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28 मई
आज हमारी इस यात्रा का आखिरी दिन था और आज का कार्यक्रम था ग्वालियर का किला। कल जब हम ग्वालियर पहुँचे और आटो से इधर–उधर भाग–दौड़ कर रहे थे तो कई जगह से ग्वालियर के किले की बाहरी दीवारों की एक झलक दिखाई पड़ी थी। काफी रोमांचक लगा। आज हम बिल्कुल पास से इसे देखने जा रहे थे। अपने होटल के पास से ही हमने आटो पकड़ी और आधे घण्टे के अन्दर 15–20 रूपये में किले के गेट तक पहुँच गये।
बाहरी गेट के पास से किला बहुत साधारण सा लग रहा था लेकिन असली दृश्य अभी सामने आना बाकी था। किले के दो गेट हैं– पूर्व की ओर ग्वालियर गेट है जहाँ हम पहुँचे थे। यहाँ से आगे पैदल ही जाना पड़ता है। पश्चिम की ओर उरवाई गेट है जहाँ वाहन से पहुँचा जा सकता है। किले के आस–पास किले के अन्दर घुमाने के लिए लगभग 400 रूपये के खर्च में गाड़ियाँ उपलब्ध हैं लेकिन मोलभाव जरूरी है। ये सभी गाड़ियां पश्चिमी गेट से किले में प्रवेश करती हैं। हाँ,अगर 8–10 किमी पैदल चलने की इच्छा व क्षमता हो तो पैदल भी घूमा जा सकता है।
किले पर लिखने के पहले मैंने काफी खोजबीन की इसलिए कुछ जानकारियां साझा करना जरूरी है। ग्वालियर का किला कब और कैसे बना,इसके ठोस साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण एक स्थानीय सरदार सूरजसेन ने 727 ई0 में करवाया था जो इस किले से लगभग 55 किमी दूर सिंहोनिया गांव का रहने वाला था। इसे उन्होंने ग्वालिपा नामक साधु के नाम पर धन्यवाद स्वरूप बनवाया था। साधु ने उन्हें 'पाल' की उपाधि से नवाजा। कहा जाता है कि सूरजसेन पाल की 83 पीढ़ी तक के वंशजों के पास इस किले का स्वामित्व रहा परन्तु 84वीं पीढ़ी के वंशज इसे हार गये।
किले की प्राचीनता के सम्बन्ध में एक और कहानी है। यहाँ से हूण शासक तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल के शासन काल के 15वें वर्ष अर्थात 525 ई0 का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है,जिसमें मातृचेत नामक व्यक्ति द्वारा गोपाद्रि या गोप नाम की एक पहाड़ी,जिस पर एक दुर्ग स्थित है,पर एक सूर्य मन्दिर बनवाये जाने का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है इस पहाड़ी का प्राचीन नाम गोपाद्रि अथवा रूपान्तर से गोपाचल या गोपगिरि है जिस पर गुप्त काल में भी कोई बस्ती थी।
चंदेल वंश के दीवान कच्छपघात के पास दसवीं शताब्दी में इस किले का नियंत्रण था। 11वीं शताब्दी में दिल्ली के शासकों ने इस किले पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था। तबकाते अकबरी के अनुसार एक बार महमूद गजनी ने 4 दिन के लिए किले को अपने कब्जे में ले लिया और 35 हाथियों के बदले में किले को वापस किया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने भी एक लम्बी लड़ाई के बाद किले को जीता था। बाद में दिल्ली सल्तनत इस किले को फिर से हार गयी। 1232 में इल्तुतमिश ने इस किले पर दोबारा कब्जा किया और राजपूत रानियों ने जौहर प्रथा के अनुसार अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दिये। 1398 में यह किला तोमर राजपूत राजाओं के नियंत्रण में चला गया। किले का वर्तमान स्वरूप 15वीं शताब्दी में इसी वंश के राजा मानसिंह तोमर ने दिया।
1505 में दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी ने किले पर हमला किया लेकिन सफल नहीं हुआ। 1516 में सिकन्दर लोदी के बेटे इब्राहिम लोदी ने किले पर हमला किया जिसमें तोमर राजा मान सिंह तोमर अपनी जान गंवा बैठे और एक साल के संघर्ष के बाद तोमर वंश ने हथियार डाल दिये। 10 वर्ष बाद बाबर ने दिल्ली सल्तनत से यह किला छीन लिया। 1542 में शेरशाह सूरी ने यह किला जीत लिया। 1558 में अकबर ने मुगलों के लिए इस किले को फिर से जीता और अपने राजनीतिक कैदियों के लिए इस किले को कारागार के रूप में बदल दिया। अकबर के चचेरे भाई कामरान को यहीं बंदी बनाकर रखा गया था और बाद में मौत की सजा दे दी गयी। औरंगजेब के भाई मुराद और दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह को भी इसी किले में मौत की सजा दी गयी। ये सारी हत्याएं मान मंदिर महल में की गयीं।
