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अटल सुरंग भारत की सबसे लम्बी सुरंगों में से एक है। यह मनाली को लद्दाख में लेह एवं स्पीति में काजा से जोड़ती है। इसकी लम्बाई 9.02 किलोमीटर है। यह रोहतांग दर्रे को बाईपास करती है। यह सुरंग समुद्रतल से 3100 मीटर की ऊँचाई पर बनायी गयी है। यदि यह सुरंग नहीं होती तो मुझे रोहतांग दर्रे से होकर गुजरने का सौभाग्य मिला होता। सुरंग के उत्तरी प्रवेश द्वार की अवस्थिति बहुत सुंदर है क्योंकि यह बिल्कुल चेनाब के किनारे बना हुआ है।
अटल टनल पार करने के बाद वातावरण पूरी तरह से बदल चुका था। हरे–भरे पहाड़ और ऊँचे–ऊँचे देवदार के पेड़ मन को मोह ले रहे थे। साथ ही ब्यास नदी का साथ मिलना तो मानो सोने पे सुहागा ही था। अटल टनल के बाद मनाली 24 किलोमीटर है और मनाली पहुँचने में मुझे लगभग 6 बज गये।
मनाली पहुुँचने के बाद मुझे कुछ देर भटकना पड़ा। मैं अपने नपे–तुले बजट में एक अच्छा होटल ढूँढ़ रहा था। फिर भी अपने बजट से कुछ अधिक महँगा लेकिन बहुत ही अच्छा होटल,मुझे थोड़ी सी मशक्कत के बाद मिल गया। देखने में तो मेरे अनुमान से यह होटल बहुत महँगा लग रहा था लेकिन उतना महँगा था नहीं। 700 का कमरा और 250 का अनलिमिटेड बुफे,मजे ही मजे थे। कई दिन बाद अपने स्वाद वाला स्वादिष्ट खाना मिलने वाला था। होटल के कर्मचारियों का व्यवहार काफी अच्छा था और मुझे इस समय लांग्जा में मिली उस ʺट्रैवल हास्पिटैलिटीʺ वाली युवती की याद आ रही थी। होटल के काउण्टर पर खड़े कर्मचारी ने गूगल मैप पर होटल को रेटिंग देने का निवेदन किया। मैंने गूगल मैप पर उसे अपने व्यू दिखाये। करोड़ों व्यू देखकर बिचारा हैरत में पड़े बिना न रह सका।
सबसे पहले हिडिम्बा मंदिर। रास्ता पूछते और आराम से सँकरे रास्तों पर चढ़ाई–उतराई पार करते हिडिम्बा मंदिर पहुँचने में केवल 12 मिनट लगे। मुझे लग रहा था कि ये सड़कें बहुत सँकरी हैं लेकिन उच्च हिमालय में अवस्थित मनाली के लिए ये सड़कें ही बहुत हैं।
देवदार के घने वृक्षों के मध्य अवस्थित यह मंदिर देवी हिडिम्बा या हिरमा देवी को समर्पित है। मंदिर में उत्कीर्ण टांकरी लिपि के एक अभिलेख के अनुसार पैगोडा शैली में बने इस मंदिर का निर्माण सन् 1553 में कुल्लू के राजा बहादुर सिंह ने करवाया था। मंदिर की ऊँचाई आधार से लगभग 80 फीट है तथा यह तीन ओर से 12 फीट ऊँचाई वाले सँकरे बरामदे से घिरा हुआ है। इसकी काष्ठ निर्मित ढलवां छत चार भागों में विभक्त है जिसका ऊपरी भाग गोलाकार है और यह कांस्य कलश और त्रिशूल से सुशोभित है। वर्गाकार गर्भगृह में हिडिम्बा देवी की कांस्य निर्मित सुंदर प्रतिमा प्रतिष्ठित है तथा चतुष्पदीय प्रवेश द्वार विभिन्न देवी–देवताओं तथा बेलबूटे,घटपल्लव,हाथी,मकर इत्यादि पशुओं से सुसज्जित है। प्रवेश द्वार के दायीं ओर महिषासुरमर्दिनि,हाथ जोड़े भक्त तथा नंदी पर आसीन उमामहेश्वर जबकि बायीं ओर दुर्गा,हाथ जोड़े भक्त व गरूड़ पर आसीन लक्ष्मीनारायण को दर्शाया गया है। ललाटबिंब पर गणेश तथा ऊपर शहतीरों पर नवग्रहों का अंकन किया गया है। सबसे ऊपरी भाग में बौद्ध आकृतियां उकेरी गयी हैं। इस मंदिर के विशिष्ट पुरातात्विक और वास्तुशिल्पीय महत्व के कारण भारत सरकार द्वारा इसे 1967 में राष्टीय महत्व का संरक्षित स्मारक घोषित किया गया।
