Friday, June 28, 2019

राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िंदा हैǃ (तीसरा भाग)

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अब मेरी अगली मंजिल थी– विश्व शांति स्तूप। ब्रह्म कुण्ड से लगभग 2-2.5 किमी आगे चलने पर मुख्य सड़क छोड़कर बायें हाथ एक सड़क निकलती है जहाँ विश्व शांति स्तूप के बारे सूचना दी गयी है। मैं इसी सड़क पर मुड़ गया। लगभग 200 मीटर की दूरी पर सड़क के बायें किनारे जीवक आम्रवन के अवशेष हैं। यह वह स्थान है जहाँ राजवैद्य जीवक ने,चचेरे भाई देवदत्त द्वारा भगवान बुद्ध को आहत किये जाने पर उनके घावों पर पटि्टयां बाँध कर उनका इलाज किया था। जीवक ने यहाँ पर बौद्ध धर्मावलम्बियों के लिए एक विहार का निर्माण भी करवाया था।
इस स्थान पर एक घना आम्रवन भी था जहाँ बुद्ध कुछ समय के लिए ठहरे थे। अजातशत्रु भी भगवान बुद्ध से उपदेश लेने यहाँ आए थे।
जीवक आम्रवन से कुछ ही आगे वह स्थान है जहाँ से रत्नागिरि पहाड़ी पर बने विश्व शांति स्तूप पर जाने के लिए रोपवे शुरू होता है। विश्व शांति स्तूप के पहले इस रोपवे की चर्चा करनी आवश्यक है। मैं इस रोपवे का एक ही तरफ का टिकट लेना चाहता था लेकिन काउण्टर पर बैठे क्लर्क ने दोनों तरफ का टिकट बना दिया। थोड़ी सी किच–किच करने के बाद मैं आगे बढ़ गया। यह एक झूलता हुआ रोपवे है और इस वजह से काफी असुरक्षित भी है। खम्भों पर लगे तारों पर झूलती हुई लोहे की कुर्सियाँ लगी हुई हैं जो तार के साथ ही चलती रहती हैं और रूकती नहीं हैं। ये कुर्सियां आगे से पूरी तरह से खुली हुई हैं। लोहे का पतला सा लॉक आगे गिरने से रोकता है। वैसे आदमी अगर असावधान हो तो यह लॉक भी नीचे गिरने से नहीं रोक सकता। इन कुर्सियों पर बैठने के लिए फुर्ती दिखानी पड़ती है और दौड़कर बैठना पड़ता है। वैसे ऐसी कुर्सियों पर हवा में झूलने का अपना ही मजा है।
मैं जब यहाँ पहुँचा तो अच्छी–खासी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। आधी या तीन–चौथाई से भी अधिक भीड़ विदेशियों की ही थी और उनमें भी अधिकांश चीनी और जापानी। लाइन लग चुकी थी और आधे घण्टे से भी अधिक समय तक इन्तजार करना पड़ा। राजगीर में किसी भी स्थान पर इतनी भीड़ मुझे नहीं मिली थी। इसके अलावा विदेशी और देशी पर्यटकों का ऐसा अनुपात भी मुझे खजुराहो के अलावा अन्य किसी जगह पर नहीं मिला था। फिर भी माहौल ʺइण्डियानाʺ ही था। विदेशी पर्यटक समूहों के साथ आए देशी गाइड अपनी देशी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। जैसे लाइन तोड़ना,अपने आदमियों को आगे करना और एक की बजाय दो लाइन लगवाना। वो तो भला हो उस कड़े मिजाज सुरक्षाकर्मी का जिसने ऐसे ही एक गाइड महोदय को सबसे पीछे खड़ा करा दिया।

