Friday, June 12, 2020

भारत–चीन युद्ध-2


3 अक्टूबर को अत्यधिक सतर्कता बरतने वाले लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह को पूर्वी क्षेत्र के कोर कमाण्डर पद से हटा दिया गया और उनके स्थान पर जनरल बी.एम.कौल को कोर कमाण्डर बना दिया गया जो नेहरू और कृष्ण मेनन के विश्वासपात्र थे। जनरल कौल को कई या सम्भवतः 12 सैन्य अधिकारियों की वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए प्रमोशन दिया गया था। कौल के पास लड़ाइयों का कोई अनुभव नहीं था। कौल ने अव्यावहारिक तरीका अपनाते हुए और अन्य सैन्य कमाण्डरों की सलाह को अनदेखा करते हुए,ढोला और थागला पर कब्जा करने के लिए दो बटालियनों को मैदानी इलाके से ऊपर बुला लिया।
जबकि सैनिकों के पास पर्याप्त गोला–बारूद और राशन तक नहीं था। सप्लाई लाइन चालू रखने लायक सड़कें नहीं थीं। इस बीच तनावपूर्ण परिस्थितियों में जनरल कौल को 18 अक्टूबर को दिल का दौरा पड़ा और उन्हें दिल्ली ले जाया गया। आगे उन्होंने दिल्ली से ही फोन पर आदेश देना जारी रखा।

19 और 20 अक्टूबर की रात को चीनी सेना ने पूर्वी और पश्चिमी,दोनों मोर्चे खोल दिए। लद्दाख और नेफा दोनों ही क्षेत्रों में भयानक लड़ाई छ्डि़ गयी। इस अचानक हमले से भारतीय भौंचक रह गए। यह एक सुनियोजित हमला था क्योंकि पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही क्षेत्रों में भारतीय समयानुसार 20 अक्टूबर की सुबह 5 बजे हमला किया गया। पश्चिमी मोर्चे पर चीनियों ने गलवान घाटी में 13 सीमा चौकियों पर कब्जा कर लिया। चुशूल हवाई पट्टी पर खतरा बढ़ गया। नेफा में थागला से आगे बढ़कर चीनियों ने नामका छू घाटी पार कर ली और तवांग की ओर बढ़ चले। 20 भारतीय सीमा चौकियों का पतन हो गया। जनरल कौल के सारे निर्णय गलत सिद्ध होने लगे। विपरीत परिस्थितियों में लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह को नेफा भेजा गया। उन्होंने मौके पर सेना की दशा सुधारने का काफी प्रयत्न किया लेकिन इसी बीच एक और तुगलकी फरमान जारी करते हुए जनरल कौल को फिर से जिम्मेदारी देकर नेफा भेज दिया गया। 22 अक्टूबर 1962 को प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित किया जिसमें उन्होंने चीन द्वारा छल से भारत पर आक्रमण किए जाने की बात कही।

