Friday, August 3, 2018

अनजानी राहों पर–नेपाल की ओर (पहला भाग)

30 मई
राहें अनजान हों तो अधिक सुंदर लगती हैं। तो क्यों न कुछ अनजान राहों पर चला जाए। भाग्यवादी लोग तो यही मानते हैं कि सब कुछ पहले से निश्चित है। मैं ऐसा नहीं मानता। और यात्रा के बारे में तो ऐसा बिल्कुल ही नहीं है। यात्रा की फुलप्रूफ प्लानिंग पहले से नहीं की जा सकती। पेशेवर टूरिज्म की बात अलग है। वैसे तो यात्रा की कुछ न कुछ प्लानिंग हर बार मेरे दिमाग में जरूर बनी रहती है,लेकिन इस बार यात्रा का साधन मोटरसाइकिल थी,तो सब कुछ अनिश्चित था। गाड़ियों के हिसाब से बहुत कुछ प्लान करना पड़ता है। तो जब गाड़ी अपनी हो और उसपर भी मोटरसाइकिल,तो बहुत अधिक सोचने–समझने की जरूरत नहीं थी। रात को रहने का कैसा भी ठिकाना मिल जाए तो दिन पर सड़कों को नापते रहेंगे। तो इस बार नेपाल हिमालय फतह करने का इरादा था।
अब मुझे अपने घर से नेपाल जाना था तो मेरे घर की लोकेशन के हिसाब से इतना तो लगभग तय था कि पोखरा जाएंगे और उसके आगे भी जहाँ तक सम्भव होगा,पहुँचने का प्रयास करेंगे। वर्तमान में नेपाल में पूरी तरह से विकसित पर्यटन स्थलों में काठमाण्डू और पोखरा दो मुख्य पर्यटन केन्द्र हैं। नेपाल जाने वाले अधिकांश पर्यटक इन दोनों को केन्द्र में रखकर ही अपनी योजना बनाते हैं। मुख्य वजह यह है कि नेपाल में सड़क नेटवर्क बहुत अच्छी तरह से विकसित नहीं है। मेरे मन में भी पोखरा था लेकिन काठमाण्डू नहीं। साथ ही पोखरा के अलावा किसी ऐसे स्थान पर जाने की भी इच्छा थी जो कम जानी–पहचानी हो। भरसक किसी ऊँचाई पर स्थित जगह पर जाने की इच्छा थी। और यही जगह ही मेरी इस यात्रा का मुख्य लक्ष्‍य थी। इस मुख्य लक्ष्‍य के बारे में बाद में बात करेंगे। इस बार की यात्रा में एक अध्यापक मित्र संतराज शर्मा मेरे सहयात्री बन गए। वैसे भी बाइक की यात्रा अकेले न ही की जाए तो अच्छा रहता है। पता लगे कि कहीं सुनसान जगह पर पंचर हो जाए तो लेने के देने पड़ जाएंगें।
भारत–नेपाल बार्डर पर स्थित सोनौली,मेरे घर से लगभग 217 किलोमीटर तथा पोखरा 400 किलोमीटर दूर है तो मुझे लगा कि मोटरसाइकिल के लिए यह आसान निशाना हो सकता है। यही सोचकर मैंने नेपाल की बाइक यात्रा की योजना बनाई। और कहीं नहीं जा पाएंगे तो पोखरा और काठमाण्डू तो हैं ही।