मैं लाइन में खड़ा आगे के लोगों को रोपवे की कुर्सियों पर चढ़ता देखता रहा और उसमें चढ़ने के तरीके पर मन ही मन रिसर्च करता रहा। वैसे तो तीन–चार मिनट में ही कुर्सियों को नीचे से ऊपर पहुँच जाना चाहिए लेकिन हर चक्कर में दो–चार मिनट के लिए लाइट जरूर कट जा रही थी या फिर कोई और समस्या आ जा रही थी। मैं मन ही मन मना रहा था कि मेरी बारी में लाइट न कटे। मेरी बारी आयी तो मैंने पीठ पर टँगे बैग को पेट पर टाँग लिया क्योंकि कुर्सियों पर इतनी जगह नहीं है कि पीठ पर बैग टाँग कर इसमें बैठा जा सके। दूसरे किसी व्यक्ति की तुलना में मैं अधिक फुर्ती से कुर्सी पर सवार हो गया। कुर्सी कई सेकेण्डाें तक कई मीटर लम्बे आयाम में झूलती रही। मैं दोनों हाथों और पैरों से कुर्सी को जकड़े रहा। फोटो खींचने का मन कर रहा था लेकिन कुर्सी इतनी झूल रही थी कि बैग से कैमरा निकालने की हिम्मत नहीं पड़ी। किसी तरह मोबाइल निकाला और वीडियो बनाना शुरू कर दिया। कुछ दूरी तक तो रोपवे चलता रहा लेकिन इस बार भी लाइट कटनी थी सो कट गयी। और लोगों के साथ मैं भी बीच रास्ते झूलता रहा। वैसे अब तक मन का डर काफी कम हो गया था और अब हवा में झूलने का मजा आ रहा था। कई सेकेण्डों या कई मिनटों के बाद रोपवे फिर से चालू हुआ और तब जाकर मैं ऊपर पहुँचा। उतरने के कुछ देर पहले तक मैं मोबाइल से वीडियो बनाता रहा। उतरने के समय भी उतनी ही फुर्ती दिखानी है नहीं तो कुर्सी अपने साथ ही सवार को भी लेकर चली जायेगी। तो लगभग दौड़ते हुए उतरकर मैं आगे भागा और यह रोमांचक सफर पूरा हुआ।

रोपवे से उतरने के बाद विश्व शांति स्तूप तक पहुँचने के लिए कुछ मिनट चलना पड़ता है। स्तूप के सामने के परिसर में पर्यटकों की भीड़ लगी थी। रोपवे को देखने से लग रहा था कि अभी काफी भीड़ पीछे भी रोपवे से ऊपर आने के इन्तजार में है। विश्व शांति स्तूप की सीढ़ियों और गलियारों पर भीड़ ने कब्जा कर रखा था। इतना तो मानना ही पड़ता है कि विदेशी पर्यटक सेल्फी नहीं खींचते हैं या फिर बहुत कम खींचते हैं। यहाँ देशी पर्यटकों की संख्या कम थी तो सेल्फीबाज भी कम थे। यह विश्व शांति स्तूप,स्तूपों की उसी श्रृंखला का एक भाग है जिसे जापान की निप्पोन्जन म्योहोजी नामक संस्था पूरे विश्व में बनवाती है। इस संस्था की स्थापना सन 1918 में एक बौद्ध भिक्षु निचिदात्सो फुजी ने की थी। फुजी ने दूसरे विश्व युद्ध के विध्वंसक परिणामों को अपने सामने देखा था। और इस वजह से उन्होंने विश्व में शांति की स्थापना का संदेश देने के लिए जापान के एक शहर में,1954 में इस तरह का पहला विश्व शांति स्तूप बनवाया। इसके बाद इसी क्रम में विश्व में 100 शांति स्तूपों की स्थापना का निश्चय किया गया। वर्तमान में यही संस्था विश्व में शांति स्तूपों का निर्माण करा रही है। भारत में और भी कई स्थानों पर इस तरह के शांति स्तूपों की स्थापना की गयी है। राजगीर का यह शांति स्तूप 1969 में बन कर तैयार हुआ।

