मौसम

मुढ में मेरा कमरा

हाेम स्टे में अँगीठी पर रखी केतली

होमस्टे का घर जैसा खाना


पिन वैली






अगला भाग ः पिन वैली

सम्बन्धित यात्रा विवरण–


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