Friday, March 1, 2019

लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ

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नलसरोवर के चौराहे पर भटकते हुए पता चला कि लोथल जाने के लिए मुझे सबसे पहले बगोदरा जाना पड़ेगा और बगोदरा जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं थी। किसी ने कहा कि छकड़े जाते हैं। नलसरोवर आने के बाद मैं सुबह से ही छकड़ों को देख रहा था लेकिन अब समय था तो एक छकड़े के पास जाकर खड़ा हो गया। ऐसी जुगाड़ वाली गाड़ियों को देखा तो बहुत है लेकिन "छकड़ा" नाम पहली बार सुन रहा था। बुलेट या फिर राजदूत बाइक के इंजन को रूपान्तरित कर,भारत में बहुतायत से उपयोग में लायी जाने वाली "जुगाड़ तकनीक" के प्रयाेग से,सामान ढोने की गाड़ी के रूप में बदल दिया गया था। अब इस गाड़ी पर सामान ढोइये या आदमी– क्या फर्क पड़ता है।
इस छकड़े की तकनीक देखकर मैं अभिभूत हो उठा। अब बुलेट जैसे गाड़ी का इससे सफल उपयोग भला क्या हो सकता हैǃ नलसरोवर के आस–पास के ग्रामीण इलाकों में यातायात का सर्वसुलभ साधन यह छकड़े ही हैं। एक छकड़े को अपनी जगह से हिलते–डुलते देखकर मेरी उम्मीद जगी तो मैंने उससे बगोदरा जाने के बारे में पूछा। उसने 26 किमी की दूरी का ऐसा किराया बताया कि मेरा दिल बैठ गया। कहीं किसी गाँव तक जाना होता तो किराये की और बात थी लेकिन बुकिंग में छकड़ा भी कम कीमती नहीं। छकड़े पर यात्रा करने के मेरे अरमान चकनाचूर हो गये।
थोड़ी देर में पता चला कि सामने दिख रही मारूति ओम्नी जायेगी। मुझे कुछ आशा बँधी लेकिन बगोदरा जाने वाला मेरे अलावा कोई न था। इंतजार लम्बा होता जा रहा था और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वैसे मेरे छटपटाने से यहाँ कुछ भी असर होने वाला नहीं था। डेढ़ बजे के बाद ओम्नी का इंजन स्टार्ट हुआ और मेरी बगोदरा यात्रा शुरू हुई। सड़क इतनी अच्छी थी कि ओम्नी हवा से बातें करने लगी। रास्ते में गाड़ी खचाखच भर गयी। आधे घण्टे में ही 26 किमी के 30 रूपये चुकाकर मैं बगाेदरा पहुँचा। यहाँ फिर वही समस्या खड़ी हुई। लोथल के लिए कोई गाड़ी नहीं। एक व्यक्ति ने सलाह दी कि बस स्टैण्ड के पास वाले मोड़ पर चले जाइये। उधर कोई भी गाड़ी जायेगी,वह लोथल होकर ही जायेगी। वैसे यह सलाह गलत थी क्योंकि लोथल मुख्य मार्ग पर नहीं है वरन कुछ हटकर है। मैं वहाँ कुछ समय गँवाकर वापस चला आया। दूसरे व्यक्ति ने सलाह दी कि अपनी गाड़ी बुक करनी पड़ेगी। मारूति की बहुत सारी "ईको" गाड़ियाँ दिख रही थीं। लोथल तक के लिए उनका किराया था 500-600 रूपये। मेरी तो बुद्धि ही चकरा गयी। और एक बार तो मैंने यह भी तय कर लिया कि लोथल नहीं जाऊँगा। फिर भी उम्मीद अभी कायम थी। अब मैंने ऑटो वालों की खोज शुरू की। काफी मेहनत के बाद एक ऑटो वाला 250 रूपये में तैयार हुआ तो मेरी जान में जान आयी। वैसे तो मैं इस समय गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में यात्रा कर रहा था लेकिन सड़कें ऐसी बनी हुई हैं कि किसी भी स्पीड में गाड़ी चलायी जा सकती है। बगोदरा से लोथल के लिए ऑटो वाला चला तो 17 किमी के रास्ते में सड़क किनारे कोई भी बड़ा कस्बा या गाँव नहीं मिला। मिले तो केवल कपास या गेहूँ बोये हुए खेत या फिर वो खाली खेत जिनमें से धान की फसल की कटाई हो चुकी थी। पंक्तियों में बोये गये गेहूँ के खेत किसी सजायी गयी ज्यामितीय आकृति की भाँति सुंदर लग रहे थे।

