Friday, July 5, 2019

नालंदा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र

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दिन के 11 बज चुके थे। राजगीर के बस स्टैण्ड चौराहे पर 30 रूपये वाला ʺमेवाड़ प्रेम मिल्क शेकʺ पीकर मैं नालन्दा की ओर चल पड़ा। लगभग 12 किमी की दूरी है। लेकिन नालन्दा पहुँचने से पहले राजगीर से लगभग 7 किमी की दूरी पर एक कस्बा पड़ता है– सिलाव। और अगर आप राजगीर से नालन्दा जा रहे हों तो सिलाव में 5 मिनट देना आवश्यक है। वो इसलिए नहीं कि सिलाव कोई ऐतिहासिक स्थल है वरन इसलिए कि सिलाव में ʺखाजाʺ (एक प्रकार की मिठाई) मिलता है। बिना इसे खाये सिलाव से आगे बढ़ना ठीक नहीं।
तो मैं भी एक दुकान पर रूक गया। खड़े–खड़े ही हाथ पर पेपर में रखकर एक के बाद एक,तीन खाजे खा गया। दुकान वाले को भी पता चल गया कि यह कोई सिलाव के खाजे से अनभिज्ञ बाहरी आदमी है जो खाजे पर इस क़दर बेरहम होकर टूट पड़ा है। यह दुकान तो छोटी सी थी लेकिन मुझे बाद में पता चला कि सिलाव में खाजा के लिए ʺकाली साहʺ प्रसिद्ध हैं। अब काली साह कौन थे और कब पैदा हुए थे,मुझे पता नहीं,न ही कोई बताने वाला मिला। लेकिन सड़क पर चलने पर पता चला कि काली साह के नाम बीसियों (या पता नहीं कितनी) दुकानें हैं।
ʺकाली साह की दुकानʺ
ʺकाली साह की खाजा की दुकानʺ
ʺकाली साह की प्रसिद्ध खाजा की दुकानʺ
समझ में आ गया कि काली साह खाजे के कोई बड़े निर्माता रहे होंगे जिन्होंने सिलाव के खाजा को प्रसिद्धि दिलाई होगी लेकिन अब उनका नाम इसे आगे बढ़ा रहा है।
अब थोड़ा खाजा के बारे में। यह खाजा मैदे में चीनी मिलाकर बनाया जाता है। मैदे को गूँथकर उसे लम्बा बेलकर कई परतों में मोड़ दिया जाता है। देखने में शहरी पेटीज जैसे दिखने वाले खाजे में 52 परतें तक हो सकती हैं। वैसे मैं इन परतों को गिनने में असमर्थ रहा। सुगन्ध के लिए इलायची भी मिला दी जाती है। वजन में यह खाजा कागज से भी हल्का,आधुनिक जमाने के ʺकुरकुरेʺ से भी कुरकुरा होता है और स्वाद के बारे में तो पूछ्यिे ही मत। माना जाता है कि इस खाजे का जन्मस्थल पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार है। इन क्षेत्रों में खाजा पारम्परिक रूप से सैकड़ों या हजारों सालों से बनाया जाता रहा है। खाजा तो मेरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी बनता है लेकिन इतना कुरकुरा और इतनी अधिक परतों वाला खाजा मैंने आजतक नहीं खाया था। यह खाजा मुझे घर तक ले जाने की भी इच्छा कर रही थी लेकिन अभी मुझे कई दिन यात्रा करनी थी और इसलिए यह संभव नहीं लग रहा था। अगर यह मेरे घर पहुँचने तक खराब नहीं भी होता तो भी बैग में दबकर इसका कचूमर तो निकल ही जाता। वैसे सिलाव के खाजे के बारे में सबसे बड़ी बात ये कि इसे जी. आई. टैग भी मिल चुका है।