तो फिर प्लान बना कि सुबह साढ़े चार बजे घर से निकलेंगे। चूँकि सुबह के समय सड़क पर ट्रैफिक कम रहेगा तो सड़क पर प्रति घण्टे किलोमीटर का अच्छा औसत मिलेगा। उसके बाद दोपहर के आस–पास कहीं रूककर घर के ही साग–सत्तू से पेटपूजा की जाएगी और उसके बाद आगे का सफर तय किया जाएगा। शाम तक पोखरा पहुँच गए तो ठीक नहीं तो कुछ पहले ही रूक जाएंगे। फिर आगे देखा जाएगा। वैसे सोचा हुआ अक्सर हो नहीं पाता है तो हमारे साथ भी यही हुआ। सुबह के समय संतराज की आँख लग गयी और उठने में देर हो गयी। मैंने अपने घर,सोकर उठने के बाद सारी तैयारी की और उसके बाद संतराज को फोन किया तो पता चला कि भाई अभी सो रहे हैं। अब कुछ देर तो होनी ही थी,सो हुई। संतराज मेरे घर पहुँचे तो मोटरसाइकिल पर बैग वगैरह बाँधने में भी कुछ समय लगा और साढ़े चार की बजाय साढ़े पाँच बज गए। और सुबह के समय का एक घण्टा मतलब कम से कम साठ किलाेमीटर। तो इतना तो नुकसान होना ही था।  एक लम्बी यात्रा में इतने नुकसान के भी मायने होते हैं। फिर भी बाइक का पहिया चला तो चलता गया। लेकिन इस बीच एक और समस्या आ गई। मेरी ग्लैमर बाइक के,फ्रण्ट डिस्क ब्रेक का आॅयल लीक कर रहा था और एकाध घण्टे में पूरी तरह लीक कर गया। नतीजा यह हुआ कि अगला ब्रेक पूरी तरह से फेल हो गया। सिर्फ एक ब्रेक के सहारे मोटरसाइकिल 60–70 की स्पीड में भागती रही। एक ब्रेक के सहारे अगर तेज चलना खतरनाक था तो धीमा चलना भी नुकसानदेह था। क्योंकि एक लम्बी यात्रा की शुरूआत हो चुकी थी। दूरी भी जल्दी–जल्दी तय करनी थी। अब यात्रा तो रूकनी नहीं थी सो समस्या ब्रेक की रिपेयरिंग की थी। अभी सुबह का समय था और बाइक रिपेयरिंग की दुकानें पूरी तरह से बन्द थीं। सिर मुँड़ाते ही ओले पड़ गए थे।

हमारे रास्ते में पड़ने वाला उत्तर प्रदेश का पूर्वी शहर देवरिया भी पार हो गया और कोई मैकेनिक नहीं मिला। अब गोरखपुर का ही सहारा था। वहीं शायद इसकी रिपेयरिंग हो सके। सिर्फ उम्मीद और एक ब्रेक के सहारे हम पूरा गोरखपुर शहर भी पार कर गए और हीरो की कोई भी एजेंसी खुली हुई नहीं मिली। तभी बाबा गोरखनाथ मंदिर के पास से गुजरते हुए बाबा गोरखनाथ की कृपा हुई और एक दुकान दिखी और हमने बाइक मोड़ दी। एक मैकेनिक अपनी दुकान खोलकर अभी–अभी हाजिर हुआ था। लेकिन हमारा दुर्भाग्य कि उस बिचारे के पास भी ब्रेक ऑयल नहीं था। साथ ही लीकेज को बन्द करने वाला पुर्जा भी नहीं था। तो फिर मोबिल से ही काम चलाया गया। कम से कम ब्रेक ने काम करना शुरू कर दिया। लीकेज अब भी बन्द नहीं हुआ था। लीक कर रहा ऑयल हमारे कपड़ों को भी रंगीन बना रहा था। अब उम्मीद यह थी जब तक पूरा ऑयल लीक होगा,हम सोनौली या फिर नेपाल के किसी बड़े शहर,बुटवल या फिर पोखरा तक पहुँच जाएंगे।
8.30 बज चुके थे। गोरखपुर शहर पार हो चुका था। आॅयल भले ही लीक हो रहा था,दोनों ब्रेक काम कर रहे थे। बाइक भागती जा रही थी। पीपीगंज,कैम्पियरगंज और फरेंदा कस्बे एक एक कर पीछे छूटते गए। सुबह की चाय का असर धीरे–धीरे कम होता जा रहा था। सड़क पर बढ़ता ट्रैफिक बाइक की स्पीड को नियंत्रित कर रहा था। पेट की खाली जगह में हवा भरती जा रही थी। लेकिन मूड यह बना था कि जितनी अधिक दूरी तय कर ली जाए उतना ही अच्छा। फिर भी सोनौली से लगभग 25 किलोमीटर पहले सड़क किनारे,आम के पेड़ों की कतार के नीचे,चारों तरफ दिख रहे,खाली–खाली,उजले खेतों के पास,हरी–हरी घास पर हमने अपना आसन जमाया। घर से लायी गयी राम पोटरिया खोली गयी। पेट पूजा के बाद आधे घण्टे तक एक आम के पेड़ की जड़ों के सहारे विश्राम किया गया और इसके बाद फिर से मैदान में घोड़ा दौड़ा दिया गया।

