Friday, April 7, 2017

रामनगर और चुनार

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कल दिन भर मैं सारनाथ में बुद्ध के उपदेश ग्रहण करता रहा। बनारस मेरे लिए बहुत पहले से ही परिचित सा रहा है। तो आज मैंने रामनगर और चुनार के किले देखने का प्लान बनाया। रामनगर तो गंगा उस पार बनारस से सटे हुए ही है लेकिन वाराणसी से चुनार की दूरी लगभग 45 किमी है। वैसे बनारस से चुनार जाने के लिए पर्याप्त विकल्प उपलब्ध हैं। वाराणसी सरकारी बस स्टैण्ड से विंध्याचल जाने वाली बसें चुनार होकर ही जाती हैं। इसके अतिरिक्त ऑटो रिक्शा भी जाते हैं लेकिन इनके दो रूट हैं। वाराणसी कैण्ट से राजघाट पुल पार कर पड़ाव के लिए ऑटाे जाती है। पड़ाव से चुनार के लिए आटो मिल जाती है।
इसके अतिरिक्त लंका या बी.एच.यू. से भी गंगा उस पार चुनार जाने के लिए ऑटो रिक्शा मिल जाती हैं। इस समय उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव 2017 का माहौल चल रहा था और रैलियों वगैरह की वजह से बसें व्यस्त थीं अतः मुझे ऑटो वाला विकल्प ही बेहतर लगा। तो फिर पकड़ ली एक ऑटो रिक्शा और चल पड़े। वाराणसी से रामनगर की दूरी लगभग 15 किमी है।

चूंकि मुझे पहले रामनगर और उसके बाद चुनार जाना था इसलिए मैंने कैण्ट से पड़ाव वाली आटो पकड़ी और 25 रूपये में राजघाट पुल पार कर पड़ाव पहुंच गया। फिर पड़ाव चौराहे से रामनगर वाली ऑटो– किराया 10 रूपये। रामनगर पहुंचा तो आटो में बैठे–बैठे ही ऊपर लगे बोर्ड पर नजर पड़ी और पता लग गया कि दाहिने मुड़कर किले की तरफ जाना है। 5 मिनट की पैदल दूरी पर किले का गेट दिख रहा था।
रामनगर का किला तुलसी घाट के सामने वाले किनारे पर स्थित है। इस किले का निर्माण सन् 1750 ई0 में तत्कालीन काशी नरेश बलवन्त सिंह ने कराया था। वैसे तो चुनार का लाल बलुआ पत्थर प्रसिद्ध है लेकिन यह किला चुनार के ही क्रीम कलर के पत्थर से बना है। यह किला आरम्भ से ही काशी के राजाओं के लिए निवास के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। वर्तमान में किले का अधिकांश भाग प्रान्तीय सशस्त्र बल के जवानों तथा वर्तमान काशी नरेश के निवास हेतु आरक्षित है। शेष भाग को संग्रहालय के रूप में बदल कर पर्यटकों हेतु खोल दिया गया है। किले को जितना संरक्षित किया जा सकता है,उससे कुछ कम ही इस पर ध्यान दिया गया है।

मुख्य द्वार के दोनों तरफ दो तोपें रखी गईं हैं। मुख्य द्वार के अन्दर प्रवेश करते ही एक बड़ा परिसर सामने दिखता है जिसमें दाहिनी तरफ का भाग पुलिस के कब्जे में है। बायीं तरफ के किले के भाग को संग्रहालय में बदल दिया गया है। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही बायीं तरफ संग्रहालय का टिकट घर है। 20 रूपये खर्च करके संग्रहालय में प्रवेश लिया जा सकता है। संग्रहालय के अन्दर कैमरे का प्रवेश तो प्रतिबन्धित नहीं है लेकिन फोटो खींचना मना है। ये भी एक विरोधाभासी स्थिति है। संग्रहालय को सरस्वती भवन के नाम से भी जाना जाता है। इस संग्रहालय में कैडिलेक व अन्य विंटेज कारें,बग्घियां,शाही पालकियां,कुर्सियां,हाथी दांत की बनी वस्तुएं,हाथी की पीठ पर लगाया जाने वाला हौदा,तमाम प्राचीन पुस्तकों की पाण्डुलिपियां वगैरह–वगैरह सामान संग्रहीत हैं। संग्रहालय में सर्वाधिक मात्रा में हथियार जैसे बन्दूकें,रिवाल्वर व पिस्तौल इत्यादि दिखाई पड़ते हैं। इन्हें देखकर मन तो बहुत कर रहा था कि एक–दो फाेटो ले लूं और कैमरा भी साथ ही था लेकिन डर भी लग रहा था क्योंकि सीसीटीवी कैमरे भी लगे हुए हैं।
रामनगर का किला चाहे जिस उद्देश्य से और चाहे जिस तरीके से बनाया गया हो,सामने से और अन्दर प्रवेश कर जाने के बाद किसी किले जैसा नहीं लगता या शायद यह भी हो सकता है कि किले का बड़ा हिस्सा सामान्य जनता के लिए न खोला गया हो। लेकिन संग्रहालय घूम लेने के बाद जब हम किले के पीछे वाले हिस्से में पहुंचे तो यह भ्रम काफी हद तक दूर होता दिखा। जिस तरह गंगा नदी के बीच में नाव पर खड़े होकर वाराणसी शहर की ओर देखने पर घाट के किनारे का पूरा शहर किसी किले की तरह दिखता है उसी तरह रामनगर का किला भी नदी की तरफ से देखने पर किसी वास्तविक किले की तरह दिखता है। इसकी वास्तुकला का शानदार प्रदर्शन भी नदी की तरफ से ही दिखता है।

