Friday, July 2, 2021

वाल्मीकि टाइगर रिजर्व की यात्रा

पिछली बार की तरह जब इस बार भी कुछ लोगों ने टोका कि यार,क्या बिहार जा रहे होǃ तो एकबारगी मेरे मन में भी शंका बलवती होने लगी। सच मेंǃ है ही क्या बिहार में। लेकिन सच कहूँ तो यह कुछ न होना ही मुझे बिहार की ओर खींच ले जाता है। न कोई बंदिश,न भेदभाव,न किसी तरह की कोई बाधा,न अनुशासन। मैं भी इसी तरह की माटी का बाशिंदा हूँ। फिर मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। कुछ होने का आकर्षण तो होता ही है लेकिन कुछ न होने का भी अपना आकर्षण है। ऐसा कैसे हो सकता है कि धरती के एक बड़े टुकड़े पर कुछ हो ही न जो मानवमात्र को आकर्षित कर सके। ऐसी ही क्रिया–प्रतिक्रिया और अंतर्द्वंद्व मन में समेटे मैंने दो पहियों वाले घोड़े यानी बाइक पर,मार्च के अंतिम सप्ताह में अपने बैग बाँध दिये। कोरोना के नाम ने ही शरीर में जंग लगा रखी है। और शायद सच कहूँ तो मन–मस्तिष्क में भी जंग लग रही है। इसे साफ करना है तो इसे चलाना होगा। मानव का स्वभाव है– चरैवेति,चरैवेति।

तो कुछ ऐसे ही माहौल में कोरोना के खौफ़ को ताखे पर रखते हुए मैंने बाइक दौड़ा दी। कहते हैं,वो व्यक्ति धरती का पहला राजा रहा होगा जिसने धरती के एक टुकड़े को घेर कर उसे अपना बनाया और कहा कि यह मेरा है। वास्तव में वह राजसत्ता का पहला प्रतीक था। राजसत्ता के ऐसे बड़े प्रतीक भारतीय इतिहास में यदि कहीं से सर्वप्रथम प्राप्त होते हैं तो वह संभवतः बिहार ही है। हिमालयी सदावाहिनी नदियों की गोद में बसी इस उर्वर धरती ने बड़े–बड़े राजवंशों को ही जन्म नहीं दिया,विश्व की प्रथम लोकतांत्रिक व्यवस्था भी इसी की गोद में उद्भूत हुई। बड़े–बड़े शहरों ने भी इन्हीं नदियों के किनारे अपनी आँखें खोलीं। और जब बिहार की सड़कों पर बाइक दौड़ाते हुए जगह–जगह घनी आबादी के बाेर्ड दिखायी पड़ते हैं तो मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं होता। इतनी पुरानी बसी धरती और उर्वर भूमि पर सघन आबादी नहीं होगी तो कहाँ होगी? यह तथ्य है कि धरती के अपेक्षाकृत बाद में बसे हिस्से अत्यन्त विरल हैं।

