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मुड या मुढǃ मेरे मोबाइल के अनुसार 3836 मीटर की ऊँचाई पर बसा एक छोटा सा गाँव। मोबाइल नेटवर्क की पहुँच से दूर। जीने–खाने की जुगत में मशगूल। बाकी दुनिया में क्या हो रहा है,इससे कोई मतलब नहीं। आज मैं भी,एक दिन के लिए ही सही,इस गाँव का हिस्सा बनकर आश्चर्यचकित था। अतीत में मैंने शायद ही इस तरह की दुनिया की कल्पना कभी की होगी।
मुढ के पास गाँव के अलावा पोस्ट ऑफिस का भी दर्जा है। अब तक की यात्रा में मुझे एक बात हर जगह कॉमन दिखी थी और वो ये कि इस छोटी सी दुनिया में सब अपने काम में व्यस्त हैं,मस्त हैं। शेष दुनिया के बारे में जानने की न कोई इच्छा है न कोई मतलब। सब जीने–खाने में व्यस्त हैं। नाममात्र के पर्यटकाें के लिए छोटे–मोटे धन्धे भी पनपे हैं जैसे कि होमस्टे और रेस्टोरेण्ट,लेकिन कोई जल्दबाजी नहीं है। सब कुछ आराम से हो रहा है। मेरे जैसे ग्राहक को पकड़ने के फेर में भी कोई नहीं है। जिसके भाग्य में होगा,उसके पास ग्राहक पहुँचेगा ही। जाएगा कहाँǃ हमारे मैदानी इलाके का कोई शहर होता तो ढेर सारे ऑटो वाले और होटलों के एजेण्ट टूट पड़ते,लेकिन यहाँ ऐसी कोई बात नहीं है। सब कुछ बहुत ही शान्त है।
कुछ देर में बारिश और हवा,और तेज हो गयी। आज यहीं ठहरने का फैसला सही साबित हो रहा था। मैं कमरे से बाहर निकल कर गैलरी और बाहर छज्जे पर खड़ा होकर पिन वैली की बारिश देख रहा था। एक नया अनुभव मिल रहा था। कुछ घरों की छतों पर इक्का–दुक्का लोग छतों को ढकने की जुगत में लगे थे। मैं हैरान था कि ऐसा क्योंǃ तभी मेरे होम स्टे का मालिक भी अन्दर वाली सीढ़ियों से आया और ऊपर जाने लगा। मैं भी उसके पीछे लग गया। ऊपर जाकर सारा भेद पता चला। छतें मिट्टी की बनी हुई थीं और बिल्कुल सपाट। पानी निकलने के लिए एक तरफ हल्की ढलान बनी हुई है और एक पाइप लगा हुआ है जिससे होकर पानी बाहर निकल जाता है। अधिकांश छतों की बनावट ऐसी ही थी। मुझे अपने गाँव के खपरैल की छतों की याद आ रही थी। वैसे तो अब गाँवों में भी खपरैल की छतें समाप्तप्राय होने को हैं। मैदानी भारत की खपरैल की छतें पक्की मिट्टी की बनी होती हैं जो मानसून की तेज बारिश को सह लेती हैं लेकिन यहाँ तो छतें बिल्कुल कच्ची मिट्टी की बनी हुई थीं जो तेज मानसूनी बारिश को कतई नहीं सहन कर सकती हैं। वे तो केवल स्पीति की टिप–टिप बारिश को ही झेल सकती हैं। तेज बारिश का परिणाम आज सामने दिख रहा था। मुढ के लोग आज छतों की सुरक्षा में छतों पर तैनात हो गये थे। मेरे होमस्टे के मालिक ने मुझसे भी पूछा कि कमरे में पानी तो नहीं आ रहा है। पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि कमरे में पानी क्योंकर आयेगाǃ
