Friday, July 29, 2016

यथार्थ

एक दिन
मैंने बनाई,
एक खूबसूरत पेंटिंग
मन के विस्तीर्ण कैनवस पर।
जिसमें खिला था–
सुनहरा सवेरा,
महाकवि माघ के प्रभात को लज्जित करता हुआ।
झील से मिलते धरती और आकाश,
बुझती युगों–युगों की प्यास।
गिरि–शिखरों के कोने से झांकता सूरज।

Friday, July 22, 2016

निवेदन

हे प्रियतमǃ तुम आये
मन के मोती खनखनाये।
कौन कहता हैǃ
शंकर ने कामदेव को जला दिया,
तुम सशरीर मेरे पास हो।


मेरी जीवनरूपी आकांक्षा की चरम परिणति,
जन्मों की संचित अभिलाषा का मूर्त रूप,
मेरे आंगन के फूलों के माली।

Friday, July 15, 2016

भविष्य

मैं सपने बुनता हूं
स्वर्णिम भविष्य के।
टूटते हैं रोज फिर भी
मेरी जिजीविषा अनन्त है।
पहले दूसरों से सुनता था
अब खुद भी कहता हूं–
‘‘कुछ करके दिखाउंगा,
कुछ बन के दिखाउंगा।‘‘
उजले कागजों को स्याह कर डालता हूं,
बाप की कमाई से सपनों का पेट पालता हूं,
क्योंकि मैं एक शिक्षित बेरोजगार हूं,
हर लक्ष्‍य के लिए संघर्ष करने को तैयार हूं।

Friday, July 8, 2016

शान्ति की खोज में

मैं शोर से आक्रान्त हूं
इसलिए मैं भागता हूं, हर जगह से
पर मैं पलायनवादी नहीं हूं
इसलिए मैं भटकता हूं
शान्ति की खोज में।

मैंने सुनी–
फूलों से भरी, लताओं से घिरी,
अकेली डगर की कराहǃ
पता नहीं कब तक चलना है;
कहां है मेरी सीमा।

Friday, July 1, 2016

यही है जिंदगी

कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है,
क्या यही है जिन्दगी
जिसके बारे में हम कभी सोचते ही नहीं है।
सुबह होती है,शाम जाती है,जिन्दगी यूं ही तमाम होती है।
रोज की भागदौड़ में पता ही नहीं चलता कि कैसे मिनटों और घण्टों की शक्ल में पूरा दिन ही बीत गया।
दिन और हफ्तों की गिनती में महीने और साल बीत गये। साल दर साल बीतते गये। बचपन का वो सुनहरा दौर कैसे बीता,उसके बारे में तब सोचते हैं जब केवल सोच ही सकते हैं।
जब कुछ सोच कर करने का समय होता है, उस समय जवानी का  जोश इतना ज्यादा होता है कि उमर जोश को संभालने में ही बीत जाती है और कुछ समय बाद गुजरता समय बताता है कि अरे यार थोड़ा सा यहां चूक गये। ये बात समझने में थोड़ी सी चूक हो गयी,हमने ये क्यों नहीं सोचा ǃ
और फिर बाद में सोचते रह जाते हैं
क्योंकि अब सोच ही सकते हैं
करने को तो कुछ रह नहीं जाता
और लगता है–
‘क्या यही है जिन्दगी‘
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