अब सोनौली पाँच–सात किलोमीटर दूर रह गया था। चार लेन की सड़क पर बायीं तरफ यानी हमारे साइड में ट्रकों की लम्बी लाइन लगी दिख रही थी। हो सकता है आगे जाम लगा हो। स्पीड थोड़ी सी कम जरूर हुई लेकिन गाड़ी भागती रही। डिवाइडर की दूसरी तरफ सड़क बिल्कुल खाली थी। ऐसी ही स्थिति में तीन–चार किमी चलने के बाद डिवाइडर की बायीं तरफ की दोनाें लेन में ट्रकों की लाइन दिखने लगी और सड़क पर चलना मुश्किल होने लगा। ध्यान से देखा तो डिवाइडर की बायीं तरफ वाली सड़क पर पूरी तरह से ट्रकों की लाइन लग चुकी थी और दाहिनी तरफ से ही गाड़ियों का आवागमन हो रहा था। हमने भी उल्टी साइड गाड़ी दौड़ा दी। हम कौन अमेरिका या यूरोप से आए हैं। कुछ दूर जाने के बाद इस साइड की भी एक लेन इसी दिशा में जा रही ट्रकों से जाम हो चुकी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है। मन में तरह–तरह के कयास लगाते हुए आगे बढ़ते चले गए। क्या नेपाल में इतनी भी जगह नहीं है कि हजार–पाँच सौ ट्रकों को जगह मिल सके। कुछ ही देर में भारत–नेपाल बार्डर का गेट सामने दिखा। गेट तक ट्रक लगे हुए थे। सुरक्षा बल के जवान तैनात थे लेकिन किसी तरह की कोई जाँच नहीं हो रही थी। जाम का कारण अभी भी समझ में नहीं आया। भीड़ से बचते–बचाते हम भी गेट के उस पार चले गए लेकिन किसी ने कोई पूछताछ नहीं की। गेट से पहले हम भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग 24 या एन एच 24 पर थे लेकिन गेट के उस पार नेपाल के सिद्धार्थ राजमार्ग या एच 10 पर थे। लेकिन अभी नहीं। क्योंकि अभी हम दोनों देशों के बीच के उस क्षेत्र में थे,जहाँ किसी देश का कोई अधिकार नहीं है। इस गेट से कुछ मीटर आगे एक और गेट बना हुआ है और यह नेपाल का गेट है। इस गेट में प्रवेश करने के बाद ही हम नेपाल में प्रवेश करते हैं। नेपाल में प्रवेश करते ही सबसे पहले जिस चीज से हमारा आमना–सामना होता है,वह है नेपाल का वह कार्यालय जो नेपाल में प्रवेश करने के लिए परमिट जारी करता है जिसे भंसार कहते हैं। इतना तो हमने भी सुन रखा था कि भारत से नेपाल में इन्ट्री के लिए बार्डर पर "भंसार" बनता है। भंसार अर्थात सीमा शुल्क। सामान्य भारतीय के लिए भंसार का मतलब है– "नेपाल में प्रवेश के लिए परमिट।"