तो सिलाव की खाजा की दुकानों को ललचाई निगाहों से देखते हुए मैं सिलाव से नालन्दा की ओर बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं राजगीर–बिहार शरीफ मार्ग पर बसे नालन्दा में था। वैसे मुझे इतिहास के नालन्दा महाविहार तक पहुँचने के लिए इस मुख्य मार्ग को छोड़कर बायीं तरफ दो किमी अभी और चलना था। चूँकि मेरे पास बाइक थी तो चलने में कोई परेशानी नहीं थी। नालन्दा पहुँचा तो यह किसी कस्बे जैसा लग रहा था लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। दरअसल कुशीनारा,वैशाली या फिर नालन्दा जैसे ऐतिहासिक महत्व के शहर जब उजड़ गये तो उनके नाम का काेई शहर नहीं रह गया। रह गये सिर्फ उनके ध्वंसावशेष या खण्डहर। कालान्तर में अन्य मैदानी भागों की तरह ही इन ध्वंसावशेषों के आस–पास भी गाँव बस गये। वर्तमान में उत्खनन द्वारा इन स्थानों का इतिहास प्रकट हुआ तो इनका ऐतिहासिक नाम भी प्रकाश में आया। इन खण्डहरों के आस–पास पर्यटन की आवश्यकताओं की वजह से मानव बस्तियाँ बसने लगीं। तो उन ऐतिहासिक नामों की चादर ओढ़कर नवीन कस्बे खड़े हो गये जो कुशीनगर,वैशाली या नालन्दा के नाम से जाने जाने लगे।

ऐतिहासिक पुरास्थल के पास जब मैं पहुँचा तो मुख्य सड़क के दाहिनी तरफ संग्रहालय दिख रहा था जबकि बायीं तरफ एक गेट दिख रहा था। पता चला कि इस गेट के अन्दर ही ऐतिहासिक नालन्दा विश्वविद्यालय के खण्डहर हैं। तो टिकट लेकर मैं पहले इस गेट के अन्दर प्रवेश कर गया। अन्दर प्रवेश कर कुछ कदम चलते ही इतिहास के प्रज्ञा केन्द्र रहे नालन्दा महाविहार का वह स्वरूप दिखा कि मन अचम्भित हो उठा। लाल–लाल ईंटों के बने भवनों के विशाल खण्डहर सोचने को मजबूर कर रहे थे कि क्यों नालन्दा जैसे विशाल संस्थान की इमारतें मिट्टी में समा गयीं जबकि बख्तियारपुर कस्बा आज भी नालन्दा से चन्द कदम की दूरी पर जीवित है। खण्डहरों की दीवारों की चौड़ाई सहज ही इस तथ्य की उद्घोषणा करती है कि इमारत कितनी बुलंद रही होगी।

नालन्दा की ऐतिहासिकता के प्रमाण छठीं शताब्दी ई.पू. में भगवान महावीर एवं बुद्ध के काल से ही प्राप्त होते हैं। बुद्ध के परम प्रिय शिष्यों में से एक सारिपु़त्र का जन्म एवं निर्वाण नालन्दा में ही हुआ था। वैसे महाविहार या विश्वविद्यालय के रूप में नालन्दा की पहचान पाँचवीं शती में स्थापित हुई जब गुप्त शासक कुमारगुप्त (415-455 ई.) ने इसकी स्थापना में योगदान दिया। कन्नौज नरेश हर्षवर्धन (606-647 ई.) व पूर्वी भारत के पाल शासकों (8वीं–12वीं शताब्दी) के समय में भी महाविहारों को राज–प्रश्रय अनवरत प्राप्त होता रहा। हर्षवर्धन के समय नालन्दा विश्वविद्यालय अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर था। इस समय आचार्य शीलभद्र यहाँ के कुलपति थे। इस समय नालन्दा महाविहार बौद्धधर्म की महायान शाखा की शिक्षा का प्रधान केन्द्र था।