25 अक्टूबर को तवांग पर चीनियों का कब्जा हो गया। तवांग में प्रतिरोध करने के लिए जनरल कौल के निर्णयानुसार तवांग से 15 मील पहले "से ला" नामक दर्रे पर भारतीय चौकी बनायी गयी। लेकिन यहाँ भारतीय फौजी दोनों तरफ से घेर लिए गए। हताश होकर भारतीय सेना "बोम्डी ला" की ओर पीछे हट गयी। लेकिन कुछ ही देर में भारतीय सेना का भारी नुकसान हुआ और बोम्डी ला भी हाथ से निकल गया।
बोम्डी ला की हार से असम में डर का माहौल व्याप्त हो गया। तेजपुर का स्थानीय प्रशासन गुवाहाटी पलायन कर गया। और जब पूरे देश में यह महसूस किया जा रहा था कि अब चीनी सेना पहाड़ों से उतरकर असम के मैदानी इलाकों में दाखिल होने वाली है तो 22 नवम्बर को चीन ने अचानक युद्ध विराम की घोषणा कर दी। साथ ही वे नेफा में मैकमोहन लाइन के पीछे चले गए और लद्दाख में ताजा झड़पें शुरू होने के पहले की स्थिति में। इसके साथ ही चीन ने एक युद्धविराम योजना भी प्रस्तुत की जिसकी दो मुख्य शर्तें थीं–
1. चीन की सेनाएं 7 नवम्बर,1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे की ओर हट जाएंगी।
2. पहली शर्त की वजह से खाली हुए क्षेत्र में चीन अपनी असैनिक चौकियाँ स्थापित करेगा।
साथ ही भारत को भी उस नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे हटने को कहा गया। भारत के लिए ये शर्तें पूरी तरह से अमान्य थीं। भारत सरकार ने घोषणा की कि जब तक चीनी सेनाएँ,पूर्वी भाग में मैकमोहन रेखा के उत्तर और पश्चिमी क्षेत्र में 7 नवम्बर,1959 की स्थिति में नहीं लौट जातीं और विवादित क्षेत्राें में पिछले तीन सालों में बनायी गयी चौकियों को खाली नहीं कर देतीं,तब तक दोनों देशों के बीच कोई वार्ता सम्भव नहीं है। दरअसल यह वह रेखा थी जिसके उत्तर में चीनी सेनाएँ आक्रमण से पहले स्थित थीं जबकि चीन द्वारा बतायी गयी 7 नवम्बर 1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा वह स्थिति थी जहाँ तक आक्रमण के बाद भी चीनी सेना नहीं पहुँच पायी थी।

चीनी द्वारा एकतरफा युद्ध विराम घाेषित करने के पीछे कई कारण थे। कुछ लोगों का विचार था कि चीनी आक्रमण के विरूद्ध देश में जबरदस्त माहौल बन रहा था और कम्युनिस्टों समेत सारी पार्टियाँ एकजुट होकर सरकार के साथ खड़ी हो गई थीं। दूसरी तरफ पश्चिमी देशों ने भारत की सहायता में कदम बढ़ा दिए थे और गोला–बारूद की भी आपूर्ति शुरू हो गयी थी। इसके अतिरिक्त मौसम भी बदल रहा था और सर्दियाँ आने वाली थीं। हिमालय पर बर्फ जम जाने पर चीनी सैनिकों की पीछे से सप्लाई लाइन कटने का डर था। इस युद्ध की समकालीन परिस्थितियाँ भी काफी जटिल थीं। इस समय दोनों महाशक्तियाँ अर्थात अमेरिका और रूस क्यूबा मिसाइल विवाद में उलझी हुई थीं। रूस की सहानुभूति भारत के साथ थी लेकिन तत्कालीन समय में वह भारत का साथ देकर चीन को नाराज नहीं करना चाहता था। फलतः भारत अलग–थलग पड़ गया।

चीन की एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा से युद्ध तो समाप्त हो गया लेकिन भारत ने बहुत कुछ खो दिया। यह केवल सैनिक ही नहीं वरन राजनैतिक विफलता भी थी। सबसे बड़ी असफलता तो यह थी कि राजनीतिक नेतृत्व और खुफिया तंत्र,दोनों ही चीन की मंशा को भाँपने में अक्षम साबित हुए। भारत का मानना था कि हमला चीन ने किया जबकि चीन का कहना था यह युद्ध भारत की फारवर्ड पालिसी का परिणाम था जिसके अन्तर्गत सीमा क्षेत्रों में चीनी भूमि पर चौकियाँ बनायी जा रही थीं। इस युद्ध में भारत के 1383 सैनिक शहीद हुए,3968 बंदी बना लिए गए और 1696 लापता हो गए। चीन के लगभग 700 सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक घायल हुए। अक्साई चिन के क्षेत्र पर चीन का नियंत्रण हो गया। लगभग पूरे अरूणाचल प्रदेश पर चीन ने कब्जा कर लिया था। हालाँकि युद्ध विराम के बाद वे वहाँ से पीछे हट गए। भारत को अग्रगामी नीति या फारवर्ड पालिसी का परित्याग करना पड़ा। सेनाध्यक्ष जनरल पी. एन. थापर ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए त्यागपत्र दे दिया। पूर्वी कोर के कमाण्डर व इस युद्ध के रणनीतिकार तथा रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और प्रधानमंत्री नेहरू के विश्वासपात्र लेफ्टिनेण्ट जनरल बी. एम. कौल को स्थायी रूप से सेवानिवृत्त कर दिया गया। सेना की अधूरी तैयारियों को जिम्मेदार मानते हुए रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को उनके पद से हटा दिया गया। भारत की गुट निरपेक्षता की नीति असफल सिद्ध हो गयी।

