पिछली बार की तरह जब इस बार भी कुछ लोगों ने टोका कि यार,क्या बिहार जा रहे होǃ तो एकबारगी मेरे मन में भी शंका बलवती होने लगी। सच मेंǃ है ही क्या बिहार में। लेकिन सच कहूँ तो यह कुछ न होना ही मुझे बिहार की ओर खींच ले जाता है। न कोई बंदिश,न भेदभाव,न किसी तरह की कोई बाधा,न अनुशासन। मैं भी इसी तरह की माटी का बाशिंदा हूँ। फिर मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। कुछ होने का आकर्षण तो होता ही है लेकिन कुछ न होने का भी अपना आकर्षण है। ऐसा कैसे हो सकता है कि धरती के एक बड़े टुकड़े पर कुछ हो ही न जो मानवमात्र को आकर्षित कर सके। ऐसी ही क्रिया–प्रतिक्रिया और अंतर्द्वंद्व मन में समेटे मैंने दो पहियों वाले घोड़े यानी बाइक पर,मार्च के अंतिम सप्ताह में अपने बैग बाँध दिये। कोरोना के नाम ने ही शरीर में जंग लगा रखी है। और शायद सच कहूँ तो मन–मस्तिष्क में भी जंग लग रही है। इसे साफ करना है तो इसे चलाना होगा। मानव का स्वभाव है– चरैवेति,चरैवेति।