Friday, March 30, 2018

औरंगाबाद की सड़कों पर

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26 दिसम्बर
आज हमारी इस यात्रा का अंतिम दिन था। अर्थात औरंगाबाद की यात्रा का अंतिम दिन,क्योंकि यात्रा का अंत तो कभी हो ही नहीं सकता। हमारी जीवन यात्रा के साथ ये छोटी–मोटी यात्राएं तो चलती ही रहेंगी आैर जीवन यात्रा में नयी–नयी कहानियां जुड़ती रहेंगी। फिर भी एक बड़े चक्र का छोटा सा भाग पूर्ण होने वाला था। औरंगाबाद से बाहर निकल कर घूमने का काम पूरा हो चुका था और अब औरंगाबाद शहर की सड़कें ही बची थीं। काम कम था और समय पर्याप्त। ऐसे में थोड़ा अधिक सोया जा सकता है। अब छोटी कक्षाओं में कभी पढ़ी गयी संस्कृत की उस सूक्ति– "दीर्घसूत्री विनश्यति" काे भूलकर हम भी सुबह के पौने सात बजे तक सोते रहे।
सोकर उठे तो सबसे पहले गरम पानी की ही याद आयी। मैं नीचे की ओर दौड़ पड़ा। लेकिन बीच रास्ते से ही लौट आया। ध्यान में आया कि पहले टोंटी खोल कर देखना चाहिए था। वापस आया और नल खोलकर देखा तो उष्ण जलधारा प्रवाहित हो रही थी। अपनी बेवकूफी पर थोड़ी सी झल्लाहट होनी ही चाहिए। हमारा लॉज,जो पिछले दो दिनों से यात्रियों की भीड़ से गुलजार हो उठा था,आज खाली–खाली दिख रहा था। छुटि्टयां खत्म हो गयी थीं। आवाजें कम आ रहीं थीं। लॉज का स्टाफ भी अलसाया हुआ सा था क्योंकि भीड़ खत्म तो नहीं लेकिन कम अवश्य हो गयी थी। शायद भीड़ में फुर्ती होती है और अकेलेपन में आलस्य। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता। मैं तो अकेले ही हमेशा चैतन्य रहता हूँ। और चैतन्य महाप्रभु तो अकेले ही आनन्द में रहते थे।
हमें नहा–धोकर तैयार होने में एक घण्टे लग गये। पौने आठ बजे बाहर निकले। आज बस की बजाय ऑटो का ही सहारा था क्योंकि कहीं दूर जाना नहीं था। और हमारी इस मनोभावना को आॅटो वाले भी पढ़ रहे थे। शायद उनके पास यात्रियों की भावनाओं काे पढ़ने का कोई विशेष हुनर होता है। मैंने बहुतों को देखा है जो चेहरा देखकर ही सामने वाले का भूत–भविष्य–वर्तमान सब कुछ बता देते हैं। अपने पास इतना हुनर कहाँǃ कल–परसों तो हम भी ऑटो वालों के चिल्लाने की उपेक्षा करते हुए बस–स्टेशन की ओर चले गये थे। बिल्कुल उसी तरह से जैसे कोई गजराज रास्ते में चलने वाले छोटे–छोटे जीवों की परवाह नहीं करता है। लेकिन आज हमें उन्हीं के सहारे की जरूरत थी। दिन तो घूरे के भी फिरते हैं। इसलिए कइयों से पूछताछ की। लेकिन कुछ भी बताने के पहले आटो वाले एक छाेटी सी फोटो वाली बुकलेट निकाल ले रहे थे जिसमें औरंगाबाद और उसके आस–पास के पर्यटक स्थलों के चित्र छपे थे और फिर समझाना शुरू–
"सर आपको यहाँ ले जायेंगे। वहाँ घुमाएंगे।"
और हमको तो सिर्फ इधर–उधर ही जाना था। यहाँ–वहाँ तो हम घूम चुके थे।

