Friday, December 14, 2018

केदारनाथ–बाबा के धाम में

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18 अक्टूबर
सुबह के साढ़े पाँच बजे सोकर उठा और आधे घण्टे में बाहर निकल गया। शायद सफेद चोटियों पर सूरज की पीली रोशनी पड़ रही हो। लेकिन अभी तो बाहर रास्ते के किनारे पीली लाइटें जल रही थीं। सफेद चोटियों पर कालिमा छाई हुई थी। मंदिर बिल्कुल खाली था। सामने के प्रांगण में एक स्थान पर अँगीठी जल रही थी जहाँ कुछ लोग ठण्ड से दो–दो हाथ कर रहे थे। वो भी मेरी तरह यूँ ही टहलते हुए आ गये थे। यहाँ तो कोई "बेघर" शायद जीवन संघर्ष में सफल नहीं हो सकता। मेरे हाथों में भी गलन हो रही थी क्योंकि दस्ताने नहीं थे। चेहरा और होठ सुन्न हो रहे थे। सूरज उजले पहाड़ों की ओट में था। कुछ ही मिनटों में मैं काँपने लगा। एक चाय वाले की अँगीठी के पास मैं भी खड़ा हुआ।
"चाय 20 रूपये।"
ठण्ड से चाय के बल पर लड़ने की कोशिश की और असफल रहने पर आधे घण्टे के अन्दर ही कमरे की तरफ भागा और रजाई में घुस गया। आधे घण्टे में शरीर जब गर्म हो गया तो फिर से बाहर निकला। गरम पानी माँगा तो 50 रूपये में एक बाल्टी गरम पानी मिला। लेकिन कपड़े उतार कर शरीर पर पानी डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।

और जब चाय नहीं थी,कमरे नहीं थे,आधुनिक जमाने की सुख सुविधाएं नहीं थीं,ठण्ड से लड़ने के पर्याप्त संसाधन नहीं थे।
तब–
भारतवर्ष का बदरिकाश्रम तीर्थ।
भगवान विष्णु के दो अवतार,जो नर–नारायण के नाम से प्रसिद्ध है,पार्थिव शिवलिंग बना कर भगवान शंकर की पूजा करते हैं। उनकी आकांक्षा है कि उनकी पूजा ग्रहण करने के लिए भगवान शिव स्वयं उस पार्थिव शिवलिंग में स्थित हो जायें। इस हेतु वे भगवान शंकर की आराधना करते हैं। भोलेनाथ तो भोले ही ठहरे। भक्तों की प्रार्थना भला वे कहाँ अस्वीकार करते हैं।
एक समय सीमा के बाद शिव प्रसन्न होकर संतुष्ट हो जाते हैं। वर देने को तत्पर हैं। नर–नारायण के मन में भी लोकहित ही है–
"देवेश्वरǃ यदि आप प्रसन्न हैं और वर देना चाहते हैं तो अपने स्वरूपसे पूजा ग्रहण करने के लिए यहीं स्थित हो जाइए।"
"एवमस्तु।"
और तबसे कल्याणकारी महेश्वर हिमालय के उस केदारतीर्थ में स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित हैं। केदारेश्वर नाम से प्रसिद्ध हैं,सुपूजित हैं।
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम्।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम्। वाराण्स्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।।
वैद्यनाथे चिताभूमौ नागेशं दारूकावने। सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलं लभेत्।।

