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Friday, December 30, 2022

आठवाँ दिन– मुढ से काजा

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आज सुबह मैं जल्दी काजा के लिए निकलना चाहता था। काजा के आस–पास भ्रमण करना था और बाइक में कुछ रिपेयर भी कराना था। रात में बारिश नहीं हुई थी। सुबह तक मौसम साफ हो चुका था। छ्टिपुट बादल थे। आसमान काफी कुछ नीला दिखायी पड़ रहा था। रात में बरफ भी पड़ी थी। सामने दिख रही पहाड़ी चोटियों पर बरफ जम गयी थी। नीले आसमान की पृष्ठभूमि में नजारा अत्यन्त मनमोहक था। वैसे तो पूरी तरह धूप खिलने के बाद ही घाटी का सौन्दर्य दिखायी पड़ता लेकिन मेरे पास समय कम था। मैं जल्दी से नीचे उतरा और बाइक की तरफ भागा। मेरी इस यात्रा में यह रोज का रूटीन था। पर आज मेरी बाइक ने भी अपना रूप बदल लिया था। सीट और टंकी पर लगभग आधे सेण्टीमीटर मोटी बरफ की परत जम चुकी थी जो खुरचने पर भी नहीं साफ हो रही थी। खुरचने से सीट खराब होने का भी डर था। मजबूरन धूप होने का इन्तजार करना पड़ा। हल्की धूप होते ही बरफ कपूर की तरह उड़ गयी। 
दादी ने सुबह की चाय का इन्तजाम कर दिया था। चाय देने के साथ साथ दादी मुझसे कुछ कह रही थीं लेकिन उनकी स्थानीय भाषा मैं नहीं समझ पा रहा था। कुछ शब्दों से एक–दो बातें समझ आयीं जिनका मतलब शायद यह था कि तारा होटल भी मेरा ही है या फिर मेरे ही नाम पर बना हुआ है।  इस बीच मैं भी तैयार हो चुका था। साथ ही जम्मू से आयी युवती और तारा होटल का संचालक काजा जाने के लिए बस के इन्तजार में खड़े हो गये थे। होटल संचालक कल की ही तरह आज भी अफरा–तफरी में भागदौड़ कर रहा था और मैं उससे अपना हिसाब–किताब कराने के फेर में परेशान था। खैर हिसाब–किताब कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। यह काम उसकी पत्नी ने आसानी से कर दिया।

सारा काम खत्म करने के बाद मैं 7.35 पर मुढ से काजा के लिए रवाना हो गया। मौसम साफ हो रहा था। धूप निकल रही थी लेकिन कल की बारिश के कारण रास्ते पर जगह–जगह गड्ढों में पानी भरा था। कहीं–कहीं कीचड़ भी था। इस वजह से बाइक को स्पीड से चलाने में काफी दिक्कत आ रही थी। रास्ते में नंगे–भूरे पहाड़ों को देखते हुए पिन नदी के साथ मेरी बाइक भी मस्ती में चलती रही। घाटी के ऊपर तेज धूप में अपनी छाया बिखेरते बादल कहीं किसी अनाम रास्ते पर चले जा रहे थे। मुख्य मार्ग पर पहुँचने से पहले ही पिन नदी ने साथ छोड़ दिया और मैं स्पीति के साथ हो लिया। अटार्गाे ब्रिज पार कर मुख्य सड़क पर आ जाने के बाद सड़क कुछ–कुछ ठीक मिलने लगी। ज्यों–ज्यों काजा नजदीक आता गया,सड़क और अच्छी होती गयी।

कुछ किलोमीटर पहले से ही ठीक स्पीति के किनारे बसा काजा दिखने लगा था। मन बल्लियों उछल रहा था। कम से कम मैं स्पीति घाटी के केन्द्र तक तो पहुँच ही गया था। अब मैं यहाँ से वापस शिमला के रास्ते लाैट जाऊँ तो भी यह कह सकता हूँ कि मैंने स्पीति वैली की बाइक यात्रा की है। बारिश के बीच मुढ के खराब रास्ते पर बिल्कुल अकेले बाइक चलाई है। माइनस तापमान में पिन वैली में ठहरा हूँ। अँधेरी सन्नाटे भरी रात में ढंखर के एक होटल में,मोमबत्ती के सहारे,बिल्कुल अकेले यात्री के रूप में रात गुजारी है।

