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सुबह के साढ़े पाँच बजे सोकर उठा और आधे घण्टे में बाहर निकल गया। शायद सफेद चोटियों पर सूरज की पीली रोशनी पड़ रही हो। लेकिन अभी तो बाहर रास्ते के किनारे पीली लाइटें जल रही थीं। सफेद चोटियों पर कालिमा छाई हुई थी। मंदिर बिल्कुल खाली था। सामने के प्रांगण में एक स्थान पर अँगीठी जल रही थी जहाँ कुछ लोग ठण्ड से दो–दो हाथ कर रहे थे। वो भी मेरी तरह यूँ ही टहलते हुए आ गये थे। यहाँ तो कोई "बेघर" शायद जीवन संघर्ष में सफल नहीं हो सकता। मेरे हाथों में भी गलन हो रही थी क्योंकि दस्ताने नहीं थे। चेहरा और होठ सुन्न हो रहे थे। सूरज उजले पहाड़ों की ओट में था। कुछ ही मिनटों में मैं काँपने लगा। एक चाय वाले की अँगीठी के पास मैं भी खड़ा हुआ।