किसी भू–भाग का जल–प्रवाह,उस भू–भाग की वर्षा की प्रकृति एवं मात्रा,उच्चावच्च के स्वरूप एवं व्यवस्था का परिचायक होता है। जल–प्रवाह के वैसे तो कई स्रोत हो सकते हैं लेकिन नदियाँ जल–प्रवाह का प्रमुख स्रोत होती हैं। नदियों का जल प्रवाह न केवल सम्बन्धित क्षेत्र के प्राकृतिक स्वरूप को गढ़ता है वरन मानव के जीवन यापन एवं उसके क्षेत्रीय प्रतिरूप को भी प्रभावित करता है। नदियों का बहता हुआ जल सम्पूर्ण विश्व में प्रारम्भिक प्राकृतिक स्वरूप को परिवर्तित करने का सबसे बड़ा कारक है। अपने अपरदन,परिवहन और निक्षेपण सम्बन्धी कार्याें के द्वारा नदियाँ विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण करती हैं। जीव जगत को अपने जल के द्वारा जीवन प्रदान करती हैं और साथ ही मैदानों का निर्माण कर मनुष्य के आवास और कृषि के लिए साधन भी प्रदान करती हैं। भौगोलिक दृष्टिकोण से नदियाँ किसी भू–भाग के जल प्रवाह तंत्र का सर्वप्रमुख घटक होती हैं। साथ ही ये उस भू–भाग की ढाल प्रवणता का अनुसरण करती हुई प्रवाहित होती हैं। इनकी प्रवाह दिशा के आधार पर किसी क्षेत्र के ढाल का निर्धारण किया जा सकता है। यद्यपि इस तथ्य के अपवाद भी मिलते हैं।
ऐतिहासिक रूप से भारतीय सभ्यताओं के विकास में नदियों का अतुलनीय योगदान रहा है। पश्चिम में सिन्धु नदी से लेकर पूर्व में गंगा के समुद्र में मिलने तक,अधिकांश महत्वपूर्ण प्राचीन शहर नदियों के किनारे ही आबाद हुए। वस्तुतः नदिेयों के किनारे बसने का आरम्भिक कारण जल की प्राप्ति थी। इसके अतिरिक्त यातायात और व्यापारिक गतिविधियाँ भी नदियों के रास्ते ही की जाती थीं। आधुनिक तकनीकी युग में तो नदियों का महत्व और भी बढ़ गया है। वर्तमान में संचार के साधनों के विकास के कारण नदियों द्वारा होने वाली व्यापारिक गतिविधियों में भले ही कमी आ गयी हो,प्राचीन काल में नदियाँ आन्तरिक व्यापार का सर्वप्रमुख साधन थीं।
इस पोस्ट में हम भारत के जल प्रवाह के प्रमुख स्रोत– यहाँ की नदियों के बारे में जानेंगे।
भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु मानसूनी है। इस कारण यहाँ की नदियों के जल प्रवाह में ऋतुओं के अनुसार विभिन्नता पायी जाती है। जलप्रवाह की विशेषता के आधार पर यहाँ की नदियों को दो वर्गाें में विभाजित किया जा सकता है–
1. हिमालय से निकलने वाली नदियाँ2. प्रायद्वीपीय क्षेत्र से निकलने वाली नदियाँ
कुछ विद्वानाें के अनुसार इनके दो और प्रकार भी हैं–
1. तटीय नदियाँ2. आंतरिक नदियाँ
हिमालय का अपवाह तंत्र– हिमालय में कई तरह की अपवाह व्यवस्था पायी जाती है। नदी प्रायः किसी क्षेत्र के ढाल के अनुसार प्रवाहित होती है लेकिन हिमालय का अपवाह पूरी तरह से अनुगामी या अनुवर्ती अर्थात ढाल की संरचना के अनुरूप नहीं है। नेपाल की अरूण और भारत की सिन्धु,ब्रह्मपुत्र,तिस्ता आदि नदियाँ हिमालय की उत्पत्ति से पूर्व भी उत्तर से दक्षिण की ओर बहती थीं। कालान्तर में हिमालय के निर्माण के पश्चात भी वे पुराने मार्ग का