12 बज रहे थे। सड़क के बायीं तरफ बने कार्यालय के सामने बनी छोटी सी पार्किंग में हमने भी गाड़ी खड़ी की और पहुँच गए काउण्टर पर। एक–दो लोगों से पूछताछ करने के बाद हमें भी पता चल गया कि भंसार की क्या प्रक्रिया है। बाइक के रजिस्ट्रेशन पेपर और चलाने वाले व्यक्ति का ड्राइविंग लाइसेंस। एक फार्म मिला जिसे खुद भरना भी नहीं था। काउण्टर पर बैठा बन्दा ही इस मैनुअल फार्म को अपने हाथ से भरकर सामने वाले को पकड़ा दे रहा था। इसके बाद अगले काउण्टर पर जाना था जहाँ इन कागजात की जाँच होनी थी। इसके बगल वाले काउण्टर पर फीस जमा हो रही थी। हमने फीस पूछी तो काउण्टर पर बैठे व्यक्ति ने सवाल दाग दिया– "कितने दिन के लिए चाहिए।"
थोड़े से सोच–विचार के बाद मैंने जवाब दिया– "पाॅंच दिन।"
"पाँच सौ पैंसठ रूपए।"
मैंने बिना किसी झिझक के पाँच सौ के दो नोट आगे बढ़ा दिए। लेकिन सामने बैठे बन्दे ने पाँच सौ का एक नोट लौटा दिया और कुछ और पैसे वापस करने लगा तो मैं चौंक पड़ा। लग रहा था कि जोड़ने–घटाने में उस बन्दे से कुछ गलती हो गई थी। लेकिन गलती पर हम ही थे। दरअसल उसने फीस की रकम नेपाली मुद्रा में बताई थी और भारत के 100 रूपए की कीमत नेपाली मुद्रा में 160 रूपए होती है। तो उसने वाजिब पैसे काटने के बाद शेष पैसे हमें लौटा दिए। इसका मतलब सामने बैठा व्यक्ति काफी ईमानदार था। अब बारी थी उस काउण्टर पर जाने की जहाँ से हमें नेपाल में प्रवेश के लिए अन्तिम रूप से परमिट मिलना था। रसीद दिखाने पर मेज के उस पार बैठा आदमी उठा और हमारे साथ बाहर आकर हमारी बाइक और उस पर लदे साजो–सामान का भली–भाँति निरीक्षण किया और तब हमें भंसार की प्रक्रिया से मुक्ति मिली। इस पूरी प्रक्रिया में हमें आधे घण्टे से कुछ अधिक ही समय लगा क्योंकि हर काउण्टर पर हमारी तरह के अन्य लोगों की लाइन लगी थी। अब हमें सोनौली से पहले सड़क पर लगी ट्रकों की लम्बी लाइन का रहस्य समझ आ गया था क्योंकि ट्रकों के लिए सीमा–शुल्क जमा करने के साथ ही उन पर लदे सामान की जाँच में भी समय लग रहा था। भंसार का पेपर लेकर अभी हम इस पशोपेश में थे कि सड़क पर बैरियर लगा कर खड़े सुरक्षाकर्मी हमारी बाइक,सामान और कागजातों की जाँच–पड़ताल करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। अब हमारा अगला कदम था– एक नेपाली सिम खरीदना और अपनी भारतीय मुद्रा को नेपाली मुद्रा में बदलना। पूछते–पूछते एक गली में एक दुकान पर पहुँचे। एक नेपाली लड़का फुर्तीबाजी दिखाते हुए अपनी चंचल अदाओं से,ग्राहकों को लुभा रहा था। फोटो–कापी,सिम बेचना व उसे एक्टिवेट करना,करेंसी चेंज करना,मोबाइल रिचार्ज करना वगैरह–वगैरह कई काम वह काफी तेजी से कर रहा था। और हिन्दी फिल्मों की हीरोइनों की तरह बालों को लहराने की उसकी अदा तो दिल को छू जा रही थी।

वैसे उसकी अदाएं देखने का समय हमारे पास नहीं था। सो हमने भी जल्दबाजी करते हुए सिम लिया और दो हजार भारतीय रूपए को नेपाली में बदल लिया। दो हजार भारतीय रूपए के बदले में हमें बत्तीस सौ नेपाली रूपए मिलने चाहिए थे लेकिन सौ रूपए सिम के व सौ रूपए कमीशन के काटने के बाद तीन हजार रूपए ही मिल सके। एक ऑफर भी मिला और वो यह कि अगर वापसी में हमारे पास नेपाली करेंसी बच जाती है तो उसे यहाँ हम बिना किसी कमीशन के बदल सकते हैं। ये और बात है कि वापसी के समय जब हम उस दुकान पर पहुँचे तो वो बन्द मिली। एक सावधानी औरǃ सिम लेने के लिए फोटो भी चाहिए सो मैंने पर्स से निकालकर एक फोटो पकड़ा दिया। लेकिन मेरी फोटो रिजेक्ट हो गयी। पता चला कि साधारण फोटो पेपर पर बनी फोटो नहीं चाहिए,वरन फोटो लैब की बनी हुई हाई क्वालिटी की प्रिन्टेड फोटो ही चाहिए। वो तो गनीमत थी कि मेरे पास वैसी भी एक फोटो थी तो काम तुरन्त हो गया। वैसे नेपाल की यात्रा करते समय कम से कम दो आई डी प्रूफ, उनकी कई छाया प्रतियाँ और आठ–दस फोटो हमेशा पास में रखना अनिवार्य है। क्योंकि वहाँ हम विेेदेशी हो जाते हैं।

