Friday, February 22, 2019

नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना

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कल नलसरोवर की बस खोजते–खोजते पाटन और मोढेरा जाना पड़ा। तो आज मैं सतर्क था। कल रात वापस आकर खाना खाने और सोने में भले ही बहुत देर हो गयी लेकिन आज मैं सुबह बहुत जल्दी उठ गया। वजह यह थी कि नलसरोवर की पहली बस सुबह 7.15 पर ही थी और गुजरात में दिसम्बर के महीने में सुबह के साढ़े छः बजे के बाद ही अँधेरा छँट रहा था। तो पौने सात बजे मैं होटल से निकल कर गीता मंदिर बस स्टेशन की ओर चल पड़ा।
कल तो पैदल ही मार्च करते पहुँच गया लेकिन आज दस रूपये वाले ऑटो की सहायता ली। समय की बचत जो करनी थी। इस समय गुलाबी ठण्ड अपना असर दिखा रही थी। जिस दिन मैं अहमदाबाद पहुँचा था उस दिन मैंने बाइक किराये पर लेने के लिए काफी प्रयास किया और कल भी कई जगह फोन पर बात की लेकिन सफलता नहीं मिली। आज की ठण्ड देखकर यह लग रहा था कि अगर इतनी सुबह,इतने कम कपड़ों में,बाइक पर निकलता तो दाँत किटकिटाने लगते। अब चाय का रंग कितना भी गाढ़ा हो,इस गुलाबी ठण्ड के असर को दूर करना उसके बस की बात नहीं।
जैसी कि मैंने उम्मीद कर रखी थी,नलसरोवर का रास्ता प्रायः ग्रामीण इलाकों से ही होकर गुजरता है। तो अहमदाबाद से कुछ दूर निकल जाने के बाद सड़क बिल्कुल खाली–खाली मिलने लगी। सड़क किनारे के अधिकांश खेत भी खाली ही दिख रहे थे जिनमें धान की फसल की कटाई हो चुकी थी। कपास की फसल खड़ी थी और इक्का–दुक्का खेतों में कुछ दिन पहले ही गेहूँ बोया गया था। एक चीज जो मुझे नयी दिखी वो ये कि मेरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में,जहाँ सघन खेती की जाती है,गेहूँ को छ्टिवां बोया जाता है जबकि यहाँ पंक्तियों में बोया गया था। अब मिट्टी की उपज क्षमता गंगा के मैदानों जितनी तो होने से रही।
अहमदाबाद के बाद सानंद–मनकोल होते हुए मेरी बस 9.30 बजे तक नलसरोवर पहुँच गयी। अहमदाबाद से दूरी 65 किमी। एक छोटा सा चौराहा दिख रहा था जिसके आस–पास चार–छः छोटी–छोटी दुकानें दिख रही थीं। कुछ एक गुजराती किस्म की पकौड़ियां और जलेबी बिक रही थी जिनसे पेट की क्षुधा को कुछ देर के शांत किया जा सकता है। मैंने ऐसी ही एक दुकान पर खड़े–खड़े ही ठण्डी–ठण्डी जलेबियों का स्वाद लिया। अब गरमागरम जलेबियां वहीं मिल सकती हैं जहाँ नियमित ग्राहक उपलब्ध हों जो कि यहाँ संभव नहीं था क्योंकि नलसरोवर दूर–दराज में बसा एक छोटा सा गाँव है। वो तो नलसरोवर की बर्ड सैंक्चुअरी है जिसने इस जगह को अंतर्राष्ट्रीय नक्शे में स्थान प्रदान किया है। मैंने पूछताछ की तो पता चला कि आधे किमी की दूरी पर ही टिकट घर है जहाँ से टिकट लेकर सैंक्चुअरी के अंदर प्रवेश किया जा सकता है। वहाँ से दो–तीन किमी पैदल चलना पड़ सकता है। वैसे मन में काफी सवाल उठ रहे थे। नलसरोवर पक्षी अभयारण्य प्रवासी पक्षियों का घर है और यह वही समय चल रहा है जब प्रवासी पक्षी आते हैं। लेकिन पर्यटक तो दिखायी ही नहीं दे रहे थे। फिर भी आगे तो बढ़ना ही था। तो मैं बुकिंग ऑफिस की तरफ पैदल ही चल पड़ा। लेकिन अभी मैं रास्ते में ही था कि तभी एक खटारा सी मोटरसाइकिल पर सवार एक आदमी ने मेरा पीछा किया–
"साहब बाइक किराये पर लेंगे?"
"किसलिए?"
"मैं आपको वहाँ डैम पर घुमा दूँगा। वहाँ बहुत सारे पंक्षी हैं। यहाँ तो कुछ भी नहीं है।"
"क्या लोगे?"
"1050 रूपये लगते है वहाँ के।"
ऐसे जवाब पर मेरी प्रतिक्रिया वही हाेनी थी जो कि हमेशा होती है। मैं बिना रूके सीधे चलता रहा।
"साहब एक हजार रूपये दे दीजिएगा।"
मैंने डाँट कर उसे भगाया।
लेकिन अभी कुछ ही कदम गया होऊँगा कि एक और बाइक वाला पीछे पड़ गया। वही सारे पुराने चोंचले। सब कुछ के बाद अंत में एक वाक्य ये कि–
"आप कितना देंगे?"