मेरा ऑटो वालों से सामंजस्य थोड़ा मुश्किल से बनता है। उनके पास तीन पहिए होते हैं जो एक हिसाब से चलेंगे। मेरे पास सिर्फ एक जो अपनी मर्जी से डगरता रहता है। उनका एक फिक्स रूट प्लान होता है,एक फिक्स रेट होता है। लेकिन अपना ऐसा कुछ नहीं होता। दरअसल किसी भी चीज को देखने का अपना तरीका ही अलग है। फिर भी एक भला आदमी मिल ही गया। हमने बीबी के मकबरे के लिए बात की। 50 रूपये में बात पट गयी। ऑटो चली तो हम बहुत खुश हो रहे थे क्योंकि सड़क पर अधिक भीड़ नहीं दिख रही थी। शायद भीड़ पिछले दो दिनों में छुटि्टयों का गुस्सा उतारकर चली गयी थी।
8.15 पर हम बीबी के मकबरे पहुँच गये। यहाँ भी अधिक  भीड़ नहीं थी। हम दोनों खुश हुए। तभी एक फोटोग्राफर महोदय अपनी सेवा देने के लिए हाजिर हुए और बिना पूछे बताने लगे कि कल शाम को तो यहाँ पैर रखने की भी जगह नहीं थी। मैंने तुरंत जवाब दिया कि कल हमारे जैसा कोई भाग्यशाली मनुष्य नहीं आया होगा। वैसे जब हमने हिन्दुस्तान में जन्म लिया है तो भीड़ का भय तो मन से निकाल ही देना चाहिए। हर जगह लाइन लगाना हमारी नियति है। वैसे तो मैं भीड़ या लाइन से डरता नहीं हूँ लेकिन मन में जो एकान्त या शांति की चाहत होती है वह लाइनों की भीड़ में दम तोड़ जाती है। अब वो "भीड़ के बीच अकेला" हो जाने वाला जादू अपने पास नहीं है।

बीबी का मकबरा में प्रवेश शुल्क है 20 रूपये। वैसे बाकायदा टिकट लेकर प्रवेश करने के पहले ही चारदीवारी के बाहर से इसके शुभ्र सौंदर्य का दर्शन हो जाता है। हाँ,टिकट का वेटेज हमें इसके बिल्कुल पास पहुँचा देता है। मुख्य प्रवेश द्वार में प्रवेश करते ही टिकट की जाँच होती है। टिकट जाँच में मैं ओरछा किले की ही तरह एक बार फिर फेल हो गया। कैमरा हाथ में था और उसका टिकट नदारद। मैं बार–बार भूल जाता हूँ कि कैमरे के पास भी देखने की क्षमता होती है और इस आधार पर वह भी टिकट का हकदार है। इसके अलावा कैमरे के पास कुछ विशेष सहूलियतें भी होती हैं– यथा उसका टिकट मौके पर ही बन गया जबकि हाथ पैरों वाले किसी मनुष्य का नहीं बन पाता। प्रवेश द्वार पर ही कैमरे का टिकट बनवाकर हम अंदर प्रवेश कर गये। और अब दक्षिण का ताजमहल या गरीबों का ताजमहल कहा जाने वाला बीबी का मकबरा हमारी आँखों के सामने था। बीबी का मकबरा ताजमहल की नकल करके ही बनाया गया है। मैंने असली ताजमहल अभी नहीं देखा था लेकिन अब मैं कल्पना कर सकने की स्थिति में था कि क्या अमीरों का ताजमहल या असली ताजमहल भी इतना ही खूबसूरत हैǃ  या फिर इससे भी अधिकǃ क्योंकि हकीकत में न सही तस्वीरों में तो मैंने भी ताजमहल देखा है।
बीबी का मकबरा दक्षिण भारत की सबसे भव्य मुस्लिम इमारत है। इस इमारत को औरंगजेब के पुत्र आजमशाह ने अपनी माँ रबिया दुर्रानी की याद में बनवाया था। रबिया दुर्रानी की मृत्यु कम उम्र में ही हो गयी थी। वैसे रबिया दुर्रानी की कब्र तो औरंगजेब के जीवनकाल में ही बन गयी थी लेकिन इतना भव्य मकबरा आजम शाह ने 1651-1661 में बनवाया। आगरे का ताजमहल सफेद संगमरमर से बना है जबकि बीबी का मकबरा सफेद प्लास्टर से बना है।
एक घण्टे तक हम गरीबों के इस ताजमहल को देखते रहे। कभी खड़े होकर तो कभी घुटनों के बल बैठकर। कैमरे से तो मैं फोटो हर जगह खींचता हूँ लेकिन सेल्फी से भरसक परहेज करता हूँ लेकिन यहाँ मेरा भी सेल्फीयत्व जाग उठा और धड़ाधड़ मैंने भी मोबाइल के फ्रन्ट कैमरे का कई बार उपयोग कर लिया।

