Friday, August 9, 2019

सगर से पनार बुग्याल

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तारीख 25 मई। सुबह के लगभग 5.30 बजे मैं रूद्रनाथ के ट्रेक पर चल पड़ता हूँ। ट्रेक की ऊँचाई धीरे–धीरे बढ़ रही है। बहुत तेज गति से चलकर एकाएक शरीर को थका डालने में बुद्धिमानी नहीं है। मैदानी इलाके तो सूरज की तपन से जल रहे हैं। लेकिन यहाँ का मौसम खुशगवार है। नीचे की घाटियों में बसे गाँव के छ्तिराये हुए घर बहुत ही सुंदर लग रहे हैं। सूरज अभी पहाड़ों की ओट में है। चोटियों के ऊपरी कोने पर थोड़ी–थोड़ी धूप अभी फैल रही है। कुछ ही ऊँचाई पर घने जंगल दिखायी पड़ रहे हैं। लगभग दो किलोमीटर की दूरी चलने के बाद जंगल का कोना शुरू हो गया है। मैं अपने झबरीले गाइड के साथ जंगल में प्रवेश कर रहा हूँ।
पहाड़ों पर जंगलों में ट्रेकिंग की बहुत सारी कहानियाँ मैंने पढ़ रखी हैं कि जंगलों में बहुत ही सावधान होकर चलना चाहिए नहीं तो भालू से सामना हो सकता है। लेकिन मेरे इस झबरीले गाइड के रहते किसी भी जंगली जानवर के पास फटकने की उम्मीद नहीं है। तो इस ओर से मैं निश्चिंत हूँ। मुझे जोर–जोर से पैर पटकने और चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं। रास्ते में पानी की दो–तीन छोटी धाराएं मिलती हैं जहाँ से बोतल में पानी भरा जा सकता है। पीठ पर लदा बैग जरूर कुछ भारी लग रहा है। होटल से निकलते वक्त मुझे सुबह की चाय भी नहीं मिल सकी थी और ट्रेक पर अपने मन के हिसाब से कुछ मिलने की उम्मीद भी नहीं है। हाँ बैग में घर से लाया हुआ जरूर कुछ पड़ा हुआ है। तो रास्ते में रूककर उसी से मैं अपना और अपने गाइड का मुँह मीठा करता हूँ।

डेढ़ घण्टे टहलने के बाद मैं पुंग बुग्याल में हूँ। रास्ते में मुझे कोई भी आदमी नाम का जीव नहीं दिखा था। सगर से पुंग बुग्याल की दूरी 4 किलोमीटर है। पुंग बुग्याल की समुद्रतल से ऊँचाई लगभग 2200 मीटर या 7200 फीट है। बहुत ही शानदार नजारा है। चारों तरफ से घने जंगलों से घिरा छोटा सा घास का मैदान दिखायी पड़ रहा है। पथरीले धरातल को हरी–हरी घासों ने ढक रखा है। एक कोने में काले प्लास्टिक से ढकी एक लम्बाकार झोपड़ी दिखायी पड़ रही है। मैं उसके दरवाजे तक पहुँच जाता हूँ। अन्दर तीन लोग दिखायी पड़ रहे हैं जो ट्रेकिंग के पूरे साजो–सामान से लैस हैं और कपड़े वगैरह पहनकर बाहर निकलने की तैयारी में हैं। मुझे देखकर वे दूसरी तरफ इशारा करते हैं तो मैं उधर मुड़ जाता हूँ। उधर एक छोटी सी झोपड़ी है जिसकी तरफ मेरा ध्यान पहले नहीं गया था। इसमें इन दोनों झोपड़ियों का मालिक आटा गूँथ रहा है। वही इस पुंग बुग्याल का इकलौता निवासी है। मैं उससे दूध की चाय बनाने को कहता हूँ और उससे पहले एक पैकेट बिस्किट लेता हूँ जिसे मैं और मेरा गाइड मिलकर खाते हैं। और बिस्किट मतलब वही ʺस्वाद भरे–शक्ति भरेʺ बिस्किट यानी पारले जी। मैं यहाँ रहने–खाने का रेट भी पूछता हूँ तो पता चलता है कि एक रात ठहरने और एक टाइम खाने का 250 रूपये। चाय का बीस रूपये अलग से। इस बीच वो तीनों बन्दे बाहर निकलते हैं और परिचयों का दौर चलता है। पता चलता है कि वे तीनों बंगाली हैं और कल की ही चढ़ाई शुरू कर चुके हैं। लेकिन कल अधिकांश उत्तराखण्ड में बारिश हुई थी। चढ़ाई के दौरान वे इस बारिश में भीग गये थे। इस वजह से उन्हें पुंग बुग्याल में रूकना पड़ा। मैं सोचता हूँ कि मेरी आगे की यात्रा में ये अच्छे साथी हो सकते हैं। आज इस समय तक मैं चार किमी चलकर पुंग बुग्याल आ पहुँचा हूँ लेकिन उनकी तैयारियों को देखकर लग रहा है कि अभी भी उन्हें निकलने में काफी समय लगेगा। मैं बिस्किट खाने और चाय पीने में व्यस्त हूँ और इस बीच एक घटना घटित हो जाती है। दो लड़के उसी समय नीचे से आते हैं और बिना रूके ऊपर चले जाते हैं और साथ ही मेरे गाइड को भी बहला–फुसला कर साथ ले जाते हैं। मुझे इस बात का पता तब चलता है जब मैं ऊपर की ओर चलने के लिए आगे बढ़ता हूँ। गाइड से बिछड़ने का मुझे बहुत दुख होता है। एक अच्छा साथी बिछड़ गया। फिर भी चलना तो है ही। अब मैं इस ट्रेक पर बिल्कुल अकेला हूँ।