मुढ,पिन नदी की घाटी में बसा आखिरी गाँव है। पिन,स्पीति की सहायक नदी है जो अपने किनारे कई छोटे–छोटे गाँवों को आबाद करते हुए स्पीति में मिल जाती है। पिन के किनारे बनी एक सँकरी सड़क के द्वारा ये गाँव आपस में जुड़ते हैं। कहने को तो ये गाँव हैं लेकिन इनकी आबादी इतनी कम है कि पता ही नहीं चलता कि ये गाँव बसे किधर हैं। मोबाइल कनेक्टिविटी से अछूते ये गाँव,अपने प्राकृतिक परिवेश में आधुनिक दुनियावी झंझटों से पूरी तरह अछूते हैं। बंजर पहाड़ों पर अवस्थित इस शीत मरूस्थल में जौ और मटर की खेती यहाँ के निवासियों के अथक संघर्ष की कहानी कहते हैं। भूरे पहाड़ों के बीच हरियाली खोजने वाले के लिए तो यहाँ कुछ नहीं है लेकिन नीरव शांति के बीच प्रकृति की गोद में समय बिताना हो तो इससे अच्छी दूसरी जगह नहीं है। पिन वैली में पिन–पार्वती पास और भाभा पास की ट्रैकिंग की जाती है।
रात के खाने के लिए मैंने उसी तारा होटल के संचालक को आर्डर दे रखा था। समय भी फाइनल कर आया था कि मुझे 6 बजे ही खाना चाहिए। अपने कहे मुताबिक मैंने शाम के 6.15 बजे उस होटल में हाजिरी दे दी। होटल संचालक गायब था। मैं बैठकर इंतजार करने लगा। मैंने भी कसम खा ली थी कि इसे छोड़कर दूसरे रेस्टोरेण्ट में नहीं जाऊँगा। कुछ देर बाद रेस्टोरेण्ट के पास रोडवेज की एक बस आकर लगी। पता चला यह काजा से आ रही थी। यह बस शाम के 4 बजे काजा से चलकर शाम के 6.30-7.00 बजे के आस–पास मुढ पहुँचती है और अगली सुबह 6 बजे काजा के लिए रवाना हो जाती है। काजा और मुढ के बीच सम्पर्क का यह एकमात्र साधन है। इस बस से एक युवती उतरी जो आज इसी होटल⁄रेस्टोरेण्ट में मेहमान बनने वाली थी। बिना किसी मोल भाव के उसने पता नहीं कितने में एक कमरा बुक कर लिया था। कुछ देर इन्तजार के बाद होटल संचालक की पत्नी उसे अपने साथ कहीं और लेती गयी। इतने में होटल संचालक दिखा। मैंने विचलित होते हुए उससे खाने के बारे में पूछा। उसका जवाब पिन वैली की जिन्दगी की ही तरह बिल्कुल साधारण था–
ʺखाना बन रहा है,5 मिनट में बन जायेगा। कह कर वह गायब हो गया।ʺ
उसके पाँच मिनट कभी खत्म होने वाले नहीं थे।
मैं रेस्टोरेण्ट में अकेला बैठा ठण्डा हुआ जा रहा था। कुछ मिनटों में उसकी पत्नी आयी। मैंने उससे भी सवाल दुहराया। कुछ सोच विचार कर उसने कहा–
ʺआप भी वहीं चले चलिए।ʺ
मैं उसके पीछे हो लिया। अँधेरा हो चुका था। बिजली थी नहीं। इक्का–दुक्का जलती सोलर लाइटों की मद्धम रोशनी में कीचड़ से बचते–बचाते लगभग 100 मीटर दूर चलने के बाद एक तरफ नीचे उतरना था। वहाँ और भी कीचड़ था। मोबाइल टार्च की रोशनी में किसी तरह नीचे उतरकर मैं एक छोटे से मकान के बरामदे में पहुँच गया जो निर्माणाधीन था। इसके बाद मुझे बरामदे से लगे हुए एक कमरे में बुलाया गया। कमरे में प्रवेश करते ही मुझे लगा कि मैं एक दूसरी दुनिया में आ गया हूँ। मुढ की भीषण ठण्ड में भी वह कमरा खूब गर्म था। कमरे के बीच में लोहे की बनी हुई और चारों तरफ से बंद,अँगीठी जल रही थी। एक तरफ से उसमें लकड़ियाँ डालने की जगह बनी हुई थी। अँगीठी का धुआँ एक पाइप के सहारे कमरे की छत से ऊपर निकल रहा था। तकनीक ऐसी कि कमरे में धुएँ का नामोनिशान नहीं था। इसके पहले मैंने मुढ के कई मकानों से ऊपर निकले ऐसे पाइप देखे थे लेकिन उनका मतलब अब जाकर समझ में आया था। इस तरह की अँगीठी मैंने जिन्दगी में पहली बार देखी थी। कमरे में एक भरा–पूरा परिवार बसा हुआ था। कमरे में उस होटल संचालक के माँ–बाप,उसके दो बच्चे,उसके छोटे भाई की पत्नी,इस परिवार का नेपाल से आया एक मेहमान और काजा वाली बस से उतरी युवती पहले से ही समाहित थे। अन्तिम आदमी मैं था। मुझे भी ससम्मान बिठाया गया।