9.15 बजे हम बाहर निकले। अब औरंगाबाद की गुफाओं का नंबर था। बीबी के मकबरे से इन गुफाओं की दूरी लगभग 2.5 किमी है। मकबरे से बाहर निकलते ही ऑटो वाले हमला कर दे रहे थे। लेकिन हमारी शर्तें ऐसी थीं कि बात बनाने में काफी मेहनत करनी पड़ी। अभी वे शायद पिछले दिनों की भीड़ की खुमारी में थे जबकि हम उस खुमारी से बाहर निकल चुके थे। आटो वाले औरंगाबाद गुफाओं तक जाने व आने दोनों तरफ की बुकिंग करना चाह रहे थे जबकि हम केवल जाने की बुकिंग करना चाह रहे थे। 50 रूपये में केवल जाने के लिए किसी तरह बात बनी। 10 मिनट के अंदर हम औरंगाबाद केव्स तक पहुँच गये।
औरंगाबाद की गुफाएं तीन समूहों में तीन अलग–अलग स्थानों पर अवस्थित हैं। बीबी के मकबरे से इन गुफाओं की तरफ जाने पर लगभग दो किमी की दूरी के बाद एक तिराहे से रास्ता दो भागों में बँट जाता है। बायीं तरफ या पश्चिम की ओर जाने वाला रास्ता गुफा संख्या 1-5 की ओर जाता है जबकि दायीं या पूरब की ओर जाने वाला रास्ता शेष गुफाओं की ओर जाता है। इनमें गुफा संख्या 1-5 तक को पश्चिमी गुफा समूह कहा जाता है। गुफा संख्या 6-9 को पूर्वी गुफा समूह कहा जाता है। गुफा संख्या 10-12 का तीसरा समूह दूसरे समूह के पूर्व में अवस्थित है।
आटो से उतरकर जब हम इन गुफाओं तक पहुँचे तो यहाँ इक्का–दुक्का लोग ही दिखायी पड़ रहे थे। सीढ़ियों द्वारा काफी ऊँची–नीची चढ़ाई और अजंता–एलोरा जितना बड़ा नाम न होना,लोगों की भीड़ न होने का प्रमुख कारण लग रहा था। प्रवेश द्वार पर टिकट मिल रहा था जो यहाँ के सभी गुफा समूहों के लिए मान्य था। मैंने भी ऊपर की ओर सीढ़ियां चढ़ना शुरू किया। रास्ते में छोटे–छोटे समूहों में बैठे थके–माँदे पर्यटक दिखायी पड़ रहे थे जिनके चेहरे पर गुफाओं को देखने का उत्साह नहीं दिख रहा था।