तो अब सारी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थीं। अब हमारी वास्तविक यात्रा आरम्भ हो रही थी। चार लेन की सड़क को देखकर हमारी बांछें खिल उठी थीं। हमने घोड़ा दौड़ा दिया। लेकिन कुछ ही पलों में हमारी सारी खुशी काफूर हो गयी। थोड़ा ही आगे बढ़ने पर चिकनी सड़क निर्माणाधीन में परिवर्तित हो गयी और सड़क पर उड़ रहे धूल और गर्द के गुबार ने हमें ढक लिया। साँस लेना दूभर हो रहा था। असमतल सड़क पर बने गड्ढों में जगह–जगह पानी भी भरा था। हाँ,सड़क पर ट्रैफिक इतना नहीं था जिससे बहुत अधिक परेशानी हो। फिर भी धूल और गड्ढों भरी सड़क पर चलना कितना आनन्ददायक होता है,ये चलने वाले जरूर जानते होंगे। सड़क के दोनों किनारों पर मकानों की अन्तहीन कतारों का सिलसिला दूर तक जाता दिखाई पड़ रहा था। न तो इसका आरम्भ दिखाई पड़ रहा था और न ही इसका अन्त।
वैसे अब नेपाली कस्बों और शहरों का आगाज हो चुका था। लेकिन भारतीय कस्बों की तरह इसका आदि–अन्त समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि सोनौली से 5 किलोमीटर की दूरी पर सिद्धार्थनगर और 12 किलोमीटर की दूरी पर तिलोत्तमा,कब शुरू हुए और कब खत्म,पता ही नहीं चला। सड़क किनारे बने मकानों की कतार में अगर कुछ गैप दिखाई पड़ा तो तिलोत्तमा और बुटवल के बीच। सोनौली से बुटवल की दूरी 25 किलोमीटर है। बुटवल नेपाल का वह शहर है जहाँ तराई का मैदानी भाग खत्म हो जाता है और पहाड़ की शुरूआत हो जाती है। अब तक हमें ऐसा कुछ विशेष नहीं लग रहा था जिससे यह समझ में आता कि हम किसी अन्जाने देश में आ गए हैं। नेपाली चेहरे तो दिख रहे थे लेकिन पूरी तरह से नेपाली नहीं। कुछ कुछ भारतीयता का रंग जरूर चढ़ा हुआ था। अभी हम संक्रमण क्षेत्र में चल रहे थे। असली नेपाल तो पूरी तरह से पहाड़ी इलाके में ही दिखाई पड़ता है। नेपाली भाषा जरूर अन्जान थी लेकिन इसकी भी लिपि मराठी की तरह देवनागरी ही है। बुटवल शहर से जब हम गुजर रहे थे तो कुछ खाने की इच्छा मन में जगी। लेकिन क्या खाया जाए,यही निर्णय लेने में बुटवल लगभग गुजर गया। अंततः एक ठेले के पास बाइक रोकी गयी जहाँ एक महिला दुकानदार फल बेच रही थी। हम भारतीयों के लिए एक महिला को ठेले पर फल बेचते देखना एक अजूबा है। केले का भाव पूछा गया तो पता चला 100 रूपए दर्जन। दोनों हाथों के तोते उड़ गए। पहाड़ पर इसी रेट से पैसे खर्च होने लगे तो हम तो दिवालिया घोषित हो जाएंगे। काफी मोल भाव किया गया कि रेट कम से कम 80 पर आ जाए। दिमाग में तेजी से गुणा–भाग चल रहा था। 80 नेपाली मतलब भारत के 50 रूपए। तो नेपाल में  दर्जन भर केलों के लिए इतने पैसे खर्च किए जा सकते हैं।