और एक मंगलवार,जब सुबह के समय मैं बिहार जाने के लिए बाइक लेकर उत्तर दिशा की ओर निकला तो बिल्ली रास्ता काट गयी। कहते हैं कि उत्तर दिशा की ओर जाने के लिए मंगलवार और बुधवार के दिन दिक्शूल होता है। मैंने बिल्ली को आशीर्वाद दिया और आँखें मूँद कर गाड़ी आगे बढ़ा दी–
ʺमूँदहु आँख कतहुँ कोउ नाहीं।ʺ
मेरे जिले बलिया से बिहार में प्रवेश करने के लिए कई रास्ते हैंं। बलिया से उत्तर–पूरब की ओर घाघरा नदी पार करके छपरा की ओर निकल सकते हैं और दक्षिण–पूरब की ओर गंगा नदी पार करके बक्सर की तरफ। लेकिन मैंने इनसे हटकर एक तीसरा रास्ता चुना था क्योंकि मेरी मंजिल कहीं और थी। इस बार मैं सीधा उत्तर में देवरिया और कुशीनगर जिले से होकर बिहार जाने वाला था क्योंकि बिहार में मेरी पहली मंजिल थी– पश्चिमी चम्पारण जिले में स्‍थित वाल्मीकि टाइगर रिजर्व। तो सुबह के वक्त की खाली और चिकनी सड़कों पर मेरी बाइक दनदनाती हुई भागती रही। देवरिया के बाद कुशीनगर और फिर पडरौना तक। पडरौना से 30–35 किलोमीटर उत्तर पनियहवा नाम स्थान है जहाँ गण्डक नदी पर पुल बना हुआ है– उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाला। इस ʺसदानीराʺ नदी में पानी तो था लेकिन उतना नहीं जितना कि मैंने अनुमान लगाया था। मानसून के समय संभवतः इसका असली रूप दिखता होगा। फिर भी तराई का क्षेत्र इतना हरा–भरा तो है ही कि मन की झुँझलाहट को दूर कर कुछ देर के लिए हरा–भरा कर दे। मेरी बाँछें खिल उठीं लेकिन इस हरियाली की वजह से नहीं। उसकी वजह कुछ और थी। गण्डक के दोनों तरफ कई किलोमीटर की लम्बाई में सड़क और रेललाइन दोनों अगल–बगल होकर गुजरती हैं और यह देखकर मेरे मन में कई साल पहले देखा गया दार्जिलिंग का दृश्य साकार हो उठा। थोड़ा सा अन्तर ये है कि रेल लाइन दार्जिलिंग की तरह सड़क के बिल्कुल बराबर न होकर हल्की सी उठी हुई है। लॉकडाउन की वजह से सड़क बिल्कुल खाली थी तो मैंने क्षितिज के पीछे दार्जिलिंग की पहाड़ियों की भी कल्पना कर ली।

नदी पार करने के बाद मुझे लगा कि उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त हो गयी लेकिन नहीं,इसके लिए पहचान चिह्न आगे बनाया गया था। कुछ दूर आगे जाने के बाद जैसे ही पक्की सड़क खत्म हुई और गिट्टी पड़ी,अधबनी सड़क शुरू हुई,मेरी समझ में आ गया कि उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त हो गयी। पुष्टि के लिए इस आशय का एक बाेर्ड भी दिख गया। वैसे अधिक कष्ट नहीं हुआ,क्योंकि यह खड़खड़ सड़क केवल 4 से 5 किलोमीटर तक ही थी। साथ ही मन को सुकून देने वाला जंगल भी शुरू हो गया। शरीर और बाइक के लिए भले ही खड़खड़ था लेकिन मन को भरपूर शांति थी। यह खड़खड़ सड़क एक त्रिमुहानी पर जाकर समाप्त हुई। यह मदनपुर नामक एक गाँव है। यहाँ दक्षिण की ओर से बगहां से आने वाली सड़क मिलती है जो उत्तर में नेपाल सीमा के पास स्थित वाल्मीकि नगर तक चली जाती है। मुझे इसी वाल्मीकि नगर तक जाना था। यह सड़क काफी अच्छी बनी है और दोनों तरफ जंगल। साथ ही तराई का इलाका। गर्मी के मौसम में भी ठण्डक का एहसास। मन हरियरा गया। घर से पीली–पीली जमीन देखकर गया था। गेहूँ की फसल खेतों में लगी हो तो भी पीली और कट गयी हो तो जमीन भी पीली। लेकिन यहाँ तो धरती ने हरी चादर ओढ़ रखी थी। या तो दोनों तरफ जंगल या फिर गन्ने और केले के खेत। कहीं–कहीं,इक्का–दुक्का मरियल सा दिखता,लोगों के पेट भरने वाला,पीला–पीला गेहूँ।

