Friday, August 23, 2019

रूद्रनाथ से वापसी

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26 मई
रात में वास्तविक ठण्ड की बजाय ठण्ड का डर अधिक था। मैं दो रजाई ओढ़ कर सोया था लेकिन सोने के एक घण्टे बाद ही मुझे एक रजाई हटानी पड़ी। क्योंकि शरीर पर कपड़े काफी थे और कमरा भी गर्म हो गया था। थकान की वजह से भी कुछ अधिक ठण्ड महसूस हो रही थी। संभवतः थकान की वजह से ही,नींद भी ठीक से नहीं आ रही थी। मेरी बगल में सोये दो लड़के भी इस समस्या से परेशान थे। एक लड़का तो रात भर उठता–बैठता रहा और मुझे भी डिस्टर्ब करता रहा। इस सबके बावजूद भोर में 4.15 पर ही वह उठ गया और मुझे भी जगा दिया।
उन दोनों को जल्दी वापस लौटना था क्योंकि उन्होंने रूद्रनाथ ट्रेक पूरा कर लिया था। इसके अलावा उन्हें सगर के रास्ते ही लौटना था क्याेंकि अब यह रास्ता उनके लिए जाना–पहचाना हो गया था। मेरे पास कोई जल्दी नहीं थी। मुझे अभी मंदिर में दर्शन करना था और उसके बाद मण्डल के रास्ते उतरना था। तो बिना पूरा दिन निकले,अभी मैं हिलने वाला नहीं था। फिर भी नींद तो उचट ही चुकी थी। तो आधे घण्टे के अन्दर मैं भी उठ गया। किचेन के सामने की खाली जगह में खड़े हो जाने पर हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां और बाबा रूद्रनाथ का मंदिर,दोनों ही साफ दिखायी पड़ रहे थे। कुछ देर तक मैं इस सपनों के स्वर्ग को निहारता रहा। इसके बाद चाय पी और नित्यकर्म से निवृत्त होकर मंदिर की ओर चल पड़ा। नहाने की न तो कोई आवश्यकता थी,न ही परिस्थितियाँ। इस समय सुबह के 5.30 बज रहे थे और नीले आसमान में आधा चाँद बेदाग चमक रहा था। मंदिर के गेट खुल चुके थे। पुजारी जी अपनी सुबह की गतिविधियों में व्यस्त थे।
रूद्रनाथ मंदिर लगभग 3500 मीटर या 11480 फीट की ऊँचाई पर अवस्थित है। वैसे कहीं–कहीं यह ऊँचाई 3600 मीटर भी बतायी जाती है। यह एक गुहा मंदिर है जहाँ शिव के मुख का पूजन नीलकण्ठ महादेव के नाम से किया जाता है। गुफा के प्रवेश द्वार के सामने एक छोटा सा कक्ष बना दिया गया है जहाँ पहले से ही नंदी की मूर्ति स्थापित है। गुफा के आंतरिक भाग में शिव का मुखाकृति लिंग स्थापित है जिस पर गुफा की दीवारों से जल की बूँदें टपकती रहती हैं। यहाँ शिव का स्वरूप अपने रौद्ररूप में है जिसे वस्त्र द्वारा ढँक कर रखा जाता है। इसमें चाँदी की दो आँखें लगी हुई हैं तथा