अट्ठारहवीं शताब्दी में मुगलों के पतन के समय जब महाराष्ट्र के प्रमुख सरदार सिंधिया का दिल्ली–आगरा के आस–पास के प्रदेशों में आधिपत्य स्थापित हुआ तो ग्वालियर का किला भी उनके कब्जे में आ गया। इस दौरान बीच–बीच में इस किले का आधिपत्य सिंधिया राजवंश एवं अंग्रेजों के बीच स्थानान्तरित होता रहा। जनवरी 1844 में इस किले को अंग्रेजों ने मराठा सिंधिया वंश को अपना दीवान नियुक्त करके प्रदान कर दिया। 1857 की क्रान्ति के समय ग्वालियर में स्थित 7000 सैनिकों ने अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया लेकिन इस समय भी ग्वालियर के सिंधिया शासक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। 1858 में अंग्रेजों ने किले पर फिर से कब्जा कर लिया और सिंधिया शासक को कुछ रियासतें दे दीं। 1886 में अंग्रेजों ने भारत के अधिकांश हिस्से पर अधिकार कर लिया और इस लिहाज से अब इस किले का उनके लिए विशेष महत्व नहीं रहा। अब उन्होंने फिर से इसे सिंधिया घराने को दे दिया जो भारत की स्वतंत्रता तक उनके पास रहा।
लाल बलुआ पत्थर से निर्मित यह किला शहर से अलग–थलग 3 किमी लम्बी और समीपवर्ती स्थल से 100 मीटर ऊँची एक पहाड़ी पर अवस्थित है। किले की दुर्भेद्य दीवार की लम्बाई लगभग 2 किमी है। किले की दीवारें बिल्कुल खड़ी चढ़ाई वाली हैं। किले के पश्चिमी उरवाई गेट तक पहुँचने के लिए एक पतली सड़क बनी है। इस सड़क से गुजरते समय दुर्ग की पहाड़ी में उत्कीर्ण जैन तीर्थंकरों की नग्न मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। इनमें से एक मूर्ति 57 फीट ऊँची है। ये सभी मूर्तियां 15वीं शताब्दी की बनी हैं।
ग्वालियर किले में ऐतिहासिक एवं वास्तुकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण अनेक इमारतें हैं। वर्तमान में उपलब्ध किले का सबसे प्राचीन स्मारक चतुर्भुज विष्णु मंदिर है। इसमें एक चौकोर मन्दिर के ऊपर एक शिखर बना है। लम्बे पायों पर टिका इसका सभामण्डल विशेष रूप से दर्शनीय है। इसे 875 ई0 में अल्ल नामक व्यक्ति ने गुर्जर प्रतिहार नरेश रामदेव के समय बनवाया था। यह मन्दिर उरवाई गेट के पास ही है।
1093 ई0 में बना सहस्रबाहु का मंदिर ग्वालियर किले का दूसरा प्राचीन ऐतिहासिक स्मारक है। यह किले के पूर्व के कोने में दो मंदिरों के समूह के रूप में स्थापित है। इसे कछवाहा नरेश महिपाल ने बनवाया था। यह मंदिर भगवान सहस्रबाहु विष्णु को समर्पित है। कहा जाता है कि इसका शिखर 100 फुट ऊँचा था लेकिन बाद में इसका शिखर और गर्भगृह दोनों ही नष्ट हो गये। फिर भी इसका वैभव,इसकी छत एवं बाहरी और भीतरी दीवारों पर की गयी मूर्तिकारी से स्पष्ट झलकता है। रूपान्तर के कारण बाद में इसे सास–बहू का मंदिर कहा जाने लगा।
सास–बहू मंदिर से लगभग एक किमी की दूरी पर किले का सर्वोच्च स्मारक तेली का मंदिर स्थित है। इसकी ऊँचाई 100 फीट से भी अधिक है। इस मंदिर का निर्माण प्रतिहार राजा के सेनापति तेल्प ने आठवीं शताब्दी में करवाया था। इसे तेल्प का मंदिर कहा जाता था जिसे बाद में तेली का मंदिर कहा जाने लगा।
ग्वालियर के किले की सबसे महत्वपूर्ण इमारत है– मान मंदिर भवन। यह महल हिन्दू स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसे 1508 में ग्वालियर के प्रतापी राजा मान सिंह तोमर द्वारा बनवाया गया था। रंगीन टाइलोंं से सजा यह महल आज भी अपनी सुन्दरता को बखूबी प्रदर्शित कर रहा है। यह भवन शुद्ध भारतीय या हिन्दू वास्तुशैली में बना है। इस महल में कुल चार तल हैं जिसमें दाे भूमिगत हैं। इस राजमहल का निर्माण किले की ऊँची दीवार से सटा कर किया गया है जिसकी ऊँचाई जमीन की सतह से 300 फुट है। इस महल के तहखानों में एक कैदखाना भी है जिसमें मुगलकाल के राजनीतिक बंदियों को कैद करके रखा गया था। वास्तव में सोलहवीं शताब्दी में किले पर मुगलों का आधिपत्य होने के बाद इस महल का उपयोग शाही जेल के रूप में किया जाने लगा। मान मंदिर में प्रवेश के पूर्व तमाम गाइड अपने सहयोग के लिए चिल्ला रहे थे। लेकिन सबकी तरह हम अपने भरोसे ही अन्दर प्रवेश कर गये। लेकिन वास्तव में भवन के अन्दर की गैलरियां भूल–भुलैया जैसी हैं जिनमें किसी अकेले व्यक्ति को छोड़ दिया जाय तो वह निश्चित ही डर जायेगा।
