Friday, November 29, 2019

हिमालय की उत्पत्ति

हिमालय जैसी विशाल पर्वत श्रृंखला का निर्माण एक अत्यधिक जटिल प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ है। इसे समझने के पूर्व कुछ मूलभूत तथ्यों और सिद्धान्तों के बारे में जानना आवश्यक है। भूगोल और भूगर्भविज्ञान का अध्ययन करने वाले तो इसके बारे में जानकारी रखते हैं लेकिन दूसरे लोगों के लिए इसे समझना थोड़ा कठिन है। आइए इसे आसानी से समझने की कोशिश करते हैं।
लम्बे भूगर्भिक अध्ययनों और आधुनिक शोधों से पता चलता है कि महाद्वीपों और महासागरों का जो स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ता है वह हमेशा से ऐसा ही नहीं रहा है। इनकी स्थिति और आकार हमेशा बदलते रहे हैं। प्लेट टेक्टानिक्स सिद्धान्त  इसकी सरल व्याख्या प्रस्तुत करता है। इसके अनुसार पृथ्वी की ऊपरी परत कई छोटे–छोटे टुकड़ों के मिलने से बनी है। इन टुकड़ों को प्लेट कहते हैं।
इन प्लेटों की मोटाई 80 से 100 किलोमीटर तक या कहीं–कहीं कुछ भिन्न भी हो सकती है। ये प्लेटें नीचे की एस्थेनोस्फीयर नामक परत पर गति करती रहती हैं। पृथ्वी के धरातल पर पाए जाने वाले सभी महासागर या पर्वत व पठार जैसी संरचनाएँ इन्हीं प्लेटों पर अवस्थित हैं और इनके साथ ही गति करती रहती हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार कुल 6 बड़ी और 20 छोटी प्लेटें इस समय अस्तित्व में हैं। इनमें से 6 बड़ी प्लेटें निम्नवत हैं–

1. यूरेशियन प्लेट– पूर्वी अटलांटिक महासागर व यूरोप तथा एशिया महाद्वीप
2. इण्डियन प्लेट या इण्डो–आस्ट्रेलियन–न्यूजीलैण्ड प्लेट
3. अफ्रीकन प्लेट– पूर्वी अटलांटिक महासागर और अफ्रीका महाद्वीप
4. अमेरिकी प्लेट– उ0 व द0 अमेरिका और पश्चिमी अटलांटिक महासागर
5. पैसिफिक प्लेट– सम्पूर्ण प्रशांत महासागर
6. अण्टार्कटिक प्लेट– इसमें अण्टार्कटिक महाद्वीप और इसको चारों ओर से घेरे हुए सागरीय क्षेत्र सम्मिलित हैं।
कुछ छोटी प्लेटें निम्नवत हैं–
1. कोकोस प्लेट
2. नज़का प्लेट
3. अरेबियन प्लेट
4. फिलीपाइन प्लेट
5. कैराेलिन प्लेट
6. फ्यूजी प्लेट
उपर्युक्त बड़ी और 20 छोटी प्लेटें स्वतंत्र रूप से गति करती रहती हैं। इनकी गति औसत रूप से 10 से 40 मिलीमीटर प्रति वर्ष तक होती है लेकिन अलग–अलग प्लेटों के सन्दर्भ में यह अलग–अलग हो सकती है। साथ ही इनकी गति की दिशा भी अलग–अलग होती है। ग्लोब पर ये प्लेटें पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास में गति करती रही हैं। फलस्वरूप महाद्वीपों और महासागरों की स्थिति बदलती रही है। साथ ही प्लेटों की गति से पर्वतों का निर्माण और ज्वालामुखी उद्गार भी होते हैं।