यह महाविहार लगभग 1 मील की लम्बाई और आधे मील की चौड़ाई में विस्तृत था। इसके बीच में आठ बड़े कमरे और व्याख्यान के लिए 300 छोटे कमरे बने थे। नालन्दा से प्राप्त एक लेख के अनुसार यहाँ के भवन भव्य और गगनचुम्बी थे। तीन भवनाें में स्थित ʺधर्मगंजʺ नामक पुस्तकालय की भी स्थापना की गयी थी। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के जीवनी लेखक ह्वी ली ने भी नालन्दा के बारे में विस्तृत वर्णन किया है– ʺसम्पूर्ण संस्थान ईंटों की दीवार से घिरा हुआ है जो पूरे मठ को बाहर से घेरती है। एक द्वार विद्यापीठ की ओर है जिससे आठ अन्य हाल,जो संघाराम के बीच में स्थित हैं,अलग किये गये हैं। प्रचुर रूप से अलंकृत मीनारें तथा परियों के समान गुम्बज,पर्वत की नुकीली चोटियों की तरह परस्पर हिले–मिले से खड़े हैं। मान मन्दिर प्रातः कालीन धूम्र में विलीन हुए से लगते हैं तथा ऊपरी कमरे बादलाें के ऊपर विराजमान हैं। खिड़कियों से कोई यह देख सकता है कि किस प्रकार हवा तथा बादल नया–नया रूप धारण करते हैं,और उत्तुंग ओलतियों के ऊपर सूर्य एवं चन्द्रमा की कान्ति देखी जा सकती है। गहरे तथा पारभासी तालाबों के ऊपर नील कमल खिले हुए हैं जो गहरे लाल रंग के कनक पुष्पों से मिले हैं तथा बीच–बीच में आम्रकुंज चारों ओर अपनी छाया बिखेरते हैं। बाहर की सभी कक्षायें जिनमें श्रमण आवास हैं,चार–चार मंजिली हैं। उनके मकराकृत बार्जे,रंगीन ओलतियाँ,सुसज्जित एवं चित्रित मोती के समान लाल स्तम्भ,सुअलंकृत लघु स्तम्भ तथा खपड़ों से ढकी हुई छतें जो सूर्य का प्रकाश सहस्रों रूप में प्रतिबिम्बित करती हैं– ये सभी विहार की शोभा को बढ़ा रही हैं।ʺ
नालन्दा में विहारों के अतिरिक्त अनेक स्तूप भी थे जिनमें बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियाँ रखी गयी थीं। पाँचवीं शताब्दी के बाद नालन्दा की ख्याति और भी बढ़ने लगी और छठी शताब्दी तक यह न केवल भारत बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भी विख्यात हो गया। उल्लेखनीय है कि चौथी शताब्दी में भारत आने वाला चीनी यात्री फाह्यान,नालन्दा का कोई उल्लेख नहीं करता जबकि दो शताब्दी बाद आने वाले ह्वेनसांग तथा इत्सिंग उसकी उच्च शब्दों में प्रशंसा करते हैं। हर्ष काल में नालन्दा को पूर्ण राजकीय संरक्षण मिला जिससे इसकी प्रतिष्ठा काफी अधिक बढ़ गयी। हर्ष ने 100 ग्रामों की आय महाविहार का खर्च चलाने के लिए दान कर दी थी तथा यहाँ लगभग 100 फीट ऊँचा पीतल का एक विहार भी बनवाया था। नालन्दा विश्वविद्यालय में भारत के अलावा चीन,मंगोलिया,तिब्बत,कोरिया,मध्यएशिया आदि से भी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे। यद्यपि इस महान शिक्षा संस्थान का क्रमिक ह्रास परवर्ती पाल शासकों के समय से ही प्रांरभ हो चुका था किन्तु लगभग 1200 ई. में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के परिणाम स्वरूप नालन्दा की कीर्ति पूर्णतः धरती के गर्भ में समा गयी।

कुमारगुप्त के बाद परवर्ती गुप्त सम्राटों ने भी कुमारगुप्त द्वारा निर्मित विहार के आस–पास कई विहार बनवाये। बाद में हर्ष ने भी यहाँ एक विहार बनवाया और पूरे परिसर की चारदीवारी भी बनवायी।
इस संस्थान से जुड़े विद्वानों में नागार्जुन,आर्यदेव,वसुबन्धु,धर्मपाल,सुविष्णु,असंग,शीलभद्र,धर्मकीर्ति,शान्तरक्षित इत्यादि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त प्रसिद्ध चीनी यात्रियों ह्वेनसांग एवं इत्सिंग के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं,जिन्होंने अपने यात्रा वृत्तान्त में नालन्दा के महाविहारों,मंदिरों तथा भिक्षुओं की जीवनचर्या आदि का विशद वर्णन किया है। यद्यपि नालन्दा बौद्धधर्म की महायान शाखा की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था तथापि यहाँ अन्य अनेक विषयाें की शिक्षा भी प्रदान की जाती थी जिनमें धर्मशास्त्र,व्याकरण,तर्कशास्त्र,खगोलिकी,तत्वज्ञान,चिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र आदि उल्लेखनीय हैं। ह्वेनसांग ने भी यहाँ 18 महीने रहकर शिक्षा ग्रहण की थी। ह्वेनसांग के समय शीलभद्र यहाँ के कुलपति थे। यहाँ के अन्य विद्वानों में धर्मपाल,चन्द्रपाल,गुणमति,स्थिरमति,प्रभामित्र,जिनमित्र,ज्ञानचन्द्र आदि के नाम लिये जा सकते हैं। नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में विभिन्न ग्रन्थों के अलावा प्राचीन पाण्डुलिपियाँ भी संग्रहीत थीं। अभिलेखीय प्रमाणों के अनुसार समकालीन शासकों द्वारा दान किये गये अनेकों ग्रामों के राजस्व से इन महाविहारों का व्यय वहन किया जाता था।
11वीं सदी से पाल शासकों ने नालन्दा के स्थान पर विक्रमशिला को राजकीय संरक्षण देना प्रारम्भ कर दिया जिससे नालन्दा का महत्व घटने लगा। तिब्बती स्रोतों के अनुसार इस समय नालन्दा पर तन्त्रयान का प्रभाव बढ़ने लगा। इस कारण भी नालन्दा की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची। अन्ततः 12वीं सदी के अन्त में मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी की सेना ने नालंदा संघाराम को कोई बड़ा गढ़ समझ कर घेर लिया तथा इसे आग के हवाले कर दिया। भिक्षुओं की निर्मम हत्या कर दी गयी और पुस्तकालय को जला दिया गया। इस तरह एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शिक्षण संस्थान का दुखद अन्त हो गया।