शांति स्तूप के आस–पास गूगल मैप और भी कुछ स्थान दिखा रहा था। लेकिन अपने मन से वहाँ जाने से पहले मैंने विदेशी पर्यटकों को साथ लेकर आये देशी गाइडों से कुछ पूछने की सोची। पर अफसोसǃ किसी ने मेरी मदद नहीं की। मुझे लगा कि बिना पैसा लिये ये कुछ नहीं करते। पैसा लेकर गाइड की सेवाएं देने वाले इतने अधिक पेशेवर होते हैं क्याǃ कुछ ने कुछ बोला भी लेकिन कुछ ने तो हूँ–हाँ भी नहीं की। मैंने राजगीर के गाइडों को मन ही मन धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया। विश्व शांति स्तूप के पास एक बौद्ध मंदिर भी है लेकिन उस मंदिर में कम ही लोग जा रहे थे। अधिकांश लोग स्तूप की ही परिक्रमा कर रहे थे। यहाँ गूगल मैप एक अशोक स्तम्भ की लोकेशन भी दिखा रहा था लेकिन मैं वहाँ तक नहीं पहुँच सका। मैप के हिसाब से वह स्तूप बौद्ध मंदिर के परिसर में होना चाहिए था और बौद्ध मंदिर के परिसर में सबको जाने की मनाही है।
विश्व शांति स्तूप रत्नागिरि पहाड़ी पर बना है। इस पहाड़ी के पास ही गृद्धकूट पर्वत भी है। इस पहाड़ी की आकृति गिद्ध की चोंच की तरह से होने के कारण इसे गृद्धकूट पर्वत कहा जाता है। गृद्धकूट नामक पहाड़ी भगवान बुद्ध को अत्यन्त प्रिय थी और इस कारण उनके जीवन का काफ़ी समय यहाँ व्यतीत हुआ। बोध गया में ज्ञान प्राप्त होने के 16 वर्षाें के बाद गौतम बुद्ध ने 5000 बौद्ध सन्यासियों के सम्मेलन में दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन का सिद्धान्त दिया। यह सम्मेलन गृद्धकूट पर्वत पर ही आयोजित किया गया। गृद्धकूट से ही भगवान बुद्ध ने प्रज्ञापारमिता सूत्र का उपदेश दिया। बाद में चीनी यात्रियों फाह्यान और ह्वेनसांग ने भी गृद्धकूट की यात्रा की। इक्कीसवीं सदी में मैंने भी गृद्धकूट की यात्रा की और उसे अपने ब्लॉग पर लिखा।

सुबह के 9.30 बज रहे थे। अब मेरे वापस लौटने का समय था। वैसे तो मेरे पास रोपवे से होकर नीचे आने के लिए टिकट था लेकिन मैंने पैदल ही नीचे उतरने का फैसला किया। इससे मैं रत्नागिरि और गृद्धकूट को और नजदीक से देख लूँगा।
शांति स्तूप के आस–पास के रास्ते के किनारे,प्लास्टिक के शेड के नीचे काफी दुकानें हैं लेकिन इस समय इनमें से 10 प्रतिशत ही खुली हुई हैं। शायद ऑफ सीजन की वजह से। पहाड़ भी उजड़ा–उजड़ा सा है। तेज धूप है। रास्ते के किनारे हर जगह पानी की व्यवस्था नहीं है। शांति स्तूप से नीचे की ओर चलने पर दुकानों की लाइन खत्म हो गयी। रास्ते पर रास्ता कम और सीढ़ियां अधिक हैं। कुछ दूर नीचे उतरने पर एक स्थान से गृद्धकूट शिखर की ओर रास्ता निकला है। रास्ते पर मजदूर सिर पर सीमेंट की बोरी सिर पर लादे,हाँफते हुए ऊपर चढ़ते दिखायी पड़े। शायद ऊपर कुछ निर्माण या मरम्मत कार्य चल रहा हो। आधे घण्टे में मैं नीचे पहुँच गया। रोपवे की ओर जाने वाली भीड़ अब कम हो गयी थी। सम्भवतः अधिकांश लोग ऊपर जा चुके थे। रोपवे परिसर के पास से घोड़ा–कटोरा ताल की ओर रास्ता जाता है। लेकिन यह रास्ता ट्रेक है और इस पर इक्के जाते हैं या फिर पैदल जाया जाता है। यहाँ से घोड़ा–कटोरा ताल की दूरी लगभग 6 किमी है। मेरे पास बाइक थी और मैं बाइक से ही जाना चाहता था। लेकिन मुश्किल लग रहा था क्योंकि वहाँ बैरियर लगा है। तो वापस राजगीर–गया मार्ग की ओर चल पड़ा। अभी राजगीर के एक–दो ऐतिहासिक स्थल छूट गये थे।
राजगीर कस्बे से लगभग 5 किमी की दूरी पर गया जाने वाली सड़क के बायें किनारे पत्थर पर रथ के पहियों के निशान बने हुए हैं। यहाँ 30 फीट की लम्बाई में पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के रूप में गहरे निशान पड़े हुए हैं जिन्हें देखकर लगता है कि ये रथ के पहियों के निशान हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने रथ पर सवार हाेकर राजगीर में प्रवेश किया तो उनके रथ की गति और महिमा से पहाड़ भी जल गये थे और उन पर उनके रथ के पहियों के निशान उत्कीर्ण हो गये थे। इन निशानों के आस–पास,पहली से पाँचवीं शताब्दी में,पूर्व एवं मध्य भारत में प्रचलित शंख लिपि के कुछ चिह्न भी अंकित हैं। यह लिपि अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है।