अब आते हैं हिमालय की उत्पत्ति पर। हिमालय की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों के विचारों में पर्याप्त मतभेद है। इसकी उत्पत्ति के प्रक्रिया पर तो लगभग सभी विद्वान एकमत हैं लेकिन कालक्रम पर कुछ मतभेद हैं। आज से 15 कराेड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर महाद्वीपों और महासागरों का वितरण आज से पूर्णतः भिन्न स्थिति में था। प्लेटों की गति के कारण सभी महाद्वीप एक बड़े भूभाग के अंग बन गए थे जिसे पैंजिया कहा जाता है। इस भू–भाग के चारों ओर पैंथालसा नाम विशाल महासागर लहराता था। पैंजिया के मध्य में टेथिस नामक एक सागर अवस्थित था। इस टेथिस सागर के उत्तर में एशिया,यूरोप,उ0 अमेरिका और उत्तरी ध्रुव के भाग स्थित थे जबकि दक्षिण में अफ्रीका,द0 अमेरिका,आस्ट्रेलिया और भारत आदि के भाग स्थित थे। टेथिस सागर के उत्तरी भाग को अंगारा लैण्ड और दक्षिणी भाग को गोण्डवाना लैण्ड कहा जाता है। इस समय इण्डियन प्लेट के उत्तर दिशा में,यूरेशियन प्लेट की ओर गति करने से टेथिस सागर के तल पर दबाव पड़ने लगा। इस दबाव के कारण टेथिस सागर के तल में सिलवटें या मोड़ पड़ने लगे और वह ऊपर उठने लगा। कालान्तर में इस दबाव के कारण भूगर्भ में अत्यधिक हलचल हुई और टेथिस सागर का तल इतना ऊपर उठा कि इसी से हिमालय की संरचना हुई। टेथिस सागर का जल गोंडवाना लैण्ड के निचले भागों में भर गया जिससे हिन्द महासागर की रचना हुई। हिमालय का यह निर्माण आकस्मिक रूप में न होकर तीन लम्बे चरणों में हुआ जिसे इस प्रकार समझा जा सकता है–

1. हिमालय के निर्माण का प्रथम चरण– आज से लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व क्रीटैशियस युग में हिमालय के निर्माण का प्रथम चरण पूरा हुआ। इस समय इण्डियन प्लेट की उत्तर की ओर की गति के कारण इण्डियन प्लेट का यूरेशियन प्लेट की तली में क्षेपण होने लगा। अत्यधिक संपीडन या दबाव के कारण टेथिस सागर की तली में जमे निक्षेपों में वलन या मोड़ पड़ने लगे और वह ऊपर उठने लगा। इस तरह इस समय टेथिस सागर की तली मुड़ कर वलन के रूप में ऊपर उठ गयी और वृहत हिमालय या महान हिमालय का निर्माण हुआ। इस तरह से निर्मित श्रेणी के गर्भ भाग में,भूगर्भ के भीतर की अजैविक चट्टानें  (जिनमें कोई जीवावशेष न उपस्थित हों) स्थित थीं जबकि ऊपरी या पृष्ठ भाग में टेथिस सागर में जमी तलछट से निर्मित परतदार चट्टानें थीं। पर्वत श्रेणी का निर्माण हो जाने के कारण अनेक जलधाराएं उत्पन्न हो गयीं जो अवशिष्ट टेथिस सागर की ओर प्रवाहित होने लगीं। लम्बे समय तक इस श्रेणी के अपरदन के कारण इसकी ऊपरी सतह पर जमी परतदार चट्टानें कट कर बह गयीं और गर्भ भाग की अजैविक चट्टानें बाहर निकल आयीं। वर्तमान में यही चट्टानें हमें मुख्य हिमालय श्रेणी पर दिखाई पड़ती हैं। हिमालय निर्माण के इस चरण के साथ ही गोण्डवाना लैण्ड का विभंजन हो गया। भारत,आस्ट्रेलिया,द0 अमेरिका और अफ्रीका अलग हो गए और इनके बीच की वह भूमि,जो नीचे धँस गयी थी,वहाँ जल भर जाने के कारण सागर का निर्माण हो गया।