ही अनुसरण करती रहीं। हिमालय की नदियाँ पहाड़ी भाग में तीव्र गति से तोड़–फोड़ करती हुई प्रवाहित होती हैं। अनेक स्थानों पर ये तंग घाटियाँ भी बनाती हैं। हिमालय की श्रेणियाँ ज्यों–ज्यों उभरती गईं,ये नदियाँ अपनी घाटी को गहरा करते हुए प्रवाहित होती रहीं। अर्थात हिमालय के उत्थान से इनके प्रवाह में व्यतिक्रम नहीं पड़ा क्योंकि ये नदियाँ उत्थान से भी अधिक तीव्र गति से अपनी घाटी को काटती रहीं। तीव्र गति से अपरदन करते हुए इन नदियों ने 1800 से 3600 मीटर गहरे व सँकरे महाखड्डों या गार्ज का निर्माण किया। गिलगित के पास सिन्धु नदी ने 5180 मीटर गहरी तंग घाटी या गार्ज का निर्माण किया है।
हिमालय की नदियों द्वारा बनायी गयी तंग घाटियों के निर्माण के बारे में विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। उनके अनुसार हिमालय के उत्थान से इन नदियों के मार्ग में रूकावट उत्पन्न हो गयी जिससे विशाल झीलों का निर्माण हुआ। बाद में इन झीलों का जलस्तर ऊँचा उठने से उनका जल ऊँचे भागों से उतर कर बहने लगा जिससे गहरी घाटियाँ बन गयीं। कुछ विद्वानों के अनुसार हिमालय में पहले से ही भ्रंश और खाइयाँ उपस्थित थीं। नदियों द्वारा ये खाइयाँ और चौड़ी और गहरी बना दी गयीं। इसके अतिरिक्त ये नदियाँ शीर्ष अपरदन तथा नदी अपहरण भी करती रही हैं। हिमालय से निकलने वाली अधिकांश नदियाँ,मैदानी भाग में,ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती हैं। इस तरह के अपवाह को अनुवर्ती (Consequent) अपवाह कहते हैं। लेकिन हिमालय की कुछ नदियों के प्रवाह पर ढाल का प्रभाव नगण्य रहा है। इसका कारण यह है कि ये नदियाँ हिमालय से भी अधिक प्राचीन हैं। ये नदियाँ हिमालय के पूर्व भी प्रवाहित होती थीं। हिमालय की श्रेणियों के उत्थान के दौरान इन नदियों ने गहराई की ओर कटान करते हुए अपना प्रवाह मार्ग बनाए रखा। इस तरह के अपवाह को पूर्ववर्ती (Antecedent) अपवाह कहते हैं। सिन्धु,ब्रह्मपुत्र,तिस्ता और नेपाल की अरूण ऐसी ही नदियाँ हैं।
इसके अतिरिक्त हिमालयी क्षेत्र में सरिता अपहरण के भी अनेक मनोरंजक उदाहरण मिलते हैं। गंगा की सहायक भागीरथी नदी ने तिब्बत की अनेक नदियों के जल का अपहरण कर लिया और इस कारण उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इसी तरह ब्रह्मपुत्र ने भी तिब्बत की अनेक नदियों का अपहरण किया है। तिस्ता नदी ने भी तिब्बत की कई नदियों का अपहरण किया है। हिमालय की कुछ नदियाँ मुख्य नदी की विपरीत दिशा में प्रवाहित होती हुई उससे मिलती हैं। इसे अक्रमवर्ती या क्रमहीन (Insequent) अपवाह कहते हैं। ब्रह्मपुत्र की सहायक दिहांग और लोहित नदियाँ अक्रमवर्ती अपवाह का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। हिमालय के नीचे स्थित मैदानों में कुछ नदियाँ लुप्त हो जाती हैं एवं कुछ समय के पश्चात पुनः धरातल पर प्रवाहित होने लगती हैं। इस तरह के अपवाह को खण्डित (Intermittant) अपवाह कहते हैं। नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में भी इस तरह के उदाहरण मिलते हैं। डेल्टाई क्षेत्रों में इसे गुम्फित प्रारूप (Braided Pattern) भी कहते हैं। राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्रों में कई नदियाँ कुछ दूर प्रवाहित होने के पश्चात मरूस्थल में ही लुप्त हो जाती हैं और समुद्र तक नहीं पहुँच पातीं। इस तरह के अपवाह को अन्तःस्थलीय (Inland) या आन्तरायिक अपवाह कहते हैं।