महाभारत की कथा के अनुसार हिडिम्बा का जन्म किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु राक्षस–कुल में हुआ था। वह अपने भाई हिडिम्ब के साथ रहती थी जिसके बल के कारण क्षेत्रवासी उससे डरते थे। पाण्डवों के अज्ञातवास के समय भीम और हिडिम्बा का मिलन हुआ जाे हिडिम्ब को पसंद नहीं आया। फलस्वरूप भीम और हिडिम्ब में युद्ध हुआ और हिडिम्ब मारा गया। तत्पश्चात माता कुंती की अनुमति से भीम और हिडिम्बा का विवाह इस शर्त के साथ हुआ कि भीम केवल संतान उत्पन्न होने तक हिडिम्बा के साथ रहेंगे और उसके बाद भाइयों के साथ चले जायेंगे। भीम को वहीं छोड़कर शेष चार पाण्डव और माता कुंती आगे निकल गये। एक वर्ष के पश्चात हिडिम्बा को पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम घटोत्कच रखा गया। घटोत्कच ने महाभारत के युद्ध में भाग लिया और अपने प्राण देकर कर्ण द्वारा छोड़े गये अचूक अस्त्र से अर्जुन की रक्षा की। इसके पश्चात हिडिम्बा ने अपना राक्षसी स्वरूप त्याग कर इसी स्थान पर वर्षाें तपस्या की और कुल्लू के क्रूर पीती ठाकुरों का सर्वनाश कर विहंगमणिपाल को कुल्लू के राजसिंहासन पर बैठाया। वर्तमान में हिडिम्बा को काली और दुर्गा के रूप में पूजा जाता है।
वर्तमान मंदिर के अंदर माता हिडिम्बा के दर्शन महिषासुरमर्दिनि के रूप में किये जाते हैं। मई महीने में माता हिडिम्बा के जन्मदिन के अवसर पर मेला लगता है। कुल्लू का दशहरा भी माता हिडिम्बा के द्वारा ही शुरू किया जाता है। राजपरिवार के सदस्य आज भी माता हिडिम्बा को दादी मानते हैं तथा कुल्लू के दशहरे के अवसर पर उनकी पालकी का भव्य स्वागत कर उनसे आशीर्वाद लेते हैं।
हिडिम्बा मंदिर के आस–पास का स्थल बहुत ही शांत और मनोरम है। मैं पहुँचा तो भीड़–भाड़ अधिक नहीं थी। यहाँ देवदार के जंगल के बीच टहलते हुए पूरा दिन बिताया जा सकता है लेकिन मेरे पास समय का अभाव था। मंदिर में दर्शन करने और कुछ देर टहलने के बाद मैं मनु मंदिर की ओर चल पड़ा। हिडिम्बा मंदिर से मनु मंदिर पहुँचने में केवल 8 मिनट लगे। बाइक का लाभ यहीं दिख रहा था। क्योंकि रास्ते में सवारी गाड़ियाँ इतनी नहीं दिख रही थीं कि आसानी से मैं अपने गंतव्य पहुँच पाता। इसके लिए अपनी गाड़ी बुक करनी ही पड़ती। मनु मंदिर बहुत ही घनी बस्ती और पतली सड़कों के बीच बना हुआ है। बाइक खड़ी करने के लिए भी जगह तलाशनी पड़ रही थी। मनु मंदिर में एक विदेशी युगल को एक गाइड लंबे–चौड़े भाषण की घुट्टी पिला रहा था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार,जब प्रलय हुई तो भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर मनु (वैवस्वत मनु) अर्थात विवस्वान अर्थात सूर्य से उत्पन्न और सप्तऋषियों (अत्रि,कश्यप,गौतम,जमदग्नि,भारद्वाज,वशिष्ठ और विश्वामित्र) को नौका में बैठाकर,नौका को अपनी सींग में वासुकी नाग द्वारा बाँधा और इसे एक सुरक्षित स्थान पर लगाया। मनु ने अपने साथ सृष्टि के बीज भी रखे थे। इस तरह जब प्रलयकाल समाप्त हुआ तो सृष्टि की दुबारा शुरूआत हुई। इस बात के तो कोई प्रमाण नहीं हैं कि मनु की नौका कहाँ लगी थी और न ही इस बात का दावा किया जा सकता है कि मनु की नौका मनाली में लगी थी। परन्तु मनाली मनु का प्राचीनतम स्थान है। इस स्थान का नाम इन्हीं के नाम से पड़ा है। मनाली का पुराना नाम मनुआलय था जो कालान्तर में मनाली कहा जाने लगा। मनु जी ने न केवल सृष्टि की रचना की बल्कि मानवता के कल्याण के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये। इन्होंने मानव की आयु 100 वर्ष निश्चित करके इसे चार आश्रमों– ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास में बाँटा। इन्होंने ही सामाजिक व्यवस्था को चार वर्णाें में भी बाँटा।