कुछ दूर चलने के बाद वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से संबंधित सूचना बोर्ड दिखायी देने लगे थे। जंगली जानवरों से संबंधित सूचनाएं मिलने लगी थीं। मैंने मन ही मन दुआ की कि काशǃ कोई बाघ या चीता जंगल के किसी कोने से सड़कर पर मुँह निकाल मुझे दर्शन दे जाता। कुछ देर उससे बातें करने के बाद सेल्फी लेकर मैं कहता कि ठीक है यार,फिर मिलेंगे। लेकिन सच्चाई ये कि किस्मत इतनी जल्दी साथ नहीं देती। वैसे खुशी इस बात की भी कम नहीं थी कि आदमी नाम का जीव नहीं दिखायी पड़ रहा था या फिर इक्का–दुक्का दिखायी दे जाता। भारत जैसे देश में कहीं रास्ता चलते समय लगातार आधे या एक घण्टे तक आदमी न दिखे तो बहुत ही सौभाग्य की बात होगी।
वाल्मीकि नगर के काफी पहले से ही जंगल के बीच आदमियों का एक जंगल पनपने लगा था। दरअसल कभी जंगलों के बीच कोई गाँव बसा होगा। आज यह एक छोटे कस्बे में तब्दील हो चुका है। और सच तो ये भी है कि ये कस्बा न बसा होता तो शायद बाइक से यहाँ तक की यात्रा भी नहीं हो पाती।

वाल्मीकि नगर कस्बे में मैं जब पहुँचा तो पेड़ों वाले जंगल का मेरा वहम खत्म सा हो गया। यहाँ कहाँ जंगल हो सकता हैǃ पूरा कस्बा बसा हुआ है। यहाँ रूकने की कोई वजह नहीं थी। वाल्मीकि नगर के मुख्य चौराहे से जब मैं जंगल की ओर बढ़ा तो सूरज सीधे सिर पर आ चुका था। फिर भी आसमान में कुछ बादलों की उपस्थिति के चलते गर्मी का खास आभास नहीं हो रहा था। कुछ ही देर में जंगल शुरू हो गया। एक जगह रास्ता पूछना पड़ा। कुछ ही दूर आगे दाहिनी तरफ नर देवी मंदिर जाने के लिए एक पतला सा कच्चा रास्ता निकलता है। लेकिन मैं आगे बढ़ गया,यहाँ लौटती बार। थोड़ी ही दूरी पर वन विभाग की चेक–पोस्ट है। यहाँ से सीधे आगे जाने के लिए कोई दिक्कत नहीं है। सीधा रास्ता वन विभाग के रेस्ट हाउस तक जाता है जो गंडक नदी के इस पार जंगल के बीच बना हुआ है। नदी के उस पार नेपाल के दृश्य दिखायी पड़ते हैं। लेकिन चेक–पोस्ट की दायीं तरफ जंगल के अंदर जाते रास्ते पर जाने के लिए शुल्क देना पड़ता है। बाइक के लिए 10 रूपये। शुल्क चुकाकर मैं आगे बढ़ गया। जंगल में तीन देवस्थान हैं जो जंगल में घूमने के लिए बहाना और रास्ता दोनों ही उपलब्ध कराते हैं।