प्रायद्वीपीय भारत का अपवाह तंत्र– प्रायद्वीपीय भूभाग एक अति प्राचीन पठार है। यहाँ नदियों ने चौड़ी व उथली घाटियों का निर्माण किया है क्योंकि यहाँ लम्बवत अपरदन (गहराई में नीचे की ओर) कम तथा पर्श्विक अपरदन (किनारें की ओर) अधिक हुआ है। प्रायः सभी नदियाँ अपने आधार तल को प्राप्त कर चुकी हैं। प्रायद्वीपीय भारत का अपवाह तंत्र प्रमुखतः अनुवर्ती अपवाह तंत्र है। अर्थात यहाँ की नदियाँ ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती हैं। यहाँ की अधिकांश नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर पूरब की प्रवाहित होती हुई बंगाल की खाड़ी में डेल्टा बनाती हुई गिरती हैं। इसके अतिरिक्त पश्चिमी घाट से ही पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ ढाल के अनुदिश प्रवाहित होती हुई अरब सागर में गिरती हैं। प्रायद्वीपीय पठारी भाग के उत्तरी हिस्से का ढाल उत्तर की ओर होने के कारण विन्ध्याचल और सतपुड़ा श्रेणियों से निकलकर उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ जैसे चम्बल,केन,सिन्ध,बेतवा,सोन आदि गंगा और यमुना से समकोण पर मिलती हैं। इस तरह के अपवाह को परवर्ती अपवाह कहते हैं।
भारतीय अपवाह तंत्र का विकास
भारतीय अपवाह तंत्र,ऐतिहासिक रूप से भूगर्भिक घटनाओं के कारण विकसित हुआ है। इसमें कई बार परिवर्तन भी हुए हैं। हिमालय की उत्पत्ति वाली पोस्ट में इस पर विस्तार से चर्चा की गयी है। टर्शियरी युग में पर्वत निर्माणकारी भू–संचलनों के कारण उत्तर भारत की नदियों का प्रवाह क्रम अत्यधिक परिवर्तित हुआ। टेथिस सागर का तल ऊपर उठने की वजह से उसका जल एक विशाल नदी के रूप में,असम के उत्तर–पूर्व से हिमालय के समानान्तर प्रवाहित होते हुए उत्तर–पश्चिम में सुलेमान और किरथर श्रेणियों तक और उसके बाद दक्षिण की ओर मुड़कर अरब सागर की ओर प्रवाहित होने लगा। पेस्को ने इस नदी को इण्डोब्रह्म तथा पिलग्रिम ने शिवालिक नाम दिया है। यह एक अति विशालकाय नदी थी जो टेथिस सागर के उस सँकरे भाग में प्रवाहित होती थी जो हिमालय के दि्वतीय उत्थान के बाद अवशेष रह गया था। इस नदी द्वारा जमायी गयी अवसादी शैलों से ही हिमालय के तृतीय उत्थान के समय शिवालिक श्रेणी का निर्माण हुआ। इस ऐतिहासिक नदी की तीन सहायक प्रणालियाँ थीं–
1. वर्तमान सिन्धु
2. सिन्धु की सहायक पंजाब की नदियाँ,और
3. गंगा और उसकी सहायक नदियाँ