मैं अनिर्णय की स्थिति में था। आखिर माजरा क्या हैǃ नलसरोवर तो लिखा हुआ यहीं दिख रहा है। ये सब बाइक से मुझे कहाँ ले जायेंगेǃ कहीं मुझे ले जाकर लूटेंगे तो नहीं। फिर भी मैं चलता रहा। कम से कम बुकिंग विण्डो तक तो चलना ही था। वहाँ पहुँचा तो घोड़े पर बैठे घुड़सवार दिख रहे थे। अजीब मामला है। एक छोटे से कमरे में बुकिंग विण्डो बनी हुई है। अंदर कोई नहीं था। मैंने बाहर वर्दी में बैठे व्यक्ति से पूछताछ की। संयोग से वही बुकिंग कर्मचारी था। उसने ठीक–ठीक जानकारी दी। दरअसल इस साल बारिश नहीं हुई है। इस वजह से ताल में बिल्कुल भी पानी नहीं है। पानी नहीं है तो पंक्षी भी नहीं हैं। और पंक्षी नहीं हैं तो पर्यटक निराश–हताश हैं। नहीं तो सीजन तो यही है। अब पर्यटक निराश हैं तो आमदनी भी नहीं है। कुछ पर्यटक घुड़सवारी करके अपनी हताशा कुछ कम कर ले रहे हैं। दूर–दूर से आयी गाड़ियां यहाँ की दशा देखकर वापस लौट रही थीं।
अब मैं न तो हताश होने वाला था न ही घुड़सवारी करने वाला था। मैं बुकिंग ऑफिस से थोड़ा सा आगे बढ़कर उधर चला गया जहाँ भीड़–भाड़ होने पर गाड़ियों की पार्किंग होती। घोड़े वाले भी उधर ही घुड़सवारी करा रहे थे। अभी मैं कुछ सोच पाता उससे पहले ही कुछ और बाइक वालों ने मुझे घेर लिया। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा,बेवकूफों की तरह से इधर–उधर देखता रहा। समय तेजी से निकला जा रहा था। मेरे पास इस गुजरात यात्रा में सीमित समय था। मैंने बातचीत और मोलभाव शुरू किया। पता चला कि ये बाइक वाले नलसरोवर में पानी न होने का फायदा उठा रहे हैं। नलसरोवर से लगभग 17-18 किमी की दूरी पर कोई स्थान है जहाँ कोई डैम है और डैम की वजह से वहाँ पानी है। पानी है तो नलसरोवर में आने वाले सैलानी पक्षी वहाँ चले गये हैं। प्रवासी पक्षियों को पानी से मतलब है। नलसरोवर न सही कहीं और सही। ये किसी भी जगह को नलसरोवर बना लेंगे। अब आप भी वहाँ जाना चाहते हैं तो इन बाइक वालों को भुगतिये।