तो इन देवस्थानों का बहाना बनाकर मैं भी जंगल में प्रवेश कर गया। जी हाँ,पूरी तरह असली जंगल। मुझे ऐसे में बहुत आनंद आता है। कुछ साल पहले सरिस्का टाइगर रिजर्व में भी मैंने हनुमान जी के मंदिर के बहाने लगभग 60 किलोमीटर बाइक चलाई थी। यहाँ इतनी दूरी तक चलने की अनुमति तो नहीं थी फिर भी मेरे घर से 200 किलोमीटर की दूरी के अन्दर यदि कोई जंगल है तो यही है। इससे बड़ा आनंद भला क्या हो सकता है। चेक पोस्ट से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर एक तिराहा मिलता है। बायीं तरफ आगे बढ़ते ही एक छोटा सा मंदिर है। यह जटाशंकर मंदिर है। नाम से स्पष्ट हो जाता है कि यह शिव जी का ही मंदिर होगा। मेरे पीछे एक–दो चारपहिया गाड़ियों में कुछ लोग सपरिवार आये हैं। दर्शन का वास्तविक आनन्द यही लोग उठा रहे हैं– दर्शन–प्रसाद–दक्षिणा–प्रदक्षिणा वगैरह–वगैरह। खानाबदोशों की तरह आनेवाला एकमात्र इंसान मैं ही हूँ। मेरे लिए यहाँ समय बिताने का कोई खास बहाना नहीं है तो फिर मैं आगे कौलेश्वर मंदिर की ओर बढ़ जाता हूँ। लगभग डेढ़–दो किलोमीटर आगे यह भी एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर में आकर्षण की कोई खास वस्तु नहीं है। लेकिन इसके आस–पास आकर्षण की ढेर सारी वजहें हैं। पास ही गण्डक का किनारा है। इस किनारे पर पक्के घाट विकसित किये जाने की तैयारियाँ चल रही हैं। वैसे अभी ढेर सारा काम बाकी है और धूल–धक्कड़ है। यहाँ नदी काफी चौड़ी है और उस पार नेपाल दिखायी पड़ता है। वातावरण में कुछ धूल और धुन्ध भरी हुई है इसलिए नेपाल के दर्शन कुछ कठिनाई से हो रहे हैं। नदी का पाट काफी चौड़ा है और किनारा अत्यधिक ऊँचा। नदी के किनारे पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बन तो गयी हैं लेकिन अभी पक्की नहीं हुई हैं। पानी की मात्रा कुछ कम होने से किनारे पर कुछ छोटे रेत के टीले उभर आए हैं और इन टीलों के बीच छोटी–छोटी जलधाराएं प्रवाहित हो रही हैं। मौसम साफ होता तो उत्तर में हिमालय की निचली पहाड़ियाँ बहुत ही स्पष्ट दिखायी पड़तीं और शायद बर्फीला हिमालय भी और इस पृष्ठभूमि में यह दृश्य अलौकिक होता। फिर भी कम सुंदर दृश्य नहीं है। एक–दो लोग जलधाराओं को पारकर कुछ लोग अन्दर तक प्रवेश कर गये हैं। वैसे मैं इतनी आसानी से जूते नहीं उतारने वाला। बिना जूते उतारे जहाँ तक बन पड़ा,मैं नदी के अन्दर तक गया। कौलेश्वर मंदिर के पास ही हाथियों का एक कैम्प भी बना है।

कुछ इधर–उधर कूद–फाँद करने के बाद मैं पीछे लौट पड़ा। अब जटाशंकर मंदिर के पास वाली त्रिमुहानी से दाहिनी तरफ वाले रास्ते की बारी थी जो वाल्मीकि आश्रम की तरफ जाता है। कुछ भी हो जंगल की यह बाइक राइड याद रखने लायक है। लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद गाड़ियों का रास्ता बन्द हो जाता है। क्योंकि अर्द्धसैनिक बल की एक पोस्ट है जहाँ दो जवान तैनात हैं। नाममात्र की जाँच की औपचारिकता है। यहाँ से पैदल ही जाना है। रेत में टहलते हुए लगभग 200 मीटर तक। लेकिन इसके बाद तो जूते भी उतारकर हाथ में लेने पड़ते हैं क्योंकि एक छोटी सी धारा है जो गण्डक से मिलने के लिए बेताब है और इसे चलकर पार करना है। धारा में अधिकतम एक फीट तक पानी है। पीछे गाड़ियों में आये हुए कुछ बच्चे धारा में अटके पत्थरों पर बैठकर फोटो खींचने लगते हैं। यह सब देखकर मेरा भी बचपन जाग उठता है। इसके पहले कि मैं धारा में कुलाँचे भरूँ,सामने नेपाली भाषा में नेपाल का एक बोर्ड दिखायी पड़ता है और सारे भ्रम मिट जाते हैं कि अब हम बिना किसी औपचारिकता के नेपाल में प्रवेश करने वाले हैं। रोमांच मन में हिलोरें लेने लगता है और एक हाथ में जूते लटकाए मैं आगे दौड़ पड़ता हूूँ।

धारा के उस पार नेपाल की ओर हल्की सी चढ़ाई है और कुछ सौ मीटर आगे वाल्मीकि आश्रम है। यह नेपाल में है। चारों तरफ जंगल है। कहते हैं कि यह वही आश्रम है जहाँ लव–कुश का जन्म हुआ था। उस समय की घटनाओं से संबंधित कुछ स्मृति अवशेष जगह–जगह दिखायी पड़ते हैं वैसे मेरी नजर में इनकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है। उस स्थान पर नेपाली शैली में एक छोटा सा मंदिर भी बना हुआ है जहाँ से माता सीता ने पाताल गमन किया था। एक तथाकथित मीडिया वाले भी आये हुए हैं। एक माइक और मोबाइल के सहारे वीडियाे बनाये जा रहे हैं– पूरी रौ में जैसे कि न्यूज चैनल वाले छोटी से छाेटी बात को भी मिर्च–मसालेदार बना कर दिखाते हैं।

