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मनाली से बाहर निकलकर कुल्लू,भुंतर होते हुए मेरी बाइक मद्धम गति से बंजार की ओर बढ़ रही थी। मनाली की ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 2000 मीटर है जबकि कुल्लू 1300 मीटर के आस–पास है। अतः मनाली के कुछ आगे तक तो ठीक था लेकिन कुल्लू पार करने के बाद सितम्बर की गर्मी धीरे–धीरे अपना रंग दिखा रही थी। दोपहर तक तो मेरे उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों की तरह से गर्मी महसूस होने लगी। रास्ते में कुछ भूख महसूस हुई तो एक जगह जलेबियों का नाश्ता करना पड़ा। जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ,दिन की यात्रा में मैंने कभी भी इतना भरपेट भोजन नहीं किया था कि शरीर में आलस्य उत्पन्न हो।
बाइक चलाने के लिए शरीर भी हल्का होना चाहिए। मनाली से लगभग 70 किलोमीटर आगे औट में सड़क एक सुरंग से होकर निकलती है। सुरंग पार करते ही एक ʺटीʺ (T) प्वाइंट मिलता है जहाँ से दाहिने या पश्चिम की ओर की सड़क मण्डी की ओर चली जाती है। बायीं या पूरब की ओर सड़क बंजार और जीभी होते हुए कुमारसैंण की ओर चली जाती है। मुझे इधर ही निकलना था। सुरंग से बाहर निकलने के बाद बायें हाथ लारजी डैम बना हुआ है। इस डैम से सैंज और तीर्थन नदियों के जल को रोका जाता है। यहाँ पर सैंज और तीर्थन नदियाँ आपस में संगम बनाकर ब्यास नदी में मिल जाती हैं। सड़क के एक किनारे नदी की घाटी है तो दूसरी तरफ पहाड़ियों की खड़ी कगार– कुल मिलाकर सुन्दर दृश्य है। एक जगह सड़क पर बने एक गेट पर लिखा दिखायी पड़ा–
ʺसैंज व तीर्थन घाटी में आपका स्वागत है।ʺ मैं मन ही मन खुश हुआ जा रहा था क्योंकि तीर्थन घाटी की खूबसूरती के किस्से मैंने भी सुन रखे थे। मैं जिस सड़क पर चल रहा था वह बंजार से आगे जीभी–घियागी होते हुए कुमारसैंण के पास शिमला–नारकण्डा–रामपुर बुशहर वाली सड़क में मिल जाती है। इस डैम से आगे कुछ किलोमीटर चलने के बाद,बंजार से थोड़ा सा पहले मैं मुख्य मार्ग छोड़कर तीर्थन नदी के साथ जाती सड़क पर मुड़ गया। सड़क अब बिल्कुल सिंगल हो गयी। जिस होटल में मेरी बुकिंग थी,वह इसी सड़क पर था। नदी और सड़क किनारे होटल और होम स्टे तो कई दिख रहे थे लेकिन मैंने ऑनलाइन बुकिंग कर रखी थी तो मैं उसी की खोज में था। बंजार से गुशैनी की तरफ 4-5 किलोमीटर चलने के बाद होटल की लोकेशन मैप में मिल रही थी लेकिन उस नाम का बोर्ड कहीं नहीं दिखा। काफी पूछताछ के बाद मैं होटल तक पहुँच सका। लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद तो दूसरा ही मामला मिला।
होटल के मालिक ने किसी भी तरह की ऑनलाइन बुकिंग से इन्कार करते हुए मुझे कमरा देने से मना कर दिया। मैंने ओयो कस्टमर केयर से उसकी बात भी करायी लेकिन बात नहीं बनी। होटल का ओनर अंगद के पैर की तरह से जम गया था। ओयो कस्टमर केयर वाली मुझे कहीं और कमरा देने का ऑफर दे रही थी लेकिन मैंने भी भीष्म प्रतिज्ञा कर ली थी कि कम से कम आज तो ऑनलाइन कमरा नहीं बुक करूँगा। ओयो ने हार मानकर मेरी बुकिंग कैंसिल कर दी और फिर किसी दूसरे होटल की तलाश में मैं वापस मुड़ गया। ऑनलाइन बुकिंग का ये मुझे अच्छा सबक मिला था। मेरी गलती इतनी थी कि बुकिंग के बाद फोन द्वारा मैंने होटल के ओनर से कन्फर्म नहीं किया था। खैर,जो हुआ सो