बाल व मूँछें भी बनायी गयी हैं। सिर पर चाँदी का छत्र लगाया गया है। शीतकाल में कपाट बन्द होने पर शिव के विग्रह को गोपेश्वर के गोपीनाथ मंदिर में ले जाया जाता है। रूद्रनाथ मंदिर ऐसे भूभाग में अवस्थित है जो अलकनंदा और मंदाकिनी के प्रवाह क्षेत्र के बीच में पड़ता है। अर्थात् यह दाेनों नदियों का जल विभाजक क्षेत्र है। 
दर्शन करने के बाद मैं वापस दुकान की ओर आ गया। अब तक मण्डल वाले लड़के भी जग चुके थे। मैंने उनका प्लान पूछा और उन्हें भी अपना प्लान बताया। उनका यह निश्चित था कि मण्डल के रास्ते ही जाएंगे। मैंने उनका नंबर भी लिया कि अगर जंगल में कहीं रास्ता भटक जाऊँ तो मदद मिल सके। क्योंकि मण्डल के रास्ते जानेवाला और कोई नहीं दिख रहा था। अगर वो न होते तो मैं बिल्कुल अकेला होता और तब शायद मैं भी सगर के रास्ते ही उतर जाता।
उन लड़कों में अभी 1-2 घण्टे की देरी थी। 6 बज रहे थे। तो मैंने अपनी यात्रा शुरू कर दी। मन ही मन काफी डर भी रहा था। पंचगंगा तक दोनों का रास्ता एक ही है। उसके बाद सगर और मण्डल,दोनों के रास्ते अलग हो जाते हैं। पंचगंगा से थोड़ा सा आगे बढ़ने पर सगर का रास्ता अपनी सामान्य चाल से आगे बढ़ता जाता है जबकि मण्डल का रास्ता उससे अलग होकर पगडण्डियों के सहारे तेजी से दाहिनी तरफ दिखायी देती धार पर चढ़ जाता है। पंचगंगा वाले पड़ाव पर मैंने मण्डल का रास्ता पूछा और आगे बढ़कर दाहिनी तरफ मुड़ गया। सगर वाला रास्ता पूरी तरह स्पष्ट है और जंगल में या खुले में,कहीं भी धुँधला नहीं होता। लेकिन पंचगंगा के आगे से ज्योंही मैं मण्डल वाले रास्ते पर अलग हुआ,इसकी पगडण्डी धुँधली हो गयी। इतने तक तो गनीमत थी लेकिन जो भी पगडण्डी दिख रही थी,ऊपर की ओर उसे भी बर्फ ने पूरी तरह से ढक रखा था। बर्फ की परतों के नीचे से छोटी–छोटी जलधाराएं भी निकल रही थीं। इनसे बच–बचाकर निकलना काफी मुश्किल लग रहा था। मैं किसी तरह से ऊपर चढ़ता रहा। लेकिन धार की अंतिम ऊँचाई से कुछ पहले रास्ता पूरी तरह से विलुप्त हो गया। अब मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसी स्थान पर बैठ गया। पंचगंगा से ऊपर इस धार के शीर्ष तक थोड़ी ही चढ़ाई है लेकिन साँसे फूल गयीं। अब यहाँ से लौटकर नीचे जाने का मतलब था कि सगर के रास्ते ही जाना पड़ेगा। क्योंकि नीचे जाकर और रास्ता पूछकर फिर से इतनी चढ़ाई चढ़ने का तो कोई चांस नहीं था।