यह वाल्मीकि आश्रम पूरी तरह से जंगल के बीचोबीच अवस्थित है। यहाँ से इधर–उधर जाने का कोई रास्ता नहीं दिखता। यद्यपि यहाँ से नेपाल की तरफ भी जाने का रास्ता अवश्य होगा। भारत की ओर से मैं आया ही था। वैसे भी मेरे पास रास्ते की खोज करने का समय नहीं है। और यहाँ से नेपाल की ओर जाने के लिए परमिट वगैरह की भी अवश्य ही आवश्यकता पड़ेगी। तो पूरे परिसर के एक–दो चक्कर लगाने के बाद,एक हाथ में जूता लटकाये मैं वापस लौट पड़ा। जूते पहनने की यहाँ कोई आवश्यकता ही नहीं है। आश्रम में टहलने के लिये जूता निकालना ही पड़ता और धारा को पार करना तो जूते निकाले बगैर हो ही नहीं सकता। पूरी मस्ती में गण्डक से मिलने जाती धारा को पूरी मस्ती में टहलते हुए पार करने के बाद इस पार पहुँचा तो सीमा पर तैनात सुरक्षाबलों से दो बातें हुईं। कुछ ही पीछे उनकी बैरकें वगैरह थीं। मुझे ईर्ष्या हो रही थी कि इनकी नौकरी कितनी अच्छी है जो नदी किनारे,जंगलों के बीच रहने का सौभाग्य मिला है और उनका दुखड़ा ये कि शहरों से दूर जंगल में ही रहना पड़ता है। वो कहावत है न कि दूसरे की थाली में घी अधिक दिखायी पड़ता है।

ऐसी सुंदर जगह को छोड़कर आने के कारण मैं भारी मन से वापस लौट रहा था। जंगल के कच्चे रास्ते पर कुछ देर बाइक दौड़ाने के बाद मैं पक्की सड़क पर बनी वन विभाग की चेक–पोस्ट तक आ पहुँचा। लेकिन यहाँ से अभी मुझे वापस न आकर उत्तर की ओर,जंगल के अन्दर वन विभाग के रेस्ट हाउस तक जाना था। वैसे यहाँ रेस्ट हाउस के आस–पास देखने के लिए कुछ नहीं है। जंगल,नदी और उसमें तैरती नावें तो हर जगह हैं और है नदी के उस पार नेपाल का धुँधला दृश्य। नदी के किनारे बने रास्ते पर मैंने कुछ इधर–उधर बाइक दौड़ाई और फिर वापस लौट पड़ा। लेकिन रास्ते में अभी नर देवी का मंदिर बाकी था। यह जंगल के बीच गुजरती मुख्य सड़क से लगभग डेढ़ किलोमीटर अंदर की ओर है। अब तक मैं जंगल में जितना भी घूमा था,सबसे अधिक भीड़ नर देवी मंदिर में मिली। यहाँ पहुँचना संभवतः सर्वाधिक आसान है। यह एक छोटा सा लेकिन सुंदर मंदिर है। आस–पास प्रसाद और फूल–मालाओं की कुछ दुकानें हैं। रमणीक स्थान है।

पनियहवा पुल के पास एक साथ गुजरती सड़क और रेल लाइन


वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के भीतर


जटाशंकर मंदिर


कौलेश्वर मंदिर

नेपाल की सीमा में वाल्मीकि मंदिर


वाल्मीकि आश्रम में जानकी मंदिर

इस धारा के एक तरफ नेपाल है जबकि दूसरी तरफ भारत


वाल्मीकि आश्रम के पास ग्रामीणों की कुछ झोपड़ियां

जीप भारत में खड़ी है जबकि मैं नेपाल में खड़ा हूँ


नर देवी मंदिर

गण्डक का विस्तार और उस पार दिखता नेपाल






सम्बन्धित यात्रा विवरण–

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