हुआ। मैं सिर्फ इतनी सी वजह से यात्रा का मजा खराब नहीं करना चाह रहा था। रास्ते में मुझे अनेक होमस्टे और होटल दिखे थे,सो मैंने इन्हीं में से किसी में कमरा लेने करने का फैसला कर लिया था। एक किलोमीटर के अन्दर ही,शाइरोपा नामक जगह पर बहुत ही सुन्दर लोकेशन पर मुझे एक कमरा आसानी से मिल गया। दो कमरों वाले इस होटल में आज के लिए मैं अकेला यात्री था। होटल के सामने की तरफ से सड़क गुजर रही थी जबकि पीछे की तरफ से नदी। कमरे की खिड़कियों से नदी के कलरव की आवाज निरंतर सुनायी पड़ रही थी। मुझे ऐसी ही लोकेशन की दरकार थी। शाइरोपा में ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क का रेंज ऑफिस भी है।
होटल के ओनर के रूप में एक लड़का मिला था जो पास के गाँव का ही रहने वाला था। काफी हँसमुख। नाम टेक सिंह। उसने बताया कि उसने इसे अपने हाथों से बनाया है। होटल की दीवारों का प्लास्टर देखकर लग रहा था कि इसे किसी नौसिखिये ने बनाया है लेकिन लकड़ी और पत्थरों की सजावट इतने खूबसूरत तरीके से की गयी थी कि पूछ्यिे मत। एक नजर में किसी बड़े आधुनिक होटल जैसा दिख रहा था। खिड़कियों पर परदे,फर्श पर दरी,दीवारों पर सीनरी और लाइट्स वगैरह–वगैरह। बाथरूम में गीजर भी लगा था। कमरे का किराया एक दिन का 1000 रूपये था। फिर मैंने कुछ और गुणा–भाग किया। खाने के लिए कम से कम दो सौ लगेंगे,चाय का अलग। इस तरह तो 12-13 साै का बजट बन रहा था। मैंने मोल–तोल शुरू किया। मैं सड़कें नापता हुआ आ रहा था। मैं देख चुका था कि पर्यटकों की कोई खास भीड़ नहीं थी। सितम्बर बिल्कुल समाप्त हो रहा था। अक्टूबर में दशहरे की छुटि्टयों में अवश्य पर्यटकों की भीड़–भाड़ होगी और तब कमरे भी महँगे हो जायेंगे। करते–करते 900 में रहना,खाना,चाय वगैरह सब कुछ फिट हो गया। मुझे हिमाचल में अपनी इस आखिरी रात के लिए ठिकाना मिल गया था। मेरी स्पीति यात्रा बिना किसी खास परेशानी के पूरी हो चुकी थी और आज की शाम जंगलों के बीच,तीर्थन के किनारे बिताने का सुनहरा अवसर मिल रहा था। मैं अपने सौभाग्य पर खुश था। मैंने अपना सारा सामान कमरे में व्यवस्थित किया,धूल और पसीने से ढके शरीर को बाथरूम में स्नान प्रक्रिया के द्वारा साफ किया और फिर ढलते सूरज के साथ,हाथ में कैमरा लेकर तीर्थन के किनारे टहलने लगा। कमरे से बाहर निकलते ही बाहर अपनी बाइक की धुलाई कर रहे टेक सिंह ने सवाल किया–
ʺरात के खाने में क्या लेंगे?ʺ
ʺक्या मिल सकता है? रोटी सब्जी मिल जाएगी?ʺ
ʺसब्जी कद्दू की मिलेगी।ʺ
ʺकद्दू की सब्जी तो मुझे पसंद नहीं है।ʺ
ʺतो फिर घिया–दही की सब्जी बना देंगे।ʺ
मैं समझ गया कि आज किस्मत में लौकी–कद्दू ही है। सिर हिलाकर हामी भर दी। मुझे टेक सिंह से ईर्ष्या हो रही थी। कारण कि जिस स्वर्ग की मैं कल्पना करता हूँ,उसका असली बाशिंदा तो यही है।
शाम होने के साथ हल्की–हल्की ठंड भी महसूस हो रही थी। यह स्थान लगभग 1500 मीटर की ऊँचाई पर है। हर किसी के शरीर पर हल्के–फुल्के जैकेट दिखायी पड़ रहे थे। मैं बिना जैकेट था। मैं सूखे हिमालयी रेगिस्तान से होकर लौटा था। ऊँचाई और तीखी ठण्ड का कुछ तो अभ्यस्त हो ही गया था। थोड़ा सा आगे बढ़कर एक पगडंडी के सहारे मैं बिल्कुल तीर्थन के किनारे पहुँच गया– तीर्थन का मधुर संगीत सुनने। नदी के इतने पास कि किसी पत्थर पर बैठकर,नदी में दोनों पैर लटका