रामनगर किले का मुख्य द्वार
रामनगर किले के मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही अन्दर का प्रांगण



गंगा नदी की तरफ से रामनगर किले का दृश्य
गंगा नदी की तरफ से
रामनगर किले के पीछे नदी में निर्माणाधीन पुल



रामनगर किला घूम लेने के बाद अब मेरा अगला लक्ष्‍य चुनार का किला था। तो फिर टहलते हुए आटो स्टैण्ड पर पहुंचा। वहां से चुनार के लिए कोई सीधा साधन उपलब्ध नहीं था। पूछने पर पता लगा कि यहां से नारायणपुर होकर अहरौरा जाने वाली आटो मिलेगी जिससे नारायणपुर जाना पड़ेगा। नारायणपुर से चुनार के लिए आटो मिलेगी। अहरौरा से हम चन्द्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य,चन्द्रप्रभा बांध,देवदरी तथा राजदरी के प्रपातों को देखने के लिए जा सकते हैं। लेकिन मुझे तो चुनार जाना था। आटो वाले ने 30 रूपये किराया तय किया और वादा किया कि नारायणपुर से चुनार वाली आटो पकड़ा देगा। यह कुल दूरी लगभग 30 किमी है। मैंने बात मान ली। नारायणपुर से दूसरी आटो पकड़ी और चुनार पहुंचा।
चुनार का यह आटो स्टैण्ड चुनार रेलवे स्टेशन के पीछे की ओर है। यहां से लगभग 2 किमी की पैदल दूरी चलकर किले तक पहुंचा जा सकता है लेकिन किले के गेट तक पहुंचने के लिए लगभग 1 किमी की अतिरिक्त चढ़ाई भी चढ़नी पड़ेगी। दूसरा विकल्प यह है कि यहां से आटो भी चलती है जो किले के नीचे से होकर नदी किनारे या घाट तक जाती है। किराया 10 रूपये। आटो से जाने पर भी ऊपर वाली चढ़ाई तो चढ़नी ही पड़ेगी क्योंकि आटो वाला नीचे ही उतार देगा या फिर आटो रिजर्व करना पड़ेगा।

आटो से उतरने से पहले ही चुनार किले की भव्यता दिखाई पड़ने लगी। पहाड़ी की ढलानों पर बनी इसकी मोटी–मोटी पाषाण दीवारों को देखकर ही मन में बनी किले जैसी धारणा सजीव होने लगी। किले की ओर पैदल बढ़ते हुए मन में अनेक कहानियां आती और जाती रहीं। बचपन में पढ़े हुए देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास चन्द्रकान्ता हो या चन्द्रप्रकाश दि्ववेदी का लोकप्रिय धारावाहिक चन्द्रकान्ता,मन भूतनाथ और अन्य तमाम पात्रों की छवियां बनाने लगा। आल्हा सुनाने वालों से एक कहानी यह भी सुन रखी थी कि आल्हा का विवाह सोनवा से इसी किले में हुआ था जिसकी याद में सोनवा मण्डप भी बना हुआ है। इन सारी कहानियों को मन ही मन दुहराते हुए किले में प्रवेश किया तो पता चला कि रामनगर के किले की तरह यह किला भी पुलिस के कब्जे में है। जानकर बड़ा दुख हुआ कि आज हमारे स्वतंत्र भारत की पुलिस अपने प्रशिक्षण के लिए इन्हीं किलों की शरण में है। काश ऐसा होता कि इन ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित कर आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ दिया जाता ताकि वे भी अपने इतिहास पर गर्व कर सकें।
किंवदन्ती है कि इस किले का निर्माण महाराजा विक्रमादित्य ने अपने भाई भर्तृहरि के लिए करवाया था लेकिन महाराज भर्तृहरि ने  इसे अपनी साधनास्थली बना लिया। किले में सोनवा मण्डप के पीछे महाराज भर्तृहरि का मन्दिर भी है। अब इस किले का वास्तविक निर्माता कौन है यह तो इतिहासकार ही जानें लेकिन एक विद्यार्थी या आमजन को तो चुनार के किले के बारे में जानकारी मुगल शासक हुमायूं और शेरशाह सूरी के बीच 1539 में हुए ऐतिहासिक युद्ध के जरिए ही मिलती है जिसमें हुमायूं पराजित हुआ था। कहते हैं कि चुनार का प्राचीन नाम चरणाद्रि भी है।