अब मैंने बाइक किराये पर लेने का मूड बना लिया। मैंने 200 रूपये से शुरू कर 250 पर खूँटा गाड़ दिया। बाइक वाले एक–एक सीढ़ियां उतरने लगे। हजार से नीचे आठ सौ–सात सौ–छः सौ–चार सौ। लेकिन उससे नीचे कूदने को तैयार नहीं थे। मैं खूँटे से ऊपर चढ़ने को तैयार नहीं था। मेरी इस सारी हरकत को एक तीसरा आदमी भी देख रहा था। और वह थे–सलीम अली। वो विख्यात पक्षीविज्ञानी सलीम नहीं वरन ये सलीम अली पास के ही एक गाँव के रहने वाले हैं। नलसरोवर सैंक्चुअरी के पास पानी और कोल्ड ड्रिंक की बोतलें व बच्चों की टाफियां बेचते हैं। इनका यह सारा धंधा तीन पहियों वाली स्कूटी पर बैठकर चलता है क्योंकि ये पैर से विकलांग हैं। टॉयलेट के लिए जाते हैं तो स्कूटी पर सवार होकर ही जाते हैं। मैं भी कभी–कभी सलीम अली की ओर तिरछी निगाहों से देख ले रहा था। इधर तो मैं बाइक वालों से मोलभाव में उलझा हुआ था और उधर सलीम अली मुझे इशारों ही इशारों में मना कर रहे थे। आखिर जब मैं अपने खूँटे से ऊपर नहीं चढ़ा तो बाइक वाले हार मानकर लौट गये। उन्हें भी सलीम अली पर संदेह हो रहा था। संदेह तो मुझे भी सलीम अली पर हो रहा था। आखिर यह मुझे सौदा करने से मना क्यों कर रहा हैǃ बाइक वाले हटे तो सलीम अली ने मुझे फुसलाना शुरू किया। मुझे सारा माजरा समझ में आ गया। लेकिन मैं भी अपने खूँटे से टस से मस होने को तैयार नहीं था। मेरी बात पर जब सलीम अली मान गये तो मैं भी उनकी स्कूटी पर सवार हाे गया– एक नया अनुभव लेने के लिए। वैसे भी इस तरह की स्कूटी पर मैंने अब तक यात्रा नहीं की थी।
10 बजे मैं सलीम अली की स्कूटी पर सवार होकर "वडला" नाम के गाँव की ओर चल पड़ा। पहले तो नलसरोवर के मुख्य चौराहे की तरफ। नलसरोवर चौराहे पर दो मुख्य सड़कें एक दूसरे को आर–पार काटती हैं। पूरब की ओर से आने वाली सड़क अहमदाबाद की ओर से आती है और चौराहे को पार कर पश्चिम में नलसरोवर सैंक्चुअरी की ओर चली जाती है। दूसरी मुख्य सड़क दक्षिण में बगोदरा से आती है जो अहमदाबाद–राजकोट राजमार्ग पर स्थित है और उत्तर में वीरमगाँव की ओर चली जाती है। हम नलसरोवर चौराहे से वीरमगाँव की ओर जाने वाली सड़क पर चल पड़े। 12-13 किमी तक तो इसी सड़क पर चलते रहे। इसके बाद एक स्थान से इस मुख्य सड़क को छोड़कर बायीं तरफ गाँवों के बीच से होते हुए जाना था। सलीम अली की स्कूटी मुख्य मार्ग पर तो फर्राटे भरते हुए भागती जा रही थी लेकिन गाँवों के रास्ते पर हिचकोले खाने लगी। वैसे सलीम अली अच्छे–खासे ड्राइवर लग रहे थे। आराम से चलते जा रहे थे। सलीम अली के अनुसार हमें वडला गाँव जाना था। कच्चे–पक्के रास्ते पर चलते हुए लगभग 3-4 किमी की दूरी तय करने के बाद हम आखिर में वडला गाँव तक पहुँच ही गये। गाँव की गलियों को पार करने के बाद रास्ता बिल्कुल अकेले में उसी तरह चलने लगा जैसा कि किसी नदी के कछार वाले इलाके में चलता है। रास्ते पर भैंसों के झुण्ड कब्जा करके चल रहे थे। उनके गुजर जाने के बाद ही आगे बढ़ा जा सकता था। कुछ चारपहिया गाड़ियाँ भी भैंसों के झुण्ड से संघर्ष करती हुई दिख रही थीं।

अंत में वो दृश्य दिखा जिसके लिए मैं तमाम जतन करके यहाँ तक पहुँचा था। रास्ते के एक किनारे सलीम अली ने अपनी तिपहिया स्कूटी रोक दी और मैं नीचे उतरकर झील के किनारे चल पड़ा। रास्ते के दोनों ओर दूर–दूर तक झीलें फैली हुई थीं और पक्षियों के झुण्ड पानी में बिखरकर तमाम आकृतियां बना रहे थे और इस अलौकिक दृश्य को देखने वाला कोई न था। मैं यहाँ कुछ पक्षियों को देख लेने की चाह लेकर आया था लेकिन यहाँ तो मेरी झोली ही भर गयी थी। झीलों के जिन किनारों से पानी सूखकर हट गया था वहाँ पानी में घुला नमक जम गया था। एक झटके में पैर रखने पर लगता कि यहाँ कीचड़ होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। कुरकुरी नमकीन मिट्टी थी।
झील के किनारे तमाम पम्पिंग सेट चल रहे थे। गेहूँ और कपास की फसलों की सिंचाई चल रही थी। पम्पिंग सेटों के पास आदमी नहीं दिख रहे थे। यहाँ पहुँचे पक्षी भी संभवतः इन पम्पिंग सेटों के शोर के अभ्यस्त हो चुके थे और उड़ भागने की जल्दी में नहीं थे। मैं रूक–रूक कर प्रकृति की अनुपम कृति,इन पक्षियों को निहारता रहा और साथ ही यथासंभव कैमरे में भी कैद करता रहा। मेरे पक्षीविज्ञानी ड्राइवर सलीम अली मुझे इन पक्षियों के बारे में जानकारियां देते रहे– "ये ब्लैक डक है। ये काली होती है। ये सुर्खाब है। यह बहुत ही सुंदर पक्षी है। ये पेलिकन है। ये झुण्ड में जब आकाश में उड़ते हैं तो तीन रंगों की लाइन से आकाश सज जाता है।"