अब मैंने गुफाओं की स्कैनिंग शुरू की। गुफा संख्या 1 अपूर्ण है तथा वर्तमान में क्षतिग्रस्त हो चुकी है। इसके बरामदे की छत गिर चुकी है। गुफा संख्या 2 भी एक विहार है जिसकी पार्श्व दीवार में अभय मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति अंकित की गयी है। गुफा संख्या 3 एक चैत्यगृह है और काफी बड़ी है। यह हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित है। गुफा संख्या 1 व 3 सबसे प्राचीन हैं क्योंकि इनका उत्खनन संभवतः दूसरी–तीसरी शताब्दी में किया गया। अन्य गुफाआें का निर्माण छठीं–सातवीं शताब्दी का माना जाता है और इनका संबंध कल्चुरी शासकों से जोड़ा जाता है। गुफा संख्या 4 एक चैत्य विहार के रूप में है जिसकी छत चापाकार है। गुफा संख्या 5 में पद्मासन मुद्रा में बुद्ध की आकृति बनायी गयी है। औरंगाबाद के पश्चिमी गुफा समूह में यही गुफाएं हैं।
10 बज गये थे। भूख जोर लगा रही थी लेकिन भोजन का विकल्प औरंगाबाद की इन पहाड़ियों पर उपलब्ध नहीं है। अब गुफा संख्या 6-9 तक पहुँचने के लिए पैदल मार्च करना था क्योंकि हमने आटो केवल गुफा तक पहुँचने के लिए ही बुक किया था। और ऑटो वाला हमारे जैसे बेवकूफ पर्यटकों को कोसते हुए खाली ऑटो लेकर नीचे चला गया था। वापस लौटे तो तिराहे पर एक ठेले वाला अपनी दुकान सजा चुका था। भेल और पानी पूरी से पेट तो नहीं भर सकता लेकिन 'समथिंग इज बेटर दैन नथिंग' की तर्ज पर हम उसी पर टूट पड़े। 30 रूपये की भेल और 20 रूपये की पानीपूरी से काफी राहत मिली। दोनों गुफा समूहों के बीच लगभग आधे किमी की दूरी है जिसे हमने आराम से टहलते हुए 10 मिनट में पूरा कर लिया। पूर्वी गुफा समूह में प्रवेश के लिए पहले समूह के पास लिया गया टिकट ही काम करता है हालाँकि यहाँ भी टिकट काउण्टर बना हुआ है।

गुफा संख्या 6 की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें बुद्ध के साथ ही हिन्दू धर्म के देवता गणेश जी की आकृति भी दिखायी पड़ती है। कुछ स्‍ित्रयों तथा पुरूषों की आकृतियां भी अंकित की गयी हैं।
गुफा संख्या 7 औरंगाबाद गुफा समूह की सबसे महत्वपूर्ण गुफा है। यह 7वीं–8वीं शताब्दी में निर्मित गुफा है। इसमें चौकोर गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ बना है। प्रदक्षिणापथ के पीछे स्तम्भयुक्त कोठरियां बनी हैं। गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ के पार्श्व में भगवान बुद्ध सिंहासन पर व्याख्यान मुद्रा में विराजमान हैं। प्रदक्षिणापथ की दीवारें मूर्तियों से परिपूर्ण हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर अपने सेवकों के साथ बौद्ध देवियों का अंकन किया गया है।
गुफा संख्या 8 क्षतिग्रस्त हो चुकी है। गुफा संख्या 9 में भगवान बुद्ध की मृत्यु को दर्शाया गया है। गुफा समूह की अन्य गुफाएं अपूर्ण व क्षतिग्रस्त हैं। गुफा संख्या 11 व 12 पहाड़ी की दूसरी तरफ हैं।
गुफाओं के अलावा एक जगह हमने एक और दृश्य भी देखा। गुफा संख्या 7 के सामने एक स्थान पर शूटिंग चल रही थी। अब यह शूटिंग थी भी कि नहीं,मैं कन्फर्म नहीं हो सका फिर भी इसे शूटिंग का नाम देने की जुर्रत कर दी। वजह यह थी कि कुल पाँच लोगों की टीम थी और इस टीम में ही शामिल एक सुंदरी के अलग–अलग पोज में तीन बड़े–बड़े कैमरों से फोटो लिए जा रहे थे। इच्छा तो अपनी भी कर रही थी लेकिन अपने कैमरे से फोटो खींचने की हिम्मत नहीं पड़ी। अब इसे साधारण फोटोग्राफी भी कहना उचित नहीं तो इसे मैंने शूटिंग मान लिया।