तेली के मंदिर से कुछ दूरी पर एक गुरूद्वारा है जिसका भवन बहुत ही सुन्दर बना है। इसके रास्ते में सिंधिया पब्लिक स्कूल भी स्थित है। ग्वालियर के किले के अन्दर की अन्य निर्मितियों में कर्ण महल,विक्रम महल,जहाँगीर महल,शाहजहाँ महल इत्यादि उल्लेखनीय हैं। शाहजहाँ महल तथा जहाँगीर महल एक ही परिसर में स्थित हैं। जहाँगीर महल के अन्दर ही वह जौहर कुण्ड है जहाँ 1232 में इल्तुतमिश से पराजय के बाद राजपूत रानियों ने आग में कूदकर अपने प्राण त्याग दिये। प्रारम्भ में यह कुण्ड पानी की एक टंकी थी जिसमें दैनिक जरूरत के लिये पानी इकट्ठा किया जाता था।
ग्वालियर किले की एक अन्य महत्वपूर्ण इमारत है गूजरी महल। इस भवन को तोमर राजा मानसिंह ने 1486–1516 के बीच बनवाया था। इस महल में पुुरातत्व संग्रहालय की स्थापना सन 1920 में एम.वी. गर्दे द्वारा की गयी जिसे 1922 में दर्शकों के लिए खोला गया। यह राजा मानसिंह और गूजरी रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। गूजरी रानी की शर्त के मुताबिक राजा मानसिंह ने मृगनयनी के मैहर राई गाँव जो कि ग्वालियर से 16 मील दूर स्थित था,से पाइप के द्वारा पीने का पानी महल तक लाने की व्यवस्था की थी। महल के प्रस्तर खण्डों पर खोदकर अनेक कलात्मक आकृतियां बनाई गयीं हैं। यह एक दुमंजिला भवन है जिसके बाहरी भाग को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने यथावत रखा है जबकि अन्दर के भाग को संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इस संग्रहालय के 28 कक्षों में दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गयी हैं जो ग्वालियर और आस–पास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं। गूजरी महल किले के ग्वालियर गेट के नजदीक है। गूजरी रानी मृगनयनी को,वृन्दावनलाल वर्मा ने अपना कालजयी उपन्यास लिखकर अमर कर दिया।
एक बात और उल्लेखनीय है। ग्वालियर के किले में लगभग हर भवन में प्रवेश हेतु टिकट लेना पड़ता है। सहूलियत बस इतनी है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भारतीय नागरिकों से शुल्क अधिक नहीं लेता है। ग्वालियर के किले में घूमते–घूमते हमें भी चार–पाँच घण्टे बीत चुके थे। गर्मी में चलते–चलते बुरा हाल हो चुका था इसलिए वापस हो लिए। गर्मी और थकान के कारण और कहीं जाने की इच्छा नहीं रह गयी थी इसलिए दोपहर बाद खाना खाकर कमरे पहुँच गये। रात में घर वापसी के लिए बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में ग्वालियर से वाराणसी तक का रिजर्वेशन था। ट्रेन रात में 8.40 पर थी। इसलिए शाम को जल्दी खाना खा लिया गया। चूँकि हमारा होटल ग्वालियर रेलवे स्टेशन के पीछे की ओर बिल्कुल पास ही था इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं थी। आराम से चलते हुए स्टेशन पहुँचे,थोड़ी देर ट्रेन का इन्तजार किया और फिर अपनी–अपनी सीटों पर पसर गये।
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चतुर्भुज मन्दिर |
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कर्ण महल |
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किले से ग्वालियर शहर का विहंगम दृश्य |
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विक्रम महल |
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पत्थर की दीवारों पर की गयी चित्रकारी |
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जहाँगीर महल के अन्दर जौहर कुण्ड |
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जहाँगीर महल |