कुछ ही पलों में मुझे आशा की एक किरण दिखी। दो साधु वेशधारी व्यक्ति पंचगंगा से आगे बढ़कर,मेरी ही तरफ आते दिखे। मैं खुश हो उठा। शायद इन्हें भी मण्डल जाना हो। पास आने पर उनमें से एक को मैं पहचान गया। उनसे मैं कल शाम को मिल चुका था। इनके साथ जो लम्बे वाले साधु थे,वे इन महाराज के भी महाराज जी या गुरू जी थे। अर्थात ये दोनों गुरू–शिष्य थे। इन्हें मण्डल वाले रास्ते पर चलते हुए अनुसुइया माता मंदिर तक जाना था। मेरी बांछें खिल उठीं। मेरी समस्या का समाधान हो चुका था। मैं इनके साथ चल पड़ा। गुरूजी आगे–आगे,बीच में चेला और पीछे मैं। गुरू जी बर्फ से बचते हुए,बिना किसी रास्ते के,घासों में रास्ता बनाते हुए,हवा की तेजी से धार के ऊपर की ओर चढ़ने लगे। मेरी साँसें फूलने लगीं। चेले की साँसें तो उखड़ ही गयीं। एक दूसरे से बात करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। पहले साँसे रूकें तब तो बात हो। कुछ ही देर में गुरू जी धार के ऊपर चढ़कर बैठ गए। कुछ देर बाद चेला और चेले का चेला भी पहुँचे। यह धार पंचगंगा से 100 मीटर के आस–पास ऊपर है। इसे नौला पास भी कहा जाता है। पनार से लेकर यहाँ तक,रूद्रनाथ की ओर जाती पगडण्डी इसी कटक के साथ साथ चलती आती है। कुछ देर यहाँ आराम करने के बाद बीड़ियाँ सुलगाई गयीं। अभी बीड़ियों से धुआँ निकल ही रहा था कि नीचे एक घटना घटित हो गयी। रात में रूद्रनाथ में ठहरे दो अधेड़ उम्र के पति–पत्नी घोड़ों पर सवार होकर सगर के रास्ते नीचे उतर रहे थे। हम नौला पास पर बैठे उन्हें देख रहे थे। अचानक बर्फ पर बनी पगडण्डी पर घोड़े का पैर फिसल गया। घोड़े का सवार तो वहीं नीचे गिर गया लेकिन घोड़ा फिसलते हुए काफी नीचे जाकर गिरा। मेरी तो आत्मा ही काँप उठी। मैंने कान पकड़ लिये। भविष्य में कभी घोड़े की सवारी नहीं करूँगा।
अब नौला पास से नीचे की ओर तीखी उतराई थी। लगभग 90 या 80 डिग्री की। गुरू जी उतर पड़े। कई जगह बर्फ पड़ी थी। हिम्मत जवाब दे गयी। गुरू जी ने सलाह दी– "बर्फ पर मत चलो नहीं तो सीधा नीचे चले जाओगे। और उसके बाद सीधा ऊपर। घासों की जड़ों में पैर फँसाते चलते रहो। जहाँ अधिक परेशानी हो वहाँ घासों की जड़ों को हाथ से भी पकड़ सकते हो।"
गुरू जी निर्देश देकर आगे बढ़ते रहे। हम लोग सारी ताकत लगाकर भी चप्पल पहने गुरू जी का साथ पकड़ने में असमर्थ थे। गुरूजी से हमारी दूरी बढ़ती जा रही थी। फिर भी अब मैं अकेला नहीं था। चेला मेरे साथ था।
अब धीरे–धीरे चेले से बातें शुरू हुईं। परिचय हुआ। पता चला कि मेरे साथ जो शिष्य महोदय चल रहे थे,कर्नाटक के रहने वाले हैं। भरा–पूरा परिवार है। योग–साधना और ध्यान में रूचि है। पिछले एक सप्ताह से यहाँ आये हुए हैं और अनुसुइया माता मंदिर में ठहरे हुए हैं। कर्नाटक में अपना धन्धा भी करते हैं और लोगों को मेडिटेशन कराते हैं। यहाँ पर ध्यान करने लायक वातावरण बहुत अच्छा है। चारों तरफ घने जंगल हैं। नदी है। ठण्डा मौसम है। इनके अपने धन्धे में कुछ यूपी और बिहार के लड़के काम करते हैं जिनकी वजह से बहुत अच्छी हिन्दी बोलनी आ गयी। हिन्दी लिखना–पढ़ना नहीं आता। इनके जो गुरू महाराज हैं,वे स्थानीय व्यक्ति हैं और पहाड़ी रास्तों पर चलने के पूरी तरह अभ्यस्त। पैरों में हवाई चप्पल,हाथ में कमण्डल,दोनों कंधों पर दो झोले,सिर पर पगड़ी,एक–दो कंबल कंधे के दोनों तरफ लटके हुए। तेज ढाल के बावजूद ऐसे उड़े जा रहे हैं मानो हवाई घोड़े हों।