सारी गुफाएं देख लेने के बाद अब हमें वापस लौटना था। आस–पास ऐसा कोई वाहन नहीं दिख रहा था जिससे हम मदद ले सकें। जो भी लोग आये थे वे अपने निजी वाहनों से ही आये थे। हमारे पास भी अपनी 11 नंबर की जोड़ी थी और हम उसी पर चल पड़े। लेकिन अभी दो–तीन मिनट ही चले होंगे कि सुनसान रास्ते पर यमदेव के वाहन से सामना हो गया। एक भैंसा सड़क के किनारे चर रहा था लेकिन जब हम पास पहुँचे तो वह बिल्कुल सीधे खड़े होकर अपनी लाल–लाल आँखों से एकटक हमें ही घूरने लगा। हो सकता है इसके ऊपर यमराज या शनीचर या फिर अन्य कोई देवता सवार हों। अब हमारे सामने इधर कुआँ उधर खाई वाली स्थिति हो गयी। दूसरा कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। एक बार तो हमने सड़क से नीचे उतरकर गहराई वाले इलाके से होकर जाने की सोची लेकिन यह व्यावहारिक नहीं लग रहा था। हम थोड़ा पीछे हटकर खड़े हो गये। दो–तीन मिनट गुजर गये। दुष्ट भैंसा पलकें भी नहीं झपका रहा था। तभी आगे पीछे दो आटो आते दिखे। हमें  इसमें अपना अवसर दिखा। ऑटो के नजदीक आते ही उसकी आड़ लेकर हम तेजी से दौड़ते हुए आगे निकले। भैंसा मुआ अपनी जगह से बिल्कुल भी नहीं हिला लेकिन काफी देर तक हमें ही घूरता रहा और हम आगे बढ़ते हुए भी पीछे मुड़ मुड़कर देखते रहे कि कहीं यह हमारे पीछे तो नहीं आ रहा।
लगभग पौने एक घण्टे की पैदल यात्रा के बाद 11.45 तक हम बीबी के मकबरे वापस पहुँच गये। औरंगाबाद की कुछ और भी जगहों का घूमने के लिए मैंने पहले से ही चयन कर रखा था– जैसे सोनेरी महल,पनचक्की,खण्डोबा मंदिर और औरंगाबाद के कुछ गेट वगैरह। इसी हिसाब से ऑटो वालों से बात करनी थी। काफी जद्दोजहद करनी पड़ी तब 350 रूपये में एक आॅटो वाला तैयार हुआ। 12.05 पर ऑटो से हम सोनेरी महल की ओर चले। सोनेरी महल बीबी के मकबरे से औरंगाबाद केव्स की ओर जाने वाली सड़क में से थोड़ी दूरी पर बायें निकलकर जाने वाले एक रास्ते पर 1.5 किमी की दूरी पर स्थित है। 12.15 पर हम सोनेरी महल पहुँच गये। सोनेरी महल औरंगाबाद के मुख्य शहर से कुछ हटकर पहाड़सिंहपुरा इलाके में स्थित है। सोनेरी महल के बिल्कुल पास ही बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय भी अवस्थित है। सोनेरी महल का यह नाम यहाँ सोने से बनी कुछ पेंटिग्स के कारण पड़ा। इस महल का निर्माण बुंदेलखण्ड के शासक पहाड़सिंह द्वारा 1651 से 1653 के बीच कराया गया। पहाड़सिंह और उनके भाई जुझारसिंह को संभवतः मुगल शासक शाहजहाँ द्वारा दक्कन में मुगल सत्ता को मजबूत करने के लिए भेजा गया था। सोनेरी महल एक चबूतरे पर बना हुआ दुमंजिला भवन है। इसका मुख्य प्रवेश द्वार एक हॉल के रूप में है जिसमें अजंता की कुछ पेंटिंग्स को चित्रित किया गया है। प्रवेश द्वार तथा पीछे की ओर स्थित मुख्य महल के बीच में एक बड़ा खुला हुआ प्रांगण है। महल के पीछे स्थित पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में यह छोटा सा महल काफी सुंदर दिखता है।