धूलभरी सड़क पर चलने से हाथों और कपड़ों की दुर्गत हो गयी थी। शरीर और कपड़ों पर तो केवल धूल ही पड़ी थी लेकिन दाहिने हाथ पर लीक कर रहा ब्रेक आॅयल और धूल ने मिलकर बहुत ही खूबसूरत मिश्रण तैयार किया था। सो हाथ धोने के लिए फ्री पानी का आॅफर मिल गया। बातचीत से पता चला कि पानी की यहाँ बड़ी किल्लत है। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि तराई के इलाके में भी पानी की किल्लत है। दरअसल जमीन ऐसी नहीं है कि मैदानी इलाके की तरह आसानी से बोरिंग की जा सके। हमने केले खरीद कर डिक्की में रख लिए और आगे बढ़ चले। सोचा कि कहीं सड़क किनारे पेड़ की छाया में बैठकर दावत उड़ाएंगे। पहाड़ी रास्ता शुरू हो गया था। पहाड़ी मोड़ों की भी शुरूआत हो चुकी थी। सड़क पर इक्के–दुक्के गड्ढे भी दिखायी पड़ रहे थे। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक पहाड़ी मोड़ पर एक ऐसी जगह मिल गयी जहाँ बैठकर केले की दावत उड़ाई जा सकती थी। एक छोटा सा मंदिर था जहाँ से नीचे की घाटियां दिखाई पड़ रहीं थीं। शरीर को कुछ आराम की जरूरत भी महसूस हो रही थी सो केले,आराम और पहाड़ से नीचे घाटी का सुंदर दृश्य सभी साथ मिल गए। अपनी समझ से पीले रंग देखकर खरीदे गए केले आधे कच्चे थे। तो फिर स्वाद के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।

बैठने का टाइम नहीं था। शरीर ने अगर साथ दिया तो शाम तक पोखरा पहुँचने का प्लान था। नेपाल के छोटे–छोटे कस्बे गुजरते जा रहे थे। हम बाकी सब कुछ देखने के साथ साथ यह भी देखने–समझने की कोशिश कर रहे थे कि रात बिताने के लिए कौन सी जगह मुफीद हो सकती है। सोनौली से 61 किलोमीटर की दूरी पर बरटुंग अौर उसके पास ही तानसेन कस्बा है। यहाँ भी ठहरा जा सकता है। भोजन का प्रबन्ध भी हो सकता है। लेकिन अभी तो हमें काफी आगे जाना था। वैसे भी देखने से बरटुंग बड़े कस्बे जैसा नहीं लग रहा था। पहाड़ी इलाके में बाइक चलाने का हमें कोई विशेष अनुभव पहले से नहीं था सो थोड़ा सँभल कर चल रहे थे। वैसे पहाड़ की हरियाली और सड़क के नीचे प्रायः हर जगह साथ चलने वाली धाराएं,आँखों को सुकून दे रहे थे। बरटुंग के बाद सोनौली से 72 किलोमीटर की दूरी पर एक कस्बा है– आर्यभंज्यांग। वापसी में यहाँ हम एक रात रूके भी थे। एक छोटा सा शान्त कस्बा है। आर्यभंज्यांग से 14 किमी आगे या सोनौली से 86 किमी की दूरी पर है रामदी। काली गंडक नदी के बिल्कुल किनारे बसा रामदी एक गाँव है,बिल्कुल शांत। लेकिन नदी का शोर रगों में जोश भर देता है।
रामदी के बाद एक बड़ा कस्बा मिलता है– वालिंग। सोनौली से 120 किमी की दूरी पर स्थित वालिंग नेपाल के स्यांगजा जिले में स्थित एक नगरपालिका है। शाम के लगभग 4.30 बज रहे थे। शरीर की थकान हमें रूकने के लिए बाध्य कर रही थी। तो एक चाय की दुकान पर हम रूके। पता चला कि दूध नहीं है इसलिए काली चाय ही मिलेगी। हमने सोचा कि अब चाय की दुकान पर रूक ही गए हैं तो काली गंडक के देश में काली चाय ही पीते हैं। वैसे 15 रूपए की चाय को जब होठों से लगाया तो लगा कि इस चाय में चाय और चीनी,दाेनों की उपस्थिति के लिए शोध करना पड़ेगा। जैसे–तैसे चाय को हलक के नीचे उतारा गया। सड़क का निर्माण कार्य यहाँ भी चल रहा था। सो सड़क के किनारे गिटि्टयों के ढेर साधिकार पड़े हुए थे। चायवाले से रहने के ठिकाने के बारे में पूछा तो पता चला कि यहाँ आसानी से सस्ते होटल मिल जाएंगे। यहाँ से आगे भी होटल मिल जाएंगे लेकिन महँगे मिलेंगे। हम घर से निकलने के बाद वालिंग तक 337 किमी चल चुके थे। सोनौली में भंसार की प्रक्रिया में काफी देर तक खड़ा भी रहना पड़ा था। काफी थक गए थे। अब बाइक चलाने की इच्छा नहीं कर रही थी। वैसे भी अगर पोखरा पहुँचने की कोशिश करते तो रात हो जाती और कमरा वगैरह खोजने में काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता। अंजान जगह पर रात में जाने की कोशिश ही नहीं करनी चाहिए। तो हमने वालिंग में रूकने का निर्णय किया।
दिन भर दौड़ते–भागते रह गए थे– सड़कें नापते हुए। सो फोटो खींचने का न तो समय मिला न ही अवसर। तो इक्के–दुक्के फोटो ही खींच पाए।