यहाँ से आगे चढ़ाई की तीव्रता कुछ बढ़ गयी है। पता चला है कि अगला पड़ाव 4 किलोमीटर की दूरी पर मूलीखरक है जहाँ रहने–खाने की व्यवस्था मिलेगी। वैसे यह मूलीखरक न होकर मौलीखरक है। मुझे रहना तो है नहीं,हाँ खाने की जरूरत अवश्य है। पुंग बुग्याल से मैं केवल चाय और बिस्किट खाकर चला हूँ। यही सोचकर कि नाश्ता मौलीखरक में होगा। रास्ते में दो खच्चर वाले मिलते हैं। वैसे वे किसी आदमी की बजाय सामान लेकर जा रहे हैं जिसे उन्हें ऊपर पहुँचाना है। पहले तो मैं उन्हें ओवरटेक करता हूँ लेकिन बाद में वे मुझे ओवरटेक कर जाते हैं।
घने जंगलों से गुजरते हुए मैं 10.30 बजे तक मौलीखरक पहुॅंच गया हूँ। दो बन्दे अन्दर बैठे हैं। खाने के बारे में पता करता हूँ। पराठा 30,मैगी 40। मैं तुरंत मैगी का आर्डर जारी कर देता हूँ और झोपड़ी के बाहर बैठ जाता हूँ। यहाँ भी ठहरने–खाने का रेट 250-300 ही है। वैसे इन पड़ावों पर ठहरने और खाने का रेट इस बात पर निर्भर करता है कि परिस्थिति कैसी है। अगर आपकी मजबूरी है तो रेट बढ़ जायेंगे और आपकी मजबूरी नहीं है तो रेट कम हो जायेंगे। इस बीच लगभग 6 लोगों का एक समूह नीचे उतरता हुआ दिखता है। पिछली रात उन्होंने यहीं गुजारी थी। उनके साथ इस पड़ाव का कुत्ता भी ऊपर गया था जो उनके साथ ही नीचे आ गया है। मैं उनसे ऊपर की चढ़ाई के बारे में जानकारी लेता हूँ। पता चलता है कि मामला काफी टेढ़ा है। वैसे भी मुझे मामले के बहुत सीधे होने की उम्मीद नहीं है। यहाँ लगभग आधे घण्टे समय बिताने के बाद मैं आगे चलता हूँ। यहीं पर मुझे तीन युवकों का एक और समूह मिलता जो ऊपर जा रहे हैं। इन तीनों के पास छोटे–छोटे कैमरे हैं जिनकी सहायता से ये पेड़ों पर चढ़कर और उछलकूद कर फोटोग्राफी कर रहे हैं। मैं बहुत हैरत में पड़ जाता हूँ कि ये कौन हैं जो इतनी ऊँचाई पर इतनी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। मैं उनका साथ पकड़ने की कोशिश करता हूँ लेकिन उनके कदम से कदम नहीं मिला पाता।