नालन्दा विश्वविद्यालय के विद्वानों की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने तिब्बत में बौद्धधर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रचारकों में चन्द्रगोमिन् का नाम सर्वप्रथम है। नालन्दा के दूसरे बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित् आठवीं शताब्दी में मध्य तिब्बत गये और उन्हीं के निर्देशन में प्रथम तिब्बती बौद्धमठ का निर्माण हुआ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा कराये गये उत्खनन (1915-37 तथा 1974-82) से यहाँ ईंट निर्मित छः मन्दिरों एवं ग्यारह विहारों की सुनियोजित श्रृंखला प्राप्त हुई जिनका विस्तार एक वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है। लगभग तीस मीटर चौड़े उत्तर–दक्षिण रास्ते के पश्चिम में मंदिरों की व पूर्व में विहारों की श्रृंखला है। आकार व विन्यास में सभी विहार लगभग एक जैसे हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण संरचना दक्षिणी–पश्चिमी कोने पर स्थित मंदिर संख्या 3 है जिसमें निर्माण के सात चरण हैं। इसे सारिपुत्र चैत्य भी कहा जाता है। इसके निकट छोटे आकार के मनौती स्तूपों का एक विशाल समूह है। माना जाता है कि आरम्भ में यह छोटा चैत्य रहा होगा जिसे किसी श्रद्धालु राजा ने ढँक कर उसके ऊपर कोई बड़ा चैत्य बना दिया होगा। इस तरह के चैत्य को कंचुक चैत्य कहते हैं। कालान्तर में कई कंचुक चैत्य बनते गये और वर्तमान चैत्य ने आकार ग्रहण कर लिया। माना जाता है कि नालंदा का यह वही मूल स्थल है जहाँ धर्म सेनापति उपतिस्स सारिपुत्र ने जन्म लिया और निर्वाण प्राप्त किया।
महाविहारों व मंदिरों के भग्नावशेषों के साथ साथ प्रस्तर एवं कांस्य इत्यादि से निर्मित अनेकों मूर्तियाँ तथा कलाकृतियाँ उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। इनमें से विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध,अवलोकितेश्वर,मंजुश्री,तारा,प्रज्ञापारमिता,मारीची,जम्भल,आदि बौद्ध प्रतिमाएँ तथा विष्णु,शिव–पार्वती,महिषासुरमर्दिनी,गणेश,सूर्य इत्यादि हिन्दू देव प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त भित्तिचित्र,ताम्रपत्र,प्रस्तर एवं ईंट पर उत्कीर्ण अभिलेख,मुद्राएँ,फलक,सिक्के,टेराकोटा,मृद्भाण्ड आदि की प्राप्ति उल्लेखनीय है। इन सभी कलाकृतियों व पुरावस्तुओं को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संचालित स्थानीय संग्रहालय में दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किया गया है।