2. हिमालय के निर्माण का दूसरा चरण– वृहत हिमालय के निर्माण के पश्चात,इससे उत्पन्न हुई जलधाराओं का जल अवशेष टेथिस सागर में प्रवाहित होने लगा। ये नदियाँ मुख्य श्रेणी के दक्षिण में विस्तृत टेथिस सागर के अवशेष भाग में तलछट का निक्षेपण करने लगीं। यह अवशिष्ट भाग खाड़ी के रूप में था जिसमें समुद्री जीव–जन्तुओं का विकास हुआ। इन जीव–जन्तुओं के अवशेष भी तलछटों के भीतर दबते रहे। ये समुद्र निर्मित चट्टानें भूगर्भ की हलचलों के कारण आज से 3 करोड़ वर्ष पूर्व ऊपर उठने लगीं और मध्य हिमालय या लघु हिमालय की श्रेणी और ट्रांस हिमालय श्रेणियों का निर्माण हो गया। मध्य हिमालय के ऊपर उठने के साथ ही महान हिमालय की श्रेणी भी और ऊपर उठ गयी। इस तरह महान हिमालय के समानान्तर इसकी दूसरी श्रेणी का निर्माण हो गया। आज से लगभग 2.5 करोड़ वर्ष पूर्व मायोसीन युग तक मध्य हिमालय का निर्माण पूरा हो गया।

3. हिमालय के निर्माण का तीसरा चरण– हिमालय निर्माण के दूसरे चरण में लघु हिमालय के निर्माण के बाद,इसके दक्षिण में इसी के समानान्तर टेथिस सागर के अवशेष के रूप में एक सँकरा और उथला भाग अवशिष्ट रह गया। इस भाग में इण्डोब्राह्म या शिवालिक नामक नदी पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने लगी। यह नदी अपने साथ लाए गए अपरदित पदार्थाें से इस विशाल भूभाग को भरने लगी। यह क्रिया एक लम्बे समय तक चलती रही। नदी के निक्षेपों का जमाव जलज या अवसादी शिलाओं के रूप में होता रहा। इसमें बालू के साथ साथ कंकड़–पत्थर भी मिले थे। यह क्रिया आज से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व तक चलती रही। इसी समय इण्डियन प्लेट के दबाव के कारण भूगर्भ में एक और हलचल हुई और इण्डोब्राह्म नदी का तल 1500 मीटर ऊपर उठ कर पर्वत श्रेणी के रूप में परिवर्तित हो गया। इस तरह शिवालिक श्रेणी का निर्माण हुआ। इसी समय कश्मीर में स्थित कारेवाँ नामक सरोवर का तल भी ऊपर उठ गया और पीर पंजाल श्रेणियों का निर्माण हुआ। कश्मीर घाटी की डल और वूलर झीलें इसी कारेवाँ सरोवर का अवशिष्ट भाग हैं।