लेकिन केदारेश्वर अकेले नहीं हैं। पंचकेदारों में से एक हैं। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पाण्डव युद्ध में बंधु–बांधवों की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे। इसके लिए शिव का आशीर्वाद आवश्यक था। उन्हें खोजते हुए पाण्डव हिमालय पर पहुँच गये। शिव उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। तो वे एक बैल का रूप धारण कर हिमालयी जीव–जंतुओं में खो गये। संदेह होने पर भीम ने विशाल रूप धारण किया और अपने पैर दो शिखरों पर रखकर खड़े हो गये। बैल रूपधारी शिव उनके पैरों के नीचे से निकलने को तैयार नहीं हुए और पहचान लिए गये। बचने के लिए बैल धरती में समा गया लेकिन भीम ने उसकी पीठ का ऊपरी भाग दोनों हाथों से पकड़ लिया। बैल की पीठ के उसी भाग की केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में आराधना की जाती है।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ मंदिर पाण्डवों द्वारा निर्मित है। अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका पुनर्निर्माण कराया। यह मंदिर धर्म का स्रोत है। यहाँ से धर्म की अविरल धारा प्रवाहित होती है। दुग्धधवल हिमराशि की गोद में अवस्थित यह मंदिर नास्तिक ह्रदय में  भी अध्यात्म का प्रादुर्भाव कर देता है। शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में केदारनाथ सर्वाधिक ऊँचाई पर अवस्थित है। कालान्तर में आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने यहाँ पर मंदिर का निर्माण कराया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी में निर्मित है।
3553 मीटर या 11755 फीट की ऊँचाई पर बना केदारेश्वर मंदिर 85 फीट ऊँचा,187 फीट लम्बा और 80 फीट चौड़ा है। यह मंदिर 6 फीट ऊँचे एक चबूतरे पर बनाया गया है। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी हैं। पत्थरों को खाँचे में बैठा कर इस मंदिर का निर्माण किया गया है।

अब सूरज ऊपर आ रहा था लेकिन उसका सुनहरा रंग खत्म हो चुका था। अब सफेद चोटियां सूरज की सफेद रोशनी में चाँदी की तरह दमक रही थीं। मंदिर के पास दर्शन करने वालों की भीड़ लग रही थी और थोड़ी ही देर में लाइन भी लग गयी। सुरक्षा बलों का भारी जमावड़ा दिखायी पड़ रहा था। पता चला कि कोई वीआईपी महोदय आ रहे हैं। भोलेनाथ से भी बड़ा कोई वीआईपी है जिसकी सुरक्षा के लिए इतनी व्यवस्था की गयी है।
मैंने टहलना जारी रखा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि ठण्ड कम महसूस हो रही थी। और अगले दो घण्टों से भी अधिक समय तक मैं मंदिर के आस–पास टहलता रहा।
कुछ देर तक मैं हेलीपैड पर भी खड़ा रहा। हेलीकाप्टर से आने वाले लोग ही अभी ऊपर आ रहे थे। पैदल और घोड़ों से आने वाले लोगों के ऊपर पहुँचने में अभी काफी समय था। इक्का–दुक्का लोग अब नीचे की ओर लौट रहे थे। हेलीपैड के पास बने एक रेस्टोरेण्ट के बाहर सजी काले रंग की कुर्सियों पर कल शाम की सफेद बर्फ ऐसे जमी हुई थी मानो कुर्सियों पर बैठने के लिए सफेद रंग की गदि्दयां रखी हों। कल शाम की बर्फ हर जगह दिख रही थी। खाने की मेजों पर,रास्ते पर,घरों की छतों पर। और अब धूप उन्हें पिघला रही थी तो घरों की छतों से बर्फ रस्सियों की तरह लटक रही थी।
धूप निकल जाने पर ठण्ड का असर कम हो गया है। फिर भी बीच–बीच में बादल अपना काम कर दे रहे हैं। केदारनाथ में महाविनाश के बाद का निर्माणकार्य अभी कुछ न कुछ चल रहा है। सीढ़ियों की मरम्मत करने वाले कारीगर आ चुके हैं। ठण्ड से सिकुड़े हाथों को गर्म करने के प्रयास में लगे हैं। ठीक उसी तरह से जैसे कि मैं शरीर को गर्म करने के लिए लगातार चल रहा हूँ। कई पण्डे मुझसे पूजा–पाठ कराने के लिए पूछ चुके हैं। गले में कैमरा लटके रहने पर ये भरसक दूर ही रहते हैं। शायद कैमरे और पूजा–पाठ में कोई गणित का व्युत्क्रमानुपात का सम्बन्ध है।