कालान्तर में शिवालिक श्रेणी के उत्थान के पश्चात पंजाब के पोटवार पठार में उत्थान होने के फलस्वरूप यह नदी प्रणाली छिन्न–भिन्न हो गयी। नदी का उत्तरी–पश्चिमी भाग सिन्धु नदी प्रणाली के रूप में विकसित हुआ तथा मुख्य धारा का शेष भाग गंगा नदी के रूप में बंगाल की खाड़ी में गिरने लगा। बीच का भाग पंजाब नदी क्रम के रूप में विकसित हुआ। कालान्तर में गंगा और उसकी सहायक नदियों के मार्ग में अनेक बार परिवर्तन हुए। भूवैज्ञानिकों के अनुसार ऐतिहासिक युग में सतलज और यमुना राजस्थान से होकर प्रवाहित होती थीं। ईस्वी सन के आरम्भिक वर्षाें में सतलज नदी का मार्ग और अधिक पूर्व की ओर था तथा यह नदी स्वतंत्र रूप से अरब सागर में मिलती थी। सरस्वती नदी भी दक्षिण की ओर घग्घर घाटी में प्रवाहित होकर कच्छ की खाड़ी में गिरती थी। सरस्वती के किनारे आर्य सभ्यता के निवासियों ने अपना अधिवास बनाया। लगभग 2000 से 3000 वर्ष ईसा पूर्व हिमालय से उतरने के बाद यह नदी चुरू के निकट से गुजरती थी तथा लूनी इसकी एक सहायक नदी थी। कालान्तर में इस नदी का मार्ग पश्चिम की ओर बढ़ता गया और अहमदपुर के निकट सतलज में जा मिला। बाद में इसके ऊपरी भाग के जल का अपहरण गंगा की एक सहायक नदी के द्वारा कर लिया गया जिससे इसका निचला भाग सूख गया। इससे यमुना नदी की उत्पत्ति हुई जो गंगा नदी तंत्र की एक महत्वपूर्ण सहायक नदी है। सरस्वती की निचली सूखी घाटी राजस्थान में घग्घर घाटी के रूप में पाई जाती है। ईसा युग के आरम्भिक वर्षाें में सतलज एक स्वतंत्र नदी थी जो सिन्धु से अलग बहती थी लेकिन अब सिन्धु में मिल जाती है। व्यास नदी पहले सीधे सिन्धु नदी में मिलती थी जो अब फिरोजपुर के निकट सतलज नदी में मिल जाती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि सिन्धु नदी अपने वर्तमान मार्ग से 130 किमी पूर्व से होकर बहती थी,जो एक परित्यक्त मार्ग है,इससे होकर यह नदी कच्छ के दलदल तक पहुँचती थी जो उस समय अरब सागर की एक खाड़ी हुआ करती थी। धीरे–धीरे इसका मार्ग पश्चिम की ओर खिसकते हुए अपने वर्तमान स्थान तक पहुँच गया। इसी तरह मुल्तान एक समय पर रावी नदी के किनारे स्थित था लेकिन वर्तमान में यह रावी–चिनाब के 60 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। लगभग 250 वर्ष पहले व्यास नदी अपने पुराने मार्ग को बदलकर सुल्तानपुर के निकट सतलज नदी में जा मिली,जिसके अवशेष आज भी मोन्टगाेमरी और मुल्तान के बीच देखे जा सकते हैं।
गंगा और उसकी सहायक नदियों के मार्ग में भी कई बार परिवर्तन हुए। चौथी से छठी शताब्दी तक मौर्य और गुप्त राजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र एक बड़ा नगर था जो गंगा,सोन,घाघरा,गण्डक और पुनपुन नदियों के संगम पर स्थित था। बड़े संगम पर अवस्थित होने के कारण यह एक प्रमुख बंदरगाह और व्यापारिक केन्द्र था। लेकिन कालान्तर में इसकी समृद्धि नष्ट हो गयी। इसी प्रकार गंगा के डेल्टा में गौड़ नामक स्थान 5वीं से 16वीं शताब्दी तक एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था,किन्तु कालान्तर में इसके चारों ओर दलदल फैल जाने के कारण इसका महत्व कम हो गया। इसी प्रकार 