धार से नीचे उतरते हुए लगभग आधे घण्टे बीत चुके थे। बर्फ का साम्राज्य लगभग खत्म हो चुका था। पतली सी पगडण्डी तेज ढाल पर हमें नीचे की ओर ले जा रही थी। ऐसे ही रास्ते पर एक मोड़ पर हमें चार लड़के  बैठे मिले। पूरी तरह से थके हुए। चारों उत्तराखण्ड के ही रहने वाले। उनके पास न तो खाना था,न पानी। चारों जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। और इस संघर्ष की वजह यह थी कि वे पूरी तरह से हार मान चुके थे। ट्रेकर का यह लक्षण नहीं है। पता नहीं किसने उन्हें मण्डल के रास्ते रूद्रनाथ की ट्रेकिंग करने की सलाह दे दी थी। उत्तराखण्ड का निवासी होने के बावजूद भी उन्हें इस ट्रेक के बारे कोई जानकारी नहीं थी। और तो और ऐसे रास्ते पर उन्होंने अनुसुइया माता मंदिर से अपराह्न के 2.30 बजे चढ़ाई शुरू की थी। रात उन्होंने किसी बुग्याल में गुजारी थी। यह सुन हम तीनों अवाक रह गये। बिना पर्याप्त संसाधनों के,जंगल से ऊपर एक खुले बुग्याल में ठण्डी रात में,घुप्प अँधेरे में उन्होंने कैसे रात बितायी होगी,मैं तो सोच कर ही सिहर उठा। गुरू जी ने अपना कमण्डल खोला। थोड़ा सा पानी था। कमण्डल के मुँह पर एक छोटी सी कटोरी रखी थी जिसमें शक्कर थी। मैंने भी अपना बैग खोला। घर का लाया हुआ छप्पन भोग अभी पड़ा था। बाेतल में पानी भी था। सब कुछ दान कर दिया गया। वैसे इस अन्न और जल दान से बढ़कर उत्साह का दान था जो हम तीनों ने उन चारों के लिए किया। उन्हें रास्ता बताया। हिम्मत बढ़ाई। तब कहीं उनकी जान में जान आयी।
इतना बड़ा पुण्य का काम करने के बाद हम आगे बढ़े। मेरी और शिष्य की बातचीत भी आगे बढ़ी। अनुसूइया मंदिर में रहते हुए शिष्य ने रूद्रनाथ जाने की सोची और एक दिन गुरू जी शिष्य को साथ लेकर मण्डल वाले रास्ते से रूद्रनाथ की चढ़ाई चढ़ गये। यह घटना 24 तारीख को घटित हुई। इस दिन मैं बस में हरिद्वार से सगर की दूरी तय कर रहा था। इस दिन अधिकांश उत्तराखण्ड में बारिश हुई। रूद्रनाथ के ट्रेक पर भी हुई। अब जानने वाले जानते होंगे कि इतने खतरनाक ट्रेक पर बारिश में चढ़ाई चढ़ने का मतलब क्या होता हैǃ इसी बारिश में गुरू जी,शिष्य को रूद्रनाथ की ओर ले चले। गुरू जी ठहरे पूरी तरह से पहाड़ी। धड़धड़ाते हुए चढ़ गये। शिष्य कर्नाटक का। ऐसा ट्रेक सपने में भी नहीं देखा था। फेफड़े तक दर्द करने लगे। इसके अलावा अनुसुइया माता मंदिर से चढ़ाई शुरू करने के बाद पंचगंगा तक कुछ मिलने वाला भी नहीं है। कुछ दूर तक तो ठीक रहा। लेकिन जब बारिश शुरू हो गयी और शिष्य पूरी तरह भीग गया तो सारी भक्ति घुटनों पर आ गयी। भयानक ठण्ड लगने लगी। भूख भी लग गयी। थकान भी हो गयी। गुरू–शिष्य में कुछ गर्मागर्म बहस भी हो गयी। बाबा रूद्रनाथ को भी गालियाँ सुननी पड़ीं। बाद में किसी तरह से मामला ठण्डा हुआ। थोड़ी सी गलती यह हुई थी कि ट्रेकिंग शुरू करने में ही साढ़े नौ बज गये थे। जबकि उन्हें अधिकतम 6 बजे निकल जाना चाहिए था। दोपहर बाद ऊँचाई वाले इलाकों में बारिश होना आम बात है। फिर ऐसे ट्रेक पर पूछना ही क्याǃ किसी तरह पंचगंगा में रात बीती। अगली सुबह मंदिर पहुँचे। पूरा दिन और रात रूद्रनाथ में गुजरी। इसी दिन मैं भी रूद्रनाथ पहुँचा और इनसे शाम को मुलाकात हो गयी। और आज के दिन हम तीनों एक साथ नीचे उतर रहे थे।