कई घण्टे मैं नालन्दा के खण्डहरों में भटकता रहा। तब तक कि जब तक पैर थक नहीं गये। चैत्यों और विहारों के ऊँचे चबूतरों से मुख्य परिसर के बाहर आस–पास बसे गाँव दिखायी पड़ रहे थे। परिसर के एक सुरक्षित कोने में लैला–मजनूं का एक जोड़ा अपने ʺकर्त्तव्यʺ में जुटा हुआ था और चारदीवारी के बाहर से छ्पिकर कुछ निगाहें उनकी गतिविधियों की जासूसी भी कर रही थीं। मुझे इस बखेड़े में नहीं पड़ना था सो मैंने अनदेखा कर दिया और मुख्य रास्ता पकड़कर परिसर से बाहर निकल गया।
वैसे नालन्दा के मुख्य उत्खनित परिसर से बाहर भी कई ऐतिहासिक इमारतें हैं। तो मैं बाहर निकलकर उधर चल पड़ा। मुख्य परिसर से बाहर उत्तर की तरफ नालन्दा मठ का ही एक चैत्य है जो किन्हीं कारणों से मुख्य चारदीवारी से बाहर हो गया है। इस चैत्य के पास एक छोटा सा मंदिर है। यह तेलिया बाबा मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था एक हिन्दू पुजारी के पास है। इस मंदिर में पूजा भी होती है। मैं जब इस मंदिर में पहुँचा तो चौंक पड़ा। क्योंकि यह काले पत्थर की बनी हुई बुद्ध की सुंदर मूर्ति है। अब यह तेलिया बाबा मंदिर के नाम से कैसे विख्यात हुई,पता नहीं। मंदिर का पुजारी दर्शन कराने के नाम पर दर्शनार्थियों से दस–बीस वसूल ले रहा था। मैंने सवाल किया–
ʺयह तो भगवान बुद्ध की मूर्ति है?ʺ
ʺनहीं,यह तेलिया बाबा हैं।ʺ
मैं चुपचाप बाहर निकल गया। इस मंदिर से उत्तर की ओर थोड़ी दूरी पर बड़गाँव या बड़ागाँव का सूर्य मंदिर है। यहाँ एक प्राचीन सूर्य मंदिर है जिसका नाम मैंने सुन रखा था। लेकिन सूर्य मंदिर से पहले एक जैन मंदिर दिख गया। यह एक नवीन मंदिर है जो ऋषभदेव जैन मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह एक सुंदर मंदिर है।
जैन मंदिर से आगे बढ़ने पर गाँव की गलियाँ शुरू हो गयीं। कई जगह रास्ता पूछते हुए मैं सूर्य मंदिर पहुँच सका। एक झटके में नहीं लग रहा था कि यह कोई ऐतिहासिक स्थल है। यह एक नया बना मंदिर है लेकिन इसके अन्दर प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। कहते हैं कि गाँव के पास के ही एक तालाब की खुदाई के दौरान ये मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। इनमें काले पत्थर की सूर्यदेव की प्रतिमा के अतिरिक्त अन्य कई प्रतिमाएं भी शामिल थीं। इन प्रतिमाओं को तालाब के पास ही मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया। 1934 में आये भयंकर भूकम्प में यह मंदिर नष्ट हो गया। तब वर्तमान स्थान पर मंदिर का निर्माण कर मूर्तियों की स्थापना कर दी गयी।
नालंदा में एक नया बना वियतनामी मंदिर भी है लेकिन संभवतः आमजन के लिए यह नहीं खुलता।

सारे मंदिरों का दर्शन कर मैं गाँव से बाहर आया तो अपराह्न के 3 बजने वाले थे। एक छोटी सी दुकान पर छोले–समोसे बिक रहे थे। एक प्लेट छोले–समोसे खाने के बाद पेट को राहत मिल गयी लेकिन मुँह का स्वाद खराब हो गया। इसके बाद सीधे मैं पावा के लिए रवाना हो गया।
















बड़गाँव का जैन मंदिर
बड़गाँव का सूर्य मंदिर
तेलिया मंदिर में बुद्ध की काले पत्थर की मूर्ति
अगला भाग ः पावापुरी से गहलौर

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. बिहार की धरती पर
2. वैशाली–इतिहास का गौरव (पहला भाग)
3. वैशाली–इतिहास का गौरव (दूसरा भाग)
4. देवघर
5. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (पहला भाग)
6. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (दूसरा भाग)
7. राजगीर–इतिहास जहाँ ज़िन्दा हैǃ (तीसरा भाग)
8. नालन्दा–इतिहास का प्रज्ञा केन्द्र
9. पावापुरी से गहलौर
10. बराबर की गुफाएँ
11. बोधगया से सासाराम

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