मेरी ऑटो जब लोथल पहुँची तो वहाँ केवल चारपहिया गाड़ियाँ ही दिख रही थीं। तीनपहिये पर मैं ही आया था। सामने पार्किंग दिख रही थी जबकि बायीं तरफ लोथल का उत्खनित भाग। लोथल के उत्खनित भाग में जब मैं पहुँचा तो पार्किंग में दिख रही गाड़ियों की तुलना में इक्का–दुक्का लोग ही दिख रहे थे। गाड़ियों में आये हुए लोग कहाँ गये,ये शोध का विषय था। मेरे लिए यह अच्छा था। वैसे यह काफी छोटा सा क्षेत्र है। मैं आराम से उस जमाने के निर्माण को देखते हुए बिना किसी बाधा के फोटाे खींचता रहा। छोटी–छोटी इमारतों के खण्डहर कई हिस्से में फैले हुए हैं। ये भले ही अवशेषमात्र हों लेकिन अपने इतिहास की गवाही तो देते ही हैं। खण्डहरों से बाहर निकलकर मैं दाहिने भाग में बने म्यूजियम में पहुँचा। टिकट केवल पाँच रूपये। इस पाँच रूपये में लोथल के बारे में काफी कुछ जानकारी उपलब्ध कराती एक बुकलेट भी शामिल है। पार्किंग में दिख रही गाड़ियों की अधिकांश भीड़ इसी म्यूजियम पर कब्जा किये हुए थी। पुरातत्व विभाग के अन्य संग्रहालयों की तरह इस संग्रहालय में कैमरा पूरी तरह प्रतिबन्धित नहीं है। यहाँ मोबाइल कैमरे से अपनी मर्जी भर फोटो खींचे जा सकते हैं। यहाँ एक छोटे से संग्रहालय में लोथल के उत्खनन से प्राप्त अधिकांश वस्तुओं को संग्रहीत किया गया है।

लोथल अहमदाबाद जिले के धोलका तालुका के सरगवाला गाँव के 2 किमी उत्तर में पड़ता है। सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता की पहचान सर्वप्रथम एस.आर.राव ने 1954 में की थी। उन्हीं के नेतृत्व में 1955-62 के मध्य इसका उत्खनन कराया गया। क्रमानुसार सात बार किये गये उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर लोथल के इतिहास को दो समयावधियों में बाँटा जाता है। प्रथम 2400 ई.पू. से 1900 ई.पू. तक तथा दि्वतीय 1900 ई.पू. से बाद का समय। लोथल का अर्थ होता है– "मृतकों का टीला"। लोथल नगर की संरचना इस सभ्यता के अन्य नगरों हड़प्पा,मोहनजोदड़ों,कालीबंगा आदि की तरह से ही हुई थी। शहर योजनाबद्ध ढंग से बसाया गया था जिसकी सड़कें समकोण पर मिलती थीं। जालक पद्धति पर विभिन्न खण्डों में बसा यह शहर,इस दृष्टि से समकालीन मिस्र तथा मेसोपोटामिया के नगरों से भिन्नता रखता है। आवासीय और औद्योगिक क्षेत्रों से दूर शवाधान की व्यवस्था भी लोथल को अन्य समकालीन सभ्यताओं से अलग करती है।
400 मीटर की लम्बाई और 300 मीटर की चौड़ाई में बसी लोथल की बस्ती को बाढ़ से बचाने के लिए इसके पश्चिम की ओर कच्ची ईंटों का 13 मीटर चौड़ा बाँध बनाया गया था। लोथल के आवासीय क्षेत्र के दो मुख्य भाग थे– दुर्ग और निम्न नगरीय क्षेत्र। दक्षिण–पश्चिम में बना दुर्ग मिट्टी तथा कच्ची ईंटों से बने चबूतरे पर बनाया गया था। दुर्ग क्षेत्र में समाज के प्रमुख वर्ग के लोग रहते थे जिनके आवास 3 मीटर ऊँचे चबूतरे पर बने थे। यहाँ सभी प्रकार की नागरिक सुविधाएं जैसे पक्की ईंटों के स्नानागार,ढकी हुई नालियाँ और स्वच्छ जल के लिए कुएँ की व्यवस्था थी। नगर क्षेत्र के भी दो भाग थे– व्यापारिक क्षेत्र और आवासीय क्षेत्र। व्यापारिक क्षेत्र में कामगार लाेग रहते थे। उत्खनन में एक अन्नभण्डार के अवशेष भी मिले हैं। यह कच्ची ईंटों से बने एक 4 मीटर ऊँचे चबूतरे पर बना है। इसका आकार 49 X 40 मीटर है। यह 64 खण्डों में लकड़ी से बनी एक इमारत थी जो आग लगने से नष्ट हो गयी। इस भण्डार में मालवाहक जहाजों से उतरे सामान को सुरक्षित रखा जाता था। उत्खनन में ईंटों से बनी एक वेदी भी प्राप्त हुई जिसका प्रयोग संभवतः पूजा या पशुबलि हेतु किया जाता था।
उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में एक विशाल जलाशयनुमा थाला भी प्राप्त हुआ है। यह थाला नौवहन के लिए उपयोग में लायी जाने वाली गोदी के रूप में विख्यात है। इसका औसत आकार 214 X 36 मीटर है। इसे इस प्रकार से बनाया गया था कि वर्ष भर जल का जमाव बना रहे। हड़प्पा सभ्यता के नगरों और पश्चिमी एशिया की सभ्यताओं के बीच व्यापार सम्बन्ध होेने के प्रमाण भी मिलते हैं। रत्न,ताँबा,मनके,हाथी दाँत,सूती सामान आदि व्यापार की प्रमुख वस्तुएं थीं।
लोथल एक बंदरगाह होने के साथ साथ कपास और चावल उत्पादक क्षेत्रों के बीच अवस्थित था। इसके अलावा यह यहाँ मनका निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर होता था। लोथल के आवासीय क्षेत्र के पश्चिम की ओर एक नदी प्रवाहित होती थी जो इसे खम्भात की खाड़ी से जोड़ती थी। इस नदी में प्रायः आने वाली बाढ़ों ने 1900 ई.पू. तक इस नगर का विनाश कर दिया और अगले दो सौ वर्षाें में यहाँ के निवासियों ने इसे पूरी तरह से त्याग दिया।