और जब तक शिष्य ने अपनी पूरी राम कहानी मुझे सुनायी,गुरू महाराज हवा में उड़ते हुए एक–डेढ़ किमी दूरी पर स्थित,एक छोटे से निर्जन बुग्याल में पहुँच चुके थे। चूँकि हम लोग ऊपर थे,तो आसानी से उन्हें देख पा रहे थे। शिष्य ने आवाज लगा कर उन्हें रोका। महाराज जी बुग्याल में बैठ गये। दरअसल नौला पास से इस बुग्याल तक बहुत ही खतरनाक ढाल है। अब हम आँधी–तूफान की तरह भागते हुए और शार्ट–कट मारते हुए बुग्याल तक पहुँचे। मैंने गुरू जी से बुग्याल का नाम पूछा। उन्होंने बताया कि इसका कोई नाम नहीं है। इस बुग्याल के नीचे एक और बुग्याल दिख रहा था। गुरू जी ने बताया कि इसका नाम हंस बुग्याल है। गुरू जी ने तेजी से कदम बढ़ाये और हम फिर से पीछे छूट गये। वैसे हम दो थे तो डर नहीं रह गया था। शिष्य को थोड़ी–बहुत जंगल की चिंता थी जो आगे आने वाला था। मौसम बिल्कुल साफ था। दिन के 11 बजे हम हंस बुग्याल में थे। हंस बुग्याल में एक टूटी टिन शेड पड़ी हुई है। जो यह बताती है कि यहाँ भी कोई दुकान हुआ करती थी,जो अब आने–जाने वालों की कमी के कारण खत्म हो चुकी है। हाँ,पानी की लोकेशन बताती एक छोटी सी तख्ती अवश्य लगी है। लेकिन भ्रमवश हम यहाँ पानी नहीं खोज सके। हंस बुग्याल की ऊँचाई 3100 मीटर या 10170 फीट है। हंस बुग्याल के बाद जंगल शुरू हो गया। बहुत ही घना जंगल है। पेड़ों की सूखी पत्तियों ने पगडण्डी को इस तरह से ढक रखा है कि पता ही नहीं चलता कि कहाँ जंगल है और कहाँ रास्ता है। रास्ते पर लगभग बित्ते भर मोटी सूखी पत्तियों की परत जमी हुई है। आने–जाने वालों की संख्या इस ट्रेक पर इक्का–दुक्का ही होती है,तो पगडण्डी साफ नहीं हो पाती। पंचगंगा से चलने के बाद हर जगह पानी मिलना भी मुश्किल है। जिस अनाम बुग्याल की चर्चा मैंने की है,उसके नीचे एक जलधारा प्रवाहित हो रही थी लेकिन वहाँ उतरकर पानी लाना भी लड़ाई लड़ने से कम नहीं है। मेरी बोतल का पानी खत्म हो चुका था। प्यास लग आयी थी। कुछ देर में गला भी सूखने लगा। गनीमत यह थी कि हम उतराई पर थे। अगर चढ़ाई पर होते तो क्या होताǃ मैं उन चार लड़कों के बारे में सोच रहा था।
मेरे साथ चल रहा शिष्य,चूँकि कल इसी रास्ते से आया था,तो वह यह तो बता रहा था कि नीचे कुछ दूरी पर पानी है लेकिन कितनी दूरी पर है,यह बताना उसके बस के बात नहीं थी। प्यास उसे भी लगी थी। लेकिन यह तो बिना पानी वाला जंगल था। अत्यंत घना जंगल। तीखे ढाल पर नीचे उतरती,पत्तियों से ढकी,पतली सी पगडण्डी। आदमी अगर अकेला हो तो थोड़ी सी घबराहट तो हो ही जायेगी। कहीं जोर से पत्तियाँ खड़खड़ा जायें तो भालू की परछाईं भी दिख जायेगी। वैसे हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि हम दो थे। गुरू जी तो कहीं आगे निकल चुके थे।