मौलीखरक की पुंग बुग्याल से दूरी 4 किलोमीटर तथा ऊँचाई 3000 मीटर या 9850 फीट है। पुंग बुग्याल से ऊपर ऊँचाई और दूरी का अनुपात काफी तेज महसूस हो रहा है। सगर से चलने के बाद पहले चार किमी की दूरी में 450 मीटर ऊँचाई बढ़ती है जबकि अगले चार किमी में 800 मीटर की ऊँचाई बढ़ जाती है। इसके अलावा एक और खास बात ये कि पुंग बुग्याल और मौलीखरक के बीच पानी मिलने की संभावना कहीं नहीं है। इसलिए पानी साथ लेकर चलने में ही भलाई है। मौलीखरक में ही पता चल गया कि अगला पड़ाव 2 किमी की दूरी पर ल्वीटी बुग्याल और उसके भी 2 किमी आगे अगला पड़ाव पनार बुग्याल है।
मौलीखरक ऐसी ऊँचाई पर स्थित है जहाँ से ऊपर प्रायः वृक्ष नहीं पाये जाते हैं। इसे ʺवृक्ष रेखाʺ या ʺट्री लाइनʺ भी कहते हैं। वैसे हिमालय के अलग–अलग भागों में आर्द्रता की उपलब्धता के अनुसार यह वृक्ष रेखा ऊपर–नीचे होती रहती है। इस रेखा के ऊपर घासें ही पायी जाती हैं। पहाड़ी ढलानों पर घासों से भरे ये मैदान सुंदर दृश्य उपस्थित करते हैं। उत्तराखण्ड में इन्हें बुग्याल और कश्मीर में मर्ग कहते हैं। जाड़ों में ये मैदान बर्फ से ढक जाते हैं जबकि गर्मियों में बर्फ पिघल जाने पर यहाँ घासें उग आती हैं और तब ये मैदान प्राकृतिक चरागाहों का काम करते हैं। तो अब मौलीखरक से आगे बढ़कर मैं घासों के मैदान में आ गया हूँ। वृक्षरहित पहाड़ केवल घासों से ढके हैं। वैसे इन घासों के बीच एक खास चीज दिखायी पड़ रही है और वो है– बुरांश के पेड़। ये बुरांश के पेड़ ट्रेक की शुरूआत से ही दिख रहे हैं लेकिन अब इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। इनके लाल–गुलाबी फूल काफी सुंदर लग रहे है। कुछ दूरी के बाद तो ये झुण्डों में दिखायी देने लगे हैं। पेड़ों के अभाव के कारण ऊपर से आती धूप काफी तेज लग रही है और मेरी चेहरे की खुली त्वचा को जला रही है। सन क्रीम मैं घर भूल आया हूँ। इस गलती की सजा मुझे मिलनी ही है।