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ऊपर से गूजरी महल का दृश्य |
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जहाँगीर महल के अन्दर का भाग |
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मान मंदिर के गुम्बद |
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मान मंदिर के अंदर की कारीगरी |
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मान मन्दिर महल के अन्दर के तहखाने में एक सजावट ऐसी भी |
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मान मन्दिर पैलेस की बाहरी दीवारों पर की गयी कारीगरी |
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किले का पूर्वी या ग्वालियर गेट |
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ग्वालियर किले का तोपची |
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सास–बहू का मन्दिर |
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सास–बहू का मन्दिर |
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सास–बहू मन्दिर के दोनों भाग एक साथ |
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तेली का मन्दिर |
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गुरूद्वारा |
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पहाड़ी में खुदी जैन प्रतिमाएं |
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संग्रहालय में परिवर्तित गूजरी महल का प्रवेश द्वार
गूजरी महल के अन्दर |
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
ग्वालियर का गूगल मैप–
Gwalior ka kila itna khubsurat hai mujhe nahi pata tha, acha kiya aapne dikha diya, sare photo man moh lete hain, bahut bahut dhanyvad aapka
ReplyDeleteThanks bhai
ReplyDeleteभाई अपनी ग्वालियर यात्रा अभी अधूरी है आप लेख से काफी जानकारी मिली, भविष्य में जब भी कभी यात्रा होगी , आपका लेख बहुत मददगार रहेगा और हां इस लेख का सबसे जानदार फोटो ग्वालियर का तोपची वाला रहा,
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद भाई तोपची की प्रशंसा के लिए। आपके कमेण्ट से मन में हनुमान सा बल आ जाता है।
Deleteबहुत सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteधन्यवाद जी।
Deleteधन्यवाद सर। बहुत सम्मानित महसूस कर रहा हूॅं। आगे भी आपका स्नेह चाहूँगा।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया विवरण ग्वालियर किले का
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतीक जी प्रोत्साहन के लिए।
Deleteबहुत सुंदर जानकारी पूरे इतिहास को समेटे हुए
ReplyDeleteधन्यवाद। आगे भी अाते रहिए।
Deleteबेहतरीन जानकारी और उम्दा फोटो. आपकी चुनार की fb पोस्ट देख कर आज ही आपके ब्लॉग पर आना हुआ.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद। ऐसे ही उत्साहवर्धन करते रहिए।
Deleteअपने ग्वालियर किले मै केद 6 वें सिख गुरु हरगोबिंद साहिब के बारे मै कुछ नहीं लिखा है। इतिहास के अनुसार जहाँगीर ने गुरु हरगोबिंद साहिब को ग्वालियर के किले में लगभग दो साल तक कैद में रखाथा। जब उन्हें कैद से मुक्त किया गया तो उन्होंने अपने साथ 52 हिंदू राजा को भी छुडवाया.
ReplyDeleteऔर अगर आप पीछे के रस्ते उतरे
जो मंदिर है उन्हें देखे तो जीरो o का सबसे पुराना लिखित परमं मिलता है.
हाँ जी। सही बात है। ये जानकारी मुझे नहीं मिल सकी। वैसे आपने ये सुधार किया इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
DeleteJankari dene ke liye thanks sir,mujhe bhul bhuliya Marg ke bare me aur kuch Bata shakte hai.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जी ब्लॉग पर आने के लिए। भूल भुलैया में एक दूसरे से जुड़ी हुई बहुत सारी गैरलियाँ और सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इनके बारे में यहाँ पहुँचकर ही जाना जा सकता है।
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