चीन की एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा के बाद श्रीलंका की प्रधानमंत्री श्री मावो भण्डारनायके ने कोलम्बो में 10 दिसम्बर 1962 को 6 गुट निरपेक्ष देशों का एक सम्मेलन बुलाया। इसमें श्रीलंका,बर्मा,मिस्र,इण्डोनेशिया,घाना और कम्बोडिया ने भाग लिया। इस सम्मेलन एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया जिसे कोलम्बो प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। इस प्रस्ताव में निम्न प्रमुख बिन्दु रखे गए थे–
1. चीन पश्चिमी क्षेत्र से तुरन्त अपनी सैनिक चौकियाँ 20 किलोमीटर पीछे हटा ले।
2. भारत अपनी वर्तमान स्थिति कायम रखेगा।
3. विवाद का समाधान प्राप्त होने तक चीन द्वारा खाली किया गया क्षेत्र असैनिक क्षेत्र के रूप में रहेगा जिसकी दोनों पक्षों द्वारा निगरानी की जाएगी।
4. मध्य क्षेत्र में 8 सितम्बर 1962 वाली स्थिति बनाए रखी जाएगी और शांतिपूर्ण तरीके से समाधान के उपाय खोजे जाएंगे।
कोलम्बो प्रस्ताव को भारत ने स्वीकार कर लिया लेकिन चीन ने कुछ शर्तें रख दीं–
1. पश्चिमी क्षेत्र में चीन अपनी चौकियाँ कायम करेगा और भारत का उस क्षेत्र में कोई अधिकार नहीं होगा।
2. असैन्यीकृत क्षेत्र में भारत की उपस्थिति पूरी तरह से प्रतिबन्धित रहेगी
3. पूर्वी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों को मैकमोहन रेखा तक नहीं जाने दिया जाएगा।
चीन को शर्ताें को मानना भारत के लिए असम्भव था,अतः कोलम्बो प्रस्ताव असफल रहा। मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने कोलम्बो सम्मेलन को ही आगे बढ़ाते हुए एक और सम्मेलन आयोजित किए जाने का प्रस्ताव दिया परन्तु उनकी यह योजना कभी परवान नहीं चढ़ सकी।

अन्ततः विश्व में गुटनिरपेक्षता का झण्डा बुलंद करते हुए वैश्विक नेता बनने की नेहरू की चाहत अधूरी रह गयी। एहसानफरामोश चीन ने उनकी महत्वाकांक्षाओं को कुचल कर रख दिया था। मन में पराजय का दंश लिए,हताश नेहरू ने मई 1964 में इस संसार को अलविदा कह दिया।

लाल रेखाओं के बीच वे क्षेत्र हैं जिन पर चीन अपना दावा करता है
थागला रिज का वह क्षेत्र जहाँ विवाद की स्थिति उत्पन्न हुई

पहला भाग

नोट– फोटो इण्टरनेट पर उपलब्ध विभिन्न वेबसाइटों से लिए गए हैं।

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