मौलीखरक के बाद भी चढ़ाई जारी है। अगला पड़ाव ल्वीटी बुग्याल भी नजदीक ही है। तो इस बार बिना किसी विशेष परेशानी के मैं ल्वीटी बुग्याल पहुँच गया हूँ। चढ़ाई बहुत अधिक कठिन नहीं है। वो तीन युवक ल्वीटी बुग्याल के पड़ाव पर बैठकर कोल्ड ड्रिंक पी रहे हैं। इस पड़ाव का मैनेजर एक अकेला व्यक्ति है। मैं भी वृक्षरहित खुली धूप में चलने के कारण पसीने–पसीने हो रहा हूँ। प्यास लग गयी है। तो मैं भी कोल्ड ड्रिंक लेता हूँ। इस बीच वो युवक आगे बढ़ जाते हैं। कोल्ड ड्रिंक पीने के बाद मैं भी तेजी से आगे बढ़ता हूँ। मैं उन युवकों का साथ पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ जबकि वे बार–बार मुझसे आगे निकल जा रहे हैं। कितना भी जोर लगाने के बाद स्पीड नहीं बढ़ पा रही है।
ल्वीटी बुग्याल पिछले पड़ाव,मौलीखरक से 2 किमी की दूरी पर है। इसकी ऊँचाई 3200 मीटर या 10500 फीट है। इस जगह पर पेड़ों का सर्वथा अभाव है। सारी ढलानें घासों और बिखरे पत्थरों से ढकी हुई हैं। लेकिन बुरांश के पेड़ भी जगह–जगह अकेले या झुण्ड में फैले हुए हैं। यहाँ से जब मैं चढ़ाई शुरू करता हूँ तो ऊपर का दृश्य देखकर जल्दी ही समझ में आ जाता है कि एक धार या कटक को पार करना है। इतना ही नहीं,आगे भी इसी धार के साथ साथ चलते जाना है। नीचे से अब तक की चढ़ाई भी इसी धार पर चढ़ने के लिए हो रही थी। लेकिन अब इस धार के शीर्ष पर चढ़कर इसके उस पार निकल जाना है। इस धार की इस पार वाली ढलान पर ल्वीटी बुग्याल है जबकि उस पार वाली ढलान पर पनार बुग्याल है। पगडण्डी सँकरी हो गयी है। ऊपर देखने पर शीर्ष पर लटके पत्थर बड़े ही खतरनाक दिख रहे हैं। मोड़ छोटे होते जा रहे हैं अर्थात ऊपर की ओर चढ़ाई कुछ तेज लग रही है। ल्वीटी बुग्याल से पनार बुग्याल की दूरी भी केवल 2 किमी ही है। और जब मैं धार के ऊपरी शीर्ष को पार करता हूँ तो सामने तेज हवा के सहारे फहराता पीला झण्डा मेरे पनार बुग्याल पहुँचने का इशारा कर रहा है। धार को पार करने के बाद अब मेरे चलने की दिशा बिल्कुल उल्टी अर्थात यू टर्न जैसी हो गयी है।
1.15 बज रहे हैं। मैं धार को पार कर पनार बुग्याल में दाखिल होता हूँ तो मेरी अब तक की सारी थकान मानो छूमंतर हो जाती है। पनार की ऊँचाई मेरा मोबाइल 3400 मीटर या 11150 फीट बता रहा है। मौसम काफी कुछ साफ है। पनार में हरी घासें मखमल की तरह बिछी हुई हैं। दूर पहाड़ी ढलानों पर गहरे हरे रंग के देवदार के जंगल दिखाई पड़ रहे हैं और उनके भी पीछे बर्फ से लकदक सफेद चोटियाँ हिमालय की सर्वोच्चता का उद्घोष कर रही हैं। दो चोटियों के बीच की घाटियों में नदी की तरह ढुलकती बर्फ,जिसे भूगोल की भाषा में हिमनदी भी कहते हैं,बादलों संग आँख मिचौली कर रही है। मेरे पहले आये तीनों युवक पनार बुग्याल में बैठ कर खाना खा रहे हैं। मेरा भी उनसे परिचय होता है। ये तीनों स्थानीय ही हैं और मण्डल के रहने वाले हैं। आज ये सगर के रास्ते चढ़ाई कर रहे हैं और अगले दिन मण्डल के रास्ते नीचे उतरने का इनका प्लान है। मैं मन ही मन बहुत खुश होता हूँ क्योंकि मैं भी कल मण्डल के रास्ते ही नीचे उतरने की सोच रहा हूँ। रास्ते में इनका साथ मुझे मिलता रहेगा। अभी मैं खड़े होकर चारों तरफ नजरें दौड़ा ही रहा हूँ कि पूरब की ओर से एक और पगडण्डी पनार की ओर आती दिखती है। मैं इसके बारे में पूछताछ करता हूँ तो पता चला कि यह उरगम होते हुए कल्पेश्वर चली जाती है। मैंने इस ट्रेक के बारे में भी काफी खोजबीन कर रखी है। मैं इसी समय तय कर लेता हूँ कि इस रास्ते पर भी एक बार जरूर ट्रेकिंग करूँगा।