सोनेरी महल के बाद पनचक्की का नंबर था। पनचक्की परिसर में लोकप्रिय संत हजरत बाबा शाह मुसाफिर का निवास स्थान था। परिसर में एक मस्जिद भी बनी हुई है। जैसा कि नाम से ही जाहिर है। यहाँ पानी की मदद से चलने वाली एक चक्की बनायी गयी है। पनचक्की को सूफी संत शाह मुसाफिर ने 1744 में बनवाया था।पनचक्की उस जमाने की तकनीक का अद्भुत नमूना है। औरंगाबाद से 6 किमी उत्तर में जटवाड़ा की पहाड़ी स्थित है। उस समय इस पहाड़ी पर 30 फीट की गहराई तक खोदने पर यहाँ पानी के झरने मिले। पानी के इस भण्डार को इकट्ठा करके खाम नदी के किनारे से नहर की सहायता से पनचक्की तक लाकर भूमिगत कर दिया गया। इसके बाद मिट्टी के विशाल पाइप द्वारा पानी को 20 फीट ऊॅंची दीवार के ऊपर लाया गया जो आज भी झरने के रूप में हौज में गिरते हुए दिखायी देता है। हौज में भरे पानी की मदद से चक्की चलायी जाती है जिसमें तत्कालीन समय में आटा पिसाई का कार्य किया जाता था। यह चक्की आज भी चलती रहती है।
पनचक्की के बाद हमारी आटो औरंगाबाद शहर की सड़कों पर दौड़ पड़ी। फाइनली जाना तो हमें खण्डोबा मंदिर था लेकिन उसके पहले राह चलते औरंगाबाद के कुछ गेट्स या दरवाजों को देखने की इच्छा थी। सत्रहवीं शताब्दी में जब मलिक अंबर औरंगाबाद का प्रशासक बना था तो उस समय उसने शहर की सुरक्षा के लिए कोट और 52 दरवाजे बनवाये थे। इन दरवाजों के कारण ही औरंगाबाद को सिटी ऑफ गेट्स भी कहा जाता है। इनमें से कुछ दरवाजे आज भी अच्छी स्थिति में हैं। पनचक्की के बिल्कुल पास ही एक गेट सड़क पर दिखायी पड़ रहा था लेकिन धुँधला हो जाने की वजह से उसका नाम समझ में नहीं आ रहा था। इसके बाद हम भडकल गेट,दिल्ली गेट व पैठण गेट इत्यादि देखते हुए तथा औरंगाबाद की पतली गलियों में से होते हुए खण्डोबा मंदिर की ओर बढ़ चले।