10 बजे तक मैं काजा पहुँच गया। काजा पहुँच कर मैं रूका नहीं वरन बाइक चलाते हुए काजा के उस पार तक चला गया,जहाँ तक काजा बसा हुआ है। अर्थात सरसरी तौर पर काजा का निरीक्षण कर लिया। रास्ते में पेट्रोल पंप पर 1250 रूपये का पेट्रोल लिया। फिर वहाँ से वापस लौटा तो बाइक के मिस्त्री और होटलों के बारे में पूछताछ करते हुए। एक होटल में मुझे अटैच्ड बाथरूम वाला डबल रूम केवल 700 में मिल रहा था तो बिल्कुल मुख्य सड़क के किनारे एक होम स्टे में एक महिला मुझ पर दया करके केवल एक हजार में बिना बाथरूम वाला कमरा दे रही थी। मैं हाथ जोड़कर मिस्त्री की खोज में आगे बढ़ गया। आगे बढ़ने का मतलब मैं जिधर से गया था उसी दिशा में वापस लौट रहा था। सड़क से थोड़ा सा ही नीचे एक बाइक मिस़्त्री का बोर्ड दिखा तो मैं वहाँ पहुँचा। लेकिन दुकान बन्द थी। पता चला कि मिस्त्री छुट्टी पर गया है। स्पीति यात्रा का सीजन कुछ ही दिन और बचा है और उसी में यह बिचारा छुट्टी पर चला गया है। घनघोर आश्चर्य की बात थी। क्योेंकि फिर तो 7 से 8 महीने छुट्टी ही रहनी थी। किसी विद्वान ने बताया कि ʺद हिमालय कैफेʺ होटल के पास एक मिस्त्री है। मैं भागता हुआ वहाँ पहुँचा। यह काजा का मुख्य बाजार वाला क्षेत्र है। इसी यात्रा के पिछले अनुभवों को देखते हुए मुझे मिस्त्री के नाम पर बहुत डर लग रहा था क्योंकि पंक्चर वाले मिस्त्री इतने व्यस्त थे कि कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। लेकिन यह मिस्त्री तो बहुत दिलदार निकला। वह किसी काम में व्यस्त जरूर था लेकिन मेरी समस्या सुन तुरंत उठ खड़ा हुआ। बाइक का अगला ब्रेक शू घिस गया था और आवाज कर रहा था। इसका एक ही समाधान था कि नया ब्रेक शू लगा दिया जाय। लेकिन यह समाधान जितना आसान दिख रहा था उतना ही कठिन था क्योंकि मेरी बाइक का ब्रेक शू मिलना ही मुश्किल था। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उसके खजाने में एक पुराना ब्रेक शू मिल गया। वह था तो किसी और बाइक का लेकिन मेरी बाइक में भी फिट हो गया। मिस्त्री ने बताया कि यह कई साल से पड़ा हुआ था। तो ब्रेक शू और उस मिस्त्री की भी किस्मत अच्छी थी कि मैं पहुुँच गया था। केवल 350 रूपये में ब्रेक शू की कीमत और मजदूरी दोनों हो गये। हीरो के सर्विस सेण्टर में मेरी एक्सपल्स 200 टी की ब्रेक शू 1350 की पड़ती है। इस तरह मैं 1000 के फायदे में था।

कुछ ही देर में मिस्त्री ने बाइक को फिट घोषित कर दिया। उसी समय उस मिस्त्री की तलाश में तीन और बाइकर पहुँचे। उनकी बाइक में भी कुछ हल्के–फुल्के रिपेयर की आवश्यकता थी। तीनों से मेरा भी परिचय हुआ। तीनों कहीं दूर देश–विदेश में अच्छी जॉब करने वाले लड़के थे और छुटि्टयाँ ʺगँवानेʺ के लिए स्पीति वैली की यात्रा पर निकले थे। तीनों ने किराये की बाइक ले रखी थी। बाइक रिपेयर के बाद मैं फिर से कमरे की तलाश में पड़ा। इस बार मुख्य सड़क की ओर न जाकर काजा के मुख्य बाजार के आस–पास ही कमरे की खोज की। काजा के सरकारी बस स्टैण्ड से थोड़ी ही दूर पर 700 में एक डबल रूम आसानी से मिल गया। कमरा बहुत फिनिशिंग वाला तो नहीं था लेकिन ठीक था। सब कुछ व्यवस्थित करने के बाद मैं काजा के आस–पास बसे गाँवों जैसे लांग्जा,हिक्किम,कोमिक की ओर चल पड़ा।
सबसे पहले लांग्जा। यात्रा की व्यस्तताओं के बीच अभी जिन्दगी चाय के सहारे ही चल रही थी। मैंने अधिक कुछ के लिए प्रयास भी नहीं किया था और सीधे लांग्जा की ओर निकल पड़ा। काजा कस्बे से लगभग 1 किलोमीटर आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ एक पतली सड़क निकलती है जो तीखे मोड़ लेती हुई तीखी चढ़ाई चढ़ती है। काजा से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर लांग्जा गाँव बसा है। सड़क बिल्कुल बियावान में नंगे पहाड़ों के बीच से बिना डरे हुए बलखाती सी गुजरती है। छोटी–छोटी पहाड़ियों की ढलानों पर याक और कुछ अन्य जानवर बेफ्रिक चरते हुए नजर आते हैं। हरियाली का कहीं नामोनिशान तक नहीं दिखायी पड़ता है। छोटे से गाँव में कुछ गिनती के घर,दूर से एक ही डिजाइन में बने हुए नजर आते हैं। इसी गाँव से थोड़ा सा हटकर एक विशाल बुद्ध की मूर्ति पद्मासन में बैठी हुई है। नीले आसमान के नीचे तेज धूप में मूर्ति का पीला रंग पूरी तीव्रता से चमचमाता है। लांग्जा समुद्रतल से 4400 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। लांग्जा एक बहुत ही छोटा सा गाँव है जहाँ मुश्किल से 15-20 घर होंगे। आज का मौसम पूरी तरह से वैसा हुआ था जैसा कि स्पीति घाटी का होता है। अर्थात बिना बादलों वाले आसमान में पूरी तीव्रता से चमकता सूरज। धूप इतनी तेज थी कि ऊपर की ओर आँख उठाकर देखना मुश्किल था।