इस पड़ाव पर खाने में केवल चावल दाल ही है जिससे मेरी सात जन्मों की दुश्मनी है। तो मैं मैगी खाने की उद्घोषणा कर देता हूँ। मेरी मैगी बनती उसके पहले वे तीनों युवक आगे चल पड़ते हैं। इंतजार करना किसको अच्छा लगता है। वैसे अब तक मेरे अंदर का बचपन कुलांचे भरने लगा है। पहले तो मैं कैमरे से कुछ तस्वीरें खींचता हूँ और उसके बाद घास पर लोट जाता हूँ। पनार की गुनगुनी धूप जाड़े की धूप की तरह से शरीर को गुदागुदा रही है। हरी–हरी मखमली घास पर पेट के बल लेटकर,चारों तरफ हाथ पैर फैलाकर,बर्फ से ढकी चोटियों को निहारते हुए प्रकृति की गोद में भावशून्य होकर खो जाने में जाे अनुभूति होती है उसे शब्दों में नहीं उतारा जा सकता।
पनार की मैगी मौलीखरक की मैगी से कुछ सस्ती है। वहाँ यह 40 में मिली थी जबकि यहाँ 30 की ही है। मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूँ। ऐसा भी कहीं भला होता है क्याǃ जो ऊँचाई के साथ महँगाई में कमी आ जाये। अब महँगी हाेती तो सवाल–जवाब भी करता। सस्ती है तो क्या पूछा जाय। वैसे मैं जल्दी ही इस अंतर की वजह पकड़ लेता हूँ। पनार की मैगी में टमाटर नहीं था। यह तथ्य पनार से आगे की मेरी यात्रा में साबित भी हो जाता है। पनार की दुकान का संचालन तीन बंदे कर रहे हैं। इनमें से एक तो घास पर लेटा हुआ है जबकि दूसरा कुर्सियों पर जमा हुआ है। तीसरा बंदा चूल्हा सँभाल रहा है। मैगी खाने के बाद मैं आगे के रास्ते के बारे में पूछता हूँ। पता चलता है कि चार किमी के बाद अगला पड़ाव पित्रधार है जबकि उसके तीन किमी बाद दूसरा पड़ाव पंचगंगा है। पंचगंगा के तीन किमी के बाद अंतिम पड़ाव रूद्रनाथ है। इसका मतलब ये रहा कि मैं अभी तक 12 किमी चल चुका हूँ और अभी 10 किमी और चलना है। पनार की सुंदरता देखकर वहीं ठहर जाने का मन कर रहा है,थकान भी काफी लग रही है,लेकिन अभी केवल डेढ़ बज रहे हैं और समय बहुत है। यहाँ शाम तक और फिर रात भर रूककर समय बिताना कुछ जँच नहीं रहा। तो मैं अगले पड़ाव पित्रधार की ओर चल पड़ता हूँ।





ऊँचाई से दिखता पुंग बुग्याल
ल्वीटी बुग्याल के पास
बुरांश

ल्वीटी बुग्याल





पनार बुग्याल का झण्डा
पनार बुग्याल






अगला भाग ः पनार बुग्याल से रूद्रनाथ

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. रूद्रनाथ के द्वार पर
2. सगर से पनार बुग्याल
3. पनार बुग्याल से रूद्रनाथ
4. रूद्रनाथ से वापसी
5. काण्डई बुग्याल से नीचे
6. कल्पेश्वर–पंचम केदार

8 comments:

  1. यात्रा अच्छी जा रही है, पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकतर जगहों पर ऐसे बड़े बालों वाले पहाड़ी शेर साथ देने के लिए मिल ही जाते है !

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    1. बिल्कुल प्रदीप जी। ऐसी अकेली जगहों पर कई बार ऐसा अनुभव हो ही जाता है। वैसे इस तरह का अनुभव बहुत ही अच्छा लगता है। ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

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  2. बहुत ही सहज और सुन्दर विवरण।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी ब्लॉग पर आने के लिए।

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  3. बहुत सुंदर वर्णन किया है आपने, पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको, बहुत अच्छा लिखते हैं आप। बहुत धन्यवाद। आपके बारे में और ज्यादा जानने और पढ़ने की उत्सुकता रहेगी।

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    1. यह सब आप जैसे शुभचिन्तकों के उत्साहवर्धन का परिणाम है। मेरे बारे में जानने के लिए मेरी फेसबुक प्रोफाइल और पेज पर पर्याप्त सूचनाएं उपलब्ध हैं। बहुत बहुत आभार आपका ब्लाॅग पर आने के लिए। आगे भी आते रहिए।

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  4. बहुत सुंदर यात्रा व्रतांत , यसा लग रहा ह् की ह्म भी साथ ही चल रहे हो

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    1. बेहद धन्यवाद अशोक जी। पढ़ते रहिए और प्रोत्साहित करते रहिए।

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