9.15 बजे तक मैं भी नीचे की ओर चल पड़ा। पेट में भरी कई कप चाय कुछ ऊर्जा दे रही थी। एक घण्टे बाद मैं एक झोपड़ी में रूका। करीने से रखी जलेबियों को देख कर मुँह में पानी आ रहा था।
"15 रूपये की 50 ग्राम।"
तो मैं जलेबियों का स्वाद चखने के लिए बैठ गया। और उधर नीचे से ऊपर आ रहे घुड़सवार दिखायी पड़ने लगे। ये किसी सेना के घुड़सवार नहीं हैं। वरन ये तो अपनी आस्था को घोड़ों की पीठ पर लादकर ला रहे हैं। लग रहा था कितनी मेहनत करके आ रहे हैं। मेरी जलेबियां उन्हें मुँह चिढ़ा रही थीं। जलेबियां खाकर मैं तरोताजा हो चुका था। इंजन को ईंधन मिल चुका था। मौसम की ठण्डक अब कष्टकारी नहीं रह गयी थी वरन अब गुनगुनी लग रही थी। मैंने भी तय कर रखा था कि उतराई में बैठना नहीं है वरन चलते रहना है। छोटी लिनचोली के पास एक महिला को मैंने हाथ पकड़कर फिसलन भरे रास्ते को पार कराया। बेचारी ने गट्ठर भर आशीष दिए। रास्ता तो आगे भी काफी खराब था लेकिन उसने यह कहते हुए मुझे मुक्त कर दिया कि,"जाओ बेटा,सबको पहुँचने की जल्दी है। कहाँ तक मेरे साथ चलोगे। कोई न कोई मिल ही जायेगा।"
रास्ते में भी जगह–जगह काम चल रहा है। कल जाते समय शाम हो जाने के कारण काम करने वाले नहीं दिखे। लेकिन आज ढलानों पर सीढ़ियों का निर्माण कार्य चल रहा है। काफी फिसलन है। चढ़ाई के समय फिसलन शायद कम महसूस हो रही थी लेकिन उतरने समय काफी सँभलना पड़ रहा था।
लेकिन एक जगह दृश्य ऐसा था कि मुझे बैठना पड़ा। और वो था रामबाड़ा पुल के पास गर्जना करती मंदाकिनी। 2013 की विनाशलीला के बाद से रामबाड़ा में मंदाकिनी पर नया पुल बन गया है। लेकिन पुराना पुल भी अभी वैसे ही पड़ा हुआ है,भले ही जर्जर हो गया हो। इस पुल के उस तरफ अर्थात केदारनाथ की तरफ मंदाकिनी द्वारा जमा किये गये पत्थर बेतरतीब ढंग से पड़े हुए हैं। मंदाकिनी इन पत्थरों के बीच से अपनी पूरी ताकत से शोर मचाती हुई निकलती है। मैं पत्थरों पर पैर टिकाता हुआ नदी के बिल्कुल पास जाकर अपने सारे साजो–सामान अर्थात कैमरा,मोबाइल,सेल्फी स्टिक के साथ एक बड़े पत्थर पर जाकर बैठ गया।