कर पानी की ठण्डक का अनुभव कर सकूँ। पंक्षियों की चहचहाहट में खोकर दुनियावी झंझटों से दूर हो सकूँ। रोज की जिन्दगी में ऐसा सौभाग्य कहाँ मिल पाता हैǃ तिस पर भी किस्मत ऐसी जगह पर कहाँ और कब किसी को लाती है। पश्चिम की गोद में समाते सूरज की रोशनी पल–पल बदल रही थी और साथ ही तीर्थन के पानी का रंग भी बदल रहा था। प्रकृति के इन रंगों को बयां करने में मेरे जैसे मनुष्य का मन–मस्तिष्क बेबस महसूस कर रहा था। फिर इन रंगों को सहेजने में मनुष्य का बनाया कोई उपकरण तो बिल्कुल ही निःसहाय होता। फिर भी मनुष्य इतना ढीठ है कि उसके बनाये चारपहियों वाले यंत्र बगल से गुजरती सड़क पर यदा–कदा गुजर ही रहे थे और प्रकृति की शांति को अकारण भंग कर रहे थे।
नदी किनारे देर तक बैठे रहने पर ठण्ड महसूस होने लगी थी।
इससे बचने के लिए सड़क पर टहलना सर्वोत्तम विकल्प था। तो मैं गले में कैमरा लटकाये आस–पास तब तक टहलता रहा जब तक कि सूरज की रोशनी से सुनहली हुई नदी केे पानी का रंग शाम के धुँधलके में काला नहीं पड़ गया। सड़क और नदी के बीच,सड़क किनारे बने होटलों को देखकर लग रहा था कि सीजन में यहाँ अच्छे–खासे पर्यटक आते होंगे और वैली अपनी सुंदरता की कीमत अच्छी तरह वसूल करती होगी। अपनी समझ से मुझे लग रहा था कि सँकरी घाटी में सड़क की चौड़ाई बढ़ाने की क्षमता सीमित ही है। तो निकट भविष्य में इसकी सुंदरता से छेड़छाड़ होने की संभावना भी कम ही है। सड़क किनारे टहलना ही समय बिताने का मेरे लिए एकमात्र विकल्प था। लेकिन इसकी भी एक सीमा थी। अँधेरा हो जाने के बाद जब मैं कमरे पहुँचा तो टेक सिंह अभी आराम फरमा रहे थे। मैंने पूछा–
ʺखाना कब बनेगा?ʺ
ʺअभी बन जाएगा।ʺ
मुझे ठण्ड लग रही थी। मैं कमरे में घुस गया। अविराम प्रवाहित हो रही तीर्थन का अनवरत स्वर खिड़की से प्रवेश कर प्राणों में हलचल मचा रहा था। हल्की ठण्ड शरीर में गुदगुदी सी पैदा कर रही थी। मैं सोच रहा था–
मनुष्य के कुछ पुरखों ने सरल–जीवन वाले मैदानों को छोड़कर पहाड़ों और जंगलों से घिरे इस भूभाग में जीवन बिताने का कभी निर्णय लिया होगा। पेट की भूख की बजाय उन्होंने मन की शांति को वरीयता दी होगी। पहाड़ की कगार पर बनी पगडण्डियों से गुजर कर उस संघर्षशील मनुष्य ने जंगलों के बीच अपना आशियाना बनाया होगा। तभी आज मेरे जैसा मैदान का निवासी भी यहाँ शरीर और आत्मा,दोनों की शांति को महसूस कर रहा है।
आधे–पौन घण्टे में खाना तैयार हो चुका था। क्योंकि टेक सिंह शायद मुझे ही आवाज लगा रहा था। मेरे और टेक सिंह के अलावा यहाँ तीसरा कोई था भी नहीं। टेक सिंह अकेला खाना बनाने वाला और मैं अकेला खाना खाने वाला। पता चला कि खाना दो लोगों के लिए बन रहा है। एक मेरे लिए और दूसरा टेक सिंह के बड़े भाई के लिए,जो रात में इसी होटल में सोते हैं। टेक सिंह तो खाना बनाकर घर चले जाएंगे।
कुछ ही देर में मैं चारों तरफ फैले घने अन्धकार के बीच,अपने होटल की छत पर बने रेस्टोरेण्ट की मद्धम रोशनी में एक गोल मेज पर बिल्कुल अकेले,घिया–दही की सब्जी,दाल और रोटी के शानदार स्वाद का लुत्फ उठा रहा था। और ऐसे माहौल में,पीछे की ओर आता तीर्थन का शोर दिल में हौल पैदा कर रहा था।
अगला भाग ः तीर्थन से वापसी
सम्बन्धित यात्रा विवरण–
15. तेरहवाँ दिन– तीर्थन से वापसी
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