वालिंग का हाम्रो होटल व सर्वाहारी रेस्टोरेण्ट
रास्ते का एक दृश्य
अगला भाग ः अनजानी राहों पर–वालिंग टु पोखरा (दूसरा भाग)

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. अनजानी राहों पर–नेपाल की ओर (पहला भाग)
2. अनजानी राहों पर–वालिंग टु पोखरा (दूसरा भाग)
3. अनजानी राहों पर–पोखरा (तीसरा भाग)
4. अनजानी राहों पर–मुक्तिनाथ की ओर (चौथा भाग)
5. अनजानी राहों पर–अधूरी यात्रा (पाँचवा भाग)

20 comments:

  1. शानदार पोस्ट अगले भाग की प्रतिक्षा

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद जी,प्रोत्साहन के लिए। अगली पोस्ट शुक्रवार को आ जाएगी। लगभग हर शुक्रवार को एक पोस्ट आ जाती है।

      Delete
  2. Brajesh ji mai gorakhpur ka rahne wala hu aur ek baar pokhara aur kathmandu ja chuka hu. Aapne purani yaden taja kar di

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद करूणाकर जी। आप तो नेपाल के और भी नजदीक हैं। बहुत अच्छा लगा जो आपसे सम्पर्क हुआ।

      Delete
  3. बढ़िया जानकारी ब्रजेश भाई, लेकिन इस लेख में फोटो की कमी खली, उम्मीद है अगले लेख में वो पूरी हो जाएगी !

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद प्रदीप भाई। दरअसल दिन भर इधर–उधर में ही बीत गया इसलिए फोटो नहीं लिए जा सके। वैसे अगले भागों में फोटो जरूर मिलेंगे।

      Delete
  4. Shandar bhai.. m agla trip nepal ki he soch ra hu.. bht sara gyan mil ra h aapki yatra ko padh kar...

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद जी। अगर आपको थोड़ी भी मदद मिली तो मेरी यात्रा सफल हो गयी।

      Delete
  5. बहुत़ ही उम्दा जानकारी देने के लिए आभार।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सुनील जी,प्रोत्साहन के लिए। आगे भी आते रहिए।

      Delete
  6. बहुत खूब पांडेय जी,आगामी मार्च में मेरी प्रस्तावित नेपाल बाइक यात्रा में आपका लेख बहुत काम आएगा.....🤝

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद महेश जी। आगे भी सहायता के लिए मैं हरसमय प्रस्तुत रहूँगा।

      Delete
  7. बढ़िया वृतांत।उपयोगी जानकारी से परिपूर्ण।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी ब्लॉग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिये।

      Delete
  8. बहुत ही रोचकता, हास्य मिश्रित,, जीवंत वर्णन,, अगले अंक की प्रतिक्षा में,, सादर🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद। आप जैसे मित्रों के स्नेह की वजह से ही थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ।

      Delete
  9. 2 साल पहले पढ़ी थी आपकी यह पोस्ट लॉकडाउन हटने के बाद पशुपतिनाथ यात्रा का विचार फिर से मन में हिलोरे मार रहा है आपका संपर्क सूत्र हो तो दीजिए।9454676766

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी धन्यवाद। आप कभी भी मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। मेरा सम्पर्क सूत्र इसी ब्लॉग पर उपलब्ध है।
      9793466657
      brajeshgovind@gmail.com

      Delete

Top