शाम के 7.30 बज रहे थे और अभी खाना बनना शुरू ही हुआ था। पहले तो कुछ संकोच जैसा अनुभव हुआ लेकिन कुछ ही मिनटों में मैं इस परिवार में घुल–मिल गया। खाना बनने में कुछ देर थी तो चाय की पेशकश की गयी। बस से आयी युवती से भी परिचय हुआ। पता चला वह जम्मू की रहने वाली है और जम्मू से ही पिन वैली घूमने आयी है। वैसे उसके इस पिन वैली घूमने का कोई मतलब नहीं था। क्योंकि अँधेरा होने के बाद ही वह मुढ पहुँची थी और अँधेरे में ही सुबह के 6 बजे उसे काजा के लिए बस पकड़ लेनी थी। तो अँधेरा होने से पहले उसने बस की खिड़की से जितनी पिन वैली देखी होगी बस उतनी ही देख पायी होगी । परिवार के दोनों छोटे बच्चे कमरे में ऊधम मचाये हुुए थे। परिवार की दोनों बहुएं खाना बनाने में व्यस्त थीं। कमरे से लगे हुए बरामदे में खाना बन रहा था। और चाय तो केतली को अँगीठी के ऊपर कुछ देर के लिए रख देने पर ही तैयार हो जा रही थी। नेपाल से आये मेहमान से काफी बातें हुईं। वह उत्तर प्रदेश के कई सीमावर्ती जिलों के बारे में बता रहा था। यहीं यह भी पता चला कि इस मकान का निर्माण कार्य अभी चल रहा है और इसी में पूरा परिवार व्यस्त है। इसी के चलते होटल संचालक 5 मिनट का समय लेकर आधे घण्टे में आ रहा था। परिवार के दोनों बुजुर्ग माँ–बाप मुझे काफी सम्मान दे रहे थे। मैं अभिभूत था इस सम्मान पर। मुढ के इस परिवार के बीच अपने को बैठा पाकर जो अनुभव मैंने पाया,उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। खाना मिलने के पहले एक ऐसी बात हुई कि मैं भावविह्वल हो उठा। परिवार के नेपाली मेहमान को मुढ की लोकल शराब पेश की जा रही थी। चूँकि मैं भी एक मेहमान की ही तरह था तो मुझे भी इसका ऑफर दिया गया। अब तक की जिन्दगी में मुझे ऐसा ऑफर कहीं नहीं मिला था। रोम–रोम पुलकित हो उठा।
8.30 बजे के आस–पास खाने की थाली सामने आयी। खाना प्रेमपूर्वक बनाया गया था इसलिए काफी स्वादिष्ट था। चावल,पीली दाल यानी अरहर की दाल,आलू गोभी की सब्जी और रोटियाँ। खाने की मात्रा पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। यह थाली 100 रूपये की थी। खाना बिल्कुल घर के जैसा बना था। आज की यात्रा से तन–मन दोनों संतुष्ट थे। मुढ आने में रास्ते में जो कष्ट झेलने पड़े थे,सब भूल गये। दिन भर की खट्टी मीठी यादें लिए अगले पाँच मिनट के भीतर मैं अपने कमरे में था। जैसा कि पहले भी उल्लेख कर चुका हूँ कि इस क्षेत्र में पिछले कई दिन से बिजली गायब थी तो रास्ते पर बिल्कुल अँधेरा था। इक्का–दुक्का सोलर लाइटें ही मुढ की जिन्दगी में रोशनी फैला रही थीं। मोबाइल टार्च की रोशनी में कीचड़ से बचते–बचाते ही मैं कमरे पहुँच सका।
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