इस पुरास्थल से लगभग आधे किमी दक्षिण की तरफ या गया की ओर एक और दर्शनीय पुरास्थल है। वह है प्राचीन राजगृह की दीवार। वैसे तो राजगीर चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ है। उत्तर–पूर्व से दक्षिण–पश्चिम की ओर फैली पहाड़ियों ने इसे उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से किलेबंदी कर घेर रखा है। फिर भी नगर को सुरक्षित रखने के लिए इन पहाड़ियों के ऊपर पत्थरों की दीवारें बनायी गयी थीं। इसका मुख्य प्रवेश द्वार नगर के उत्तर में स्थित जरा देवी मंदिर के पास था। यही स्थान राजगृह के प्रथम पर्वत विपुल गिरि और पाँचवें पर्वत वैभार गिरि को जोड़ता था। दक्षिण की ओर नगर का निकास द्वार था जो बाणगंगा मार्ग से सटे दोनों किनारों पर स्थित उदयगिरि पर्वत के बीच में था। यह दीवार राजगीर की पाँचों पहाड़ियों को 45-50 किमी की लम्बाई में घेरे हुए है। कहते हैं कि इस दीवार में 64 बड़े और 32 छोटे प्रवेश द्वार हुआ करते थे।
राजगीर की दीवार से थोड़ा सा पहले अर्थात राजगीर की तरफ सड़क के पूर्वी किनारे पर एक स्तूप के अवशेष दिखायी पड़ते हैं। वैसे इस स्तूप के बारे में कुछ बताने के लिए न तो काेई वहाँ मौजूद था,न ही कोई सूचना अंकित थी। यहाँ से वापस लौटते समय एक और पुरास्थल दिखायी पड़ा। रोपवे की तरफ जाने वाली सड़क से थोड़ा सा और आगे बढ़ने पर बिम्बिसार की जेल मिलती है। यह एक 60 वर्ग मीटर का क्षेत्र है जिसके चारों ओर 2 मीटर चौड़ी पत्थरों की दीवार बनी हुई है। इसके कोनों पर वृत्ताकार बुर्ज बने हुए हैं। कहा जाता है कि बिम्बिसार को अजातशत्रु ने यहीं बंदी बनाकर रखा था। राजा बिम्बिसार ने स्वयं अपने कारागार के रूप में इस स्थान को चुना था क्योंकि इस स्थान से वे गृध्रकूट पर्वत की चोटी पर चढ़ते भगवान बुद्ध के दर्शन कर पाते थे।

अब तक मैं राजगीर के अधिकांश ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण कर चुका था। सुबह के चाय और बिस्कुट पेट में हलचल मचाये हुए थे। धूप इतनी थी कि खाने की बजाय पानी पीने का ही मन कर रहा था। तो मैंने वापस राजगीर लाैटकर मेवाड़ प्रेम शेक का बड़ा गिलास पेट के हवाले किया और उत्तर की ओर नालन्दा जाने वाली सड़क पर घोड़ा दौड़ा दिया।







बौद्ध मंदिर


गृध्रकूट पर्वत


विश्व शांति स्तूप
पत्थर पर बने रथ के पहियों के निशान

राजगीर शहर की दीवार


बिम्बिसार की जेल
अगला भाग ः नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. बिहार की धरती पर
2. वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम

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