4. ब्रह्मपुत्र नदी क्रम–
ब्रह्मपुत्र नदी को ब्रह्मा का पुत्र कहा जाता है। यह गंगा में मिलने वाली नदियों में सबसे बड़ी नदी है। तिब्बत में इसे सांग्पो के नाम से जाना जाता है। दक्षिणी–पश्चिमी तिब्बत में मानसरोवर झील और कैलाश पर्वत के पूर्व में इसका उद्गम होता है तथा दक्षिण तिब्बत में पश्चिम से पूर्व की 1290 किलोमीटर प्रवाहित होने के बाद यह असम हिमालय को पार करती है। नमचा बरवा पर्वत शिखर के निकट दक्षिण की ओर मुड़कर यह अरूणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है। ब्रह्मपुत्र जिस स्थान पर हिमालय को काटती है वहाँ इसे दिहांग कहते हैं। यहाँ से आगे यह पश्चिम की ओर असम घाटी में बहती हुई बांग्लादेश में प्रवेश कर जाती है। मेघालय पठार के कारण यह दक्षिण की ओर घूमकर बांग्लादेश में प्रवेश करती है। सादिया के निकट यह समुद्री सतह से लगभग 135 मीटर ऊपर रहती है। ब्रह्मपुत्र के जलग्रहण क्षेत्र में भारी वर्षा होती है। इसके फलस्वरूप 750 किलोमीटर लम्बी असम घाटी में इस नदी के दोनों तरफ से अनेक सहायक नदियाँ आकर इसमें मिलती हैं। ज्यादातर सहायक नदियाँ बड़ी धाराएँ हैं और ब्रह्मपुत्र में अत्यधिक मात्रा में जल तथा अवसाद प्रवाहित करती हैं। वर्षा ऋतु में जल की अधिकता के कारण यह नदी एक तट से दूसरे तट तक लगभग 10 किलोमीटर की चौड़ाई में दोलन करती हुई प्रवाहित करती है। अत्यधिक अवसाद के कारण इसका जलमार्ग अत्यन्त गुंफित (braided) हो जाता है।
एशिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप ‘माजुली‘ ब्रह्मपुत्र नदी में ही है जो उत्तर में लखीमपुर जिले और दक्षिण में जोरहट जिले से घिरा हुआ है। बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र को जमुना कहते हैं। सुरमा नदी से मिलाप के बाद इसे मेघना नदी कहते हैं। अन्त में पद्मा और जमुना (मेघना) दाेनों नदियाँ चाँदपुर के निकट मिल जाती हैं। दोनों धाराएँ संयुक्त होकर बहुत चौड़ी हो जाती हैं और एक बड़ी एश्चुअरी बनाती हैं,जिसमें बहुत सारे द्वीप पाये जाते हैं। इस नदी की सम्पूर्ण लम्बाई 2580 किलोमीटर और अपवाह क्षेत्र 580000 वर्ग किलोमीटर है। भारत में इसकी लम्बाई 1346 किलोमीटर और अपवाह क्षेत्र 340000 वर्ग किलोमीटर है। ब्रह्मपुत्र में भयंकर बाढ़ें आती हैं जिससे जन–धन की अपार क्षति होती है लेकिन इसके साथ ही ब्रह्मपुत्र ने असम की उपजाऊ घाटी का भी निर्माण किया है। समुद्र में गिरने के स्थान से 1280 किलोमीटर ऊपर तक इस नदी में बड़े जहाज चल सकते हैं जबकि छोटी नावें तिब्बत तक जा सकती हैं। यातायात और व्यापार के लिए यह नदी राजमार्ग का कार्य करती रही है। ब्रह्मपुत्र की प्रमुख सहायक नदियाँ तिस्ता,सनकोश,मानस,सुबनसिरी, धनश्री,बराक,मणिपुर,कालदान इत्यादि हैं।
तिस्ता ब्रह्मपुत्र की सबसे पश्चिमी और दाहिने तट की सहायक नदी है। कंचनजंघा से निकलकर दार्जिलिंग की पहाड़ियों में यह तीव्र गति से प्रवाहित होती है। रांग्पो,रिंगित और सेबक इसकी सहायक नदियाँ हैं। जलपाईगुड़ी इसके किनारे स्थित प्रमुख शहर है जो 1968 की बाढ़ में सम्पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में तिस्ता नदी बांग्लादेश में जाकर ब्रह्मपुत्र से मिलती है। 1787 की आकस्मिक बाढ़ में इसने अपना मार्ग परिवर्तित कर लिया था,इसके पूर्व यह गंगा नदी से संगम करती थी।