खण्डोबा मंदिर औरंगाबाद रेलवे स्टेशन से 5 किमी की दूरी पर सतारा नामक एक गाँव में अवस्थित है। वैसे तो हम औरंगाबाद के खंडोबा मंदिर को देखने गये थे लेकिन दक्षिण भारत में खंडोबा को समर्पित सैकड़ों मंदिर हैं। खंडोबा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध मंदिर पुणे से 48 किमी की दूरी पर जेजुरी नाम स्थान पर स्थित है। औरंगाबाद का खंडोबा मंदिर भी खंडोबा के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। खंडोबा को शिव का अवतार माना जाता है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में खंडोबा को कुलदेवता के रूप में भी माना जाता है। खंडोबा के बारे में एक मान्यता यह भी है कि वे मूलतः ऐतिहासिक वीर पुरूष थे जो कालांतर में एक देवता के रूप में स्थापित हो गये।
औरंगाबाद का खंडोबा मंदिर ईंटों से बना है और पेशवा काल की वास्तुकला की सुंदर मिसाल पेश करता है। मंदिर का निर्माण एक चबूतरे पर किया गया है। मंदिर में खंडोबा के अतिरिक्त अन्य कई हिन्दू देवी–देवताओं की मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। इनमें गजलक्ष्‍मी,शेषशायी विष्णु,कृष्ण,गणेश,नंदी पर सवार शिव–पार्वती की मूर्तियां शामिल हैं। इनके अतिरिक्त विष्णु के दस अवतारों को भी चित्रित किया गया है।
खंडोबा मंदिर में दर्शन करने में हमें 2 बज गये। अब हमें वापस लौटना था। ऑटो ड्राइवर से तय समझौते के अनुसार उसने अगले दस मिनट में हमें औरंगाबाद के रेलवे स्टेशन छोड़ दिया। हम औरंगाबाद का रेलवे स्टेशन भी देखना चाह रहे थे। यहाँ का रेलवे स्टेशन भी अजंतामय है। रेलवे स्टेशन के पास ही एक भीड़ भरे और मध्यम गुणवत्ता वाले रेस्टोरण्ट में 55 रूपये प्लेट वाली राइस प्लेट पेट देवता को अर्पित की गयी। रेलवे स्टेशन के पास काफी होटल व रेस्टोरेण्ट हैं। वैसे तुलनात्मक रूप से इस मामले में मुझे बस स्टेशन की स्थिति अधिक अच्छी लगी। वास्तविकता चाहे जो हो।
उपर्युक्त के अतिरिक्त औरंगाबाद अपनी हिमरू शालों के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इसके कारीगर मुहम्मद तुगलक के साथ आये थे जो यहीं बस गये।