इनके इस पवित्र स्थल मनाली के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इस बात की भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस मंदिर का निर्माण कब हुआ। जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर का निर्माण इस स्थान से मूर्तियों की प्राप्ति के बाद हुआ। कहते हैं कि एक औरत,मंदिर से कुछ दूर स्थित एक घर में,जिसे आज ʺदेऊ का घरʺ के नाम से जाना जाता है,गाय के खुर से गोबर निकाल रही थी। उसने जब कुदाली से गोबर निकालना शुरू किया तो कुदाली की चोट वहाँ दबी हुई मूर्तियों को लगी और वहाँ से खून निकलने लगा। इस तरह उस स्थान से खुदाई करने से मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। मूर्तियों को इस स्थान पर लाकर मंदिर का निर्माण किया गया। वैसे इसके अतिरिक्त भी कई जनश्रुतियाँ इस मंदिर के बारे में प्रचलित हैं। मंदिर का गर्भगृह अत्यन्त प्राचीन है। मंदिर का जीर्णाेद्धार 1991 में किया गया।
मैंने भी अपनी मोटी नजरों से मनु मंदिर का बारीक निरीक्षण किया। चारों तरफ जितना घूम सकता था,घूमकर फोटो लिए। मंदिर के बारे में मुझे अधिक जानकारी देने वाला कोई दिख नहीं रहा था,तो मनु मंदिर से लौट कर मैं वापस अपने होटल पहुँचा क्योंकि मेरा सारा माल–असबाब वहीं पड़ा हुआ था और 11 बजे तक चेक आउट भी करना था। अगर चेकआउट की मजबूरी न होती तो मैं अभी कुछ देर मनाली में ही भटकता। होटल स्टाफ का व्यवहार आज भी बहुत ही सहयोगी और विनम्र था। सुबह के 11 से कुछ पहले ही मैं बिना नाश्ता किये आगे की यात्रा के लिए रवाना हो गया। मुझे मालूम था कि आगे की यात्रा में भी मुझे ढेर सारी चाय–बिस्कुट वगैरह मिलनी है।
अब तक की यात्रा में नंगे,हरियाली रहित पहाड़ों से मन ऊब चुका था और जंगलों से घिरी कलकल करती किसी नदी की गोद में कुछ पल बिताने का मन कर रहा था। वैसे तो घरवापसी की दिशा में 350 किलोमीटर की दूरी पर मेरा अगला लक्ष्य चण्डीगढ़ था लेकिन मेरे पास अभी एक–दो दिन का समय था। इस समय का सदुपयोग करते हुए मैं हिमाचल प्रदेश के किसी दूसरे क्षेत्र की यात्रा करना चाह रहा था। तो आज मैंने तीर्थन वैली जाने की योजना बनायी। लगे हाथ ओयो के एप्प पर एक हाई–फाई कमरा भी बुक कर लिया। कमरा था तो बहुत महँगा लेकिन पता नहीं किस ऑफर के तहत मुझे बहुत सस्ता मिल रहा था। ब्यास के किनारे–किनारे बाइक पर यात्रा करने का मजा ही कुछ और था। सुहाना मौसम,जंगलाें से घिरी घाटी और कलकल करती नदी। मैं भूल चुका था कि मैं अभी स्पीति घाटी जैसे बियावान से निकल कर आ रहा हूँ।
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मनाली में मेरा कमरा |
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हडिम्बा देवी मंदिर परिसर |
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मनाली के आगे व्यास नदी |
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हडिम्बा देवी मंदिर |
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मनु मंदिर |
अगला भाग ः मनाली से तीर्थन वैली
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
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