अब शिष्य के घुटने जवाब दे रहे थे। वे रूकना चाह रहे थे। मुझे प्यास लगी थी। मैं पानी मिलने तक चलना चाह रहा था। अकेले रहना कोई नहीं चाह रहा था। मजबूरन शिष्य मेरे साथ चलता रहा। हंस बुग्याल के काफी नीचे,देर तक घने जंगल में तीखी उतराई उतरने के बाद कुछ सीधा रास्ता मिला। और इसके साथ ही एक मामूली सी जलधारा भी मिली। पानी बिल्कुल रेंगते हुए प्रवाहित हो रहा था। इस वजह से बोतल में पानी भरना काफी मुश्किल था। ऐसे में दिमाग ने काम किया। मेरे हाथ में जो छड़ी थी वह छड़ी न होकर वायरिंग वाली पाइप थी। पहाड़ पर रेंगते पानी को धार में बदलने के लिए ऐसी पाइप काफी उपयुक्त होती है। तो हमने इस पाइप को भी पत्थरों के बीच घुसा दिया और थोड़ी ही देर में बिल्कुल साफ पानी पाइप से होकर नीचे गिरने लगा। यहाँ थोड़ी देर रूक कर हमने छक कर पानी पिया,बोतल में भरा और तब आगे चले। इसी समय पीछे से आते हुए मुझे मण्डल वाले तीन लड़के भी मिले।
काफी देर तक घने जंगल मे चलने के बाद कुछ खुली जगह मिली। जंगल से जान छूटी। सामने काण्डई बुग्याल दिख रहा था। 2 बज रहे थे। काण्डई बुग्याल की ऊँचाई 2350 मीटर या 7700 फीट है। काण्डई बुग्याल से नीचे 3 किमी की दूरी पर अनुसुइया मंदिर है जबकि ऊपर 7 किमी की दूरी पर पंचगंगा है। एक झोपड़ी व एक टिन शेड दिखायी पड़ रही थी। लेकिन यहाँ रहने वाला कोई न था। फिर भी कुछ देर रूक कर हमने टिन शेड के नीचे आराम किया और उसके बाद फिर से नीचे चल पड़े।




रूद्रनाथ में मेरा आशियाना

दूर से दिखता रूद्रनाथ
ढलान पर बुरांश के जंगल







घोड़ा फिसल कर नीचे चला गया


बिना दाढ़ी वाले गुरू के साथ दाढ़ी वाला चेला





हंस बुग्याल
काण्डई बुग्याल

अगला भाग ः काण्डई बुग्याल से नीचे

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. रूद्रनाथ के द्वार पर
2. सगर से पनार बुग्याल
3. पनार बुग्याल से रूद्रनाथ
4. रूद्रनाथ से वापसी
5. काण्डई बुग्याल से नीचे

6. कल्पेश्वर–पंचम केदार

2 comments:

  1. बहुत रोमांचक यात्रा चल रही ह्

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    1. इस यात्रा के बारे जितना भी कुछ बताया जा सकता है उससे कहीं अधिक रोमांचक है। धन्यवाद।

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