म्यूजियम में प्रदर्शित अधिकांश वस्तुओं की मोबाइल कैमरे से फोटो खींचने के बाद मैं बाहर निकल पड़ा। क्योंकि ऑटो वाला मेरा इंतजार कर रहा था।
5.30 बजे मैं बगोदरा पहुँच गया। बगोदरा चूँकि हाइवे पर स्थित है अतः इस बात का डर नहीं था कि अहमदाबाद के लिए गाड़ी मिलेगी या नहीं। अभी तत्काल में कोई बस नहीं दिख रही थी तो मैं बस स्टैण्ड के सामने दिख रहे एक रेस्टोरेण्ट में घुसा। जब सामने दिख रही डिशेज में क्या रखा है,ये मेरी समझ में नहीं आया तो मैंने रेस्टोरेण्ट वाले से ही निवेदन किया कि भई मैं बाहर का आदमी हूँ और मुझे कोई गुजराती डिश खिलाओ जो ताजा बनी हो। उसने मुझे "फाफड़ा" के बारे में बताया। वैसे तो उसने काफी मात्रा में पहले से ही फाफड़ा तैयार कर रखा था लेकिन मेरे कहने की वजह से मुझे ताजा फाफड़ा बना कर खिलाया। तीस रूपये प्लेट का फाफड़ा मेरे खाने भर से अधिक हो गया। मैं पूरी प्लेट साफ नहीं कर सका। तभी मुझे बस स्टैण्ड में प्रवेश करती अहमदाबाद की बस दिखी और मैं भाग कर बस में सवार हो गया।
बिना अधिक देरी किये बस 6 बजे अहमदाबाद के लिए रवाना हो गयी। और सवा दो घण्टे में 66 किमी की दूरी तय करते हुए 8.15 बजे अहमदाबाद के केन्द्रीय बस स्टेशन पहुँच गयी।
















लोथल के संग्रहालय में तत्कालीन नगर की संरचना को प्रदर्शित करता एक मॉडल
संयुक्त शवाधान
अगला भाग ः विश्व विरासत शहर अहमदाबाद (पहला भाग)

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. एक्सप्रेस ऑफ साबरमती
2. रानी की वाव
3. मोढेरा का सूर्य मंदिर–समृद्ध अतीत की निशानी
4. नलसरोवर–परदेशियों का ठिकाना
5. लोथल–खण्डहर गवाह हैंǃ
6. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (पहला भाग)
7. विश्व विरासत शहर–अहमदाबाद (दूसरा भाग)

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