किले में जब मैं पहुंचा और मुख्य द्वार से प्रवेश किया तो ठीक सामने ही एक साहब कुर्सी–मेज लगाये एक रजिस्टर लिये बैठे थे। यह यहां आने वालों पर्यटकों के लिए इन्ट्री रजिस्टर था जिसमें मैंने भी इन्ट्री कर दी। इन्हीं साहब से पता चला कि अधिकांश समय तो किले में फोर्स पड़ी रहती है लेकिन इस समय विधान सभा चुनाव के चलते सारी फोर्स चली गयी है इसलिए किला इस समय खाली है। दाहिने हम भारतीयों की कुछ ठेला छाप दुकानें थीं जहां पानी की बोतलें,आइसक्रीम,बिस्कुट वगैरह उपलब्ध थे। यहां से जिधर भी कुछ देखने लायक दिखा उधर ही मैं चल पड़ा और यह किले का ऊपरी भाग था जहां सोनवा मण्डप,भर्तृहरि महाराज का मन्दिर और कुछ जेलनुमा कमरे बने हुए हैं। यहां दो स्थानीय लड़के जिनकी उम्र लगभग 15-16 साल की थी,गाइड बनने के लिए सिर चढ़ रहे थे लेकिन यहां आने वाला कोई भी पर्यटक उन्हें गाइड बनाने का इच्छुक नहीं दिख रहा था।
इस किले को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को यद्यपि सौंप दिया गया है लेकिन अभी पूरी तरह से इसमें काम शुरू नहीं हुआ है। किले के पीछे वाले हिस्से में काफी कुछ साफ–सफाई है। दीवारों का रंग–रोगन भी किया गया है। कुछ पेड़–पौधे और पार्क जैसा भी कुछ है। पीछे की छत से गंगा नदी का सुन्दर दृश्य दिखायी देता है। इस हिस्से में जगह–जगह युवक–युवतियों के जोड़े भी टहल रहे थे या बैठे हुए थे जिनमें से कुछ मेरी अचानक उपस्थिति से असहज हो उठे। किले में एक जगह कुछ खण्डहरों के बीच में एक कुआं भी दिखता है जिसमें नीचे देखने पर बाहर जाने के लिए बनी एक सुरंग दिखाई पड़ती है। इसके अगल–बगल के खण्डहर बड़े ही रहस्यमय दिखते हैं। किले से बाहर निकलकर नीचे जाते समय सड़क के दूसरी तरफ एक छोटा सा पुराना कब्रिस्तान दिखाई पड़ता है जो अंग्रेजों का बनवाया हुआ है। इसके सामने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के नाम की तख्ती भी लगी हुई है।
एक पहाड़ी पर बना चुनार का किला सामरिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है। इसी वजह से इस पर कब्जे को लेकर लड़ाइयां होती रही हैं। भौगोलिक दृष्टि से भी यह बहुत ही सुन्दर जगह अवस्थित है। गंगा किनारे के घाटों पर टहलते हुए एक बार एक गाइडनुमा व्यक्ति ने मुझे बताया था कि यदि चुनार का किला,जिस पहाड़ी पर बना है,वह न होती तो गंगा उत्तरवाहिनी होकर वाराणसी की ओर न जाती वरन दक्षिण की ओर प्रवाहित हो गयी होतीं। भाैगाेलिक वास्तविकता चाहे जो हो,मुझे नहीं पता लेकिन गूगल मैप पर देखने पर कुछ ऐसा ही लगता है। कुल मिलाकर चुनार का किला अपने अंदर अद्भुत ऐतिहासिकता,सामरिकता,भौगोलिकता,वास्तुकला,सुन्दरता,रोमांच एवं तिलिस्म का जादू समेटे हुए है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने उपयोग के बाद किले का जो भी हिस्सा मुझ जैसे पर्यटकों के लिए छोड़ रखा है उसे देख लेने के बाद मैं किले से बाहर निकला और आइसक्रीम खाते हुए नीचे उतर गया। वहां से आटो स्टैण्ड के लिए आटो पकड़ी तथा फिर स्टैण्ड से पड़ाव। पड़ाव से वाराणसी कैण्ट।


चुनार के किले की छत से गंगा नदी
चुनार के किले में सोनवा मण्डप
सोनवा मण्डप का गलियारा


सोनवा मण्डप की छत


चुनार के किले में बना एक कुंआ और कुंए में बाहर निकलने के लिए बनी एक सुरंग


पहाड़ी ढलान पर बनी किले की दीवार

चुनार के किले के बाहर अंग्रेजों द्वारा बनवाई गई एक कब्र




किले का पिछला अथवा गंगा नदी की ओर वाला हिस्सा


सम्बन्धित यात्रा विवरण–

2 comments:

  1. बहूत खूबसूरत वर्णन किया है आपने काशी विश्वनाथ का

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी।

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