मानस एक पूर्ववर्ती नदी है जो तिब्बत से निकलकर एक गहरा गार्ज बनाती हुई हिमालय को पार करती है। मानस भूटान की एक प्रमुख नदी है। इसकी कुल लम्बाई 376 किलोमीटर है तथा यह जोगीगोपा नामक स्थान पर ब्रह्मपुत्र नदी से मिलती है। भूटान और भारत में इसका अपवाह क्षेत्र 41350 वर्ग किलोमीटर है।
बराक नदी नागालैण्ड में माउण्ट जापोव से निकलती है। मणिपुर में यह दक्षिण की ओर बहती है तथा एक कैंची मोड़ (hairpin band) लेते हुए पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। इसकी कई सहायक नदियाँ हैं जो मिजोरम के उत्तरी भाग को अपवाहित करती हैं। सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान मासिनराम और चेरापूँजी बराक बेसिन में अवस्थित हैं। इस कारण बराक नदी अत्यधिक मात्रा में जल विसर्जित करती है। यहाँ से यह नदी बांग्लादेश की ओर प्रवाहित होती है जहाँ यह सुरमा कहलाती है। ढाका के नीचे चाँदपुर में बराक नदी पद्मा से मिलती है जिसके बाद संयुक्त रूप से सुरमा तथा पद्मा–मेघना कहलाती है।
5. आन्तरिक जल प्रवाह
वे नदियाँ जिनका जल किसी समुद्र में नहीं जाकर गिरता है,आंतरिक जलप्रवाह बनाती हैं। थार मरूभूमि का अधिकांश भाग तथा लद्दाख का अक्साई चिन इसी प्रकार का प्रवाह रखता है। आंतरिक प्रवाह रखने वाली सबसे प्रमुख नदी घग्घर है। यह एक मौसमी नदी है। यह हिमालय के निम्न ढालों से निकलती है तथा पंजाब एवं हरियाणा के बीच सीमा रेखा बनाती है। हनुमानगढ़ के निकट यह रेत में खो जाती है। इसी को प्राचीन सरस्वती का अवशिष्ट प्रवाह माना जाता है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ तांगरी,मरकंडा,सरस्वती और चैतन्या हैं। वर्षाकाल में इसमें जल का काफी प्रवाह रहता है तथा कहीं–कहीं यह 10 किलोमीटर तक फैल जाती है। भारत के सीमित भागों में इस प्रकार का प्रवाह तंत्र मिलता है। लूनी नदी इसी प्रकार के प्रवाह का अंग है। साँभर झील आंतरिक जल प्रवाह के क्षेत्र के रूप में जानी जाती है। लद्दाख पठार भी आंतरिक जल प्रवाह प्रणाली रखता है। हरियाणा के पश्चिमी भाग व उत्तरी राजस्थान में सरस्वती नदी मरूभूमि में समाप्त हो जाती है।
प्रायद्वीपीय और उत्तर भारतीय नदियों की तुलना
1. उत्तर भारत की अधिकांश नदियों का उद्गम हिमालय के हिमाच्छादित प्रदेश अथवा हिमनदों से होता हैै,अतएव इन्हें वर्ष भर जल प्राप्त होता रहता है। प्रायद्वीपीय नदियों का स्रोत पठारी भाग में होने के कारण इन्हें वर्षा काल में ही पर्याप्त जल की आपूर्ति हो पाती है। शुष्क ग्रीष्मकाल में ये प्रायः सूख जाती हैं।
2. उत्तर भारत की अधिकांश नदियाँ अभी अपनी अपरिपक्व युवावस्था में हैं और वे अभी भी अपनी घाटियों के विस्तार में संलग्न हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ अत्यधिक पुरानी हैं। इनमें से कुछ तो कैम्ब्रियन युग के पहले की हैं। इन नदियों ने अपने आधार तल को प्राप्त कर लिया और इनमें अपरदन की क्षमता काफी कम रह गयी है।