16वीं शताब्दी तक बंगाल के मुस्लिम शासकों की राजधानी और प्रसिद्ध बन्दरगाह सतगाँव त्रिवेणी नदी के निकट सरस्वती नदी पर स्थित था किन्तु सरस्वती के सूख जाने के कारण इसका महत्व समाप्त हो गया। कोसी नदी 18वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में पूर्णिया नगर के नीचे की ओर बहती थी लेकिन अब यह इसके 80 किलाेमीटर पश्चिम की ओर बहती है। तिस्ता नदी पहले गंगा में मिलती थी लेकिन अब यह ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी के रूप में उससे मिलती है। पहले ब्रह्मपुत्र नदी का प्रवाह मार्ग ढाका शहर के पूरब की ओर था लेकिन अब यह ढाका के पश्चिम की ओर से प्रवाहित होती है। लगभग 200 वर्ष पूर्व गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियाँ परस्पर 240 किलोमीटर की दूरी पर प्रवाहित होती थीं। बाद में ब्रह्मपुत्र नदी मधुपुर नदी के पूर्व में मेघना से मिल गयी। लगभग 110 वर्ष पूर्व किसी भूगर्भिक हलचल के फलस्वरूप यह नदी अब मधुपुर वनों के पश्चिम में प्रवाहित होती है। ब्रह्मपुत्र नदी का असम के मैदानों में प्रवेश नदी अपहरण की प्रक्रिया का परिणाम माना जाता है। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार आरम्भ में तिब्बत की नदी सांगपो,पूर्व की ओर मुड़कर म्यांमार की इरावती नदी में चिंदविन नदी के माध्यम से जा मिलती थी। चिंदविन उस समय एक बड़ी नदी थी। कालान्तर में हिमालय के दक्षिणी ढाल पर प्रवाहित होने वाली एक छोटी नदी ने शीर्षवर्ती अपरदन करते हुए सांगपो नदी का अपहरण कर लिया तथा ब्रह्मपुत्र नदी क्रम का विकास किया।
पेस्को के अनुसार प्राचीन ऐतिहासिक काल में एक अन्य नदी हिमालय के उत्तर में पूर्व से पश्चिम में प्रवाहित होती थी। इसे तिब्बत की नदी कहा गया है। पेस्को के विचार में वर्तमान सांग्पो (Tsangpo) तथा सिन्धु नदियाँ इसकी घाटी में मिली हुई थीं। उत्तर–पश्चिम की ओर जाकर यह मध्य एशिया की ऑक्सस झील में गिरती थीं। इस विचार के समर्थन में पेस्को ने सांग्पो की सहायक केई,रोंग,नियांग,शबकी आदि नदियों का उल्लेख किया है जिनकी बहाव दिशा सांग्पो की वर्तमान बहाव दिशा के विपरीत पश्चिम दिशा की ओर है। पेस्को के अनुसार पश्चिमी पंजाब की अटक नदी ने तिब्बत की नदी का अपहरण कर इसके पश्चिमी भाग को स्वयं में मिला लिया जबकि तिब्बत की नदी का पूर्वी भाग सांग्पो नदी के रूप में पूर्व की ओर प्रवाहित होने लगा। एक अन्य विद्वान डी टेरा के अनुसार,ʺप्लीस्टोसीन हिमकाल के पूर्व काराकोरम और लद्दाख प्रदेश की नदियाँ पूर्व की ओर बहती थीं और सांग्पो घाटी से होकर चीन के जेचवान प्रांत की ओर चली जाती थीं। बाद में असम की दिहांग नदी ने इसका अपहरण कर सांग्पो को दक्षिण की ओर मोड़ लिया।ʺ वैसे ये दोनों विचार विवादास्पद हैं।
नोट– ब्लॉग में प्रस्तुत सामग्री एवं मानचित्र भूगोल के प्रख्यात विद्वानों की पुस्तकों,विभिन्न वेबसाइटों और एटलस से लिये गये हैं।
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