मंदाकिनी के कलरव में खो जाना अर्थात असीम शांति में डूब जाना। मंदाकिनी का शोर यहाँ इतना है कि और कोई ध्वनि पास आने का साहस नहीं कर सकती। तो फिर सारी भव–बाधाएं यहाँ से दूर जा चुकी हैं। मंदाकिनी उन्हें अपनी लहरों में समेटकर यहाँ से दूर ले जा चुकी है। नीचे से ऊपर जाने वाले या ऊपर से नीचे आने वाले किसी भी यात्री को मंदाकिनी की बातें सुनने का धैर्य नहीं है। सभी को सिर्फ आगे का दिखायी पड़ रहा है। सच भी है। गति शाश्वत है। यात्रा चलती रहती है। मंदाकिनी भी कहाँ रूकीǃ इतनी बड़ी विनाशलीला कर लेने के बाद भी इसके शोर में कोई भी अपराध बोध नहीं है। यह चल रही है– उसी गति से। चिरन्तन। निरन्तर।
अचानक मेरे मंदाकिनी के साथ संवाद में बाधा पड़ी। मेरी देखा–देखी एक नवयुगल मंदाकिनी के किनारे चला आ रहा था। मुझसे कुछ हटकर वो दोनों भी बैठ गये। लेकिन आपस में ही संवाद कर रहे थे,मंदाकिनी से नहीं। तो मैं उठकर चलता बना,उस पार की एक झोपड़ी में जहाँ से मैगी की सुगंध आ रही थी। जब तक मैगी बनकर तैयार हुई,मैं मैगीवाले से रामबाड़ा के इतिहास–भूगोल पर चर्चा करता रहा।
"यहाँ बहुत सारे मकान थे। होटल थे,दुकानें थीं,बाजार था। सब कुछ बह गया। सब कुछ ........।"
"कोई स्थायी रूप से रहने वाला भी था यहाँ?"
"रहने वाले तो सब नीचे के ही थी। यात्रा भर यहीं रहते थे।"
40 रूपये की मैगी हलक के नीचे उतारने के बाद मैंने अंतिम रूप से अपना डेरा–डंडा उठा लिया। लेकिन अब मेरी यात्रा में उत्साह नहीं चिंतन समा गया था। वो चिंतन,जो सृष्टि और विनाश के साथ ही चलता रहता है।हिमालय प्रकृति का महामंदिर है। देवताओं का निवास है। यह सृजन को जन्म देता है। मानव जीवन के अनिवार्य अंग,जल का अजस्र स्रोत है। अपने आस–पास की प्रकृति का नियामक है। विनाश के कारकों को उद्भूत करता है।

2 बजे मैं गौरीकुण्ड पहुँच गया। और 2.30 बजे सोनप्रयाग। लेकिन सोनप्रयाग में कोई गाड़ी नहीं थी। रूद्रप्रयाग के लिए तो कोई गाड़ी नहीं थी,गुप्तकाशी के लिए भी नहीं थी। वजह ये पता चली कि सारी गाड़ियां शादी विवाह में व्यस्त हैं। अब इंतजार के सिवा कोई विकल्प नहीं था। लगभग 1.15 घण्टे इंतजार के बाद गुप्तकाशी के लिए एक गाड़ी चली। 28 किमी की दूरी के लिए 80 रूपये। 5 बजे गुप्तकाशी पहुँचे। वहाँ गाड़ी से उतरते ही समझ में आ गया कि रूद्रप्रयाग के लिए कोई गाड़ी नहीं मिलेगी। फिर भी आदत के अनुसार स्टैण्ड पर आधे घण्टे तक इंतजार किया। उसके बाद पास ही 300 रूपये में एक कमरा ले लिया। गुप्तकाशी में बस स्टैण्ड के आस–पास होटल और लाॅज तो बहुत सारे हैं लेकिन रेस्टोरेण्ट इक्के–दुक्के ही हैं। एक रेस्टोरेण्ट,जो सबसे अच्छा लग रहा था,उसके सामने मैं 5-7 मिनट खड़ा रहा लेकिन न तो बैठने की जगह मिल सकी न ही कोई वेटर ही खाली मिला जिससे बात की जा सके। तो मैं दूसरे के दरवाजे चल पड़ा। 70 रूपये में थाली भर खाना मिल गया।



केदारेश्वर मंदिर







छत पर बनी बर्फ की डिजाइन


कुर्सियों पर जमी बर्फ की गदि्दयां







यहाँ कभी रामबाड़ा था
रामबाड़ा में मंदाकिनी पर बने पुराने पुल के नीचे संघर्ष की कहानी कहता एक पत्थर
अगला भाग ः बद्रीनाथ

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. वाराणसी से गौरीकुण्ड
2. केदारनाथ के पथ पर
3. केदारनाथ–बाबा के धाम में
4. बद्रीनाथ
5. माणा–भारत का आखिरी गाँव

4 comments:

  1. बहुत अच्छा और ज्ञानवर्धक लेख

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद कंचन जी ब्लॉग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए।

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  2. thank you sir meeri yaade be taza ho gai

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