3. उत्तरी भारत की नदियाँ पर्वतीय,मैदानी और डेल्टाई भाग में विशिष्ट स्थल रूपों का निर्माण करती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ अधिकांशतः पठारी धरातल पर प्रवाहित होती हैं। इनके मैदानी और डेल्टाई खण्ड अधिक विस्तृत हैं।
4. उत्तरी भारत की नदियाँ वर्ष भर जलपूर्ण रहने के कारण अपने विस्तृत मैदानी खण्ड में सिंचाई और नौकारोहण में विशेष उपयोगी हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ केवल डेल्टाई भागों में सीमित रूप में सिंचाई और नौकारोहण के लिए उपयोगी हैं।
5. उत्तर भारत की नदियाँ तीव्र गति से प्रवाहित होने वाली नदियाँ हैं तथा इस कारण ये अधिक मात्रामें अवसादों का वहन करती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ धीमी गति से बहने वाली नदियाँ हैं और इस कारण इनकी वहन क्षमता निम्न है।
6. उत्तर भारत की नदियाँ क्षैतिज तथा पर्श्विक दोनों तरह का अपरदन तीव्रता से करती हैं। इस कारण सक्रिय रूप से अपरदन और निक्षेपण का कार्य करती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाें का उर्ध्वाधर अपरदन नगण्य है और ये मुख्यतः निक्षेपण का कार्य करती हैं।
7. उत्तरी भारत की नदियों के प्रवाह क्षेत्र में स्थित कोमल तलछटी शैलें बाढ़ के समय अधिकांश जल को अवशेषित कर पाती हैं किन्तु प्रायद्वीपीय भारत की नदियों के प्रवाह क्षेत्र कठोर शैलों से निर्मित होने के कारण वर्षाकाल में बाढ़ के जल को अवशोषित नहीं कर पाते। इसी कारण उत्तरी भारत की नदियों के किनारे अनेक बड़े नगर स्थापित हुए किन्तु प्रायद्वीपीय भारत की नदियों ने बड़े नगरों के विकास में विशेष योगदान नहीं दिया।
8. उत्तरी भारत की नदियाँ केवल पर्वतीय खण्ड में प्रपाती एवं द्रुतगामी हैं। मैदानी खण्ड में उनके मार्ग में बहुत ही मन्द ढाल पाया जाता है। अतएव जल विदयुत के लिए उनका अधिक महत्व नहीं है। इसके विपरीत प्रायद्वीप की अधिकांश नदियाँ प्रपाती होने के कारण जलविद्युत के विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं।
9. उत्तर भारत की नदियों ने पर्वतीय भागों का अपरदन करके मैदानों में निक्षेपण कर उर्वर मिटि्टयों से युक्त मैदानों का निर्माण किया है जो सघन आबाद हैं। प्रायद्वीप की नदियों के पठारी खण्ड कम आबाद तथा केवल डेल्टाई खण्ड ही अधिक आबाद हैं।
10. उत्तर भारत की नदियों की संख्या अधिक है जबकि प्रायद्वीपीय भारत की नदियों की संख्या कम है।
11. उत्तर भारत की नदियाँ विसर्प बनाती हैं और अपना मार्ग बदलती रहती हैं। प्रायद्वीपीय नदियाँ सीधा मार्ग अपनाती हैं और अपना मार्ग नहीं बदलती।
12. उत्तर भारत की नदियाँ अपेक्षाकत लम्बी हैं और इनका जलग्रहण क्षेत्र काफी विस्तृत है। प्रायद्वीपीय नदियां कम लम्बाई की हैं और इनका जलग्रहण क्षेत्र अपेक्षाकृत छोटा है।
13. उत्तर भारत की हिमालयी नदियाँ गहरे गार्ज बनाती हैं जबकि प्रायद्वीपीय नदियाँ उथली घाटियों में बहती हैं।
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