शिवालिक श्रेणी के उत्थान के पश्चात टेथिस सागर का अस्तित्व समाप्त हो गया। इसके स्थान पर अब दक्षिणी प्रायद्वीपीय पठार के उत्तर में एक खाई अवशिष्ट रह गयी। साथ ही शिवालिक के उत्थान के पूर्व इसके स्थान पर पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली इण्डोब्राह्म नदी भी छिन्न–भिन्न हो गयी। बदले उच्चावच्च के कारण इसके प्रवाह मार्ग का स्थान अन्य नदियों ने ले लिया। शिवालिक श्रेणियों के निर्माण के साथ ही दक्षिण के पठार का उत्तरी–पूर्वी भाग अर्थात छोटा नागपुर का पठार (वर्तमान झारखण्ड) और मेघालय के पठार के बीच का भाग नीचे की ओर धँस गया। फलस्वरूप सम्पूर्ण भूभाग की अपवाह व्यवस्था बदल गयी। सारी नदियाँ इसी गर्त में गिरने लगीं। पूर्वी भाग में इण्डोब्राह्म नदी के प्रवाह मार्ग में ब्रह्मपुत्र नदी पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने लगी जबकि पश्चिम की ओर के प्रवाह मार्ग में गंगा नदी पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होने लगी। इण्डोब्राह्म की अन्य सहायक नदियों को गंगा ने अपने में आत्मसात कर लिया। इसी समय पश्चिमी भाग में अरावली पर्वत श्रेणियों में भी,अलवर से दिल्ली तक कुछ उत्थान हुआ। इस तरह गंगा और सिन्धु नदी क्रम के बीच जलविभाजक का निर्माण हुआ और नदियों के वर्तमान क्रम की उत्पत्ति हुई। इण्डोब्राह्म नदी का पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाला जल सिन्धु,झेलम,चिनाब,रावी,व्यास और सतलज नदियों के रूप में दक्षिण–पश्चिम की ओर प्रवाहित होने लगा। उस समय उत्तरी गुजरात और कच्छ प्रदेश का अस्तित्व नहीं था। ये भाग अभी समुद्र के गर्भ में थे किन्तु नदियों ने निक्षेपों के जमाव द्वारा इन भागों की रचना की। गंगा द्वारा इण्डोब्राह्म नदी तंत्र की अधिकांश नदियों का अपहरण कर लिए जाने से सरस्वती नदी में पानी का प्रवाह कम हो गया और कालान्तर में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। एक लम्बे समयान्तराल में टेथिस सागर की अवशिष्ट खाई में नदियों द्वारा अवसादों का निक्षेपण किए जाने से गंगा–सतलज–ब्रह्मपुत्र के विशाल मैदान का निर्माण हुआ। इन नदियों में से कई नदियों का उद्गम हिमालय के उत्तर की ओर स्थित है जो यह प्रमाणित करता है कि ये नदियाँ हिमालय से भी प्राचीन हैं। सिन्धु,सतलज और ब्रह्मपुत्र नदियों के उद्गम तिब्बत में मानसरोवर झील के पास स्थित हैं। करोड़ों वर्षाें से ये हिमालय के उत्थान के साथ साथ नीचे की ओर गहराई में कटान करती हुई अपने प्रवाह को बनाए रख सकी हैं। गिलगित नदी की सँकरी घाटी के दोनों तरफ 5180 मीटर ऊँचे पर्वत स्थित हैं। इसे देखकर पता चलता है कि इन नदियों ने हिमालय की कितनी कटान की होगी। इस तरह सिन्धु,सतलज और ब्रह्पुत्र नदियों ने भी हिमालय की इतनी कटान की है जिसकी कल्पना ही की जा सकती है।

इस तरह हिमालय के निर्माण की जटिल प्रक्रिया,जो आज से लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी,आज से लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व जाकर पूर्ण हुई। इस प्रक्रिया में इण्डियन प्लेट,यूरेशियन प्लेट में लगभग 100 किलोमीटर तक धँसती चली गयी और 500 किलोमीटर की भूपर्पटी नष्ट हो गयी। इण्डियन प्लेट का उत्तर की तरफ का संचलन आज भी जारी है। इस कारण हिमालय का उत्थान वर्तमान में जारी है और उसकी चोटियों की ऊँचाई बढ़ रही है। इसके अनेक प्रमाण भी मिलते हैं। हिमालय के निकटवर्ती क्षेत्रों में भूकम्पों का आना यह सिद्ध करता है कि ये भूभाग अस्थिर है और इनमें अभी पूर्ण संतुलन स्थापित नहीं हो सका है। ऐतिहासिक और वर्तमान युग में भी तिब्बत की झीलों के भरने के प्रमाण मिलते हैं। झीलों के निकटवर्ती भागों में पाए जाने वाले कंकड़ पत्थर 700 से 900 मीटर की ऊँचाई पर मिले हैं जो ये साबित करते हैं कि हिमालय धीरे–धीरे उठ रहे हैं। हिमालय की नदियाँ अभी युवावस्था में हैं क्योंकि ये अभी अपनी घाटियों को गहरा कर रही हैं।








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