वैसे मूर्ति तक पहुँचने से पहले मुझे एक छोटा सा रेस्टोरेण्ट दिखा। रेस्टोरेण्ट के बाहर कुछ कुर्सियां और मेजें लगी हुई थीं। इन्हीं कुर्सियों में से एक पर एक महिला की आदमकद प्रतिमा बनी हुई थी जो अपने हाथों में एक खुली हुई किताब पढ़ने की मुद्रा में पकड़े हुई थी। मैं सुबह का भूखा था और दिन के सवा एक बजने जा रहे थे। मैं लपक कर रेस्टोरेण्ट में पहुँचा तो कुर्सी पर बैठी हुई प्रतिमा मेरी ओर देखने लगी।
अरे,ये तो जिन्दा औरत है।
  मैं भयानक हैरत में पड़ गया। एक दुबली–पतली,सूटेड–बूटेड युवती गहरा लाल लिपस्टिक लगाये मेरी ओर ही देख रही थी। उसने हाथ की किताब मेज पर रख दी। उसे देखकर ये निर्णय करना मुश्किल था कि वो शादीशुदा है या नहीं। वैसे भी आज की आधुनिक दुनिया में यह विषय सर्वाधिक कठिनाई भरा है। मैंने सीधा सवाल दाग दिया–
ʺपरांठा मिल जाएगा?ʺ
ʺनहीं मैगी मिल जाएगी।ʺ
ʺएक प्लेट बना दीजिए।ʺ
ʺवो अभी 15-20 मिनट बाद ही मिल पाएगी क्योंकि शेफ अभी हैं नहीं।ʺ
ʺफिर आप?ʺ मैंने प्रश्नवाचक निगाहें उसके चेहरे पर टिका दीं। हो सकता है कोई बड़े बिजनेस वाली हो जो यहाँ रेस्टोरेण्ट चला रही हो। लेकिन यहाँ तो किसी बड़े बिजनेसमैन द्वारा पैसा लगाना मूर्खतापूर्ण ही होगा। हाँ,शौकिया कोई हो सकता है।
ʺमैं दिल्ली से हूँ और घूमने आयी हूँ।ʺ
मेरी निगाहें और भी प्रश्नवाचक हो उठीं तो उसने थोड़ा सा सामान्य होते हुए अंग्रेजी के दो शब्द कहे–
ʺट्रैवल हास्पिटैलिटी।ʺ
उसके इन दो शब्दों ने मुझे सारी परिभाषाएं समझा दी थी। मैंने चुपचाप 50 रूपये वाली मैगी का आर्डर दिया और शेफ के आने तक बुद्ध की मूर्ति की ओर चल पड़ा। तभी रेस्टोरेण्ट के पीछे की ओर धूप में एक बेंच पर एक आदमी लेटी हुई मुद्रा में दिखा। यही उस रेस्टोरेण्ट का शेफ और ओनर था।

बुद्ध की मूर्ति के पास काजा में मिले वो तीन बाइकर लड़के पहले से हाजिर थे और फोटोग्राफी कर रहे थे। आगे भी आज की शेष यात्रा में वे तीनों मेरा साथ निभाते रहे। बुद्ध की मूर्ति के पास से मैं वापस लौटा तो मेरी मैगी तैयार थी। ʺट्रैवल हास्पिटैलिटीʺ वाली ने मैगी की प्लेट मेज पर लगा दी और फिर से किताब में व्यस्त हो गयी। मैगी खाने के बाद मुझे पानी की तलब लगी पर ʺवोʺ अपनी किताब में ही व्यस्त थी। मैंने जोर से उच्चारण किया–
ʺपानी मिलेगा?ʺ
ʺअन्दर मेज पर है।ʺ
मैंने भी थोड़ी सी ʺहास्पिटैलिटीʺ दिखायी,उठकर अन्दर से पानी लाया और पीकर चलता बना। शायद मैं अभी भी स्पीति की सच्चाई को समझने की कोशिश कर रहा था। बाकी दुनिया की तरह यहाँ कोई भागमभाग नहीं है। काेई जल्दबाजी नहीं है। हर काम आराम से हो रहा है। सम्पूर्ण स्पीति बुद्ध की तरह शान्त है। क्लान्त नहीं।



काजा की ओर


बादलों की छाँव में

लांग्जा की ओर

दूर से दिखता लांग्जा गाँव

लांग्जा की बुद्ध मूर्ति पीछे की ओर से

काजा में बसों का टाइम टेबल

लांग्जा की बुद्ध मूर्ति



लांग्जा गाँव






सम्बन्धित यात्रा विवरण–

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