रेलवे स्टेशन से बस स्टेशन आने के लिए हम दो लोगों को फिर से ऑटो देव को 40 रूपये का प्रसाद चढ़ाना पड़ा। सवा तीन बजे तक हम अपने कमरे पहुँच गये। आधे घण्टे बाद हम फिर से बाहर निकले और बस स्टेशन के बिल्कुल पास स्‍िथत सिद्धार्थ पार्क पहुँचे। शहर के बीच में यह छोटा सा लेकिन बहुत ही सुंदर पार्क है। इस छोटे से पार्क में एक छोटा सा चिड़ियाघर भी है। इसके अलावा एक छोटी सी खिलौना रेल भी है जो बच्चों को लेकर संकरी पटरियों पर दौड़ती है। पार्क का शुल्क 20 रूपये है जबकि चिड़ियाघर का 50 व खिलौना रेल का 20 रूपये है। संयोग से हम जिस दिन पार्क में गये थे उस दिन मंगलवार था और इस दिन चिड़ियाघर और खिलौना ट्रेन की सेवा बंद रहती है। परिणामस्वरूप हमारे कुछ पैसे खर्च होने से बच गये। पार्क में एक–डेढ़ घण्टे आराम फरमाने के बाद हम स्टेशन के पास ही स्थित तिब्बती मार्केट पहुँचे। यह तिब्बती शरणार्थियों के लिए बनाया गया मार्केट है। इस मार्केट की विशेषता यह है कि सारे सामान यहाँ फिक्स रेट पर ही मिलते हैं। कोई मोल–भाव नहीं। और हम हिन्दुस्तानी जब तक मोल–भाव न करें तबतक हमारी मार्केटिंग हो ही नहीं सकती। इसलिए इस मार्केट से कुछ भी खरीद पाना हमारे लिए संभव न हो सका। रात के आठ बजे तक खाना खाने के बाद हम होटल लौट आये।
अगले दिन हमें घर लौटने के लिए चालीसगाँव से ट्रेन पकड़नी थी। तो सुबह साढ़े सात बजे तक होटल से चेकआउट कर हम औरंगाबाद सेंट्रल बस स्टेशन पहुँच गये। तुरंत ही चालीसगांव होते हुए धुले जाने वाली बस मिल गयी और आठ बजे रवाना भी हो गयी। पता नहीं क्यों सड़क पर अधिक भीड़भाड़ नहीं मिली और हमारे सारे पूर्वानुमानों को धता–बताते हुए 100 किमी की दूरी ढाई घंटे से भी कम समय में तय करते हुए हमारी बस साढ़े दस बजे तक चालीसगांव पहुँच गयी। हमारी ट्रेन 12.50 पर थी तो हमारे पास पर्याप्त समय था और हमने चालीसगाँव बस स्टेशन से रेलवे स्टेशन तक की एक किमी की दूरी पैदल टहल कर ही पूरी कर ली। चूँकि हम औरंगाबाद जाते समय ठण्डे मौसम से गर्म मौसम की ओर गये थे इसलिए अपने गर्म कपड़े शरीर में पहन कर ही गये थे। इसी तरह वापस लौटते समय भी हमने अपने इनर,स्वेटर और जैकेट पहन लिए थे तो इस थोड़े से पैदल मार्च में ही पसीने छूट गये। चालीसगाँव रेलवे स्टेशन के सामने एक छोटे से शाकाहारी और पारिवारिक हाेटल में हमने भोजन किया। शाकाहारी का मतलब ये कि वहाँ  केवल शाकाहारी भोजन मिल रहा था और पारिवारिक का मतलब ये कि पूरा परिवार ही मिलकर होटल संचालित कर रहा था। इसके बाद हम स्टेशन पहुँच गये। हमारी ट्रेन एक घण्टे देर से आयी और हम घर वापसी के लिए रवाना हो गये।


बीबी का मकबरा

मकबरे के अंदर रबिया दुर्रानी की कब्र
मकबरे की दीवारों पर की गयी कारीगरी
मकबरे की छत
मकबरे के पास बनी एक इमारत
  
मकबरे के अंदर रास्ते पर ईंटो की चिनाई
बीबी का मकबरा

मकबरे के प्रवेश द्वार के अंदर की छत
प्रवेश द्वार के अंदर
बीबी के मकबरे का मुख्य प्रवेश द्वार
भगवान बुद्ध और गणेश की मूर्ति एक साथ
गुफा संख्या 7 में


गुफा संख्या 4 का चैत्य विहार  
सोनेरी महल का प्रवेश द्वार
सोनेरी महल
सोनेरी महल की दीवारों पर अजंता के भित्तिचित्रों का अंकन
पनचक्की
पनचक्की परिसर में बना तालाब
पनचक्की परिसर में
पनचक्की परिसर में
पनचक्की के पास बना एक गेट
भडकल गेट


दिल्ली गेट

खंडोबा मंदिर
सिद्धार्थ पार्क में बनाया गया कृत्रिम झरना
सिद्धार्थ पार्क में जिराफों की प्रतिकृति
सिद्धार्थ पार्क में एक फव्वारे के चारों ओर हाथियों की मूर्तियां
  


सम्बन्धित यात्रा विवरण–

3 comments:

  1. बहुत ही उम्दा तरीके से आपने जानकारी शेयर की, फोटो का कलैक्शन बहुत प्यारा हैं

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद साधना जी ब्लाग पर आने और प्रोत्साहन के लिए।

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  3. बहुत सुंदर तरीके से पिरोया है आपने एक एक मोती की तरह।

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