नलसरोवर एक लोलैण्ड या नीची भूमि है जहाँ बरसात और आस–पास के क्षेत्र के अपवाह का जल जमा हो जाता है। अगर बड़े पैमाने पर और सूक्ष्‍म दृष्टि से देखा जाय तो पता चलता है कि कच्छ की रन से लेकर खम्भात की खाड़ी तक,गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप और पूर्वी गुजरात के मैदानों के बीच इस तरह की झीलों की एक श्रृंखला पायी जाती है। यह सम्भवतः समुद्र का छाड़न वाला क्षेत्र है जो भूगर्भिक इतिहास में काठियावाड़ प्रायद्वीप को भारत की मुख्य भूमि से अलग करता था। कालान्तर में यह मिट्टी का भराव होते जाने से छोटी–छोटी झीलों के रूप में अवशेष रह गया है। वडला गाँव के पास जिस स्थान पर मैं पक्षियों को देख रहा था वह भी ऐसे ही लोलैण्ड का एक भाग है।
नलसरोवर को 1969 में पक्षी अभयारण्य के रूप में घोषित किया गया। इसका क्षेत्रफल 120 वर्ग किमी से भी अधिक है। इसके अन्तर्गत दलदली व जल–भराव वाले क्षेत्र सम्मिलित हैं। पानी कम होने पर झील में असंख्य टीले उपस्थित हो जाते हैं जो चारों ओर से पानी से घिरे द्वीपों का आभास देते हैं। जाड़े के दिनों में अधिक ठण्डे क्षेत्रों में निवास करने वाले पक्षी,प्रवास करके यहाँ अपना घरौंदा बना लेते हैं। फ्लेमिंगो,पेलिकन्स,सारस एवं बत्तखें यहाँ के सर्वाधिक दर्शनीय पक्षी होते हैं।

मैं आधे–अधूरे मन से कुछ देर तक सलीम अली का भाषण सुनता रहा जिसमें अधिकांश को बाद में भूल भी गया। दोनों तरफ की झीलों के बीच में बने रास्ते पर हम कुछ देर आगे–पीछे,इधर–उधर चलते रहे। मन तो नहीं भर रहा था लेकिन समय का अभाव होने के कारण हम वापस चले आये।
12.30 बजे तक मैं पुनः नलसरोवर चौराहे पर पहुँच चुका था। भूख जाेरों की लगी थी। लेकिन यहाँ थाली वाले खाने की गुंजाइश तो बिल्कुल भी नहीं थी। मैंने आस–पास की दुकानों पर नजर दौड़ाई तो पकौड़ियां ही सबसे उपयुक्त विकल्प दिख रही थीं। तो एक जगह आकार में गोल–गोल दिख रही पकौड़ियों का आर्डर दिया। 20 रूपये की 150 ग्राम। पता चला कि आलू–मेथी की पकौड़ियां हैं। मुझे किसी भी तरह से पेट भरने से मतलब था। सुबह जलेबियां भी इसी रेट पर मिली थीं। पेट को कुछ शान्ति मिली तो अब मैं अपने लक्ष्‍य लोथल के फेर में पड़ा। अहमदाबाद का एक पढ़ा–लिखा ड्राइवर,जो अपनी गाड़ी लेकर नलसरोवर आया था,काफी देर तक अपनी गाड़ी में मुझे अहमदाबाद की सैर कराने के लिए मेरे ऊपर डोर डालता रहा।

















अरण्ड की खेती
अगला भाग ः लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)

3 comments:

  1. bahut sundar lekhani... maza aa gaya sir ji

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    1. धन्यवाद जी। यह सब आपके ही उत्साहवर्धन का परिणाम है।

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